Wednesday, November 27, 2013

क्या सैफ़ की समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं...


फ़िरदौस ख़ान
पिछले हफ़्ते की बात है, हम अपनी एक रिश्तेदार के घर गए. सोचा बच्चों के लिए चॊकलेट ले चलें. उसकी गली में एक दुकान पर LAYS चिप्स के पैकेट देखकर हैरानी हुई.  हैरानी इस बात कि दुकानदार मुस्लिम हैं. सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहने, हमेशा सर पर टोपी पहनने वाले नमाज़ी बुज़ुर्ग. हमने उनसे पूछा कि क्या आप जानते हैं कि  LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है? वह हैरानी से हमें देखने लगे, जैसे हमने कोई अनोखी बात पूछ ली हो. दरअसल, उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. हमारे बताने पर वह कहने लगे कि वह अब कभी अपनी दुकान पर LAYS चिप्स नहीं रखेंगे, और ये पैकेट भी हटा देंगे. हमने उनसे कहा कि आप अपने साथी दुकानदारों को भी इस बारे में जानकारी दीजिएगा. और हां, जो बच्चे और बड़े LAYS चिप्स ख़रीदने आएं, उन्हें भी ये जानकारी ज़रूर दीजिएगा.

कुछ अरसा पहले जब Maggi और LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी पाए जाने पर हंगामा हुआ था और कुछ मुस्लिम देशों में Maggi और LAYS चिप्स जैसे उत्पादों पर रोक लगाई गई थी. तब भी हमने अपने फ़्लैट्स की इमारत में बनी दुकानें चलाने वालों को इस बारे में बताया था और उन्होंने  Maggi और LAYS चिप्स रखना बंद कर दिया था.

जिन पदार्थों पर  E100, E110, E120, E 140, E141, E153, E210, E213, E214, E216, E234, E252,E270, E280, E325, E326, E327, E334, E335, E336, E337, E422, E430, E431, E432, E433, E434, E435, E436, E440, E470, E471, E472, E473, E474, E475,E476, E477, E478, E481, E482, E483, E491, E492, E493, E494, E495, E542,E570, E572, E631, E635, E904 लिखा दिखे, तो समझ लीजिए कि इसमें सूअर की चर्बी है.

हमें यह देखकर हैरानी होती है कि छोटे नवाब यानी सैफ़ अली ख़ान LAYS चिप्स का विज्ञापन बड़ी शान से करते हैं. LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है.  इसके पैकेट पर इस बारे में संकेत भी दिया गया है, यानी  E631 लिखा गया है, जिसका मतलब है सूअर की चर्बी. इसके बावजूद सैफ़ अली ख़ान  LAYS चिप्स बेचते हैं.
हो सकता है कि उन्हें सूअर की चर्बी खाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती हो, लेकिन जो लोग इसे हराम समझते हैं, उनका ईमान क्यों ख़राब किया जाए?
जो इंसान, जो चीज़ नहीं खाता, उसे धोखे से वह चीज़ खिलाना ग़लत है, बिल्कुल ग़लत.

हिंदुस्तान में करोड़ों लोग ऐसे होंगे, जिन्हें यह मालूम नहीं होगा कि LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है, और बच्चे...?  बच्चे तो मासूम होते हैं, उन्हें क्या पता कि उनका हीरो सैफ़ अली ख़ान जिस LAYS चिप्स खाने के लिए उन्हें ललचा रहे है, उसमें सूअर की चर्बी है.

क्या सैफ़ अली ख़ान जैसे लोगों की समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? 

Thursday, November 21, 2013

मीडिया का स्याह चेहरा...

जिस मीडिया पर समाज को जागृत करने की ज़िम्मेदारी है, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता... उसका भी एक स्याह चेहरा है... वहां भी कई तरह का शोषण है... मीडिया कर्मियों को वक़्त पर तनख़्वाह देने के मामले भी अकसर सामने आते रहते हैं... महिलाओं के शोषण की ख़बरें भी आती हैं, लेकिन इन्हें दबा दिया जाता है...
दूसरी तरफ़ मीडिया में ऐसी ’महान’ लड़कियों की भी कमी नहीं है, जो सिर्फ़ ’टाइम पास’ और ’नाम’ के लिए ही दफ़्तर आती हैं, ताकि पास-पड़ौस और रिश्तेदारों को बता सकें कि फ़लां मीडिया हाऊस में काम करती हैं. ऐसी ’महान’ लड़कियों का दफ़्तर का काम दूसरी लड़कियों को करना पड़ता है. इन 'महान' लड़कियों को दफ़्तर से कई सुविधाएं मिलती हैं, छुट्टी करने पर तनख़्वाह नहीं कटती. इन्हें देर से आकर जल्दी जाने की छूट भी होती है. जब चाहें दस-बीस दिन के लिए अपने घर (दूसरे प्रदेश) जा सकती हैं. तनख़्वाह भी इन्हीं की ज़्यादा बढ़ती है. एक महिला ने हमें बताया कि काम का ज़्यादा बोझ होने से परेशान होकर जब उसने अपने सीनियर से शिकायत की, तो उसके सीनियर ने कहा- दफ़्तर में दस लोग काम करते हैं और दो लड़कियां काम न करने के लिए भी होती हैं.
इन ’महान’ लड़कियों की वजह से भी मीडिया का माहौल ख़राब हो रहा है. इनकी वजह से ही वाहियात लोग हर लड़की को इन्हीं ’महान’ लड़कियों की तरह ट्रीट करना चाहते हैं. ऐसे में अच्छे घरों की लड़कियों के लिए मुश्किलें पैदा हो रही हैं.

Wednesday, November 20, 2013

अछूत...


फ़िरदौस ख़ान
बात स्कूल के वक़्त की है. हमारी एक सहेली थी गीता. एक रोज़ वह हमारे घर आई. लेकिन बाहर दालान में ही खड़ी रही. हमने उसे अंदर कमरे में आने के लिए कहा, तो पूछने लगी- क्या सचमुच अंदर आ जाऊं ? हमें उसकी बात पर हैरानी हुई. हमने इसकी वजह पूछी, तो उसने बताया कि वह वाल्मीकि है, यानी अछूत है. उसके अंदर आने से कहीं हमारी दादी जान नाराज़ तो नहीं होंगी? हमने कहा- नहीं. वह अंदर आ गई. हमारे कहने पर कुर्सी पर बैठ भी गई, लेकिन बहुत सिमटी-सिमटी रही. हमें लग ही नहीं रहा था कि वह वही गीता है, जो स्कूल में हमारे साथ हर वक़्त चहकती रहती है. उसके जाने के बाद हमने अपनी दादी जान से पूछा कि अछूत कौन होते हैं?  उस वक़्त इतनी समझ नहीं थी. उन्होंने बताया कि जो लोग मैला ढोने के काम में लगे होते हैं, मोची का काम करते हैं उन्हें अछूत माना जाता है. उन्होंने ऐसे ही कुछ और काम भी गिनाए. बहुत अजीब लगा था उस वक़्त, क्योंकि जो लोग वह काम करते हैं, जिसे कुछ लोग बहुत-से पैसे लेकर भी नहीं करेंगे, वे इतने बुरे यानी अछूत कैसे हो सकते हैं? लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी दुनिया की बातें समझ में आने लगीं और पता चला कि पढ़े-लिखे लोग भी छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसे हुए हैं.

दुख की बात है कि भारत जैसे विकासशील देश में आज़ादी के तक़रीबन साढ़े छह दशक बाद भी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा जारी है. इस काम से जुड़े लोग अब आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक कारण उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहे हैं. दरअसल, देश में जाति प्रथा की वजह से भी मैला ढोने की प्रथा का अभी तक ख़ात्मा नहीं हो पाया है. यहां महिलाओं, पुरुषों और यहां तक कि बच्चों को भी सिर्फ़ इसी वजह से मैला ढोने का काम करना पड़ता है, क्योंकि उनका जन्म एक जाति विशेष में हुआ है. इसलिए इस तबक़े के लोग शुष्क शौचालयों से मैला साफ़ करके उसे किसी दूसरे स्थान पर फेंकने जैसा अमानवीय काम करने को मजबूर हैं. यह एक घृणित कार्य है. देश के विभिन्न हिस्सों में शुष्क शौचालयों की मौजूदगी मानव प्रतिष्ठा और सम्मान के हनन के साथ-साथ संविधान के तहत क़ानून और अनुच्छेद 14, 17, 21 और 23  का उल्लंघन है. साल 1993  में संसद ने सफ़ाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम- 1993 पारित किया, जिसमें यह कहा गया है कि हाथ से मैला साफ़ करने वालों को रोज़गार पर रखना और शुष्क शौचालयों का निर्माण करना एक क़ानूनी अपराध है, जिसके लिए एक साल तक की क़ैद की सज़ा और दो हज़ार रुपये के जुर्माने का प्रावधान है. इस क़ानून के तहत इस प्रथा को ख़त्म करने की बात कही गई. केंद्र सरकार ने इसके ख़ात्मे के लिए कई बार समय सीमाएं भी तय कीं. पहले समय सीमा 31 दिसंबर, 2007 थी, जिसे बाद में बढ़ाकर 31 मार्च, 2009 कर दिया गया. केंद्र सरकार द्वारा अप्रैल 2007 से लागू मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्वरोज़गार योजना ( एसआरएमएस) के तहत 735.60 करोड़ रुपये का प्रावधान करते हुए दावा किया गया था कि 31 मार्च, 2009  तक इस प्रथा को समाप्त कर सभी का पुनर्वास कर दिया जाएगा. ग़ौरतलब है कि उस वक़्त राज्यों ने भी खुले में शौच को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए अपनी समय सीमा दर्शाई थी. बिहार ने इसके लिए साल 2069 का लक्ष्य रखा है. इसी तरह असम ने 2044, झारखंड ने 2035, राजस्थान ने 2029, छत्तीसगढ़  ने 2022, मध्य प्रदेश ने 2021, गुजरात ने 2015, महाराष्ट्र ने 2014 और उत्तर प्रदेश ने 2013 का लक्ष्य तय किया था. कुछ साल पहले पश्चिम बंगाल ने मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने के लिए धनराशि लेने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि राज्य में मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो चुका है. हालांकि पश्चिम बंगाल को 7.23 करोड़ रुपये दिए गए थे, लेकिन इसके बावजूद अभी तक राज्य में मैला ढोने की प्रथा जारी है. सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस क़ानून को लागू करने में काफ़ी ढिलाई बरत रही हैं. क़ानून पास हुए तक़रीबन 20 साल हो चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद देश में मैला ढोने की अमानवीय प्रथा बेरोकटोक जारी है.

देश की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी स्वीकार किया है कि स्थानीय निकाय भी नियमित रूप से शुष्क शौचालय चलाते हैं और इन शौचालयों की हाथ से सफ़ाई के लिए जाति विशेष के लोगों को रोज़गार पर लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि मैला ढोने की प्रथा को सिर्फ़ स्वच्छता के नज़रिये से देखा जाता है, जबकि इसे मानव सम्मान के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का कहना है कि जब तक लोग जाति प्रथा की कुरीति से नाता नहीं तोड़ेंगे, तब तक मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति मिलना मुश्किल है, क्योंकि छुआछूत और जातिप्रथा की वजह से ही यह व्यवस्था क़ायम है. उन्होंने कहा कि ग़ुलामी की प्रथा में दास मुक्त हो जाता था, लेकिन जाति प्रथा की जकड़न से हम अब तक आज़ाद नहीं हो पाए हैं. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक ने कहा था कि यह काफ़ी दुखद है कि आज़ादी के छह दशक बाद भी एक वर्ग हाथों से मैला ढोने का काम करता है. सरकार मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने के लिए क़ानून बनाएगी और इस काम में लगे लोगों की नए सिरे से गिनती की जाएगी. ग़ौरतलब है कि इस प्रथा को रोकने के लिए एक विधेयक तैयार है, जिसे संसद में पारित करवाया जाना बाक़ी है. साल 2008 के संसद के शीतकालीन सत्र में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने लोकसभा में बताया था कि मैला उठाने की प्रथा को जड़ मूल से ख़त्म करने के लिए एक योजना बनाई गई है. उस वक़्त उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले लोगों के पुनर्वास और स्वरोज़गार की नई योजना को जनवरी 2007 में शुरू किया गया था. उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, इस योजना के तहत देश के 1 लाख 23 हज़ार मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना प्रस्तावित था. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ आज भी देश में 12 लाख 91 हज़ार 600 शुष्क शौचालय हैं. 

आज भी देश के ज़्यादातर गांव शौचालय और जल निकासी की समस्या से जूझ रहे हैं. विकास की रोशनी आज भी गांव की तंग गलियों तक नहीं पहुंच पाई है. इतिहास गवाह है कि सदियों पहले देश के गांव आज के भारत के मुक़ाबले कहीं बेहतर हालत में थे. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले शौचालय के अवशेष इस बात के सबूत हैं कि उस वक़्त जो सुविधाएं लोगों के पास थीं, उन्हें हम आज भी अपने गांवों के घरों तक नहीं पहुंचा पाए हैं. यह कैसा विकास है कि हम आज भी अपने देश के लाखों लोगों को सम्मान से जीना का हक़ नहीं दे पाए हैं.

तस्वीर गूगल से साभार 
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