Wednesday, October 21, 2015

भूत वाली फ़िल्मों की कहानी सच्ची होती...


काश ! भूत वाली फ़िल्मों की कहानी सच्ची होती...
भूत वाली डरावनी फ़िल्मों में अकसर दिखाया जाता है कि एक ताक़तवर ज़ालिम किसी कमज़ोर औरत पर ज़ुल्म करता है और उसका क़त्ल कर देता है... फिर वो औरत भूत बनकर उससे अपने क़त्ल का बदला लेती है...
आज कितने की लोगों पर ज़ुल्म किए जा रहे हैं, उन्हें ख़ुदकुशी के लिए मजबूर किया जा रहा है... उन्हें बेरहमी से क़त्ल किया जा रहा है... ज़ालिम मासूम बच्चों तक को नहीं बख़्श रहे हैं...
अगर डरावनी फ़िल्मों की तरह इन लोगों की रूहें भी ज़ालिमों से इंतक़ाम लेतीं, तो कितना अच्छा होता... कितने ही मज़लूम इंसाफ़ हासिल कर पाते और ज़ालिमों का भी सफ़ाया हो जाता...

Tuesday, October 20, 2015

मुहर्रम


मुहर्रम के दस दिनों तक हमारे घरों में बाज़ार जाकर ख़रीदारी नहीं करते और न ही कोई नया काम शुरू करते हैं... आठ तारीख़ को खीर पर कर्बला के शहीदों की नियाज़ दिलाई जाती है... इसी तरह नौ तारीख़ को बिरयानी और दस तारीख़ को हलीम पर नियाज़ होती है... दस तारीख़ की सुबह शर्बत पर भी नियाज़ दिलाई जाती है...
मुहर्रम को लेकर शिया और सुन्नियों की अपनी-अपनी अक़ीदत है... शिया इस दौरान मातक करते हैं, ताज़िये निकालते हैं... जबकि सुन्नी इसके ख़िलाफ़ हैं...
इस बारे में सबकी अपनी-अपनी दलीलें हैं, अपनी-अपनी अक़ीदत है...
अल्लामा इक़बाल साहब ने ग़म-ए-शब्बीर के बारे में कहा है-
कह दो ग़म-ए- हुसैन मनाने वालों को
मुसलमान कभी शोहदा का मातम नहीं करते
है इश्क़ अपनी जान से ज़्यादा आले-रसूल (सल्ल) से
यूं सरेआम उनका तमाशा नहीं करते
रोयें वो जो मुनकिर हैं शहादत-ए-हुसैन के
हम ज़िन्दा-ओ-जावेद का मातम नहीं करते...
मरहूम अली नक़ी साहब ने इसका जवाब कुछ इस तरह दिया है-
गिरया किया याक़ूब ने उनको भी तो टोको
यूसुफ़ तो अभी ज़िंदा हैं यूं ग़म नहीं करते
आदम ने तो हव्वा के लिए पीटा है सीना
समझाओ उन्हें ज़िन्दों का मातम नहीं करते
हमज़ा तो शहीदों के भी सरदार हैं लेकिन
करते ना मुहम्मद तो चलो हम नहीं करते
हक़ बात है बस बुग़्ज़-ए-अली का ये चक्कर
तुम इसलिए शब्बीर का मातम नहीं करते
अपना कोई मरता है तो रोते हो तड़प कर
पर सिब्ते-पयम्बर का कभी ग़म नहीं करते
हिम्मत है तो महशर में पयम्बर से ये कहना
हम ज़िन्दा-ओ-जावेद का मातम नहीं करते
बस एक रिवायत रही है रोज़-ए-अज़ल से
क़ातिल कभी मक़तूल का मातम नहीं करते...
कर्बला के शहीद हमारे अपने हैं... कौन उन्हें किस तरह याद करता है, ये उसकी अपनी अक़ीदत है... वैसे भी हर इंसान को अपनी अक़ीदत के साथ जीने का पूरा हक़ है. हम अपनी अक़ीदत के साथ जियें और दूसरों को उनकी अक़ीदत के साथ जीने दें...

Monday, October 12, 2015

क़ुदरत और इंसान


कु़दरत किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती... सूरज, चांद, सितारे, हवा, पानी, ज़मीन, आसमान, पेड़-पौधे मज़हब के नाम पर किसी के साथ किसी भी तरह का कोई भेदभाव नहीं करते... जब कायनात की हर शय सबको बराबर मानती है, तो फिर ये इंसान क्यों इतना नीचे गिर गया कि इसके गिरने की कोई हद ही न रही... इंसान को ख़ुदा ने अशरफ़ुल मख़लूक़ात बनाकर इस दुनिया में भेजा था... लेकिन इसने अपनी ग़र्ज़ के लिए इंसानों को मज़हबों में तक़सीम करके रख दिया... फिर ख़ुद को आला समझना शुरू कर दिया और दूसरों को कमतर मानने लगा... उनसे नफ़रत करने लगा, उनका ख़ून बहाने लगा...
ऐसे इंसानों से क्या जानवर कहीं बेहतर नहीं हैं, जो मज़हब के नाम पर किसी से नफ़रत नहीं करते, मज़हब के नाम पर किसी का ख़ून नहीं बहाते...
-फ़िरदौस ख़ान




हर तरफ़ वर्चस्व की लड़ाई है, चाहे सियासत हो या मज़हब... दहशतगर्दी की सबसे बड़ी वजह भी यही है कि दहशतगर्द दुनिया पर अपना वर्चस्व क़ायम करना चाहते हैं...
-फ़िरदौस ख़ान

Tuesday, October 6, 2015

मुसलमानों की बदहाली


फ़िरदौस खान
दुनिया में एक क़ौम ऐसी भी है, जिसके दुनियाभर में तक़रीबन 54 मुल्क हैं... इसके बावजूद क़ौम की हालत बद से बदतर होती जा रही है... हालत ये है कि कहीं उन्हें मस्जिदों में क़त्ल किया जा रहा है, तो कहीं उन्हीं के घर में घुसकर उन्हें मारा जा रहा है... न उनकी जान महफ़ूज़ और न ही कोई उनके माल का रखवाला है... वे बेबसी के आलम में अपना घर, अपना मुहल्ला, अपना शहर और अपना मुल्क छोड़कर ईसाई देशों में पनाह मांग रहे हैं... उनके रहमो-करम पर ज़िन्दा रहने के वसीले तलाश रहे हैं...
क्योंकि-
इस क़ौम के मानने वालों में इत्तेहाद नहीं है... इस क़ौम के फ़िरक़ापरस्त लोग ख़ुद को ’सच्चा’ और दूसरों को ’बुरा’ साबित करने में ही लगे रहते हैं... आपस में ही एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं... इनकी बदहाली की सबसे बड़ी वजह यही है... 

Thursday, October 1, 2015

नफ़रत


इस दुनिया में जितनी नफ़रत मज़हब के नाम पर देखने को मिलती है, उतनी कहीं और दिखाई नहीं देती... मज़हब का नाम आते ही इंसान के अंदर का वहशी दरिन्दा जाग उठता है... वह इसी फ़िराक में रहता है कि कब उसे बहाना मिले और वो दूसरे मज़हब वाले इंसान का ख़ून पिये... हिन्दुस्तान समेत दुनिया भर में आज यही सब तो हो रहा है...
बेशक, मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...
फिर मज़हब के नाम पर ये ख़ून-ख़राबा क्यों ?