Wednesday, June 22, 2016

’भर दो झोली मेरी या मुहम्मद, लौट कर मैं ना जाऊंगा ख़ाली’

अमजद साबरी साहब !
आप ख़ाली हाथ नहीं गए... अपने साथ बहुत सी दुआएं और मक़बूलियत लेकर गए हैं... आपकी क़व्वालियां हमेशा लोगों की ज़ुबान पर रहेंगी... आपकी मख़मली आवाज़ का जादू उन्हें कभी आपसे जुदा होने नहीं देगा...
आप मरे नहीं, बल्कि अमर हो गए और आपके वहशी क़ातिलों पर हमेशा लानत बरसती रहेगी...

Wednesday, June 15, 2016

कांग्रेस अपने संगठन को मज़बूत करे


फ़िरदौस ख़ान
सियासत  के लिहाज़ से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में महज़ कुछ ही महीने रह गए हैं. लेकिन अभी तक कांग्रेस अपने संगठन को मज़बूती से खड़ा तक नहीं कर पाई है.  कभी यहां कांग्रेस जन-जन की पार्टी हुआ करती थी. आज हालत यह है कि पार्टी का बूथ स्तर का संगठन भी उतना मज़बूत नहीं है, जितना होना चाहिए. कांग्रेस को अगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अच्छे नतीजे हासिल करने हैं, तो इसके लिए उसे बिना वक़्त गंवाये अपने संगठन को मज़बूत करना होगा.  उसे प्रदेश की बागडोर किसी युवा के हाथ में सौंपनी होगी. जतिन प्रसाद और आरपीएन सिंह भी यह ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा सकते हैं. ये दोनों ही पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के क़रीबी माने जाते हैं.

हालांकि उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनज़र कांग्रेस ने पार्टी की प्रदेश इकाई में बदलाव करना शुरू कर दिया है. हाल ही में पार्टी के प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री को हटाकर ग़ुलाम नबी आज़ाद को प्रभारी बनाया गया है. पार्टी अध्यक्ष निर्मल खत्री को भी बदले जाने के आसार हैं. विधानमंडल के नेता प्रदीप माथुर का बदला जाना भी तय माना जा रहा है.
कांग्रेस में बग़ावत भी थमने का नाम नहीं ले रही है. कांग्रेस के छह विधायकों ने उत्तर प्रदेश राज्यसभा चुनाव में क्रॊस वोटिंग की.  विधायक संजय प्रताप जायसवाल, माधुरी वर्मा, विजय दुबे, मोहम्मद मुसलिम, दिलनवाज़ और नवाब काज़िम अली ख़ान ने पार्टी उम्मीदवार कपिल सिब्बल के ख़िलाफ़ मतदान किया. बाद में राहुल गांधी के निर्देश पर इन सभी विधायकों को निष्कासित कर दिया गया. राहुल गांधी के इस कड़े रुख़ से संगठन को मज़बूती मिलेगी. इस तरह पार्टी के प्रति ईमानदार और आस्थावान नेताओं और कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश जाएगा.

उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर कांग्रेस काफ़ी सतर्क है. चुनावी रण में अपने उम्मीदवारों के नाम तय करने में भी पार्टी काफ़ी सूझबूझ से काम लेना चाहती है. प्रदेश के सभी ज़िलों से 25 तक पैनल भेजे जाने तय किए गए हैं. पार्टी के प्रदेशाध्क्ष निर्मल खत्री ने पत्र जारी कर चुनाव लड़ेने वाले मज़बूत दावेदारों का पैनल ज़िलाध्यक्षों से मांगा हुआ है. जुलाई के पहले हफ़्ते में ही पैनल में से एक नाम पर मुहर लगा दी जाएगी. फिर अगस्त के पहले हफ़्ते में उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त जारी करने तैयारी होगी. फ़िलहाल सिटिंग विधायक वाली सीटों पर  पैनल नहीं बनवाया गया है. छह विधायकों के क्रॊस वोटिंग करने से पार्टी  कशमकश में  है. कांग्रेस विधायकों की सत्यनिष्ठा  को परखने के बाद ही अब टिकट तय करेगी.

कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश की चुनावी नैया पार करना आसान नहीं है. पार्टी की मुश्किल यह है कि वह पिछले काफ़ी अरसे से उत्तर प्रदेश में कोई ख़ास करिश्मा नहीं दिखा पा रही है. पार्टी के पास नेताओं की एक बड़ी फ़ौज होने के बावजूद कोई ऐसा चेहरा नहीं है, पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर सके. कांग्रेस के मुक़ाबले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का संगठन ज़्यादा मज़बूत नज़र आता है. यहां कांग्रेस को ऐसे नेता की ज़रूरत है, जो सीधा जनमानस और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से संवाद क़ायम कर सके. यहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पहले से ही तय है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि उनका मुख्यमंत्री पर का उम्मीदवार कौन होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, इसमें कोई शक नहीं है. बहुजन समाज पार्टी में मायावती के अलावा कोई और इस पद का उम्मीदवार नहीं है. भारतीय जनता पार्टी में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह हैं, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य को भी मौक़ा मिल सकता हैं. वह पार्टी के पिछड़े वर्ग का चेहरा हैं. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग का एक बड़ा वोट बैंक है. पहले कांग्रेस, फिर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पिछ्ड़े वर्ग के समर्थन की वजह से ही सत्ता तक पहुंच पाई हैं. इनके अलावा भाजपा की तरफ़ से मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी और सांसद योगी आदित्यनाथ के नाम भी लिए जा सकते है. मगर कांग्रेस की तरफ़ से अभी कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आया, जिसे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जा सके. क़ाबिले-ग़ौर है कि कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस में नारायण दत्त तिवारी के बाद कोई मुख्यमंत्री नहीं बन पाया. वह 1988-1989 तक मुख्यमंत्री रहे.

पिछले दिनों देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह क्षेत्रीय दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, उसे देखते हुए राष्ट्रीय दलों को यह बात समझ आ गई कि क्षेत्रीय दलों को हल्के में नहीं लिया जा सकता. देश में क्षेत्रीय दलों की महत्ता बढ़ी है. जनता भी अब क्षेत्रीय नेताओं को तरजीह देती है. बाहरी नेताओं के मुक़ाबले क्ष्रेत्रीय नेता अपने इलाक़े की समस्याओं को बेहतर समझते हैं. उन्हें मालूम होता है कि जनता क्या चाहती है. इसके अलावा अपने इलाक़े में उनकी हालत काफ़ी मज़बूत होती है. इलाक़े के कार्यकर्ताओं से भी उनका रिश्ता मज़बूत होता है.

अब कांग्रेस को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक़्त कई बातों को ज़ेहन में रखना होगा. उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तक करने होंगे. टिकट बंटवारे में भी एहतियात बरतनी होगी. विधानसभा स्तर के पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है. अगर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का मज़बूत उम्मीदवार चुन लिया और बूथ स्तर तक पार्टी संगठन को मज़बूत कर लिया, तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. राहुल गांधी को चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए, फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा.

Friday, June 10, 2016

देश इस वक़्त बहुत बुरे दौर से

फ़िरदौस ख़ान
देश इस वक़्त बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है. अवाम बेहाल है. उसे दोहरी मार पड़ रही है, एक क़ुदरत की मार और दूसरी सरकार की मार. सूखे के हालात बने हुए हैं. देश के बारह राज्यों में सूखे का क़हर बरपा है, जिनमें उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. सूखे की वजह से इन राज्यों के 33 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. लोग पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं. खेत सूख चुके हैं. नदियां सूखी पड़ी हैं. कुओं का पानी भी नदारद है, तालाब सूखे पड़े हैं, बावड़ियां भी सूखी हैं. नल भी सूने हैं. भूमिगत पानी भी बहुत नीचे चला गया है. किसानों की हालत तो और भी ज़्यादा बुरी है. किसान सूखे से हल्कान हैं. सूखे की वजह से उनकी खेतों में खड़ी फ़सलें सूख गई हैं. सूखे ने खेत तबाह कर दिए और किसानों को बर्बाद कर दिया. हालात इतने बदतर हो गए कि अन्नदाता किसान ख़ुद दाने-दाने को मोहताज हो गए. क़र्ज़ के बोझ तले दबे किसान अपने घरबार छोड़कर दूर-दराज के इलाक़ों में काम की तलाश में निकल रहे हैं. सूखे से बर्बाद हुए किसानों की ख़ुदकुशी करने की ख़बरें भी आ रही हैं.

इतना ही नहीं, रोज़-रोज़ लगातार आसमान छू रही महंगाई ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया है. पहली जून से फिर तेल कंपनियों ने पेट्रोल और डीज़ल के दाम में बढ़ोत्तरी कर दी, पेट्रोल के दामों में 2.58 रुपये और डीज़ल के क़ीमत में 2.26 रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है. इससे पहले 16 मई को पेट्रोल और डीज़ल के दामों में इज़ाफ़ा किया गया था. तेल व गैस विपणन कंपनियों ने बिना सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलेंडर के दाम में 21 रुपये की बढ़ोतरी की है. आईओसीएल के मुताबिक़ दिल्ली में बिना सब्सिडी वाला 14.2 किलो का रसोई गैस सिलेंडर अब 527.50 रुपये की जगह 548.50 रुपये का मिलेगा. एक महीने में रसोई गैस के दाम में लगातार दो बार में 39 रुपये का इज़ाफ़ा किया गया है. इससे पहले एक मई को इसकी क़ीमत 18 रुपये बढ़ाई गई थी.
कर योग्य सभी सेवाओं पर आधा फ़ीसद की दर से नया कृषि कल्याण उपकर (केकेसी) प्रभावी हो गया. इसके लागू होने से कुल सेवा कर बढ़कर 15 फ़ीसद हो गया है. इसकी वजह से रेस्त्रां में खाना खाना, मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल, हवाई और रेल यात्रा, बैंक ड्राफ़्ट, फ़ंड ट्रांसफ़र के लिए आईएमपीएस, एसएमएस अलर्ट, फ़िल्म देखना, माल ढुलाई, पंडाल, इवेंट, कैटरिंग, आईटी, स्पा-सैलून, होटल जैसी सेवाएं महंगी हो गईं. नई कार, घर, हेल्थ पॉलिसी ले रहे हैं या उसे रीन्यू करा रहे हैं, तो भी बढ़ा हुआ सेवा कर देना पड़ेगा. बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों के पास पैसा नहीं है. ऐसे में वे ख़रीददारी नहीं कर पा रहे हैं. बाज़ार में भी मंदी छाई है. दुकानदार दिन भर ग्राहकों की बाट जोहते रहते हैं. छोटे काम-धंधे करने वालों के काम ठप्प होकर रह गए हैं. बेरोज़गारी कम होने की बजाय बढ़ रही है.

जब देश की अवाम त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, ऐसे में केंद्र की भाजपा सरकार दो साल पूरे होने पर जश्न मनाते हुए अपनी कथित उपलब्धियां गिनवा रही है. करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. भाजपा अपने जश्न को लेकर कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अपने सहयोगी दल शिवसेना के निशाने पर भी है. शिवसेना का कहना है कि मोदी सरकार महंगाई पर लगाम लगाने, सीमा पार से आतंकवाद को रोकने और इस दौरान शुरू की गई योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है. शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में लिखे संपादकीय में शिवसेना ने प्रधानमंत्री पर अकसर विदेशी दौरे को लेकर निशाना साधते हुए कहा कि पहले उन्हें फ़ैसला करना होगा कि वह देश में रहते हैं या विदेश में. आम आदमी पार्टी का कहना है कि राजग के दो साल के शासनकाल में केवल ‘भ्रष्टाचार’ और ‘उपद्रव’ हुए. प्रधानमंत्री का कार्यालय महज़ ‘अंतरराष्ट्रीय ट्रैवल एजेंसी’ बनकर रह गया है. कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने भाजपा के दावों के ख़िलाफ़ 'प्रगति की थम गई रफ़्तार, दो साल देश का बुरा हाल' नाम की एक बुकलेट जारी की है. उनका कहना है कि सरकार नये रोज़गार देने और कृषि उत्पादन बढ़ाने में फ़ेल हो गई है. चिदंबरम ने कहा कि देश में मुद्रास्फ़ीति उफ़ान पर है और देश की आर्थिक हालत गंभीर है. ऐसे में सरकार का जश्न मनाना समझ से परे है.

आख़िर अवाम को किन चीज़ों की ज़रूरत होती है. देश में चैन अमन का माहौल हो, रहने को मकान हो, खाने को भोजन हो, पीने को पानी हो, रोज़गार हो.  अपना ख़ुद का काम-धंधा न हो, तो कोई नौकरी ही हो, ताकि ज़िन्दगी आराम से बसर हो सके. इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, सड़क, यातायात जैसी बुनियादी सुविधाएं जनता को चाहिए. पिछले दो साल में मज़हब और जाति के नाम पर समाज में वैमन्य बढ़ा है. देश का चैन-अमन प्रभावित हुआ है. इसका सीधा असर रोज़गार पर पड़ा है. दादरी के अख़्लाक हत्याकांड से मज़हबी कटुता बढ़ी, जबकि हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर चले आंदोलन की वजह से जातिगत वैमन्य बढ़ा. इसके अलावा बहुत से कारोबार भी ठप्प हो गए. राशन महंगा हुआ है. दालों की क़ीमत इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि ग़रीब और मध्य वर्ग की थाली में अब दाल नज़र नहीं आती. ईंधन और अन्य सुविधाएं भी बहुत महंगी हो चुकी हैं. हालत ये है कि अवाम का जीना दूभर होता जा रहा है.

तक़रीबन ढाई साल पहले जब भाजपा ने जनता को सब्ज़ बाग़ दिखाए थे, तब लोगों को लगता था कि देश में ऐसा शासन आएगा, जिसमें सब मालामाल होंगे, कहीं कोई कमी या अभाव नहीं होगा. मगर जब केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई और महंगाई ने अपना रंग दिखाना शुरू किया, तो लोगों को लगा कि इससे तो पहले ही वे सुख से थे. अच्छे दिन आने वाले नहीं, बल्कि जाने वाले थे. ऐसा नहीं है कि अच्छे दिन नहीं आए हैं, अच्छे दिन आए हैं, लेकिन मुट्ठी भर लोगों के लिए.  और इन लोगों का जश्न मनाता तो बनता ही है.

Friday, June 3, 2016

अपनी दुर्दशा के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है


-फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस जन-जन की पार्टी है. कांग्रेस का एक गौरवशाली इतिहास रहा है. कांग्रेस नेताओं की क़ुर्बानियों को यह देश कभी भुला नहीं पाएगा. कांग्रेस नेताओं ने अपने ख़ून से इस धरा को सींचा है. महात्मा गांधी को भला कौन नहीं जानता. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने इस देश को संवारा है. कांग्रेस इस देश की माटी में रची-बसी है. जनमानस में कांग्रेस की पैठ है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी कांग्रेस की कट्टर समर्थक रही है. इसके बावजूद कांग्रेस ने केंद्र और कई राज्यों की सत्ता गंवाई है. आख़िर क्या वजह है कि कांग्रेस पर मर मिटने वाले लाखों-करोड़ों समर्थकों के बावजूद कांग्रेस सत्ता में वापस नहीं लौट पा रही है?

हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले हाल में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का जनाधार बढ़ा है. बाक़ी राज्यों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया. आसाम में पिछ्ले लोकसभा चुनाव 29.6 फ़ीसद के मुक़ाबले कांग्रेस को 31.1 फ़ीसद मत मिले. इसी तरह तमिलनाडु में 4.3 के मुक़ाबले 6.6 फ़ीसद, पश्चिम बंगाल में 9.6 के मुक़ाबले 12.1 फ़ीसद और पुडुचेरी में 24.6 फ़ीसद के मुक़ाबले 30.6 फ़ीसद वोट मिले. भारतीय जनता पार्टी की बात करें, तो पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले उसका जनाधार घटा है. हालांकि इसके बावजूद भाजपा आसाम में सरकार बनाने में कामयाब रही है.

भारतीय जनता पार्टी जिसका अपना कोई इतिहास नहीं है, सिवाय इसके कि उसके मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कथित कार्यकर्ता ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई. आख़िर ऐसी कौन-सी बात है जो लोकप्रिय पार्टी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसे समझना बहुत आसान है. जो जनता किसी पार्टी को हुकूमत सौंपती है, वही जनता उससे हुकूमत छीन भी सकती है. कांग्रेस नेताओं को यह बात समझनी होगी.

देश की आज़ादी के बाद कांग्रेस सत्ता में आई और कुछ साल पहले तक कांग्रेस की ही हुकूमत रही है. हालांकि आपातकाल और ऒप्रेशन ब्लू स्टार और की वजह से कांग्रेस को नुक़सान भी हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसके लिए सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांगी और अवाम ने उन्हें माफ़ करके सत्ता सौंप दी. कांग्रेस ने फिर से लगातार दस साल तक हुकूमत की. इस दौरान कांग्रेस ने कुछ ऐसे काम किए, जिनसे विरोधियों को उसके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार का मौक़ा मिल गया. मसलन इलेक्ट्रोनिक मीटर, जो तेज़ चलते हैं और बिल ज़्यादा आता है. रसोई गैस के सिलेंडरों की संख्या सीमित कर देना. भाजपा ने इसका जमकर फ़ायदा उठाया. कांग्रेस नेता मामले को संभाल नहीं पाए. हालांकि कांग्रेस ने मनरेगा, आर्टीआई और खाद्य सुरक्षा जैसी अनेक ऐसी कल्याणकारी योजनाएं दीं, जिसका सीधा फ़ायदा आम जनता को हुआ. मगर कांग्रेस नेता चुनाव में इनका कोई फ़ायदा नहीं ले पाए. यह कांग्रेस की बहुत बड़ी कमी रही, जबकि भाजपा जनता से कभी पूरे न होने वाले लुभावने वादे करके सत्ता तक पहुंच गई.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सत्ता के मद में चूर कांग्रेस नेता पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता से दूर होते चले गए. कांग्रेस की अंदरूनी कलह,  आपसी खींचतान, कार्यकर्ताओं की बात को तरजीह न देना उसके लिए नुक़सानदेह साबित हुआ. हालत यह थी कि अगर कोई कार्यकर्ता पार्टी नेता से मिलना चाहे, तो उसे वक़्त नहीं दिया जाता था. कांग्रेस में सदस्यता अभियान के नाम पर भी सिर्फ़ ख़ानापूर्ति ही की गई. इसके दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत की. मुसलमानों और दलितों के प्रति संघ का नज़रिया चाहे, जो हो, लेकिन उसने भाजपा का जनाधार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया. संघ और भाजपा ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पार्टी से जोड़ा. अगर कोई सड़क चलता व्यक्ति भी भाजपा कार्यालय चला जाए, तो उससे इस तरह बात की जाती है कि वह ख़ुद को भाजपा का अंग समझने लगता है.

पिछले दिनों उत्तराखंड में ख़ूब तमाशा हुआ. हालत यह हो गई कि अब पश्चिम बंगाल के कांग्रेस विधायकों को अपनी वफ़ादारी का हल्फ़नामा देना पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के विधायको ने 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिखकर दस्तख़त किए हैं कि वे कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रति निष्ठा रखेंगे और पार्टी के ख़िलाफ़ की जाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे. हल्फ़नामे में यह भी कहा गया है कि वे पार्टी के ख़िलाफ़ कोई नकारात्मक बात नहीं कहेंगे. ऐसे किसी काम को करने की ज़रूरत लगने पर वे पहले ही अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. इसमें यह भी लिखा है कि वे पार्टी के दिशा-निर्देशों से बंधे हुए हैं. बताया जा रहा है कि विधायकों से दस्तख़त कराने का फ़ैसला चुनाव के बाद हुई एक बैठक में लिया गया था. बैठक में कांग्रेस की राज्य इकाई के अध्यक्ष अधीर चौधरी, निर्वाचित विधायकों और जिलाध्यक्षों ने भाग लिया था. इस बारे में चौधरी का कहना है कि यह कोई बॉंड नहीं है. हमने किसी पर कोई दबाव नहीं डाला है कि अगर वे शर्तों को नहीं मानेंगे, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी.  सभी ने पार्टी के प्रति वफ़ादारी दिखाने के लिए मर्ज़ी से दस्तख़त किए हैं. बहरहाल, कांग्रेस का यह क़दम उसके लिए फ़ायदेमंद साबित होगा, इसमें शक है.

वफ़ादारी काग़ज़ के टुकड़ों पर तय नहीं होती. यह तो दिल की बात है. कांग्रेस को अपने नेताओं, अपने सांसदों, अपने विधायकों, अपने कार्यकर्ताओं और अपने समर्थकों से ऐसा रिश्ता बनाना चाहिए, जिसे बड़े से बड़ा लालच तोड़ न पाए. इसके लिए कांग्रेस के नेताओं को ज़मीन पर उतरना पड़ेगा. सिर्फ़ सोनिया गांधी, राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के कुछ लोगों के बीच चले जाने से कुछ नहीं होने वाला. कांग्रेस के सभी नेताओं को ह्क़ीक़त का सामना करना चाहिए. उन्हें चाहिए कि वे कार्यकर्ताओं की बात सुनें, जो लोग पार्टी के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, जब तक उनकी बात नहीं सुनी जाएगी, उन्हें तरजीह नहीं दी जाएगी, तब तक कांग्रेस अपना खोया मुक़ाम नहीं पा सकती.