tag:blogger.com,1999:blog-5959202564013046292024-03-18T15:17:41.964+05:30मेरी डायरीमैं लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी हूं...फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.comBlogger265125tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-87517552787385024812023-01-31T10:37:00.000+05:302023-01-31T10:37:46.077+05:30शुगर का घरेलू इलाज...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirtdmxWQotvpzBskP6H0RFZfnufh9HSbILJBDmB5kRt990_7-Edol-SY8W12UHgHlvb5T_jSPjvIS2E6WPwBA0c9wTKGEveh68tEpyrknISsO1dooSEHF6g2hLRxlmhcR25AWI5P_pmvI/s1600/Jamun+Tree.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="194" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirtdmxWQotvpzBskP6H0RFZfnufh9HSbILJBDmB5kRt990_7-Edol-SY8W12UHgHlvb5T_jSPjvIS2E6WPwBA0c9wTKGEveh68tEpyrknISsO1dooSEHF6g2hLRxlmhcR25AWI5P_pmvI/s1600/Jamun+Tree.jpg" width="320" /></a></div>
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<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
शुगर एक ऐसा मर्ज़ है, जिससे व्यक्ति की ज़िन्दगी बहुत बुरी तरह प्रभावित हो जाती है. वह अपनी पसंद की मिठाइयां, फल, आलू, अरबी और कई तरह की दूसरी चीज़ें नहीं खा पाता. इसके साथ ही उसे तरह-तरह की दवाएं भी खानी पड़ती हैं. दवा कोई भी नहीं खाना चाहता, जिसे मजबूरन खानी पड़ती हैं, इससे उसका ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है. इससे व्यक्ति और ज़्यादा परेशान हो जाता है. पिछले कई दिनों से हम शुगर के रूहानी और घरेलू इलाज के बारे में अध्ययन कर रहे हैं. हमने शुगर के कई मरीज़ों से बात की. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे, जो महंगे से महंगा इलाज कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. कई ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने घरेलू इलाज किया और बेहतर महसूस कर रहे हैं.शुगर के मरीज़ डॊक्टरों से दवा तो लेते ही हैं, लेकिन हम आपको ऐसे इलाज के बारे में बताएंगे, जिससे मरीज़ को दवा की ज़रूरत ही नहीं रहती.<br />
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<b>पहला इलाज है जामुन</b><br />
जी हां, जामुन शुगर का सबसे बेहतरीन इलाज है. अमूमन सभी पद्धतियों की शुगर की दवाएं जामुन से बनाई जाती हैं. बरसात के मौसम में जामुन ख़ूब आती हैं. इस मौसम में दरख़्त जामुन से लदे रहते हैं. जब तक मौसम रहे, शुगर के मरीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जामुन खाएं. साथ ही जामुन की गुठलियों को धोकर, सुखाकर रख लें, क्योंकि जब जामुन का मौसम न रहे, तब इन गुठलियों को पीसकर सुबह ख़ाली पेट एक छोटा चम्मच इसका चूर्ण फांक लें. जामुन की चार-पांच पत्तियां सुबह और शाम खाने से भी शुगर कंट्रोल में रहती है. जामुन के पत्ते सालभर आसानी से मिल जाते हैं. जिन लोगों के घरों के आसपास जामुन के पेड़ न हों, तो वे जामुन के पत्ते मंगा कर उन्हें धोकर सुखा लें. फिर इन्हें पीस लें और इस्तेमाल करें.<br />
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<b>दूसरा इलाज है नीम </b><br />
नीम की सात-आठ हरी मुलायम पत्तियां सुबह ख़ाली पेट चबाने से शुगर कंट्रोल में रहती है. ध्यान रहे कि नीम की पत्तियां खाने के दस-पंद्रह मिनट बाद नाश्ता ज़रूर कर लें. नीम की पत्तियां आसानी से मिल जाती हैं.<br />
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<b>तीसरा इलाज है अमरूद</b><br />रात में अमरूद के दो-तीन पत्तों को धोकर कूट लें. फिर कांच या चीनी मिट्टी के बर्तन में भिगोकर रख दें.ध्यान रहे कि बर्तन धातु का न हो. सुबह ख़ाली पेट इसे पीने से शुगर कंट्रोल में रहती है.<br />
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ये तीनों इलाज ऐसे हैं, जो आसानी से मुहैया हैं. शुगर का कोई भी मरीज़ इन्हें अपनाकर राहत पा सकता है. इन तीनों में से कोई भी इलाज करने के एक माह के बाद शुगर का टेस्ट करा लेने से मालूम हो जाएगा कि इससे कितना फ़ायदा हुआ है.<br />
इनके अलावा शुगर के और भी घरेलू इलाज हैं. उनके बारे में फिर लिखेंगे.</div>
फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-13947266417803734372022-12-07T16:26:00.004+05:302022-12-07T16:31:32.694+05:30भाजपा का विकल्प <div style="text-align: left;"><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2wMoF-2Jm7AEI5nwVuYUt4l9WyfrNGFduXVP1xWA61OjygLYGCuXD8FBZsgJTJSfC2gqmw9konwBzVoGj-J7IVPtKpR8OMUMc7s4Auukh9Gk9mXyCIXCOAdm9Sk52IjL0dWASbBFvw1rv4Qby6DT_4T-U83p2SmC1kkMwkUnqA5N-7Ke6uR8h06I8/s300/images%20(2).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" height="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2wMoF-2Jm7AEI5nwVuYUt4l9WyfrNGFduXVP1xWA61OjygLYGCuXD8FBZsgJTJSfC2gqmw9konwBzVoGj-J7IVPtKpR8OMUMc7s4Auukh9Gk9mXyCIXCOAdm9Sk52IjL0dWASbBFvw1rv4Qby6DT_4T-U83p2SmC1kkMwkUnqA5N-7Ke6uR8h06I8/s1600/images%20(2).jpg" width="300" /></a></div><br /><b>फ़िरदौस ख़ान</b></div><div>दिल्ली में नगर निगम चुनाव से पहले हमने बहुत से लोगों ख़ासकर मुस्लिम कांग्रेसियों से बात की थी. कांग्रेसी इसलिए कि कभी ये सब कांग्रेस के कट्टर समर्थक हुआ करते थे. कांग्रेस का जुलूस निकलता, तो ये लोग जुलूस पर गुलाब के फूल बरसाते थे. </div></div><div style="text-align: left;">अमूमन इनमें से सबने यही कहा था कि वे झाड़ू को वोट देंगे. वजह पूछने पर यही जवाब मिला कि केजरीवाल ने बहुत काम किया है.<br />क्या काम क्या है? इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था. <br />आज आम आदमी पार्टी के जीते हुए पार्षदों का जुलूस पूरे हर्षोल्लास से निकला, तो इन लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. हालत यह थी कि लोग एक-दूसरे को फ़ोन पर मुबारकबाद दे रहे थे. गलियों में बच्चे भी ख़ुशी से चीख़-चीख़कर कह रहे थे- "केजरीवाल जीत गया." <br />अब केजरीवाल को लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, क्योंकि <br />अवाम को भाजपा का विकल्प मिल गया है.<br /> कट्टर कांग्रेसी कैसे 'आप' समर्थक हो गए? क्या इस पर कांग्रेस ग़ौर करेगी? <br /></div><div style="text-align: left;">#आमआदमीपार्टी<br />#केजरीवाल </div><div style="text-align: left;">#कांग्रेस</div><div style="text-align: left;">#भाजपा <br />#दिल्लीनगरनिगम <br />#एमसीडी</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;"><b><span style="font-size: x-small;">तस्वीर गूगल से साभार </span></b></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-25564144102091278562022-10-22T11:12:00.003+05:302022-10-22T11:12:56.900+05:30 झाड़ू की सींकों का घर...<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0iAQ6Hg1f795kv8jxgyBxKVbob3E7z-uukvnsuqQb9nGJIdmrvgRwW0HRdUtEdbyhWKTq_9k96lmg3RsgaKMqJ7meVI2MgCWhcFqAgmihvAnHk8zJVa4BSVMBRXBAH8HL9LEiRVEqsoPYvpxFKdYbazs9ZdOTu4cjQfTHOWjBlrPhF_ymIIMvPTEw/s720/birds-nest-4045473_960_720.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="576" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0iAQ6Hg1f795kv8jxgyBxKVbob3E7z-uukvnsuqQb9nGJIdmrvgRwW0HRdUtEdbyhWKTq_9k96lmg3RsgaKMqJ7meVI2MgCWhcFqAgmihvAnHk8zJVa4BSVMBRXBAH8HL9LEiRVEqsoPYvpxFKdYbazs9ZdOTu4cjQfTHOWjBlrPhF_ymIIMvPTEw/s320/birds-nest-4045473_960_720.jpg" width="256" /></a></div><br />जी, हां ये बात बिल्कुल सच है. जो चीज़ हमारे लिए बेकार है, उससे किसी का आशियाना भी बन सकता है. <p></p><div>बहुत साल पहले की बात है. अक्टूबर का ही महीना था. हमने देखा कि कई कबूतर आंगन में सुखाने के लिए रखी झाड़ू की सींकें निकाल रहे हैं. हर कबूतर बड़ी मशक़्क़त से एक सींक खींचता और उड़ जाता. हमने सोचा कि देखें कि आख़िर ये कबूतर झाड़ू की सीकें लेकर कहां जा रहे हैं. हमने देखा कि एक कबूतर सामने के घर के छज्जे पर रखे एक कनस्तर में सींकें इकट्ठी कर रहा है और दो कबूतर दाईं तरफ़ के घर की दीवार में बने रौशनदान में एक घोंसला बना रहे हैं. कबूतरों के उड़ने के बाद हमने झाड़ू को खोल कर उसकी सींकें बिखेर दीं, ताकि वे आसानी से अपने नन्हे घर के लिए सींकें ले जा सकें. अब हमने इसे अपनी आदत में शुमार कर लिया. पुरानी छोटी झाड़ुओं को फेंकने की बजाय संभाल कर रख देते हैं. जब इस मौसम में कबूतर झाड़ू की सींके खींचने लगते हैं, तो हमें पता चल जाता है कि ये अपना घोंसला बनाने वाले हैं. गुज़श्ता दो दिनों में कबूतर हमारी दो झाड़ुओं की सींकें लेकर जा चुके हैं. <br />हम चमेली व दीगर पौधों की सूखी टहनियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके पानी के कूंडों के पास बिखेर देते हैं, ताकि पानी पीने के लिए आने वाले परिन्दों इन्हें लेकर जा सकें. </div><div><br />आपसे ग़ुज़ारिश है कि अगर आपके आसपास भी परिन्दे हैं, तो आप भी अपनी पुरानी झाड़ुओं की सींकें कबूतरों के लिए रख दें, ताकि इनसे उनके नन्हे आशियाने बन सकें.<br /><b>फ़िरदौस ख़ान</b></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-31723143776618547722022-10-21T14:39:00.002+05:302022-10-21T14:42:14.385+05:30 दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत इंसान <div style="text-align: left;"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgM5uSR28Ix6q0Ph81mIa-ct80hbfj0t35ejyfUoqBj2y4oUtJA6KMc4IfYpHN-Mbl9L-ljfhY0pqLyqvJVnrpaVa811jHKT_oyGn0H4OD_75AftpN-CXaWma21Jd63TPK5U1UkUbPQhuEV-dxtzkpmsFh96b9686F__kHMs_LXk22EAhP_iPEZ-H0/s1600/Rahul%20Gandhi%20Old.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgM5uSR28Ix6q0Ph81mIa-ct80hbfj0t35ejyfUoqBj2y4oUtJA6KMc4IfYpHN-Mbl9L-ljfhY0pqLyqvJVnrpaVa811jHKT_oyGn0H4OD_75AftpN-CXaWma21Jd63TPK5U1UkUbPQhuEV-dxtzkpmsFh96b9686F__kHMs_LXk22EAhP_iPEZ-H0/s320/Rahul%20Gandhi%20Old.jpg" width="240" /></a></div><br />राहुल गांधी की ये तस्वीर ख़ूब वायरल हो रही है. इस तस्वीर को लेकर राहुल गांधी की उम्र, उनके चेहरे की झुर्रियों, उनकी सफ़ेद होती दाढ़ी और सफ़ेद बालों पर ख़ूब तंज़ किए जा रहे हैं.</div><div style="text-align: left;"><br />ये बरहक़ है कि जो पैदा हुआ है वह उम्र के मुख़्तलिफ़ मरहलों से गुज़रता है. पहले वह बच्चा होता है, फिर वह अपनी जवानी को पहुंचता है और इसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता ज़ईफ़ी की तरफ़ बढ़ता है. <br />ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो बूढ़े होते हैं, क्योंकि मौत के ज़ालिम पंजे किसी को पैदा होते ही अपनी गिरफ़्त में ले लेते हैं, तो किसी को बचपन में उनके अपनों से छीन लेते हैं. कितने ही लोग भरी जवानी में मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. </div><div style="text-align: left;"><br />क्या बूढ़ा होना कोई गुनाह है? क्या चेहरे की झुर्रियां शर्म की बात है? क्या दाढ़ी सफ़ेद होना नदामत की बात है?</div><div style="text-align: left;">ख़ूबसूरत लोग हमेशा ख़ूबसूरत नहीं रहते, लेकिन अच्छे लोग हमेशा ख़ूबसूरत होते हैं. हमारे नज़दीक राहुल गांधी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत इंसान हैं और हमेशा रहेंगे.<br /></div><div style="text-align: left;"><b>फ़िरदौस ख़ान </b></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-59108085260856188402022-10-19T11:10:00.009+05:302022-10-19T11:13:05.272+05:30परम्परा क़ायम रहे, रोज़गार का ज़रिया बना रहे... <div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjroGuuohKcoZvx3xRpuVbV8tBz3TzDV4M9Z84kQ2bT2p6enPRkyzEhKmHy-pM_aPWlla0nAPyLiJak4VcdO1Qzg-C5k6vU2QkT5bqLeHPysagtFlkGwVWib9c3gCQyzqpw_6DNyxYeowoXIRlwinL4tEtTEwT8mGe383tyf2bMJTQw3uW-KlwvK_-K/s640/311817237_10228748361523566_2668863983214283686_n.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="640" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjroGuuohKcoZvx3xRpuVbV8tBz3TzDV4M9Z84kQ2bT2p6enPRkyzEhKmHy-pM_aPWlla0nAPyLiJak4VcdO1Qzg-C5k6vU2QkT5bqLeHPysagtFlkGwVWib9c3gCQyzqpw_6DNyxYeowoXIRlwinL4tEtTEwT8mGe383tyf2bMJTQw3uW-KlwvK_-K/s320/311817237_10228748361523566_2668863983214283686_n.jpg" width="320" /></a></div><br />पारम्परिक चीज़ें रोज़गार से जुड़ी होती हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ी होती हैं. इसलिए दिवाली पर अपने घर-आंगन को रौशन करने के लिए मिट्टी के दिये ज़रूर ख़रीदें, ताकि दूसरों के घरों के चूल्हे जलते रहें. <br />अगर आपको लगता है कि सरसों का तेल बहुत महंगा हो गया है, तो बिजली भी कोई सस्ती नहीं है. <br />जो ख़ुशी चन्द दिये रौशन करने से मिलती है, वह बिजली की झालरों में लगे हज़ारों बल्बों से भी नहीं मिल पाती. हम भी मिट्टी के दिये ख़रीदते हैं, ताकि ये परम्परा क़ायम रहे और रोज़गार का ज़रिया बना रहे.</div><div style="text-align: left;"><b>फ़िरदौस ख़ान</b> </div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-88300404193085037882022-09-14T12:13:00.003+05:302022-09-14T12:13:38.860+05:30अपनी भाषा हिन्दी पर गर्व करें <div style="text-align: left;"><b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEit7QbjshUF8_xHkiDBNAVCph_PkXKvwPgzoD9Dn94tGVSp_6nCDHjNwgaP4Bc_G2_FJVh2ompWUkvY8MBGPPxL1debRGST08ySbgZhFBwaqLKqGkxWSr6Lg06a65D67f4_tbrdE-PlAS8TmCfcpZYVvT0ZbuxPlJTKXU5HnnQ-REaVWdn4LT0c6KQx/s1080/2ca41e000203e5d4a872f53e656dae66.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEit7QbjshUF8_xHkiDBNAVCph_PkXKvwPgzoD9Dn94tGVSp_6nCDHjNwgaP4Bc_G2_FJVh2ompWUkvY8MBGPPxL1debRGST08ySbgZhFBwaqLKqGkxWSr6Lg06a65D67f4_tbrdE-PlAS8TmCfcpZYVvT0ZbuxPlJTKXU5HnnQ-REaVWdn4LT0c6KQx/s320/2ca41e000203e5d4a872f53e656dae66.jpg" width="320" /></a></div>फ़िरदौस ख़ान<br /></b>हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेज़ी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेज़ी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिन्दी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।<br />अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिन्दी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिन्दी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।<br />देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिन्दी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।<br />हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।<br />ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिन्दी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। स्टैटिस्टा के मुताबिक़ दुनियाभर में हिन्दी भाषा तेज़ी से बढ़ रही है। साल 1900 से 2021 के दौरान इसकी रफ़्तार 175.52 फ़ीसदी रही, जो अंग्रेज़ी की रफ़्तार 380.71 फ़ीसदी के बाद सबसे ज़्यादा है। अंग्रेज़ी और मंदारिन भाषा के बाद हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। साल 1961 में ही हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा बन गई। उस वक़्त दुनियाभर में 42.7 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे। साल 2021 में यह तादाद बढ़कर 117 करोड़ हो गई। इनमें से 53 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है। हालत यह है कि हिन्दी अब शीर्ष 10 कारोबारी भाषाओं में शामिल है। इतना ही नहीं दुनियाभर के 10 सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बारों में शीर्ष-6 हिन्दी के अख़बार हैं। भारत के अलावा 260 से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। विदेशों में 28 हज़ार से ज़्यादा शिक्षण संस्थान हिन्दी भाषा सिखा रहे हैं। हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिन्दी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिन्दी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिन्दी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिन्दी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का ख़ूब चलन है। गूगल पर हिन्दी के 10 लाख करोड़ से ज़्यादा पन्ने मौजूद हैं।<br />देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिन्दी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।<br />संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिन्दी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।<br />भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिन्दी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।<br />ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिन्दी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिन्दी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिन्दी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिन्दी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।<br />संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छोद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिन्दी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।<br />पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिन्दी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिन्दी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिन्दी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिन्दी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।<br />हिन्दी के विकास में हिन्दी साहित्य के अलावा हिन्दी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिन्दी सिनेमा ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिन्दी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिन्दी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।<br />अधिकारियों का दावा है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिन्दी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिन्दी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिन्दी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। <br />रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़डों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।<br />एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।<br />अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।<br />अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?<br />रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है-चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया-यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।<br />किस किंवदंती के आधार पर?<br />एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।<br />तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?<br />देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?<br />रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-<br />मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है<br />हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।<br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEits6QwS6LHqIyb3P_-9jC-5jueJpK1-YqpWrJWyK-kxEWXXjMHPQGo2Wtduw39CrGaoe3_T5qIwP9bwsmd1Fv3gCoydGYo2LEt2XQea63kfgKJuJniyMby2koderyMVqVK2TGaQFtMCyAiMnKOlzHb4aYfJFtFee45pbNB8CTvvfeljGv0v5VvOezy/s502/Hamara%20Metro%2014-09-2022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="455" data-original-width="502" height="290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEits6QwS6LHqIyb3P_-9jC-5jueJpK1-YqpWrJWyK-kxEWXXjMHPQGo2Wtduw39CrGaoe3_T5qIwP9bwsmd1Fv3gCoydGYo2LEt2XQea63kfgKJuJniyMby2koderyMVqVK2TGaQFtMCyAiMnKOlzHb4aYfJFtFee45pbNB8CTvvfeljGv0v5VvOezy/s320/Hamara%20Metro%2014-09-2022.jpg" width="320" /></a></div><br /><div style="text-align: left;"><br /></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-15731547143518973182022-08-13T15:06:00.001+05:302022-08-13T15:06:23.862+05:30ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझपे दिल क़ुर्बान <div style="text-align: left;"><b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqX3cJjeqzxu-r_Ld2F_5LW1OA8ZGeqqY-CwZ-PlqlRhe9q-gOnw895lwpv-63Ok3cX8wkkyDUvJnCtSAVgm3CDhGrwwFHJHlLERMqFhF_SCSdn7GZSldZx5IbUqo1TApH3zL_-ir-YuCP0TQsA_aqXJBbP-kfFylBeGJVNZUYYUX0qgL2Jjb8M00C/s500/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="320" data-original-width="500" height="205" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqX3cJjeqzxu-r_Ld2F_5LW1OA8ZGeqqY-CwZ-PlqlRhe9q-gOnw895lwpv-63Ok3cX8wkkyDUvJnCtSAVgm3CDhGrwwFHJHlLERMqFhF_SCSdn7GZSldZx5IbUqo1TApH3zL_-ir-YuCP0TQsA_aqXJBbP-kfFylBeGJVNZUYYUX0qgL2Jjb8M00C/s320/images.jpg" width="320" /></a></div><br />फ़िरदौस ख़ान<br /></b>यह ख़ुशनुमा अहसास है कि हमारा देश आज़ादी की 75वीं सालगिरह मना रहा है. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी यानी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. जन्म स्थान या अपने देश को मातृभूमि कहा जाता है. भारत और नेपाल में भूमि को मां के रूप में माना जाता है. यूरोपीय देशों में मातृभूमि को पितृ भूमि कहते हैं. दुनिया के कई देशों में मातृ भूमि को गृह भूमि भी कहा जाता है. इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों और पशुओं को भी अपनी जगह से प्यार होता है, फिर इंसान की तो बात ही क्या है. हम ख़ुशनसीब हैं कि आज हम आज़ाद देश में रह रहे हैं. देश को ग़ुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत क़ुर्बानियां दी हैं. उस वक़्त देश प्रेम के गीतों ने लोगों में जोश भरने का काम किया. बच्चों से लेकर नौजवानों, महिलाओं और बुज़ुर्गों तक की ज़ुबान पर देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर गीत किसी मंत्र की तरह रहते थे. क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ने तो अवाम में फ़िरंगियों की बंदूक़ों और तोपों का सामने करने की हिम्मत पैदा कर दी थी.<br />सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है<br />देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है<br />वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां<br />हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है...<br />देश प्रेम के गीतों का ज़िक्र मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के बिना अधूरा है. उनके गीत सारे जहां से अच्छा के बग़ैर हमारा कोई भी राष्ट्रीय पर्व पूरा नहीं होता. हर मौक़े पर यह गीत गाया और बजाया जाता है. देश प्रेम के जज़्बे से सराबोर यह गीत दिलों में जोश भर देता है.<br />सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा<br />हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा<br />यूनान, मिस्र, रोमा, सब मिट गए जहां से<br />अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशां हमारा...<br />जयशंकर प्रसाद का गीत यह अरुण देश हमारा, भारत के नैसर्गिक सौंदर्य का बहुत ही मनोहरी तरीक़े से चित्रण करता है.<br />अरुण यह मधुमय देश हमारा<br />जा पहुंच अनजान क्षितिज को<br />मिलता एक सहारा...<br />हिन्दी फ़िल्मों में भी देश प्रेम के गीतों ने लोगों में राष्ट्र प्रेम की गंगा प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. आज़ादी से पहले इन गीतों ने हिन्दुस्तानियों में ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़कर मुल्क को आज़ाद कराने का जज़्बा पैदा किया और आज़ादी के बाद देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करने में अहम किरदार अदा किया है. फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए तो देश प्रेम के गीत रचने में कवि प्रदीप आगे रहे. उन्होंने 1962 की भारत-चीन जंग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी’ गीत लिखा. लता मंगेशकर द्वारा गाये इस गीत का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में 26 जनवरी, 1963 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सीधा प्रसारण किया गया था. गीत सुनकर जवाहरलाल नेहरू की आंखें भर आई थीं. साल 1943 बनी फिल्म क़िस्मत के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है’ ने उन्हें अमर कर दिया. इस गीत से ग़ुस्साई तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी के आदेश दिए थे, जिसकी वजह से प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा था. उनके लिखे फ़िल्म जागृति (1954) के गीत ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तानकी’ और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शकील बदायूंनी का लिखा फ़िल्म सन ऑफ़ इंडिया का गीत ‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’ बच्चों में बेहद लोकप्रिय है. कैफ़ी आज़मी के लिखे और मोहम्मद रफ़ी के गाये फ़िल्म हक़ीक़त के गीत ‘कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ को सुनकर आंखें नम हो जाती हैं और शहीदों के लिए दिल श्रद्धा से भर जाता है. फ़िल्म लीडर का शकील बदायूंनी का लिखा और मोहम्मद रफ़ी का गाया और नौशाद के संगीत से सजा गीत ‘अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’ बेहद लोकप्रिय हुआ. प्रेम धवन द्वारा रचित फ़िल्म हम हिन्दुस्तानी का गीत ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे, मिलकर नई कहानी’ आज भी इतना ही मीठा लगता है. उनका फ़िल्म क़ाबुली वाला का गीत भी रोम-रोम में देश प्रेम का जज़्बा भर देता है.<br />ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल क़ुर्बान<br />तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान...<br />राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म का गीत भारत देश के गौरवशाली इतिहास का मनोहारी बखान करता है.<br />जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा<br />वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा<br />जहां सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा<br />वो भारत देश है मेरा, वो भारत देश है मेरा...<br />इसी तरह गुलशन बावरा द्वारा रचित फ़िल्म उपकार का गीत देश के प्राकृतिक खनिजों के भंडारों और खेतीबाड़ी और जनमानस से जुड़ी भावनाओं को बख़ूबी प्रदर्शित करता है.<br />मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती<br />मेरी देश की धरती<br />बैलों के गले में जब घुंघरू<br />जीवन का राग सुनाते हैं<br />ग़म कोसों दूर हो जाता है<br />जब ख़ुशियों के कमल मुस्काते हैं...<br />इसके अलावा फ़िल्म अब दिल्ली दूर नहीं, अमन, अमर शहीद, अपना घर, अपना देश, अनोखा, आंखें, आदमी और इंसान, आंदोलन, आर्मी, इंसानियत, ऊंची हवेली, एक ही रास्ता, क्लर्क, क्रांति, कुंदन, गोल्ड मेडल, गंगा जमुना, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा मान रही बलिदान, गंवार, चंद्रशेखर आज़ाद, चलो सिपाही चलो, चार दिल चार रास्ते, छोटे बाबू, जय चित्तौ़ड, जय भारत, जल परी, जियो और जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, जीवन संग्राम, जुर्म और सज़ा, जौहर इन कश्मीर, जौहर महमूद इन गोवा, ठाकुर दिलेर सिंह, डाकू और महात्मा, तलाक़, तूफ़ान और दीया, दीदी, दीप जलता रहे, देशप्रेमी, धर्मपुत्र, धरती की गोद में, धूल का फूल, नई इमारत, नई मां, नवरंग, नया दौर, नया संसार, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, प्यासा, परदेस, पूरब और पश्चिम, प्रेम पुजारी, पैग़ाम, फ़रिश्ता और क़ातिल, अंगारे, फ़ौजी, बड़ा भाई, बंदिनी, बाज़ार, बालक, बापू की अमर कहानी, बैजू बावरा, भारत के शहीद, मदर इंडिया, माटी मेरे देश की, मां बाप, मासूम, मेरा देश मेरा धर्म, जीने दो, रानी रूपमति, लंबे हाथ, शहीद, आबरू, वीर छत्रसाल, दुर्गादास, शहीदे-आज़म भगत सिंह, समाज को बदल डालो, सम्राट पृथ्वीराज चौहान, हम एक हैं, कर्मा, हिमालय से ऊंचा, नाम और बॉर्डर आदि फ़िल्मों के देश प्रेम के गीत भी लोगों में जोश भरते हैं. मगर अफ़सोस कि अमूमन ये गीत स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या फिर गांधी जयंती जैसे मौक़ों पर ही सुनने को मिलते हैं, ख़ासकर ऑल इंडिया रेडियो पर.<br />बहरहाल, यह हमारे देश की ख़ासियत है कि जब राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवय या इसी तरह के अन्य दिवस आते हैं तो रेडियो पर देश प्रेम के गीत सुनाई देने लगते हैं. बाक़ी दिनों में इन गीतों को सहेजकर रख दिया जाता है. शहीदों की याद और देश प्रेम को कुछ विशेष दिनों तक ही सीमित करके रख दिया गया है. इन्हीं ख़ास दिनों में शहीदों को याद करके उनके प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. कवि जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी के शब्दों में यही कहा जा सकता है-<br />शहीदों की चिताओं लगेंगे हर बरस मेले<br />वतन पे मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा… <br />(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)<br /></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-41277883843170328762022-07-13T10:14:00.002+05:302022-12-09T16:56:57.548+05:30 यूरिक एसिड से कैसे निजात पाएं<div style="text-align: left;"><b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirRucqHUlTa5r4FrvoNtLpCO-QbjAlhdPEj67cmyZHp4sn89Z6NFBNXSCJKJuQCIkDz07WIsr4fWaBlRzFMZkr_Cmp_ZFzTIHR0k9IjQXG7Gq9ggjEZaOTxbQFMYtJq0wHfgDa3XoUFohJ4atJJOXLDBzS_dQZ4gbnG2U4N3viGan3ZJJfseXyDXzk/s275/images.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="183" data-original-width="275" height="183" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEirRucqHUlTa5r4FrvoNtLpCO-QbjAlhdPEj67cmyZHp4sn89Z6NFBNXSCJKJuQCIkDz07WIsr4fWaBlRzFMZkr_Cmp_ZFzTIHR0k9IjQXG7Gq9ggjEZaOTxbQFMYtJq0wHfgDa3XoUFohJ4atJJOXLDBzS_dQZ4gbnG2U4N3viGan3ZJJfseXyDXzk/s1600/images.jpg" width="275" /></a></div><br />फ़िरदौस ख़ान <br /></b></div><div style="text-align: left;">हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के दर्द से परेशान है. किसी के पूरे जिस्म में दर्द है, किसी की पीठ में दर्द है, किसी के घुटनों में दर्द है और किसी के हाथ-पैरों में दर्द है. हालांकि दर्द की कई वजहें होती हैं. इनमें से एक वजह यूरिक एसिड भी है. <br />दरअसल, यूरिक एसिड एक अपशिष्ट पदार्थ है, जो खाद्य पदार्थों के पाचन से पैदा होता है और इसमें प्यूरिन होता है. जब प्यूरिन टूटता है, तो उससे यूरिक एसिड बनता है. किडनी यूरिक एसिड को फ़िल्टर करके इसे पेशाब के ज़रिये जिस्म से बाहर निकाल देती है. जब कोई व्यक्ति अपने खाने में ज़्यादा मात्रा में प्यूरिक का इस्तेमाल करता है, तो उसका जिस्म यूरिक एसिड को उस तेज़ी से जिस्म से बाहर नहीं निकाल पाता. इस वजह से जिस्म में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है. ऐसी हालत में यूरिक एसिड ख़ून के ज़रिये पूरे जिस्म में फैलने लगता है और यूरिक एसिड के क्रिस्टल जोड़ों में जमा हो जाते हैं, जिससे जोड़ों में सूजन आ जाती है. इसकी वजह से गठिया भी हो जाता है. जिस्म में असहनीय दर्द होता है. इससे किडनी में पथरी भी हो जाती है. इसकी वजह से पेशाब संबंधी बीमारियां पैदा हो जाती हैं. मूत्राशय में असहनीय दर्द होता है और पेशाब में जलन होती है. पेशाब बार-बार आता है. यह यूरिक एसिड स्वस्थ व्यक्ति को बीमार कर देता है. <br /><div>यूरिक एसिड से बचने के लिए अपने खान-पान पर ख़ास तवज्जो दें. दाल पकाते वक़्त उसमें से झाग निकाल दें. कोशिश करें कि दाल कम इस्तेमाल करें. बिना छिलकों वाली दालों का इस्तेमाल करना बेहतर है. रात के वक़्त दाल, चावल और दही आदि खाने से परहेज़ करें. हो सके तो फ़ाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें. </div><div><br /></div><div>जौ </div><div>यूरिक एसिड से निजात पाने के लिए जौ का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करें. जौ की ख़ासियत है कि यह यूरिक एसिड को सोख लेता है और उसे जिस्म से बाहर करने में कारगर है. इसलिए जौ को अपने रोज़मर्रा के खाने में ज़रूर शामिल करें. गर्मियों के मौसम में जौ का सत्तू पी सकते हैं, जौ का दलिया बना सकते हैं, जौ के आटे की रोटी बनाई जा सकती है.</div><div><br /></div><div>ज़ीरा</div><div>यूरिक एसिड के मरीज़ों के लिए ज़ीरा भी बहुत फ़ायदेमंद है. ज़ीरे में आयरन, कैल्शियम, ज़िंक और फ़ॉस्फ़ोरस पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट उच्च मात्रा में मौजूद होता है, जो यूरिक एसिड की वजह से होने वाले जोड़ों के दर्द और सूजन को कम करता है. यह टॉक्सिंस को जिस्म से बाहर करने में भी मददगार है.</div><div><br /></div><div>नींबू</div><div>नींबू में मौजूद साइट्रिक एसिड शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को बढ़ने से रोकता है. </div><div><br /></div><div>ज़्यादा परेशानी होने पर चिकित्सक से परामर्श लें. </div><div><br /></div>#यूरिकएसिड<br /></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-43868597306664598542022-07-09T11:43:00.004+05:302022-07-09T11:43:52.193+05:30ग़ुज़ारिश : ज़रूरतमंदों को गोश्त पहुंचाएं<p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJ9vuENR_r8voGXtfWf_ncvAL5e0tPAl2QHUDeNVBb3PSwY_410ERo7YzRjzd0eqPSqdYt29l19EoQjNNBWcUCXmSEzIx9ZscK09J_3rmW0LJkZPSJpwhOcemHX6iJHsGhblha3kUAqA/s1600/2081778083beef+korma.png" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJ9vuENR_r8voGXtfWf_ncvAL5e0tPAl2QHUDeNVBb3PSwY_410ERo7YzRjzd0eqPSqdYt29l19EoQjNNBWcUCXmSEzIx9ZscK09J_3rmW0LJkZPSJpwhOcemHX6iJHsGhblha3kUAqA/s320/2081778083beef+korma.png" width="320" /></a></p>ईद-उल-अज़हा का त्यौहार आ रहा है. जो लोग साहिबे-हैसियत हैं, वो बक़रीद पर क़्रुर्बानी करते हैं. तीन दिन तक एक ही घर में कई-कई क़ुर्बानियां होती हैं. इन घरों में गोश्त भी बहुत होता है. एक-दूसरे के घरों में क़ुर्बानी का गोश्त भेजा जाता है..जब गोश्त ज़्यादा हो जाता है, तो लोग गोश्त लेने से मना करने लगते हैं.<br />ऐसे भी बहुत से घर होते हैं, जहां क़ुर्बानी नहीं होती. ऐसे भी बहुत से घर होते हैं, जो त्यौहार के दिन भी गोश्त से महरूम रहते हैं..राहे-हक़ से जुड़े साथी गोश्त इकट्ठा करके ऐसे लोगों तक गोश्त पहुंचाते रहे हैं, जो ग़रीबी की वजह से गोश्त से महरूम रहते हैं.<br />आप सबसे ग़ुज़ारिश है कि आप भी क़ुर्बानी के गोश्त को उन लोगों तक पहुंचाएं, जो त्यौहार के दिन भी गोश्त से महरूम रहते हैं. आपकी ये कोशिश किसी के त्यौहार को ख़ुशनुमा बना सकती है.फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-52444344840639012162022-06-12T10:18:00.005+05:302022-06-12T10:18:41.051+05:30OIC<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyqNtz2W2eOMCLJT0_utUFPZXOnSIHeFKQHCAVV2IemwND_wcOy3aDkysx9F8WhgPtWJ0zGByF6cEhmCSC3VPuYYqRmAs4WnCLo-Jxp4LIVYQZPXuC92g5yOUiVbErMZHTUFjrp0LqYPzMsjNFoeMFY4zRmDy_F40SLaHfuGfkur6X1cSaFH0kCelM/s670/287079379_10228006972109294_3280906923183690688_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="404" data-original-width="670" height="193" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyqNtz2W2eOMCLJT0_utUFPZXOnSIHeFKQHCAVV2IemwND_wcOy3aDkysx9F8WhgPtWJ0zGByF6cEhmCSC3VPuYYqRmAs4WnCLo-Jxp4LIVYQZPXuC92g5yOUiVbErMZHTUFjrp0LqYPzMsjNFoeMFY4zRmDy_F40SLaHfuGfkur6X1cSaFH0kCelM/s320/287079379_10228006972109294_3280906923183690688_n.jpg" width="320" /></a></div><br /><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">इन दिनों ख़बरों में OIC का ख़ूब ज़िक्र आ रहा है. OIC का मतलब है- ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन. इसमें 57 इस्लामिक मुल्क शामिल हैं. इनकी फ़ेहरिस्त पेश है-<br />1 Afghanistan <br />2 Albania <br />3 Algeria <br />4 Azerbaijan <br />5 Bahrain <br />6 Bangladesh<br />7 Benin <br />8 Brunei <br />9 Burkina <br />10 Cameroon <br />11 Chad <br />12 Comoros <br />13 Djibouti <br />14 Egypt <br />15 Gabon <br />16 Gambia <br />17 Guinea <br />18 Guinea-Bissau <br />19 Guyana <br />20 Indonesia <br />21 Iran <br />22 Iraq <br />23 Ivory <br />24 Jordan <br />25 Kazakhstan <br />26 Kuwait <br />27 Kyrgyzstan <br />28 Lebanon <br />29 Libya <br />30 Malaysia<br />31 Maldives <br />32 Mali <br />33 Mauritania<br />34 Morocco<br />35 Mozambique <br />36 Niger <br />37 Nigeria <br />38 Oman Muscat <br />39 Pakistan <br />40 Palestine <br />41 Qatar <br />42 Saudi Arabia<br />43 Senegal <br />44 Sierra Leone<br />45 Somalia <br />46 Sudan <br />47 Suriname <br />48 Syria <br />49 Tajikistan <br />50 Togo <br />51 Tunisia<br />52 Turkey 53<br />Turkmenistan <br />54 Uganda <br />55 United Arab Emirates <br />56 Uzbekistan <br />57 Yemen <br />#OIC<br />#organization_of_islamic_cooperation<br />1</div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-16809783878793058842022-04-11T15:18:00.000+05:302022-04-11T15:18:55.416+05:30 ईश प्रीत की छलकन है यह पुस्तक <div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwGwVM-qqf_WF-_vXhu9idZz_RNvOO9KlbYBwM0ZcRsA2oKurzJOdLOaoltD6xfZXBzlGDylxvXvcCR2ADjz9k_rnErAAHbwLx_U7AdE1-SUixRK6XLkueMZ3mP4M1SYlFiUk0gf2IgqcXiBgIPnUXFNSLWpNhGwwJ1Db4kdgZNcFxkhK4X9273Q-O/s280/Ganga%20Jamuni%20Sanskriti%20ke%20Agardoot.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="206" data-original-width="280" height="206" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwGwVM-qqf_WF-_vXhu9idZz_RNvOO9KlbYBwM0ZcRsA2oKurzJOdLOaoltD6xfZXBzlGDylxvXvcCR2ADjz9k_rnErAAHbwLx_U7AdE1-SUixRK6XLkueMZ3mP4M1SYlFiUk0gf2IgqcXiBgIPnUXFNSLWpNhGwwJ1Db4kdgZNcFxkhK4X9273Q-O/s1600/Ganga%20Jamuni%20Sanskriti%20ke%20Agardoot.jpg" width="280" /></a></div><br />सूफ़ी-संतों पर आधारित पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ फ़िरदौस ख़ान की ईश प्रीत की छलकन है. ऋषि सत्ताओं की विस्मृत वाणी को ‘वसुधैव कुटुंबकम’ को कैसे संत व फ़क़ीर जीते हैं, उसी को पुनः स्मृति में लाने का प्रयास है यह पुस्तक.<br />जैसे श्रीमद्भगवद्गीता पुनः अर्जुन के बहाने संसार को मिल रहा है, जबकि योगेश्वर कहते हैं कि सबसे पहले यह ज्ञान सूर्य को दिया था, जो काल के खेल में विलुप्त हो गया था.<br />ऋषि सत्ताओं ने धर्म की जगह विशेष के समूह को जीवन जीने का तरीक़ा दिया और ऋषियों, सूफ़ी, संतों व फ़क़ीरों ने उस जीवन जीने के तरीक़ों के उद्देश्य को जिया अर्थात आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त होना, अर्थात उस प्रकाश को पाना है जिससे यह कायनात है. अखिल ब्रह्मांड है, भीड़ और समूह सीढ़ियां छोड़ नहीं पाती हैं, जिससे भेद बना रहता है, बसा रहता है. मंज़िल पानी थी, न कि सिर पर सीढ़ियां लादे घूमना था. फ़क़ीरों-संतों का जीवन चीख़-चीख़ कर घोषणा करता है- ढाई आखर प्रेम का, पढ़या सो पंडित होय.<br />पहुंचना प्रीत सागर में है. सारी की सारी नदियों का गंतब्य क्या है, समुद्र.<br /><br />गंगा-जमुनी मेल क्या है, संस्कृति क्या है, चलें सागर की ओर, मिलकर. संगम पाकर और विशाल-विस्तृत होकर. विराट मिलन के पूर्व का मिलन उस महामिलन की मौज की मस्ती के स्वाद का पता दे देता है. इसका बड़ा अच्छा उदाहरण लेखिका व आलिमा फ़िरदौस ख़ान ने प्रस्तुत किया है. सूफ़ी हज़रत इब्राहिम बिन अदहम के जीवन से-<br />-कौन ?<br />- तेरा परिचित.<br />-क्या खोज रहे हो?<br />- ऊंट.<br />बकवास... इतने ऊपर हमारे महल में ऊंट कैसे आ सकता है? परिचित बोलते हैं कि जब तू राजमहल में मालिक को ढूंढ सकता है, तो यहां हमारा ऊंट क्यों नहीं आ सकता है?<br />अर्थात राजस में रहकर सात्विक से भी (त्रिगुण मयी माया) पार की ख़बर का नाटक करना ही है. आज के दौर में कितना प्रासंगिक है. राजस जीवन जीकर धर्म की व्याख्या करना, पतन की पराकाष्ठा ही है.<br />वहीं जब महल को पुनः सराय कहता है परिचित, तब बादशाह की आंख पूरी खुल जाती है. राजस आने जाने वाली फ़ानी बादशाहत छोड़कर फ़क़ीरी जीवन जीने लगते हैं.<br /><br />और सूफ़ी, संत, फ़क़ीर ही असली बादशाह हैं. मालिक की गोद में बैठकर असली मौज लेते रामकृष्ण परमहंस भी दिखते हैं और माँ के आशीष से सिंचित कर्मयोगी शहनाई वादक बिस्मिल्लाह ख़ान साहेब भी क्या हज़रत इब्राहिम बिन अदहम की तरह फ़क़ीरी में बादशाह नहीं हैं.<br />चाहे कबीर हों, रसखान हों, दादू हों सभी उस नूर, उस रौशनी की चर्चा अपनी सधुक्कड़ी भाषा में कर रहे हैं. <br />लेखिका फ़िरदौस ख़ान उस ईश्वरीय नूर को जी रही हैं और इस तरह ईश प्रीत की उस छलकन की पहली श्रृंखला है यह पुस्तक, जिसे ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह) ने प्रकाशित किया है.<br /><br />शुभकामनाएं अपार!</div><div style="text-align: left;"><b>नन्दलाल सिंह<br /></b><b><br /></b></div><div style="text-align: left;"><b>लेखक का परिचय <br /></b>नन्दलाल सिंह लेखक एवं अनिभेता हैं. वह रंगमंच, हिन्दी फ़ीचर फ़िल्मों के लिए लेखन करते हैं. उनकी कहानियां, लेख, उपन्यास एवं गांधी दर्शन पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वह महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, बनारस में भी नाट्य विभाग में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे हैं. वह महात्मा गांधी के विचार एवं दर्शन पर कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देते हैं. <br />संपर्क : गोरेगांव (पश्चिम), मुम्बई- 400104 (महाराष्ट्र)<br />ईमेल : sundharanandlal@gmail.com<br /></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-33048815601106187222022-02-11T09:45:00.006+05:302022-02-11T09:45:52.612+05:30 और अल्लाह ने खाना भेज दिया...<p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhPd5MvFnxaRdo2klhLN2HVKDXmpKM2_1q36ZW6fBczXG4lCWmaXVPJ7W5W2Mp57TU11-JuF1TsehhDUE21t30wDiw_-LaWxUKx7fJArJBUF1YOMtAEPdQIdVKBC6QdgiMZ9LdrVIp6chswQqjhYD6r9Zz5sNvCtlvS37sskEF_PPaRA6kOMcbOiJ4hmg=s277" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="182" data-original-width="277" height="182" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhPd5MvFnxaRdo2klhLN2HVKDXmpKM2_1q36ZW6fBczXG4lCWmaXVPJ7W5W2Mp57TU11-JuF1TsehhDUE21t30wDiw_-LaWxUKx7fJArJBUF1YOMtAEPdQIdVKBC6QdgiMZ9LdrVIp6chswQqjhYD6r9Zz5sNvCtlvS37sskEF_PPaRA6kOMcbOiJ4hmg" width="277" /></a></p>साल 2005 का वाक़िया है. नवम्बर का महीना था. हम अपनी अम्मी के साथ उत्तर प्रदेश के एक गांव में गए हुए थे. गांव के एक बुज़ुर्ग के साथ हम घूमने निकले. उनके साथ कांग्रेस के एक नेता और उनके चाचा नवाब साहब भी थे. दोपहर हो गई. सबको बहुत भूख लगी थी. बुज़ुर्ग ने कहा कि बहुत भूख लग रही है. घर वापस लौटने में बहुत देर हो जाएगी और यहां दूर-दूर ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा, जहां जाकर कुछ खा-पी सकें. उनकी यह बात सुनकर हमारी अम्मी ने कहा- “मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.” इस पर वे बुज़ुर्ग तंज़िया मुस्कराने लगे. अभी चन्द घड़ियां ही गुज़री थीं कि साईकिल पर सफ़ेद लिबास में एक शख़्स आया. उसने सबको सलाम किया और उन बुज़ुर्ग के हाथ में एक थैली थमाकर चला गया. उन्होंने थैली खोली, तो उसमें गरमा-गरम समौसे थे. नवाब साहब ने बुज़ुर्ग से उस शख़्स के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि वे उसे नहीं जानते.<br />इस पर हमारी अम्मी ने बुज़ुर्ग से कहा- “क्या मैंने आपसे नहीं कहा था कि मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.”<br />-<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />हमारी अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी<br />(शेख़ज़ादी का वाक़िया)<br />#शेख़ज़ादी_का_वाक़ियाफ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-16613912925099454452022-02-10T09:46:00.001+05:302022-02-11T09:47:01.837+05:30अब्र का साया <p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi_HaAZMrErZ-cdChv45HYpGKLD-rLqwBSyny2vPY5CZrcT3f125S7W1YqwhMp73ipWIkAWTY1EgeuDtJB1qiLn4qY3odm161PsaP0vOpsUL5OvOeJyv2ZCN224zZSHH4neVYlrWU9IHklYYXuzJcFjho4NKeQWjNlhP6n5l1Q3cnE0x9xonwoySZtL8g=s275" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="183" data-original-width="275" height="183" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi_HaAZMrErZ-cdChv45HYpGKLD-rLqwBSyny2vPY5CZrcT3f125S7W1YqwhMp73ipWIkAWTY1EgeuDtJB1qiLn4qY3odm161PsaP0vOpsUL5OvOeJyv2ZCN224zZSHH4neVYlrWU9IHklYYXuzJcFjho4NKeQWjNlhP6n5l1Q3cnE0x9xonwoySZtL8g" width="275" /></a></p><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both;"><br /></div></div>कई बरस पहले का वाक़िया है. एक रोज़ हमारी छोटी बहन ने अम्मी को फ़ोन किया कि आपसे मिलने का दिल कर रहा है. अम्मी ने उससे मिलने का वादा कर लिया. चुनांचे ज़ुहर की नमाज़ के बाद अम्मी और हम उससे मिलने के लिए घर से निकले. वह शायद जेठ का महीना था. शिद्दत की गर्मी थी. सूरज आग बरसा रहा था. अम्मी कहने लगीं कि काश ! बादल होते. हमने आसमान की तरफ़ रुख़ करके कहा कि आसमान में दूर-दूर तक बादल का कोई नामो निशान तक नहीं है. हमारी बात ख़त्म भी न होने पाई थी कि हमने ज़मीन पर साया देखा. वह साया इतना वसीह था कि अम्मी और हम उसके नीचे थे. यानी हम घर से दस क़दम भी आगे नहीं बढ़े थे कि हम दोनों अब्र के सायेबान में थे. हम यूं ही बातें करते-करते बहन के घर गए. वहां कुछ वक़्त रुके और फिर वापस घर आ गए. जब हम घर आ गए, तो अम्मी ने हमसे पूछा- ये बताओ कि क्या तुम धूप में गई थीं या अब्र के साये में. हमने ग़ौर किया कि वाक़ई हम अब्र के साये में ही गए थे और अब्र के साये में ही घर वापस आए थे. जैसे-जैसे हम आगे क़दम बढ़ा रहे थे, वैसे-वैसे ही अब्र का साया भी आगे बढ़ता जा रहा था.<br />ये अल्लाह का एक बहुत बड़ा मौजिज़ा था. ऐसे थीं हमारी अम्मी. अल्लाह उन्हें जन्नतुल फ़िरदौस में आला मक़ाम अता करे, आमीन <br />(शेख़ज़ादी का वाक़िया) <br />#शेख़ज़ादी_का_वाक़िया</div><div> </div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-1363254170535630022022-02-09T10:19:00.002+05:302022-02-09T10:19:14.257+05:30काश ! ऐसी औरतों के लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती! <div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEinKIhO1Q9d79Z51zYHdOi1Gz5HkSsZcX9DSnsAhNMwhzVxvzFhVVWeZXH0eyNszsWgrAIrFEKubAHFcLvsddb7_ILoVD_QT3CrnTEUV0plqp39VKE6OwSlSH-3VLWJKJpvjyCO-nEZhSRMXfWPtcRtmGAHPtwdEEaJn8MoRzPLHgIXip56QFIzxwsu=s308" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="164" data-original-width="308" height="164" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEinKIhO1Q9d79Z51zYHdOi1Gz5HkSsZcX9DSnsAhNMwhzVxvzFhVVWeZXH0eyNszsWgrAIrFEKubAHFcLvsddb7_ILoVD_QT3CrnTEUV0plqp39VKE6OwSlSH-3VLWJKJpvjyCO-nEZhSRMXfWPtcRtmGAHPtwdEEaJn8MoRzPLHgIXip56QFIzxwsu" width="308" /></a></div>काश ! ऐसी औरतों के लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती! <br />हमारी गली में रोज़ न जाने कितनी ही औरतें ऐसी आती हैं, जो रो-रोकर रोटी और आटा मांगती हैं. पूछने पर एक औरत ने बताया कि उसके शौहर ने तीन तलाक़ देकर उसे घर से निकाल दिया और नई बीवी ले आया. उसकी पांच बेटियां हैं. वे किराये के 7x8 फ़ीट के कमरे में रह रही है. काम न मिलने पर भीख मांगनी पड़ती है. <br />मुआशरे में ऐसी से औरतों की तादाद लाखों-करोड़ों में होगी. काश ! इनके हक़ के लिए भी कोई आवाज़ बुलन्द करता. इनके लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती! <br />#तीन_तलाक़</div><div style="text-align: left;"><br /></div>फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-24287756684483684472022-02-07T10:17:00.004+05:302022-02-07T10:17:44.208+05:30सूफ़ियाना बसंत पंचमी <p> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCPYyfZcBUXdKXPc0gAQYJm_O7g7pYieLa47ksNFvq3IcbwbeRRFlRe0nn54dnvSAmjZXO1HLrhbF6zFe5bKAhyU2xJZYPwJK9VzFFhQcoGf6kUC4FJCIKXDbqGWn7t2_PAugcq452-sCMrEChc6WVMUTSLzm7tYm3Ed5BDUTMfIj74bXSIB9f1560PA=s720" style="font-weight: bold; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="461" data-original-width="720" height="205" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCPYyfZcBUXdKXPc0gAQYJm_O7g7pYieLa47ksNFvq3IcbwbeRRFlRe0nn54dnvSAmjZXO1HLrhbF6zFe5bKAhyU2xJZYPwJK9VzFFhQcoGf6kUC4FJCIKXDbqGWn7t2_PAugcq452-sCMrEChc6WVMUTSLzm7tYm3Ed5BDUTMfIj74bXSIB9f1560PA=s320" width="320" /></a></p><b>फ़िरदौस ख़ान<br /></b>बसंत पंचमी को जश्ने बहारा भी कहा जाता है, क्योंकि बसंत पंचमी बहार के मौसम का पैग़ाम लाती है. सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है. ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाई जाती है. बसंत का पीला साफ़ा बांधे मुरीद बसंत के गीत गाते हैं. बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पर पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं. पीले फूलों की भी चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं. क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं.<br />आज बसंत मना ले सुहागन<br />आज बसंत मना ले <br />अंजन–मंजन कर पिया मोरी<br />लंबे नेहर लगाए<br />तू क्या सोवे नींद की माटी<br />सो जागे तेरे भाग सुहागन<br />आज बसंत मना ले<br />ऊंची नार के ऊंचे चितवन<br />ऐसो दियो है बनाय<br />शाहे अमीर तोहे देखन को<br />नैनों से नैना मिलाय<br />आज बसंत मना ले, सुहागन<br />आज बसंत मना ले <br /><br />कहा जाता है कि ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाने की यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी. हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रहमतुल्लाह) को अपने भांजे हज़रत सैयद नूह के विसाल से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने मुर्शिद की यह हालत देखी न गई. वे उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. एक दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे. नीले आसमान पर सूरज दमक रहा था. उसकी सुनहरी किरनें ज़मीन पर पड़ रही थीं. उन्होंने रास्ते में सरसों के खेत देखे. सरसों के पीले फूल बहती हवा से लहलहा रहे थे. उनकी ख़ूबसूरती हज़रत अमीर ख़ुसरो की निगाहों में बस गई और वे वहीं खड़े होकर फूलों को निहारने लगे. तभी उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास कुछ हिन्दू श्रद्धालु हर्षोल्लास से नाच गा रहे हैं. यह देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगा. उन्होंने इस बारे में पूछा तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए.<br />इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वे भी अपने पीर मुर्शिद, अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे. फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुलदस्ते बनाए और कुछ पीले फूल अपने साफ़े में भी लगा लिए. फिर वे अपने पीर भाइयों और क़व्वालों को साथ लेकर नाचते-गाते हुए अपने मुर्शिद के पास पहुंच गए. अपने मुरीदों को इस तरह नाचते-गाते देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. और इस तरह बसंत पंचमी के दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो को उनकी मनचाही मुराद मिल गई. तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो हर साल बसंत पंचमी मनाने लगे. <br />अमीर ख़ुसरो को सरसों के पीले फूल इतने भाये कि उन्होंने इन पर एक गीत लिखा- <br />सगन बिन फूल रही सरसों<br />अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार<br />और गोरी करत सिंगार<br />मलनियां गेंदवा ले आईं कर सों<br />सगन बिन फूल रही सरसों<br />तरह तरह के फूल खिलाए<br />ले गेंदवा हाथन में आए<br />निज़ामुद्दीन के दरवज़्ज़े पर<br />आवन कह गए आशिक़ रंग<br />और बीत गए बरसों<br />सगन बिन फूल रही सरसों<br /><br />ग़ौरतलब है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रहमतुल्लाह) चिश्ती सिलसिले के औलिया हैं. उनकी ख़ानकाह में बंसत पंचमी की शुरुआत होने के बाद दूसरी दरगाहों और ख़ानकाहों में भी बंसत पंचमी बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी. इस दिन मुशायरों का भी आयोजन किया जाता है, जिनमें शायर बंसत पंचमी पर अपना कलाम पढ़ते हैं.<br />हिन्दुस्तान के अलावा पड़ौसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी बंसत पंचमी को जश्ने बहारा के तौर पर ख़ूब धूमधाम से मनाया जाता है. <br />(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं) फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-91544212764472613042019-07-09T17:36:00.002+05:302019-07-10T18:32:51.870+05:30सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk4jIOBLwUkAzEp2Fh2Z-vbNUaXTcb9alKutYxB-1PdspmLmVpEP5Y0leOGl3JpTdMnGS_U3D6jUKHkY5lwTwySAgjzywlVdjiWi2eiEeVPh1iqSY4ylQNoxZPhpaSrI_EKUsyJf2hWHJZ/s1600/66267287_10218791077997698_4057578870092595200_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="687" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk4jIOBLwUkAzEp2Fh2Z-vbNUaXTcb9alKutYxB-1PdspmLmVpEP5Y0leOGl3JpTdMnGS_U3D6jUKHkY5lwTwySAgjzywlVdjiWi2eiEeVPh1iqSY4ylQNoxZPhpaSrI_EKUsyJf2hWHJZ/s320/66267287_10218791077997698_4057578870092595200_n.jpg" width="227" /></a></div>
हमने पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक और संस्कृति कर्मी, मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी की किताब 'उर्दू पत्रकारिता का भविष्य' की समीक्षा की है.<br />
<b>सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं </b><br />
-फ़िरदौस ख़ान<br />
उर्दू पत्रकारिता की अहमियत से किसी भी सूरत में इंकार नहीं किया जा सकता. पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है. या यूं कहें कि जब से इंसानी नस्लों ने एक-दूसरे को समझना और जानना शुरू किया, तभी से पत्रकारिता की शुरुआत हो गई थी. उस वक़्त लोग एक-दूसरे से बातचीत के ज़रिये अपनी बात अपने रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों तक पहुंचाते थे. बादशाहों के अपने क़ासिद होते थे, जो ख़बरों को दूर-दराज के मुल्कों के बादशाहों तक पहुंचाते थे. गुप्तचर भी बादशाहों के लिए ख़बरें एकत्रित करने का काम करते थे. बादशाहों के शाही फ़रमानों से अवाम में मुनादी के ज़रिये बात पहुंचाई जाती थी. फ़र्क़ बस इतना था कि ये सूचनाएं विशेष लोगों के लिए ही हुआ करती थीं. वक़्त गुज़रता गया, इसके साथ ही सूचनाओं का दायरा बढ़ता गया और तरीक़ा बदलता गया. कबूतरों ने भी संदेश या ख़बरें एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम किया. आज यही काम अख़बार, रेडियो, टेलीविज़न, इंटरनेट और मोबाइल के ज़रिये किया जा रहा है.<br />
हाल में भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के प्रोफ़ेसर संजय द्विवेदी की उर्दू पत्रकारिता पर आधारित एक किताब उर्दू पत्रकारिता का भविष्य प्रकाशित हुई है. इसमें तहसीन मुनव्वर, फ़िरोज़ अशऱफ, डॉ. अख्तर आलम, असद रज़ा, शाहिद सिद्दीक़ी, फ़िरदौस ख़ान, रघु ठाकुर, एहतेशाम अहमद ख़ान, डॉ. ए अज़ीज़ अंकुर, डॉ. मरज़िया आरिफ़, डॉ. हिसामुद्दीन फ़ारूक़ी, डॉ. आरिफ़ अज़ीज़, डॉ. राजेश रैना, शारिक नूर, इशरत सग़ीर, एज़ाज़ुर रहमान, संजय कुमार, डॉ. माजिद हुसैन, आऱिफ ख़ान मंसूरी, डॉ. जीए क़ादरी, मासूम मुरादाबादी और धनंजय चोपड़ा आदि के उर्दू की हालत को बयां करते कई लेख शामिल हैं. उर्दू पत्रकारिता के मुद्दे पर हिंदी में किताब प्रकाशित करना, वाक़ई उर्दू की लोकप्रियता को दर्शाता है.<br />
किताब के संपादक संजय द्विवेदी कहते हैं कि इस किताब के बहाने हमने एक छोटी शुरुआत की है, इस भरोसे के साथ कि उर्दू सहाफ़त के मुस्तक़बिल पर बातचीत किसी अंजाम तक पहुंचेगी ज़रूर. वह कहते हैं कि आज की उर्दू पत्रकारिता के मुद्दे देश की भाषाई पत्रकारिता के मुद्दों से अलग नहीं हैं. समूची भारतीय भाषाओं के सामने आज अंग्रेजी और उसके साम्राज्यवाद का ख़तरा मंडरा रहा है. कई भाषाओं में संवाद करता हिंदुस्तान दुनिया और बाज़ार की ताक़तों को चुभ रहा है. उसकी संस्कृति को नष्ट करने के लिए पूरे हिंदुस्तान को एक भाषा (अंग्रेज़ी) में बोलने के लिए विवश करने के प्रयास चल रहे हैं. अपनी मातृभाषा को भूलकर अंग्रेज़ी में गपियाने वाली जमातें तैयार की जा रही हैं, जिनकी भाषा, सोच और सपने सब विदेशी हैं. अमेरिकी और पश्चिमी देशों की तरफ़ उड़ान भरने को तैयार यह पीढ़ी अपनी जड़ों को भूल रही है. उसे ग़ालिब, रहीम, रसखान, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, मलिक मोहम्मद जायसी की बजाय पश्चिमी धुनों पर थिरकाया जा रहा है. जड़ों से विस्मृत होती इस पीढ़ी को मीडिया की ताक़त से बचाया जा सकता है. अपनी भाषाओं, ज़मीन और संस्कृति से प्यार पैदा करके ही देशप्रेम से भरी पीढ़ी तैयार की जा सकती है. उर्दू पत्रकारिता की बुनियाद भी इन्हीं संस्कारों से जुड़ी है. उर्दू और उसकी पत्रकारिता को बचाना दरअसल एक भाषा भर को बचाने का मामला नहीं है, वह प्रतिरोध है बाज़ारवाद के ख़िलाफ़, प्रतिरोध है उस अधिनायकवादी मानसिकता के ख़िलाफ़ जो विविधताओं को, बहुलताओं को, स्वीकारने और आदर देने के लिए तैयार नहीं है. यह प्रतिरोध हिंदुस्तान की सभी भाषाओं का है, जो मरने के लिए तैयार नहीं हैं. वे अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ डटकर खड़ी हैं और खड़ी रहेंगी.<br />
उर्दू के भविष्य को लेकर जहां कुछ लोग फ़िक्रमंद नज़र आते हैं, वहीं ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो उर्दू के मुस्तक़बिल को रौशन मानते हैं. वरिष्ठ पत्रकार और शायर तहसीन मुनव्वर कहते हैं कि फ़िल्में हों या टीवी धारावाहिक सब जगह उर्दू की ज़रूरत है. इसलिए यही कहा जा सकता है कि उर्दू पत्रकारिता का भविष्य रौशन है, मगर सवाल इस बात का है कि जिनके हाथ में यह भविष्य है, वह रौशन ज़ेहन और रौशन क़लम और क़लम के धनी हैं कि नहीं? इसी तरह आकाशवाणी केंद्र भोपाल में संवाददाता शारिक नूर कहते हैं कि यदि उर्दू मीडिया के उजले पक्ष को देखा जाए, तो यह पीत पत्रकारिता से काफ़ी हद तक दूर है. केंद्र सरकार और कुछ अन्य मीडिया समूह उर्दू चैनल्स लाए हैं. उर्दू अख़बारों की बेवसाइट्स और ई-संस्करण हैं. हिंदी के कुछ अख़बार भी उर्दू भाषियों को आकर्षित करने के लिए उर्दू पन्ने प्रकाशित कर रहे हैं. भोपाल से प्रकाशित होने वाला एक हिंदी अख़बार उर्दू अदब नाम से हिंदी का पन्ना प्रकाशित करता है, तो एक अन्य मीडिया समूह रविवार के दिन फ़ारसी लिपि में ही उर्दू का एक पृष्ठ दे रहा है. इससे तो यही संकेत मिलता है कि उर्दू पत्रकारिता के लिए माहौल साज़गार है.<br />
हिंदुस्तान में उर्दू मीडिया का भविष्य बहुत उज्जवल है, बशर्ते इस दिशा में गंभीरता से काम किया जाए. मौजूदा दौर में उर्दू अख़बारों के सामने कई मुश्किलें हैं. इस मुल्क में उर्दू के हज़ारों अख़बार हैं, लेकिन ज़्यादातर अख़बारों की माली हालत अच्छी नहीं है. उर्दू के पाठक कम होने की वजह से अख़बारों की प्रसार संख्या भी सीमित है. उर्दू अख़बारों को साल में गिने-चुने दिनों में ही विज्ञापन मिल पाते हैं. उर्दू अख़बारों को यह भी शिकायत रहती है कि सरकारी विज्ञापन भी उन्हें बहुत कम मिलते हैं. इसके अलावा क़ाग़ज़ की बढ़ती क़ीमतों ने अख़बारों के लिए मुश्किलें ही पैदा की हैं.<br />
उर्दू मूल रूप से तुर्की भाषा का शब्द है. इसका मतलब है-शाही शिविर या ख़ेमा. तुर्कों के साथ यह शब्द भी हिंदुस्तान आया. उर्दू भारतीय संघ की 18 भाषाओं में से एक है. उर्दू के लिए फ़ारसी लिपि का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन कुछ ऐसी पत्रिकाएं भी हैं, जिनकी लिपि फ़ारसी न होकर हिंदी है. फ़िलहाल देश में उर्दू की हालत को बयान करने के लिए यह शेअर काफ़ी है-<br />
सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं<br />
मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूं<br />
बहरहाल, यह किताब उर्दू पत्रकारिता पर आधारित एक बेहतर दस्ताव़ेज है. संजय द्विवेदी कहते हैं कि यह किताब देवनागरी में प्रकाशित की जा रही है, ताकि हिंदी भाषी पाठक भी उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम अतीत और वर्तमान में उसके संघर्ष का आकलन कर सकें. बेशक, इस बेहतरीन कोशिश के लिए संजय द्विवेदी मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं.<br />
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समीक्ष्य कृति : उर्दू पत्रकारिता का भविष्य<br />
संपादक : संजय द्विवेदी<br />
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, दिल्ली<br />
क़ीमत : 295 रुपये<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-60226851805332591792019-03-21T01:00:00.000+05:302019-03-21T09:44:09.362+05:30होलिया में उड़े रे गुलाल...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJl8IApUSBxThIUH1NWebZV4k9CiBQY0Qher13gmiAadUA1QFo6AGPHcE_yu4aVKpFveY9neK4v8ME5mZkYkGZlDzb0tzRKPZn8HI0YFenfUe0eZ_9hvCzDprHQbxGEDbB2w_MP5gMoNc/s1600/Holi-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="282" data-original-width="616" height="145" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJl8IApUSBxThIUH1NWebZV4k9CiBQY0Qher13gmiAadUA1QFo6AGPHcE_yu4aVKpFveY9neK4v8ME5mZkYkGZlDzb0tzRKPZn8HI0YFenfUe0eZ_9hvCzDprHQbxGEDbB2w_MP5gMoNc/s320/Holi-1.jpg" width="320" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
हिन्दुस्तानी त्योहार हमें बचपन से ही आकर्षित करते रहे हैं, क्योंकि ये त्योहार मौसम से जुड़े होते हैं, प्रकृति से जुड़े होते हैं. हर त्योहार का अपना ही रंग है, बिल्कुल मन को रंग देने वाला. बसंत पंचमी के बाद रंगों के त्योहार होली का उल्लास वातावरण को उमंग से भर देता है. होली से कई दिन पहले बाज़ारों, गलियों और हाटों में रंग, पिचकारियां सजने लगती हैं. छोटे क़स्बों और गांवों में होली का उल्लास देखते ही बनता है. महिलाएं कई दिन पहले से ही होलिका दहन के लिए भरभोलिए बनाने लगती हैं. भरभोलिए गाय के गोबर से बने उन उपलों को कहा जाता है, जिनके बीच में छेद होता है. इन भरभेलियों को मूंज की रस्सी में पिरोकर माला बनाई जाती है. हर माला में सात भरभोलिए होते हैं. इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमाने के बाद होलिका दहन में डाल दिया जाता है. होली का सबसे पहला काम झंडा लगाना है. यह झंडा उस जगह लगाया जाता है, जहां होलिका दहन होना होता है. मर्द और बच्चों चैराहों पर लकड़िया इकट्ठी करते हैं. होलिका दहन के दिन दोपहर में विधिवत रूप से इसकी पूजा-अर्चना की जाती है. महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए घरों में पकवानों का भोग लगाती हैं. रात में मुहूर्त के समय होलिका दहन किया जाता है. किसान गेहूं और चने की अपनी फ़सल की बालियों को इस आग में भूनते हैं. देर रात तक होली के गीत गाए जाते हैं और लोग नाचकर अपनी ख़ुशी का इज़हार करते हैं.<br />
होली के अगले दिन को फाग, दुलहंदी और धूलिवंदन आदि नामों से पुकारा जाता है. हर राज्य में इस दिन को अलग नाम से जाना जाता है. बिहार में होली को फगुआ या फागुन पूर्णिमा कहते हैं. फगु का मतलब होता है, लाल रंग और पूरा चांद. पूर्णिमा का चांद पूरा ही होता है. हरित प्रदेश हरियाणा में इसे धुलैंडी कहा जाता है. इस दिन महिलाएं अपने पल्लू में ईंट आदि बांधकर अपने देवरों को पीटती हैं. यह सब हंसी-मज़ाक़ का ही एक हिस्सा होता है. महाराष्ट्र में होली को रंगपंचमी और शिमगो के नाम से जाना जाता है. यहां के आम बाशिंदे जहां रंग खेलकर होली मनाते हैं, वहीं मछुआरे नाच के कार्यक्रमों का आयोजन कर शिमगो मनाते हैं. पश्चिम बंगाल में होली को दोल जात्रा के नाम से पुकारा जाता है. इस दिन भगवान श्रीकृष्ण और राधा की मूर्तियों का मनोहारी श्रृंगार कर शोभा यात्रा निकाली जाती है. शोभा यात्रा में शामिल लोग नाचते-गाते और रंग उड़ाते चलते हैं. तमिलनाडु में होली को कामान पंडिगई के नाम से पुकारा जाता है. इस दिन कामदेव की पूजा की जाती है. किवदंती है कि शिवजी के क्रोध के कारण कामदेव जलकर भस्म हो गए थे और उनकी पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें दोबारा जीवनदान मिला.<br />
इस दिन सुबह से ही लोग रंगों से खेलना शुरू कर देते हैं. बच्चे-बड़े सब अपनी-अपनी टोलियां बनाकर निकल पड़ते हैं. ये टोलियां नाचते-गाते रंग उड़ाते चलती हैं. रास्ते जो मिल जाए, उसे रंग से सराबोर कर दिया जाता है. महिलाएं भी अपने आस पड़ोस की महिलाओं के साथ इस दिन का भरपूर लुत्फ़ उठाती हैं. इस दिन दही की मटकियां ऊंचाई पर लटका दी जाती हैं और मटकी तोड़ने वाले को आकर्षक इनाम दिया जाता है. इसलिए युवक इसमें बढ़-चढ़कर शिरकत करते हैं.<br />
रंग का यह कार्यक्रम सिर्फ़ दोपहर तक ही चलता है. रंग खेलने के बाद लोग नहाते हैं और भोजन आदि के बाद कुछ देर विश्राम करने के बाद शाम को फिर से निकल पड़ते हैं. मगर अब कार्यक्रम होता है, गाने-बजाने का और प्रीति भोज का. अब तो होली से पहले ही स्कूल, कॊलेजों व अन्य संस्थानों में होली के उपलक्ष्य में समारोहों का आयोजन किया जाता है. होली के दिन घरों में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें खीर, पूरी और गुझिया शामिल है. गुझिया होली का ख़ास पकवान है. पेय में ठंडाई और भांग का विशेष स्थान है.<br />
होली एक ऐसा त्योहार है, जिसने मुग़ल शासकों को भी प्रभावित किया. अकबर और जहांगीर भी होली खेलते थे. शाहजहां के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी के नाम से पुकारा जाता था. पानी की बौछार को आब-ए-पाशी कहते हैं. आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र भी होली मनाते थे. इस दिन मंत्री बादशाह को रंग लगाकर होली की शुभकामनाएं देते थे. पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक सफ़रनामे मे होली का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया है. हिन्दू साहित्यकारों ही नहीं मुस्लिम सूफ़ियों ने भी होली को लेकर अनेक कालजयी रचनाएं रची हैं. अमीर ख़ुसरो साहब कहते हैं-<br />
मोहे अपने ही रंग में रंग दे<br />
तू तो साहिब मेरा महबूब ऐ इलाही<br />
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया वो तो दोनों बसंती रंग दे<br />
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरबी रख ले<br />
आन परी दरबार तिहारे<br />
मोरी लाज शर्म सब ले<br />
मोहे अपने ही रंग में रंग दे...<br />
होली के दिन कुछ लोग पक्के रंगों का भी इस्तेमाल करते हैं, जिसके कारण जहां उसे हटाने में कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है, वहीं इससे एलर्जी होने का ख़तरा भी बना रहता है. हम और हमारे सभी परिचित हर्बल रंगों से ही होली खेलते हैं. इन चटक़ रंगों में गुलाबों की महक भी शामिल होती है. इन दिनों पलाश खिले हैं. इस बार भी इनके फूलों के रंग से ही होली खेलने का मन है.<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-43490710861554350572019-03-21T00:30:00.000+05:302019-03-21T09:44:59.694+05:30जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS7rOqCpX8X_9_lrbxIa4ueQnA_Im_KVkg8H5RoTp9kLkmBvIkYsm16-Ptb_ftgwFeJKGgyzz94TnBevBVi-gVSBtq4o7qcKYpy_OTbElc6F56qlhxXa2qPNrRjpNwGXNq96RDd0BsLG8/s1600/download+%25281%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhS7rOqCpX8X_9_lrbxIa4ueQnA_Im_KVkg8H5RoTp9kLkmBvIkYsm16-Ptb_ftgwFeJKGgyzz94TnBevBVi-gVSBtq4o7qcKYpy_OTbElc6F56qlhxXa2qPNrRjpNwGXNq96RDd0BsLG8/s1600/download+%25281%2529.jpg" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
होली बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला रंगों का पावन पर्व है. फाल्गुन माह में मनाए जाने की वजह से इसे फागुनी भी कहा जाता है. देश भर में हर्षोल्लास के साथ यह पर्व मनाया जाता है. म़ुगल शासनकाल में भी होली को पूरे जोश के साथ मनाया जाता था. अलबरूनी ने अपने स़फरनामे में होली का खूबसूरती से ज़िक्र किया है. अकबर द्वारा जोधा बाई और जहांगीर द्वारा नूरजहां के साथ होली खेलने के अनेक क़िस्से प्रसिद्ध हैं. शाहजहां के दौर में होली खेलने का अंदाज़ बदल गया था. उस वक़्त होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था. आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में कहा जाता है कि उनके वज़ीर उन्हें गुलाल लगाया करते थे. सूफ़ी कवियों और मुस्लिम साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में होली को बड़ी अहमियत दी है.<br />
<br />
खड़ी बोली के पहले कवि अमीर ख़ुसरो ने हालात-ए-कन्हैया एवं किशना नामक हिंदवी में एक दीवान लिखा था. इसमें उनके होली के गीत भी हैं, जिनमें वह अपने पीर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के साथ होली खेल रहे हैं. वह कहते हैं-<br />
गंज शकर के लाल निज़ामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो<br />
ख्वाजा मुईनुद्दीन, ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो<br />
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो<br />
<br />
अपने रंगीले पे हूं मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो<br />
धन-धन भाग वाके मोरी सजनी, जिनोने ऐसो सुंदर प्रीतम पायो...<br />
<br />
कहा जाता है कि अमीर ख़ुसरो जिस दिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बने थे, उस दिन होली थी. फिज़ा में अबीर-गुलाल घुला था. उन्होंने अपने मुरीद होने की ख़बर अपनी मां को देते हुए कहा था-<br />
आज रंग है, ऐ मां रंग है री<br />
मोहे महबूब के घर रंग है री<br />
सजन गिलावरा इस आंगन में<br />
मैं पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया<br />
गंज शकर मोरे संग है री...<br />
<br />
पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि बाबा बुल्ले शाह अपनी एक रचना में होली का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं-<br />
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह<br />
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह<br />
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना फ़ी अल्लाह<br />
होरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह...<br />
<br />
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त रसखान ने भी अपनी रचनाओं में होली का मनोहारी वर्णन किया है. होली पर ब्रज का चित्रण करते हुए वह कहते हैं-<br />
फागुन लाग्यौ सखि जब तें तब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है<br />
नारि नवेली बचै नाहिं एक बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है<br />
सांझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलालन खेल मच्यौ है<br />
को सजनी निलजी न भई अरु कौन भटु जिहिं मान बच्यौ है...<br />
<br />
होली पर प्रकृति ख़ुशनुमा होती है. हर तरफ़ हरियाली छा जाती है और फूल भी अपनी भीनी-भीनी महक से माहौल को महका देते हैं. इसी का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध लोक कवि नज़ीर अकबराबादी कहते हैं-<br />
जब फागुन रंग झमकते हों<br />
तब देख बहारें होली की<br />
और ढफ के शोर खड़कते हों<br />
तब देख बहारें होली की...<br />
<br />
परियों के रंग दमकते हों<br />
तब देख बहारें होली की<br />
खम शीश-ए-जाम छलकते हों<br />
तब देख बहारें होली की...<br />
<br />
गुलज़ार खिले हों परियों के<br />
और मजलिस की तैयारी हो<br />
कपड़ों पर रंग के छीटों से<br />
खुश रंग अजब गुलकारी हो<br />
उस रंग भरी पिचकारी को<br />
अंगिया पर तक कर मारी हो<br />
तब देख बहारें होली की…<br />
<br />
नज़ीर अकबराबादी की ग्रंथावली में होली से संबंधित 21 रचनाएं हैं. बहादुर शाह ज़फ़र सहित कई मुस्लिम कवियों ने होली पर रचनाएं लिखी हैं. बहरहाल, मुग़लों के दौर में शुरू हुआ होली खेलने का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. नवाबों के शहर लखनऊ में तो हिंदू-मुसलमान मिलकर होली बारात निकालते हैं. रंगों का यह त्योहार सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है.<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-42561330942204836142019-03-21T00:00:00.000+05:302019-03-21T09:41:55.948+05:30...ताकि होली की ख़ुशियां क़ायम रहें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEido5YP8aDf-OxBD_H01ElaZwoma_2Dix_j5yMtdYO6hkFZY7r7dzs_WI6zecrySaCmbUBCYTFIvQOIctfUGbelG55jNqgoyq50x8SKl58MMQKoivBcU9N0P0PMvVyCFlagmJ6ExDHmMLA/s1600/Holi-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="216" data-original-width="360" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEido5YP8aDf-OxBD_H01ElaZwoma_2Dix_j5yMtdYO6hkFZY7r7dzs_WI6zecrySaCmbUBCYTFIvQOIctfUGbelG55jNqgoyq50x8SKl58MMQKoivBcU9N0P0PMvVyCFlagmJ6ExDHmMLA/s320/Holi-2.jpg" width="320" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
त्यौहारों का मज़ा तब ही है, जब वे ख़ुशियों के साथ संपन्न हों. होली है तो रंग भी होंगे. रंगों के साथ हुड़दंग भी होगा, ढोल-ताशे भी होंगे. यही सब तो होली की रौनक़ है. होली रंगों का त्यौहार है, हर्षोल्लास का त्यौहार है, उमंग का त्यौहार है. लेकिन दुख तो तब होता है, जब ज़रा सी लापरवाही से रंग में भंग पड़ जाता है. इंद्रधनुषी रंगों के इस त्यौहार की ख़ुशियां बरक़रार रहें, इसके लिए काफ़ी एहतियात बरतने की ज़रूरत होती है. अकसर देखने में आता है कि रसायनिक रंगों, भांग और शराब की वजह से कई परेशानियां पैदा हो जाती हैं.<br />
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बाज़ार में रंगों की बहार है. ज़्यादातर रंगों में रासायन मिले होते हैं, जो आंखों और त्वचा के लिए नुक़सानदेह हो सकते हैं. चिकित्सकों के मुताबिक़ रंगों ख़ासकर गुलाल में मिलाए जाने वाले चमकदार अभ्रक से कॉर्निया को नुक़सान हो सकता है. रसायनिक रंगों में भारी धातु जैसे सीसा हो सकती हैं, जिससे आंख, त्वचा को नुक़सान पहुंचने के अलावा डर्माटाइटिस, त्वचा का सूखना या चैपिगं, स्किन कैंसर, राइनाइटिस, अस्थमा और न्यूमोनिया जैसी बीमारियां हो सकती हैं. एम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हरे और नीले रंगों का संबंध ऑक्युलर टॉक्सिसिटी से है. ज़्यादातर 'प्लेजिंग टू आई' रंग बाज़ार में मौजूद हैं, जो टॉक्सिक होते हैं और इनकी वजह से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं. मैलाशाइट ग्रीन का इस्तेमाल होली के रंगों में बहुत होता है और इसकी वजह से आंखों में गंभीर खुजली की हो जाती है और एपिथीलियल को नुक़सान होता है. इसलिए इसे कॉर्नियाल के आसपास नहीं लगाना चाहिए. इसके अलावा सस्ते रसायन जैसे सीसा, एसिड, एल्कलीज, कांच के टुकड़े से न सिर्फ़ त्वचा संबंधी समस्या होती है, बल्कि एब्रेशन, खुजली या झुंझलाहट के साथ ही दृष्टि असंतुलित हो जाती है और सांस संबंधी समस्या हो सकती है. इससे कैंसर का ख़तरा भी बना रहता है. एल्कलीन वाले रंगों से ज़ख़्म हो सकते है. अमूमन बाज़ार में तीन तरह के रंग बिकते हैं, पेस्ट, सूखा पाउडर और पानी वाले रंग. परेशानी तब बढ़ जाती है, जब इन्हें तेल के साथ मिलाकर त्वचा पर इस्तेमाल किया जाता है. ज़्यादातर रंग या गुलाल में दो तत्व होते हैं- एक कलरेंट जो टॉक्सिक हो सकता है और दूसरा एस्बेसटस या सिलिका होता है. दोनों से ही स्वास्थ्य संबंधी ख़तरे होते हैं. सिलिका से त्वचा पर बुरा असर पड़ता है, जबकि एस्बेसटस से कैंसर हो सकता है.<br />
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होली खेलने के लिए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना सबसे अच्छा है. बाज़ार में हर्बल रंग भी मिलते हैं, लेकिन इनकी क़ीमत ज़्यादा होती है. वैसे घर पर भी प्राकृतिक रंग बनाए जा सकते हैं. पीले रंग के लिए हल्दी सबसे अच्छी है. टेसू के फूलों को पानी में उबालकर पीला रंग तैयार किया जा सकता है. अमलतास और गेंदे के फूलों को पानी में उबालकर भी पीला रंग बनाया जा सकता है. लाल रंग के लिए लाल चंदन पाउडर का इस्तेमाल किया जा सकता है. गुलाब और गुड़हल के सूखे फूलों को पीसकर गुलाल बनाया जा सकता है. गुलाबी रंग के लिए चुकंदर को पीसकर उबाल लें. कचनार के फूलों को पीसकर पानी में मिलाने से क़ुदरती गुलाबी या केसरिया रंग बनाया जा सकता है. हरा रंग बनाने के लिए मेहंदी का इस्तेमाल किया जा सकता है. मेहंदी के पत्तों को पीसकर प्राकृतिक हरा रंग बनाया जा सकता है. नीले रंग के लिए नील का इस्तेमाल किया जा सकता है.<br />
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कुछ लोग होली के दिन पक्के रंगों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे रंग कई दिन तक नहीं उतरता. इससे कई बार मनमुटाव भी हो जाता है. कुछ लोग होली खेलना पसंद नहीं करते. ऐसे लोगों को जबरन रंग लगाया जाता है, तो लड़ाई-झगड़ा भी हो जाता है. बच्चे सादे या रंगीन पानी से भरे ग़ुब्बारे एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ग़ुब्बारा आंख के पास लग जाने से आंख को नुक़सान हो सकता है. ये ग़ुब्बारे अकसर लड़ाई-झगड़ों की वजह भी बन जाते हैं. होली खेलने के दौरान कुछ सावधानियां बरत कर इस पर्व की ख़ुशी को बरक़रार रखा जा सकता है. बच्चों को ग़ुब्बारों से न खेलने दें. दांतों के बचाव के लिए डेंटल कैप्स का इस्तेमाल करना चाहिए. नुक़सानदेह रंगों से बचाव के लिए धूप के चश्मे का इस्तेमाल किया जा सकता है. शरीर को रंगों के द्ष्प्रभाव से बचाने के लिए पूरी बांह के कपड़े पहनने चाहिए. चमकदार और गहरे रंग के पुराने कपड़ों को तरजीह दी जानी चाहिए. जब कोई जबरन रंग लगाने की कोशिश करे, तो आंखें और होंठ बंद रखते हुए अपना बचाव करना चाहिए. बालों में तेल ज़रूर लगा लेना चाहिए, ताकि उन पर रंगों का बुरा असर न पड़े. रंगों को साफ़ करने के लिए गुनगुने पानी का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर आंख में रंग पड़ गया है, तो फ़ौरन इसे बहते हुए नल से धो लेना चाहिए. रंग में में रसायनिक तत्व होंगे, तो इससे आंखों में हल्की एलर्जी होगी या फिर बहुत तेज़ जलन होने लगेगी. व्यक्ति को एलर्जी की समस्या, कैमिकल बर्न, कॉर्नियल एब्रेशन और आंखों में ज़ख़्म की समस्या हो सकती है. होली के दौरान आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले ज़्यादातर रंग हल्के लाल रंग के होते हैं और इसका असर 48 घंटे तक रहता है. अगर साफ़ दिखाई न दे, तो मरीज़ को फ़ौरन इमरजेंसी में दाख़िल कराया जाना चाहिए.<br />
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होली पर भांग और शराब का सेवन आम है. चिकित्सकों के मुताबिक़ भांग के सेवन की वजह से दिल की धड़कन और ब्लड प्रेशर बढ़ सकता है, जिससे मस्तिष्क को नुक़सान पहुंचने का ख़तरा बना रहता है. भांग से से मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है, जिससे व्यक्ति ख़ुद को संभाल नहीं पाता. शराब पीने वालों के साथ भी अकसर ऐसा होता है. ज़्यादा शराब पीने के बाद व्यक्ति अपनी सुधबुध खो बैठता है. इसकी वजह से सड़क हादसे का खतरा भी बढ़ जाता है.<br />
होली प्रेम का पावन पर्व है, इसलिए इसे सावधानी पूर्वक प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए.</div>
फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-80296713391804381682019-03-20T00:30:00.000+05:302019-03-21T09:49:02.315+05:30गौरैया बिन सूना घर-आंगन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgClm-uG5Q3rXz89nkz6-OpzlmxaxHGdSs2HtVNXmILyae1VuCxqwcjKhILqgSCcD-QKWTYKjScHy-Gb2G0JWzggB9BQv02Iewiy1qEiKhBXdg48h_kY6_Z0aa5V_4oWI4XvCNxhdgMidI/s1600/images+%25283%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="168" data-original-width="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgClm-uG5Q3rXz89nkz6-OpzlmxaxHGdSs2HtVNXmILyae1VuCxqwcjKhILqgSCcD-QKWTYKjScHy-Gb2G0JWzggB9BQv02Iewiy1qEiKhBXdg48h_kY6_Z0aa5V_4oWI4XvCNxhdgMidI/s1600/images+%25283%2529.jpg" /></a></div>
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विश्व गौरैया दिवस 20 मार्च पर विशेष<br />
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
सुबह होते ही गौरैया घर आंगन में चहकती, फुदकती फिरती थीं. उनकी चहचहाहट सुबह को ख़ुशगवार बना दिया करती थी. कुछ दहाई पहले तक घर के आंगन में गौरैया का बसेरा हुआ करता था, लेकिन फिर हालात ऐसे बदले कि कान गौरैया की चहचहाहट सुनने को तरस गए. गौरैया बस्तियों के आसपास रहना पसंद करती है. उसे इंसानों से बेहद लगाव है, लेकिन इंसानों ने आधुनिकता की चकाचौंध के फेर में इस नन्हे परिन्दे के आशियाने को ही उजाड़ कर रख दिया है. महानगरों और शहरों को छोड़ दें, तो गांव-देहात में अब भी गौरैया नज़र आ जाती हैं.<br />
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गौरैया एक छोटी चिड़िया है. मादा गौरैया को चिड़ी या चिड़िया और नर गौरैया को चिड़ा भी कहते हैं. यह हल्के भूरे रंग की होती है. इसके शरीर पर छोटे-छोटे पंख और पीली चोंच और पैरों का रंग पीला होता है. नर गौरैया का पहचान उसके गले के पास काले धब्बे से होती है. यह पासेराडेई परिवार की सदस्य है, लेकिन कुछ लोग इसे 'वीवर फिंच' परिवार की सदस्य मानते हैं. इसकी लंबाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है और इसका वज़न 25 से 35 ग्राम तक होता है. एक वक़्त में इसके कम से कम तीन अंडे होते हैं. गौरेया ज़्यादातर झुंड में ही रहती है. भोजन की तलाश गौरेया के झुंड दो मील तक की दूरी तय कर लेते हैं. शहरी इलाक़ों में गौरैया की छह तरह ही प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो शामिल हैं. इनमें हाउस स्पैरो को गौरैया कहा जाता है.<br />
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गौरैया शहरों में ज़्यादा पाई जाती है. अमूमन यह हर तरह की जलवायु में रहती है, लेकिन पहाड़ी इलाक़ों में यह कम दिखाई देती है. गांव-देहात, क़स्बों और छोटे शहरों में इसे ख़ूब देखा जा सकता है. मगर अब गौरैया लुप्त होने की क़गार पर है. भारत सहित दुनिया के कई देशों ब्रिटेन, इटली, फ़्रांस, जर्मनी और चेक गणराज्य आदि में इसकी तादाद बहुत तेज़ी से कम हो रही है. पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के मुताबिक़ गौरैया की आबादी घटकर ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गई है. पक्षी विज्ञानी मानते हैं कि गौरैया की आबादी में 60 से 80 फ़ीसद कमी आई है. आंध्र विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन की मानें, तो गौरैया की आबादी में तक़रीबन 60 फ़ीसद की गिरावट दर्ज की गई है. ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ़ प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्डस’ ने भारत से लेकर दुनिया के कई हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में शामिल कर लिया है. नीदरलैंड में इसे 'दुर्लभ प्रजाति' के वर्ग में रखा गया है.<br />
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गौरैया की घटती तादाद के लिए बदलता माहौल काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है. पहले घर के आंगन बड़े हुआ करते थे. परिन्दों को दाना डाला जाता था. उनके लिए पानी से भरे कूंडे रखे जाते थे. भोजन और पानी की तलाश में उन्हें भटकना नहीं पड़ता था. आबादी से पेड़ कटने लगे हैं. बाग़-बग़ीचों, खेत-खलिहानों की जगह कंकरीट के जंगल बस गए हैं. पहले घरों में पेड़ होते थे, रौशनदान वग़ैरह होते थे, जहां गौरैया अपना बसेरा बना लिया करती थी. मगर अब घर की जगह फ़्लैट्स बनने लगे हैं, जिनमें आंगन के लिए कोई जगह नहीं होती. पक्षी विज्ञानी और वन्यप्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि खेतों में कीटनाशकों के ज़्यादा इस्तेमाल से गौरैया पर बुरा असर पड़ा है. गौरैया के बच्चों का शुरुआती सिर्फ़ कीड़े-मकोड़े ही होते हैं, लेकिन अब लोग खेतों से लेकर अपने घर की क्यारियों तक में रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे पौधों को कीड़े नहीं लगते. ऐसे में गौरैया जैसे परिन्दों को भोजन नहीं मिल पाता. जो कीड़े होते भी हैं, वे कीटनाशकों की वजह से मर जाते हैं. फिर इन्हीं ज़हरीले कीटों को खाने से गौरैया मर जाती हैं. सीसा रहित पेट्रोल के जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता है, जो छोटे जीव-जंतुओं के लिए नुक़सानदेह है. अब घरों में गौरैया के लिए दाना-पानी रखने का चलन भी बंद हो गया है. इसलिए गौरैया के लिए भोजन का संकट भी पैदा हो गया है.<br />
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गौरैया को अपने घोंसलों के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल पाती, ऐसे में उसके अंडे और नन्हे बच्चे दूसरे जीव खा जाते हैं. वह ख़ुद भी चील, बाज़ और बिल्लियों का भोजन बन जाती है. अगर किसी घर में गौरैया ने अपना घोंसला बना भी लिया, तो लोग नज़र पड़ते ही उसे उजाड़ देते हैं. इसके अलावा मोबाइल टावरों से निकले वाली तंरगों को भी गौरैयों के लिए हानिकारक माना जा रहा है. ये तंरगें उनकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही हैं और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ रहा है. पक्षी विज्ञानियों का कहना है कि गौरैया के घोंसलों के लिए ऐसी जगह मुहैया करानी होगी, जहां उसके अंडे और बच्चे सुरक्षित रहें.<br />
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गौरैया के प्रति जनमानस में जागरुकता पैदा करने के लिए साल 2010 में विश्व गौरैया दिवस मनाने का फ़ैसला किया गया, तक से हर साल 20 मार्च को दुनियाभर में विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है. सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मुहम्मद दिलावर जैसे लोग गौरैया के संरक्षण के काम में जुटे हैं और उन्हीं की कोशिशों का नतीजा है कि अब दुनिया भर में 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाने लगा है. दिल्ली सरकार ने साल 2012 में इसे राज्य-पक्षी घोषित किया था. यह बिहार का राज्य पक्षी है.<br />
ग़ौरतलब है कि महाराष्ट्र के नासिक शहर के पर्यावरण विज्ञानी मोहम्मद दिलावर बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी से जुड़े हुए हैं. उन्होंने साल 2008 में गौरैया को बचाने की मुहिम शुरू की थी. उन्होंने इंटरनेट के ज़रिये गौरैया संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने का काम शुरू किया. इस मुहिम को कामयाबी मिली और 50 देशों तक उनकी बात पहुंच गई.<br />
उन्होंने लकड़ी से गौरेया के लिए छोटे-छोटे घर बनाए हैं और एक फ़ीडर भी, जिससे गौरैया को सुरक्षित जगह और दाना-पानी मिल सके. गौरैया घर की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई इतनी रखी गई है कि वह इसमें आराम से रह सके. इसके निचले हिस्से में छोटे-छोटे कई छिद्र हैं, ताकि हवा आ जा सके और पानी आसानी से बह जाए.<br />
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गौरैया के संरक्षण के प्रति सरकार भी गंभीर नज़र आ रही है. देश भर में सरकारी स्तर पर गौरैया के संरक्षण के लिए मुहिम चलाई जा रही है. इसके तहत लोगों को गौरैया के अस्तित्व पर आए संकट के बारे में बताया जा रहा है. विद्यालयों में जागरुकता कार्यक्रमों का आयोजन कर बच्चों को गौरैया संरक्षण के बारे में बताया जा रहा है. बच्चों को बताया जा रहा है कि यह जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों इस सॄष्टि के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं. बच्चों को गौरैया घर बांटे जा रहे हैं, ताकि वे उन्हें अपने घर में लगाएं.<br />
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पिछले साल बिहार के वन एवं पर्यावरण विभाग ने गौरैया के संरक्षण के लिए सभी सरकारी दफ़्तरों, आवासों, विद्यालयों, सामुदायिक भवनों और अन्य सभी सरकारी इमारतों में लकड़ी के 'गौरैया घर' रखने की मुहिम शुरू की थी. इसके तहत राज्यभर में गौरैया संरक्षण के लिए जन जागृति अभियान चलाया जा रहा है. जगह-जगह नुक्कड़ नाटकों और और सेमिनारों के ज़रिये लोगों को गौरैया संरक्षण के लिए प्रेरित करना है. सरकारी विद्यालयों में बच्चों को गौरैया घर वितरित किए जा रहे हैं. सरकार का मानना है कि अब घरों में आंगन ख़त्म होते जा रहे हैं. ऐसे में गौरैया को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित जगह नहीं मिल पा रही है.<br />
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उत्तर प्रदेश में लड़की के छोटे-छोटे घर बनाकर लोगों से उन्हें अपने घर में रखने की अपील की जा रही है, ताकि गौरैया को आबादी में रहने के लिए जगह मिल सके. अधिकारियों का कहना है कि गौरैया को बचाने के लिए लोगों को कोशिश करनी चाहिए. घोंसले बनाकर उनके लिए दाना-पानी का इंतज़ाम करके उन्हें बचाया जा सकता है. ग़ैर सरकारी संस्थाएं भी गौरैया बचाओ मुहिम में शामिल हो रही हैं. गांव-देहात के लोग भी इस नन्हे परिन्दे को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं. चिड़िया घरों में विश्व गौरैया दिवस पर गौरैया घरों की बिक्री की जाएगी.<br />
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गौरैया का अस्तित्व ख़तरे में है. अगर जल्द ही इसके संरक्षण के लिए कारगर क़दम नहीं उठाए गए, आने वाली पीढ़ियां इसे देखने को तरस जाएंगी. गौरैया के संरक्षण के लिए जनमानस में जागरुकता पैदा करनी होगी. विश्व गौरैया दिवस बीत जाने के बाद भी गौरैया बचाओ मुहिम धीमी नहीं पड़नी चाहिए. इस मुहिम को जनमानस तक पहुंचाना होगा, तभी इसके बेहतर नतीजे सामने आएंगे. गौरैया संरक्षण की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की ही नहीं है, बल्कि यह हम सबकी सांझी ज़िम्मेदारी है. इसलिए गौरैया संरक्षण के लिए सबको साथ मिलकर काम करना होगा, ताकि हमारे घरों के आंगन में फिर से गौरैया चहकने लगें.<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-65402817091361517912019-03-19T12:31:00.001+05:302019-03-19T12:31:56.108+05:30राहुल हैं, तो राहत है <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGysiYvC9W9WCqOM6Dn6PDPmzjBNAeZ-mD0bHyItLh4mOlQNqx4JKUpB8yIJqtmbT_G9HpqQwnsrgc0MzHnXiTWgPafbw0nA0HlordU51yvmoFLknD2iq9hRWaGxaPUBPbJfzJVdbLQgk/s1600/Rahul+hain+toh+Rahat+hai-2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="392" data-original-width="696" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGysiYvC9W9WCqOM6Dn6PDPmzjBNAeZ-mD0bHyItLh4mOlQNqx4JKUpB8yIJqtmbT_G9HpqQwnsrgc0MzHnXiTWgPafbw0nA0HlordU51yvmoFLknD2iq9hRWaGxaPUBPbJfzJVdbLQgk/s320/Rahul+hain+toh+Rahat+hai-2.jpg" width="320" /></a></div>
<b>असलम ख़ान</b><br />
नारा एक मंत्र है, एक ऐसा मंत्र जो ज़ुबान पर चढ़ जाए, दिलो-दिमाग़ पर छा जाए, तो जीत का प्रतीक बन जाता है. नारे पार्टी को जनमानस से जोड़ने का काम करते हैं. ये नारे ही हैं, जो पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर देते हैं. वक़्त के साथ नारे बदलते रहते हैं. हर बार सियासी दल नये नारों के साथ चुनावी मैदान में उतरते हैं.<br />
नारे लिखने का काम किसी पेशेवर कंपनी या नामी लेखक को दिया जाता है, लेकिन इस बार कांग्रेस ने नारे लिखने की ज़िम्मेदारी उन लोगों को दी, जो पार्टी के नेता हैं, कार्यकर्ता हैं, पार्टी के समर्थक हैं.<br />
कांग्रेस ने इस आम चुनाव के लिए शक्ति एप के ज़रिये कार्यकर्ताओं से नारों को लेकर सुझाव मांगे थे. इसे लेकर कार्यकर्ताओं में इतना उत्साह देखा गया कि देशभर से विभिन्न भाषाओं में तक़रीबन 15 लाख नारे पार्टी को मिले. पार्टी की प्रचार समिति ने इनमें क़रीब 60 हज़ार नारों को चुना. अब इनमें से प्रदेशों की क्षेत्रीय भाषाओं के हिसाब से पांच-पांच नारे चुनाव में इस्तेमाल किए जाएंगे, जबकि हिन्दी के 0 नारे कांग्रेस की आवाज़ बनेंगे. इसी बीच स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक फ़िरदौस ख़ान ने एक नारा दिया है- राहुल हैं, तो राहत है.<br />
ग़ौरतलब कि शायरा, कहानीकार व पत्रकार फ़िरदौस ख़ान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर एक ग़ज़ल भी लिख चुकी हैं.<br />
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-60020917848600971172019-03-05T07:27:00.000+05:302019-03-05T07:27:00.671+05:30ज़्यादा आमदनी के लिए मूंग की खेती करें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEtYKcZcT8_Wq9I0ieyzsbLiVt9XbtOMnYqFP7f-o5ymR12JEyPyJ_EIzslqQuPvHs4qff5C-C4aQFSt-ndjqQABMAPcgmaunbRlkkfbV7jroNLgZO5xgyN-PknJ-s6o3TYC-hJbrOr9Q/s1600/images+%25281%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="174" data-original-width="290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEtYKcZcT8_Wq9I0ieyzsbLiVt9XbtOMnYqFP7f-o5ymR12JEyPyJ_EIzslqQuPvHs4qff5C-C4aQFSt-ndjqQABMAPcgmaunbRlkkfbV7jroNLgZO5xgyN-PknJ-s6o3TYC-hJbrOr9Q/s1600/images+%25281%2529.jpg" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
रबी की फ़सल कट रही है. ख़रीफ़ की फ़सल की बुआई से पहले किसान खेतों को ख़ाली रखने की बजाय मूंग की फ़सल उगा कर अतिरिक्त आमदनी हासिल कर रहे हैं. फ़सल चक्र अपनाने से उत्पादन के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है. धान आधारित क्षेत्रों के लिए धान-गेहूं-मूंग या धान-मूंग-धान, मालवा निमाड़ क्षेत्र के लिए मूंग-गेहूं-मूंग, कपास-मूंग-कपास फ़सल चक्र अपनाया जाता है. मूंग की फ़सल भारत की लोकप्रिय दलहनी फ़सल है और इसकी खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जाती है. यह फ़सल सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है, लेकिन अच्छे जल निकास वाली बलुई और दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त रहती है. मूंग ख़रीफ़, रबी और जायद तीनों मौसम में उगाई जाती है. दक्षिण भारत में मूंग रबी मौसम में उगाई जाती है, जबकि उत्तर भारत में ख़रीफ़ और जायद मौसम में उगाई जाती है. उत्तर भारत में किसान रबी और ख़रीफ़ मौसम के बीच मूंग की खेती कर रहे हैं. पहले किसान रबी की फ़सल काटने के बाद और ख़रीफ़ की फ़सल की बुआई से पहले बीच के वक़्त में साठी धान की फ़सल उगाते थे. साठी धान में पानी की ज़रूरत ज़्यादा होती है और लगातार घटते भू-जलस्तर को देखते हुए अनेक स्थानों पर साठी धान उगाने पर पाबंदी लगा दी गई है. ऐसे में कृषि विशेषज्ञ किसानों को मूंग की फ़सल उगाने की सलाह दे रहे हैं. उनका कहना है कि गर्मी में ज़्यादा तापमान होने पर भी मूंग की फ़सल में इसे सहन करने की शक्ति होती है. कम अवधि की फ़सल होने की वजह से यह आसानी से बहु फ़सली प्रणाली में भी ली जा सकती है. उन्नत जातियों और उत्पादन की नई तकनीकी तथा सदस्य पद्धतियों को अपनाकर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है. गर्मी में मूंग की खेती से कई फ़ायदे होते हैं. इस मौसम में मूंग पर रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है और अन्य फ़सलों के मुक़ाबले सिंचाई की ज़रूरत भी कम होती है. धान के मुक़ाबले किसानों को मूंग की फ़सल से ज़्यादा फ़ायदा हो रहा है. इसलिए अब किसानों का रुझान मूंग की तरफ़ बढ़ रहा है. मूंग की फ़सल 65 से 70 दिन में पककर तैयार हो जाती है और किसान 400 से 480 किलो प्रति हेक्टेयर उपज हासिल कर सकते हैं. <br />
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कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहनी फ़सल होने के कारण यह तक़रीबन 20 से 22 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर स्थिर करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है. मूंग की फ़सल खेत में काफ़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ छोड़ती है, जिससे किसानों को अतिरिक्त लाभ मिल जाता है. जायद और रबी के लिए मूंग की अलग-अलग क़िस्में होती हैं. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ जायद के लिए मूंग की दो अच्छी क़िस्में हैं. पहली पूसा-9531. इस क़िस्म का पौधा सीधा बढ़ने वाला छोटा क़द का होता है, दाना मध्यम, चमकीला हरा, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी है. दूसरी क़िस्म है पूसा-105. इस क़िस्म का दाना गहरा हरा, मध्यम आकार का, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी होने के साथ-साथ पावडरी मल्डयू और मायक्रोफोमीना ब्लाईट रोगों के प्रति सहनशील है. मूंग की बुआई करते वक़्त किसान ध्यान रखें कि कतारों के बीच 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर होनी चाहिए. मूंग की फ़सल की बुआई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की ज़रूरत होती है. मूंग की बिजाई के बाद 10 से 15 दिन के अंतराल पर तीन-चार बार सिंचाई करनी चाहिए. पहली नींदाई बुवाई के 20 से 25 दिन के भीतर और दूसरी 40 से 45 दिन में करना चाहिए. दो-तीन बार कोल्पा चलाकर खेत को नींदा रहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. बासालीन 800 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 250 से 300 लीटर पानी में बोनी पूर्व छिड़काव करना चाहिए. मूंग की फ़सल की शुरुआत में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफ़ेद मक्खी, माहों, जैसिड, थ्रिप्स आदि का प्रकोप होता है. इनकी रोकथाम के लिए क्वीनालफॉस 25 ईसी 600 मिलीलीटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी 200 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए. ज़रूरत पड़ने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करना चाहिए. पुष्पावस्था में फली छेदक, नीली तितली का प्रकोप होता है. क्वलीनालफॉस 25 ईसी का 600 मिलीलीटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इनकी रोकथाम हो सकती है. कई इलाको़ में कम्बल कीड़े का भारी प्रकोप होता है. इसकी रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण दो फ़ीसद, 10 किलो प्रति एकड़ के हिसाब से भुरकाव करना चाहिए. फ़सल को मेक्रोफोमिना रोग से बचाने के लिए 0.5 फ़ीसद कार्बेंडाजिम या फायटोलान या डायथेन जेड-78, 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए. कोफोमिना और सरकोस्पोरा फफूंद द्वारा पत्तियों के निचले भाग कत्थई भूरे रंग के विभिन्न आकार के धब्बे पर बन जाते हैं. इसी तरह भभूतिया रोग या बुकनी रोग से बचाव के लिए घुलनशील गंधक 0.15 फ़ीसद या कार्बेंडाजिम 0.1 फ़ीसद के 15 दिन के अंतराल पर तीन बार छिड़काव करना चाहिए. इस रोग की वजह से 30 से 40 दिन की फ़सल में पत्तियों पर सफ़ेद चूर्ण दिखाई देता है. पीला मोजेक वायरस रोग के कारण पत्तियां और फलियां पीली पड़ जाती है और उपज पर प्रतिकूल असर होता है. यह सफ़ेद मक्खी द्वारा फैलने वाला विषाणु जनित रोग है. इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 ईसी 300 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए पीला मोजेक वायरस निरोधक क़िस्मों को उगाना चाहिए. जब फलियां काली होकर पकने लगें, तब उन्हें तोड़ना चाहिए. फिर इन फलियों को सुखा लें और गहाई करें.<br />
दलहनी फ़सलों के बाज़ार में अच्छे दाम मिल जाते हैं.<br />
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क़ाबिले-ग़ौर है कि सरकार ने दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन के तहत राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना (एनपीडीपी) शुरू की है. इसके तहत दलहन की फ़सलों को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को बीज, खाद आदि कृषि विभाग की ओर से मुफ़्त दिए जाते हैं. किसान इस योजना का लाभ भी उठा सकते हैं.<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-78530732730769198732019-02-24T08:42:00.000+05:302019-02-24T08:42:27.356+05:30यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiB_Cw2DziDON04jPvgSEXXOz7LRdY1mRNGLPHP39RXcDqqq2iWWJb75ZOL2OYqbhznq0xl8qtnQ6GvAy1QgGfc1uH6QVkkhy0E_2j_4GIHVkcTU1kEVABu4xLCc1sEwQPV5XSRfTgjkD8/s1600/Rahul+Gandhi+with+Priyanka.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="392" data-original-width="696" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiB_Cw2DziDON04jPvgSEXXOz7LRdY1mRNGLPHP39RXcDqqq2iWWJb75ZOL2OYqbhznq0xl8qtnQ6GvAy1QgGfc1uH6QVkkhy0E_2j_4GIHVkcTU1kEVABu4xLCc1sEwQPV5XSRfTgjkD8/s320/Rahul+Gandhi+with+Priyanka.jpg" width="320" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
लोकसभा चुनाव क़रीब हैं. इस समर को जीतने के लिए कांग्रेस दिन-रात मेहनत कर रही है. इसके मद्देनज़र पार्टी संगठन में भी लगातार बड़े बदलाव किए जा रहे हैं. सियासत के लिहाज़ से देश के सबसे महत्वपूर्ण प्रांत उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की कमान प्रियंका गांधी को सौंपी गई है. ग़ौरतलब है कि बीती 23 जनवरी को प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव बनाया गया था और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश के 41 लोकसभा क्षेत्रों की ज़िम्मेदारी दी गई थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया को महासचिव बनाने के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया गया था. उन्हें 39 लोकसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को जिताने का दायित्व दिया गया था. अब इन दोनों नेताओं की मदद के लिए तीन-तीन सचिव नियुक्त किए गए हैं. नव नियुक्त पार्टी सचिव जुबेर ख़ान, कुमार आशीष और बाजीराव खाडे प्रियंका गांधी की मदद करेंगे, जबकि राणा गोस्वामी, धीरज गुर्जर और रोहित चौधरी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ काम करेंगे. कांग्रेस उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से ज़्यादा से ज़्यादा जीत लेना चाहती है.<br />
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उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कमज़ोर होने की कई वजहें रही हैं, जिनमें मज़बूत क्षेत्रीय नेतृत्व की कमी सबसे अहम वजह है. हालांकि कांग्रेस के सभी बड़े नेता उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लड़ते रहे हैं, जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी शामिल हैं. लेकिन इनका दख़ल दिल्ली की सियासत में ज़्यादा रहा. मज़बूत नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस कमज़ोर पड़ने लगी और लगातार राज्य की सत्ता से दूर होती गई. इसकी वजह से पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने लगा. ऐसे में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी मज़बूत हुई. अब कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोई ज़मीन फिर से पाना चाहती है. इसके लिए वह ख़ासी मशक्क़त कर रही है.<br />
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कांग्रेस देश की माटी में रची-बसी है. देश का मिज़ाज हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और आगे भी रहेगा. कांग्रेस जनमानस की पार्टी रही है. कांग्रेस का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है. इस देश की माटी उन कांग्रेस नेताओं की ऋणी है, जिन्होंने अपने ख़ून से इस धरती को सींचा है. देश की आज़ादी में महात्मा गांधी के योगदान को भला कौन भुला पाएगा. देश को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी समर्पित कर दी. पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने देश के लिए, जनता के लिए बहुत कुछ किया. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने विकास की जो बुनियाद रखी, इंदिरा गांधी ने उसे परवान चढ़ाया. राजीव गांधी ने देश के युवाओं को आगे बढ़ने की राह दिखाई. उन्होंने युवाओं के लिए जो ख़्वाब संजोये, उन्हें साकार करने में सोनिया गांधी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. अब कांग्रेस की अगली पीढ़ी के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के कंधों पर ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी सियासी विरासत को आगे बढ़ाएं और अवाम को वह हुकूमत दें, जिसमें सभी लोग मिलजुल रहा करते हैं. पिछले कुछ बरसों से लोग ‘अच्छे दिनों’ के लिए तरस रहे हैं. समाज में फैले नफ़रत और अविश्वास के इस दौर में कांग्रेस ही देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का काम कर सकती है. जनता को कांग्रेस से उम्मीदें हैं, क्योंकि राहुल गांधी किसी ख़ास तबक़े के नेता न होकर जन नेता हैं. वे कहते हैं, "जब भी मैं किसी देशवासी से मिलता हूं. मुझे सिर्फ़ उसकी भारतीयता दिखाई देती है. मेरे लिए उसकी यही पहचान है. अपने देशवासियों के बीच न मुझे धर्म, ना वर्ग, ना कोई और अंतर दिखता है."<br />
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जनता को ऐसी सरकार चाहिए, जो जनहित की बात करे, जनहित का काम करे. बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चले. कांग्रेस ने जनहित में बहुत काम किए हैं. ये अलग बात है कि वे अपने जन हितैषी कार्यों का प्रचार नहीं कर पाई, उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठा पाई, जबकि भारतीय जनता पार्टी लोक लुभावन नारे देकर सत्ता तक पहुंच गई. बाद में ख़ुद प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के चुनावी वादों को’ जुमला’ क़रार दे दिया. आज देश को राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेताओं की ज़रूरत है, जो छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. राहुल गांधी कहते हैं, ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. " क़ाबिले-ग़ौर है कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला है, यानी दुनिया भी उनकी विश्वसनीयता का लोहा मानती है.<br />
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फ़िलहाल राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. उन्हें पार्टी को मज़बूत बनाने के साथ-साथ खोई हुई हुकूमत को भी हासिल करना है. उन्हें चाहिए कि वे देश भर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व ख़ड़ा करें. इस बात में कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की नैया डुबोने में इसके खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी को इस बात को भी समझना होगा और इसी को मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. वैसे अब राहुल गांधी अंदरूनी कलह, ख़ेमेबाज़ी और बग़ावत को लेकर काफ़ी सख्त़ हुए हैं. प्रियंका गांधी ने तो साफ़ कह दिया है कि जो नेता पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल पाए जाएंगे, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.<br />
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दरअसल, पार्टी के कुछ नेताओं ने कांग्रेस को अपनी जागीर समझ लिया था और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं से भी दूर होते गए. नतीजतन, जनमानस ने कांग्रेस को सबक़ सिखाने की ठान ली और उसे सत्ता से बदख़ल कर दिया. वोटों के बिखराव और सही रणनीति की कमी की वजह से कांग्रेस को ज़्यादा नुक़सान हुआ. लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं कि कांग्रेस का जनाधार कम हुआ है. पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है. पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया और कई राज्यों में सत्ता में वापसी की. इससे पार्टी नेताओं के साथ-साथ कार्यकर्ताओं में भी भारी उत्साह है. भारतीय जनता पार्टी व अन्य सियासी दलों के नेता भी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं. <br />
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आज़ादी के बाद से देश में सबसे ज़्यादा वक़्त तक हुकूमत करने वाली कांग्रेस के लोकसभा में अब भले ही कम सांसद हैं, लेकिन कई मामलों में वे भारतीय जनता पार्टी की बहुतमत वाली सरकार पर भारी पड़े हैं. सत्ताधारी पार्टी ने कई बार ख़ुद कहा है कि कांग्रेस के सांसद उसे काम नहीं करने दे रहे हैं.<br />
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बहरहाल, कांग्रेस के पास अब ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. कांग्रेस को चाहिए कि वह कार्यकर्ताओं के ज़रिये घर-घर तक पहुंचे. उन्हें पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक अपनी पहुंच बनानी होगी. बूथ स्तर पर पार्टी को मज़बूत करना होगा. साफ़ छवि वाले जोशीले युवाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पार्टी में शामिल करना होगा. कांग्रेस की मूल नीतियों पर चलना होगा, ताकि पार्टी को उसका खोया हुआ वर्चस्व मिल सके. साथ ही ऐसे बयानों और घोषणाओं से बचना होगा, जिससे वोटों में बिखराव आने के अंदेशा हो.<br />
कांग्रेस को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक़्त कई बातों को ज़ेहन में रखना होगा. उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तय करने होंगे. टिकट बंटवारे में भी एहतियात बरतनी होगी. क्षेत्रीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है. कांग्रेस नेताओं को चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच उन तक होनी चाहिए, फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा. अराजकता के इस दौर में अवाम को कांग्रेस की बेहद ज़रूरत है. बक़ौल शहरयार-<br />
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का<br />
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-14379620855439890072018-12-12T11:07:00.000+05:302018-12-14T11:08:54.763+05:30अहंकार हार गया और राहुल जीत गए <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguOKFai64bK9esuwcrEGxlCRmRbeKU_NTwYIbgoZl7556oTv9MdiNoKAOOgzi4iQ0v119_EEwmQRRoTrRPIriZnMalowmG9x_8-N8cKjurOTUHkYNcusE9432qDEJrLVO_aRQ7XFs0ZAE/s1600/images.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="263" data-original-width="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguOKFai64bK9esuwcrEGxlCRmRbeKU_NTwYIbgoZl7556oTv9MdiNoKAOOgzi4iQ0v119_EEwmQRRoTrRPIriZnMalowmG9x_8-N8cKjurOTUHkYNcusE9432qDEJrLVO_aRQ7XFs0ZAE/s1600/images.jpg" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान </b><br />
अहंकार को एक दिन टूटना ही होता है. अहंकार की नियति ही टूटना है. इतिहास गवाह है कि किसी का भी अहंकार कभी ज़्यादा वक़्त तक नहीं रहा. इस अहंकार की वजह से बड़ी-बड़ी सल्तनतें नेस्तनाबूद हो गईं. किसी हुकूमत को बदलते हुए वक़्त नहीं लगता. बस देर होती है अवाम के जागने की. जिस दिन अवाम बेदार हो जाती है, जाग जाती है, उसी दिन से हुक्मरानों के बुरे दिन शुरू हो जाते हैं, उनका ज़वाल (पतन) शुरू हो जाता है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी यही तो हुआ. यहां अहंकार हार गया और विनम्रता जीत गई. चुनाव नतीजों वाले दिन शाम को हुई प्रेस कॊन्फ़्रेंस में राहुल गांधी ने कहा कि हम किसी को देश से मिटाना नहीं चाहते. हम विचारधारा की लड़ाई लड़ेंगे. मैं मोदी जी का धन्यवाद करता हूं, जिनसे मैंने यह सीखा कि एक पॉलिटिशियन होने के नाते मुझे क्या नहीं कहना या करना चाहिए.<br />
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ये राहुल गांधी का धैर्य, विनम्रता और शालीनता ही है कि उन्होंने विपरीत हालात का हिम्मत से मुक़ाबला किया. जब भारतीय जनता पार्टी द्वारा उनके नेतृत्व पर सवाल उठाए गए, चुनावों में नाकामी मिलने पर उनका मज़ाक़ उड़ाया गया, उनके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया गया, लेकिन राहुल गांधी ने कभी अपनी तहज़ीब नहीं छोड़ी, अपने संस्कार नहीं छोड़े. उन्होंने अपने विरोधियों के लिए भी कभी अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. उन्होंने मिज़ोरम और तेलंगाना में जीतने वाले दलों को मुबारकबाद दी. चुनावों में जीतने वाले सभी उम्मीदवारों को शुभकामनाएं दीं. अहंकार कभी उन पर हावी नहीं हुआ. विधानसभा चुनावों में जीत का श्रेय उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को दिया. उन्होंने कहा कि उनके कार्यकर्ता बब्बर शेर हैं. राहुल गांधी में हार को क़ुबूल करने की हिम्मत भी है. पिछले चुनावों में नाकामी मिलने पर उन्होंने हार का ज़िम्मा ख़ुद लिया. ये सब बातें ही तो हैं, जो उन्हें महान बनाती हैं और ये साबित करती हैं कि उनमें एक महान नेता के सभी गुण मौजूद हैं.<br />
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अमूमन देखा जाता है कि जब कोई पार्टी सत्ता में आ जाती है, तो उसे घमंड हो जाता है. राजनेता बेलगाम हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि सत्ता उनकी मुट्ठी में है, वे जो चाहें कर सकते हैं. उन्हें टोकने, रोकने वाला कोई नहीं है. साल 2014 के आम चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने जनता से बड़े-बड़े वादे किए थे. उन्हें ख़ूब सब्ज़ बाग़ दिखाए थे, लेकिन सत्ता में आते ही अपने वादों से उलट काम किया. भारतीय जनता पार्टी ने महंगाई कम करने का वादा किया था, लेकिन उसके शासनकाल में महंगाई आसमान छूने लगी. भारतीय जनता पार्टी ने महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों पर रोक लगाने का वादा किया था, लेकिन आए-दिन महिला शोषण के दिल दहला देने वाले मामले सामने आने लगे. भारतीय जनता पार्टी ने किसानों को राहत देने का वादा किया था, लेकिन किसानों के ख़ुदकुशी के मामले थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. किसानों को अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करने पर मजबूर होना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने युवाओं को रोज़गार देने का वादा किया था, लेकिन रोज़गार देना तो दूर, नोटबंदी और जीएसटी लागू करके जो उद्योग-धंधे चल रहे थे, उन्हें भी बंद करने का काम किया है. जो लोग काम कर रहे थे, वे भी रोज़ी-रोटी के लिए तरसने लगे. भारतीय जनता पार्टी की सरकार जो भी फ़ैसले ले रही है, उनसे सिर्फ़ बड़े उद्योगपतियों को ही फ़ायदा हो रहा है. ऑक्सफ़ेम सर्वेक्षण के मुताबिक़ पिछले साल यानी 2017 में भारत में सृजित कुल संपदा का 73 फ़ीसद हिस्सा देश की एक फ़ीसद अमीर आबादी के पास है. राहुल गांधी ने इस बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सवाल भी किया था. ग़ौरतलब है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं और उनकी सरकार पर अमीरों के लिए काम करने और उनके कर्ज़ माफ़ करने को लेकर लगातार हमला करते रहे हैं. इतना ही नहीं भारत और फ्रांस सरकार के बीच हुए राफ़ेल लड़ाकू विमान सौदे पर भी राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं. <br />
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दरअसल, एक तरफ़ केन्द्र की मोदी सरकार अमीरों को तमाम सुविधाएं दे रही है, उन्हें करों में छूट दे रही है, उनके कर माफ़ कर रही है, उनके क़र्ज़ माफ़ कर रही है. वहीं दूसरी तरफ़ ग़रीब जनता पर आए दिन नये-नये कर लगाए जा रहे हैं, कभी स्वच्छता के नाम पर, तो कभी जीएसटी के नाम पर उनसे वसूली की जा रही है. खाद्यान्नों और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम भी लगातार बढ़ाए जा रहे हैं. मरीज़ों के लिए इलाज कराना भी मुश्किल हो गया है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं और ख़ून के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं. ऐसे में ग़रीब मरीज़ कैसे अपना इलाज कराएंगे, इसकी सरकार को ज़रा भी फ़िक्र नहीं है. सरकार का सारा ध्यान जनता से कर वसूली पर ही लगा हुआ है. वैसे भी प्रधानमंत्री ख़ुद कह चुके हैं कि उनके ख़ून में व्यापार है.<br />
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ऐसे मुश्किल दौर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अवाम के साथ खड़े हैं. वे लगातार बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की दुर्दशा, महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक वारदातों और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अलख जगाए हुए हैं. अवाम को भी समझ में आ गया है कि उनसे झूठे वादे करके उन्हें ठगा गया. इसलिए अब जनता उन वादों के बारे में सवाल करने लगी है. जनता पूछने लगी कि कहां हैं, वे अच्छे दिन जिसका इंद्रधनुषी सपना भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें दिखाया था. कहां हैं, वह 15 लाख रुपये, जिन्हें उनके खाते में डालने का वादा किया गया था. कहां है वह विदेशी काला धन, जिसके बारे में वादा किया गया था कि उसके भारत में आने के बाद जनता के हालात सुधर जाएंगे.<br />
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अवाम अब जागने लगी है. इसी का नतीजा है कि उसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी को उखाड़ फेंका और कांग्रेस को हुकूमत सौंप दी. अवाम राहुल गांधी पर यक़ीन करने लगी है. वह समझ चुकी है कि कांग्रेस ही देश की एकता और अखंडता को बनाए रख सकती है. कांग्रेस के राज में ही सब मिलजुल कर चैन-अमन के साथ रह सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस विनाश में नहीं, विकास में यक़ीन रखती है. जनता अब बदलाव चाहती है.<br />
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फ़िरदौस ख़ानhttp://www.blogger.com/profile/09716330130297518352noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-595920256401304629.post-46154908005540006912018-11-04T15:58:00.000+05:302018-11-06T16:00:02.885+05:30मिलावटी मिठाइयों से सावधान!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXm0bjCCpT82EoP87yRkgx8Dz8LPRx6omA-rzKBlSdLbMZCrGY95t_c7SNF20I3NulZCcia1tTWeeQaMyGB6zNdSl829aAeZZJxIiqOuFVBVsgYeYq0rqUZ3MieLk6u_S6FR160sW6M3M/s1600/mithai.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="311" data-original-width="600" height="165" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhXm0bjCCpT82EoP87yRkgx8Dz8LPRx6omA-rzKBlSdLbMZCrGY95t_c7SNF20I3NulZCcia1tTWeeQaMyGB6zNdSl829aAeZZJxIiqOuFVBVsgYeYq0rqUZ3MieLk6u_S6FR160sW6M3M/s320/mithai.jpg" width="320" /></a></div>
<b>फ़िरदौस ख़ान</b><br />
त्यौहार के दिनों मे बाज़ार में नक़ली मावे और पनीर से बनी मिठाइयों का कारोबार ज़ोर पकड़ लेता है. आए-दिन छापामारी की ख़बरें सुनने को मिलती हैं कि फ़लां जगह इतना नक़ली या मिलावटी मावा पकड़ा गया, फ़लां जगह इतना. इन मामलों में केस भी दर्ज होते हैं, गिरफ़्तारियां भी होती हैं और दोषियों को सज़ा भी होती है. इस सबके बावजूद मिलावटख़ोर कोई सबक़ हासिल नहीं करते और मिलावटख़ोरी का धंधा बदस्तूर जारी रहता है. त्योहारी सीज़न में कई मिठाई विक्रेता, होटल और रेस्टोरेंट संचालक मिलावटी और नक़ली मावे से बनी मिठाइयां बेचकर मोटा मुनाफ़ा कमाएंगे.<br />
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ज़्यादातर मिठाइयां मावे और पनीर से बनाई जाती हैं. दूध दिनोदिन महंगा होता जा रहा है. ऐसे में असली दूध से बना मावा और पनीर बहुत महंगा बैठता है. फिर इनसे मिठाइयां बनाने पर ख़र्च और ज़्यादा बढ़ जाता है, यानी मिठाई की क़ीमत बहुत ज़्यादा हो जाती है. इतनी महंगाई में लोग ज़्यादा महंगी मिठाइयां ख़रीदना नहीं चाहते. ऐसे में दुकानदारों की बिक्री पर असर पड़ता है. इसलिए बहुत से हलवाई मिठाइयां बनाने के लिए नक़ली या मिलावटी मावे और पनीर का इस्तेमाल करते हैं. नक़ली और मिलावटी में फ़र्क़ ये है कि नक़ली मावा शकरकंद, सिंघाड़े, मैदे, आटे, वनस्पति घी, आलू, अरारोट को मिलाकर बनाया जाता है. इसी तरह पनीर बनाने के लिए सिंथेटिक दूध का इस्तेमाल किया जाता है. मिलावटी मावे उसे कहा जाता है, जिसमें असली मावे में नक़ली मावे की मिलावट की जाती है.मिलावट इस तरह की जाती है कि असली और नक़ली का फ़र्क़ नज़र नहीं आता. इसी तरह सिंथेटिक दूध यूरिया, कास्टिक सोडा, डिटर्जेन्ट आदि का इस्तेमाल किया जाता है. सामान्य दूध जैसी वसा उत्पन्न करने के लिए सिंथेटिक दूध में तेल मिलाया जाता है, जो घटिया क़िस्म का होता है. झाग के लिए यूरिया और कास्टिक सोडा और गाढ़ेपन के लिए डिटर्जेंट मिलाया जाता है.<br />
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फूड विशेषज्ञों के मुताबिक़ थोड़ी-सी मिठाई या मावे पर टिंचर आयोडीन की पांच-छह बूंदें डालें. ऊपर से इतने ही दाने चीनी के डाल दें. फिर इसे गर्म करें. अगर मिठाई या मावे का रंग नीला हो जाए, तो समझें उसमें मिलावट है. इसके अलावा, मिठाई या मावे पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड यानी नमक के तेज़ाब की पां-छह बूंदें डालें. अगर इसमें मिलावट होगी, तो मिठाई या मावे का रंग लाल या हल्का गुलाबी हो जाएगा. मावा चखने पर थोड़ा कड़वा और रवेदार महसूस हो, तो समझ लें कि इसमें वनस्पति घी की मिलावट है. मावे को उंगलियों पर मसल कर भी देख सकते हैं अगर वह दानेदार है, तो यह मिलावटी मावा हो सकता है.<br />
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इतना ही नहीं, रंग-बिरंगी मिठाइयों में इस्तेमाल होने वाले सस्ते घटिया रंगों से भी सेहत पर बुरा असर पड़ता है. अमूमन मिठाइयों में कृत्रिम रंग मिलाए जाते हैं. जलेबी में कृत्रिम पीला रंग मिलाया जाता है, जो नुक़सानदेह है. मिठाइयों को आकर्षक दिखाने वाले चांदी के वरक़ की जगह एल्यूमीनियम फॉइल से बने वर्क़ इस्तेमाल लिए जाते हैं. इसी तरह केसर की जगह भुट्टे के रंगे रेशों से मिठाइयों को सजाया जाता है.<br />
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दिवाली पर सूखे मेवे और चॊकलेट देने का चलन भी तेज़ी से बढ़ा है. चॊकलेट का कारोबार बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है. फूड नेविगेटर-एशिया की रिपोर्ट की मानें, तो साल 2005 में भारत में चॊकलेट का उपभोग 50 ग्राम प्रति व्यक्ति था, जो साल 2013-14 में बढ़कर 120 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गया. एक अन्य रिपोर्ट की मानें, तो पिछले साल देश में चॉकलेट का 58 अरब रुपये का कारोबार हुआ था, जिसके साल 2019 में बढ़कर 122 अरब रुपये होने की संभावना है. चॊकलेट की लगातार बढ़ती मांग की वजह से बाज़ार में घटिया क़िस्म के चॊकलेट की भी भरमार है. मिलावटी और बड़े ब्रांड के नाम पर नक़ली चॉकलेट भी बाज़ार में ख़ूब बिक रही हैं. इसी तरह जमाख़ोर रखे हुए सूखे मेवों को एसिड में डुबोकर बेच रहे हैं. इसे भी घर पर जांचा जा सकता है. सूखे मेवे काजू या बादाम पर पानी की तीन-चार बूंदें डालें, फिर इसके ऊपर ब्लू लिटमस पेपर रख दें. अगर लिटमस पेपर का रंग लाल हो जाता है, तो इस पर एसिड है. <br />
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चिकित्सकों का कहना है कि मिलावटी मिठाइयां सेहत के लिए बेहद नुक़सानदेह हैं. इनसे पेट संबंधी बीमारियां हो सकती हैं. फ़ूड प्वाइज़निंग का ख़तरा भी बना रहता है. लंबे अरसे तक खाये जाने पर किडनी और लीवर पर बुरा असर पड़ सकता है. आंखों की रौशनी पर भी बुरा असर पड़ सकता है. बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास अवरुद्ध हो सकता है. घटिया सिल्वर फॉएल में एल्यूमीनियम की मात्रा ज़्यादा होती है, जिससे शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के ऊतकों और कोशिकाओं को नुक़सान हो सकता है. दिमाग़ पर भी असर पड़ता है. ये हड्डियों तक की कोशिकाओं को डैमेज कर सकता है. मिठाइयों को पकाने के लिए घटिया क़िस्म के तेल का इस्तेमाल किया जाता है, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिंथेटिक दूध में शामिल यूरिया, कास्टिक सोडा और डिटर्जेंट आहार नलिका में अल्सर पैदा करते हैं और किडनी को नुक़सान पहुंचाते हैं. मिलावटी मिठाइयों में फॉर्मेलिन, कृत्रिम रंगों और घटिया सिल्वर फॉएल से लीवर, किडनी, कैंसर, अस्थमैटिक अटैक, हृदय रोग जैसी कई बीमारियां हो सकती हैं. इनका सबसे ज़्यादा असर बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है.<br />
सूखे मेवों पर लगा एसिड भी सेहत के लिए बहुत ही ख़तरनाक है. इससे कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है और लीवर, किडनी पर बुरा असर पड़ सकता है.<br />
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हालांकि देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए कई क़ानून बनाए गए, लेकिन मिलावटख़ोरी में कमी नहीं आई. खाद्य पदार्थो में मिलावटखोरी को रोकने और उनकी गुणवत्ता को स्तरीय बनाए रखने के लिए खाद्य संरक्षा और मानक क़ानून-2006 लागू किया गया है. लोकसभा और राज्यसभा से पारित होने के बाद 23 अगस्त 2006 को राष्ट्रपति ने इस क़ानून पर अपनी मंज़ूरी दी. फिर 5 अगस्त 2011 को इसे अमल में लाया गया, यानी इसे लागू होने में पांच साल लग गए. इसका मक़सद खाद्य पदार्थों से जुड़े नियमों को एक जगह लाना और इनका उल्लंघन करने वालों को सख़्त सज़ा देकर मिलावटख़ोरी को ख़त्म करना है. भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण की स्थापना खाद्य सुरक्षा और मानक विधेयक 2006 के तहत खाद्य पदार्थों के विज्ञान आधारित मानक निर्धारित करने एवं निर्माताओं को नियंत्रित करने के लिए 5 सितंबर 2008 को की गई. यह प्राधिकरण अंतरराष्ट्रीय तकनीकी मानकों और घरेलू खाद्य मानकों के बीच मध्य सामंजस्य को बढ़ावा देने के साथ घरेलू सुरक्षा स्तर में कोई कमी न होना सुनिश्चित करता है. इसके प्रावधानों के तहत पहले काम कर रहे कई नियम-क़ानूनों (1-फ्रूट प्रोडक्ट्स आर्डर, 1955 2-मीट फूड प्रोडक्ट्स आर्डर, 1973 3- मिल्क एंड मिल्क प्रोडक्ट्स आर्डर, 1992 4-सालवेंट एक्सट्रैक्टेड आयल, डी-आयल्ड मील एंड एडिबल फ्लोर (कंट्रोल) आर्डर, 1967 5-विजिटेबल्स आयल प्रोडक्ट्स (रेगुलेशन) आर्डर, 1998 6-एडिबल आयल्स पैकेजिंग (रेगुलेशन) आर्डर, 1998 7- खाद्य अपमिश्रण निवारण कानून, 1954) का प्रशासनिक नियंत्रण को इसमें शामिल किया है.<br />
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इस क़ानून में खाद्य पदार्थों से जुड़े अपराधों को श्रेणियों में बांटा गया है और इन्हीं श्रेणियों के हिसाब से सज़ा भी तय की गई है. पहली श्रेणी में जुर्माने का प्रावधान है. निम्न स्तर, मिलावटी, नक़ली माल की बिक्री, भ्रामक विज्ञापन के मामले में संबंधित प्राधिकारी 10 लाख रुपये तक जुर्माना लगा सकते हैं. इसके लिए अदालत में मामला ले जाने की ज़रूरत नहीं है. दूसरी श्रेणी में जुर्माने और क़ैद का प्रावधान है. इन मामलों का फ़ैसला अदालत में होगा. मिलावटी खाद्य पदार्थो के सेवन से अगर किसी की मौत हो जाती है, तो उम्रक़ैद और 10 लाख रुपये तक जुर्माना भी हो सकता है. पंजीकरण या लाइसेंस नहीं लेने पर भी जुर्माने का प्रावधान है. छोटे निर्माता, रिटेलर, हॉकर, वेंडर, खाद्य पदार्थो के छोटे व्यापारी जिनका सालाना टर्नओवर 12 लाख रुपये से कम है, उन्हें पंजीकरण कराना ज़रूरी है. इसके उल्लंघन पर उन पर 25 हजार रुपये तक जुर्माना हो सकता है. 12 लाख रुपये सालाना से ज़्यादा टर्नओवर वाले व्यापारी को लाइसेंस लेना ज़रूरी है. ऐसा न करने पर पांच लाख रुपये तक जुर्माना और छह महीने तक की सज़ा ह सकती है. अप्राकृतिक और ख़राब गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री पर दो लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. इसी तरह घटिया खाद्य पदार्थों की बिक्री पर पांच लाख रुपये, ग़लत ब्रांड खाद्य पदार्थों की बिक्री पर तीन लाख, भ्रामक विज्ञापन करने पर 10 लाख रुपये और खाद्य पदार्थ में अन्य चीज़ों की मिलावट करने पर एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.<br />
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दिवाली पर मिठाई की मांग ज़्यादा होती है और इसके मुक़ाबले आपूर्ति कम होती है. मिलावटख़ोर मांग और आपूर्ति के इस फ़र्क़ का फ़ायदा उठाते हुए बाज़ार में मिलावटी सामग्री से बनी मिठाइयां बेचने लगते हैं. इससे उन्हें तो ख़ासी आमदनी होती है, लेकिन ख़ामियाज़ा उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ता है. हालांकि स्वास्थ्य विभाग द्वारा छापेमारी कर और नमूने लेकर ख़ानापूर्ति कर ली जाती है. फिर कुछ दिन बाद मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाता है. दरअसल मिलावटख़ोरी पर रोक लगाने के लिए इतनी सख़्ती नहीं बरती जाती जितनी बरती जानी चाहिए. इसलिए यही बेहतर है कि मिठाई, चॊकलेट और सूखे मेवे ख़रीदते वक़्त एहतियात बरतनी चाहिए. साथ ही इनके ख़राब होने पर इसकी शिकायत ज़रूर करनी चाहिए, ताकि मिलावटख़ोरों पर दबाव बने. जागरूक बने, सुखी रहें<br />
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