Monday, August 11, 2008

पत्रकारिता बनाम स्टिंग ऑपरेशन


फ़िरदौस ख़ान
इन दिनों पत्रकारिता जगत विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का बोलबाला है. स्टिंग शब्द 1930 के अमेरिकन स्लेंग से निकलकर आया शब्द है, जिसका अर्थ है, पूर्व नियोजित चोरी या धोखेबाजी की क्रिया. इसके क़रीब चार दशक बाद यह शब्द अमेरिकन उपयोग में आने लगा, जिसका अर्थ था, पुलिस द्वारा नियोजित गुप्त ओप्रशंस जो किसी शातिर अपराधी को फंसाने के लिए किए जाते थे. धीरे-धीरे स्टिंग ऑपरेशन अपराधियों को पकड़ने का कारगर हथियार बन गया. इसकी कामयाबी को देखते हुए मीडिया ने भी इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया और इसमें उसे बेहतर नतीजे भी हासिल हुए हैं. स्टिंग ओप्रशंस ख़बरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का ज़रिया बन गए हैं. टैम मीडिया रिसर्च इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक़ शक्ति कपूर से जुड़े कास्टिंग काउच के प्रसारण के समय इंडिया टीवी की टीआरपी पांचवें पायदान से पहले पायदान पर आ गई थी. इसी तरह स्टिंग ऑपरेशन दुर्योधन, चक्रव्यूह, घूस महल और ऑपरेशन कलंक ने जहां लोगों को हकीक़त से रूबरू कराया, वहीं चैनलों की टीआरपी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई. भारत ही नहीं विदेशों में भी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों का पर्दाफाश किया गया है.

अमेरिका में 'वाशिंगटन पोस्ट' के बर्नस्टीन और वुडवर्ड नामक दो जासूस पत्रकारों ने 1970 में वाटरगेट कांड का खुलासा करके राष्ट्रपति निक्सन को अपना पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. इन दिनों पत्रकारिता जगत विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का बोलबाला है. स्टिंग शब्द 1930 के अमेरिकन स्लेंग से निकलकर आया शब्द है, जिसका अर्थ है, पूर्व नियोजित चोरी या धोखेबाजी की क्रिया. इसके क़रीब चार दशक बाद यह शब्द अमेरिकन उपयोग में आने लगा, जिसका अर्थ था, पुलिस द्वारा नियोजित गुप्त ओप्रशंस जो किसी शातिर अपराधी को फंसाने के लिए किए जाते थे. धीरे-धीरे स्टिंग ऑपरेशन अपराधियों को पकड़ने का कारगर हथियार बन गया. इसकी कामयाबी को देखते हुए मीडिया ने भी इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया और इसमें उसे बेहतर नतीजे भी हासिल हुए हैं. स्टिंग ओप्रशंस ख़बरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का ज़रिया बन गए हैं. टैम मीडिया रिसर्च इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक़ शक्ति कपूर से जुड़े कास्टिंग काउच के प्रसारण के समय इंडिया टीवी की टीआरपी पांचवें पायदान से पहले पायदान पर आ गई थी. इसी तरह स्टिंग ऑपरेशन दुर्योधन, चक्रव्यूह, घूस महल और ऑपरेशन कलंक ने जहां लोगों को हकीक़त से रूबरू कराया, वहीं चैनलों की टीआरपी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई. भारत ही नहीं विदेशों में भी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों का पर्दाफाश किया गया है. अमेरिका में 'वाशिंगटन पोस्ट' के बर्नस्टीन और वुडवर्ड नामक दो जासूस पत्रकारों ने 1970 में वाटरगेट कांड का खुलासा करके राष्ट्रपति निक्सन को अपना पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

स्टिंग ऑपरेशन के लिए जहां एक अलग प्रकार की ख़ास भाषा को काम में लिया जाता है. इनमें मुख्य रूप से छोटे कैमरों का इस्तेमाल होता है. रेडियो कोवर्ट कैमरे से 500 फीट की दूरी तक के चित्र आसानी से लिए जा सकते हैं. वायरलैस कलर ब्रूच कैमरे को कपड़ों में कोट पिन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. कोवर्ट टाई में पहना जा सकता है. जैकेट कोवर्ट कैमरे की जैकेट हर साइज़ में बाज़ार में उपलब्ध है. क्योक कोवर्ट कैमरा-घड़ी में छुपे इस कैमरे में पॉकेट पीसी सॉफ्टवेर के साथ रिमोट कंट्रोल, मल्टी मीडिया कार्ड और पॉवर एडेप्टर है. टेबल लैंप वायरलैस कैमरे को टेबल लैंप में आसानी से छुपाया जा सकता है. पेंसिल शार्पनर कैमरे को किसी भी जगह रखा जा सकता है. एयर प्योरिफायर कोवर्ट कैमरा-पर्सनल एयर प्योरिफायर में लगा डिजिटल वीडियो रिकॉर्डर होता है. फोलिएज बास्केट कैमरे को फूलदान में छुपाया जा सकता है. पोर्टेबल वायरलैस बुक कैमरा-किताब में लगा पिनहोल कैमरा है. स्टिंग ऑपरेशन में सी बिहाइंड-यू सन ग्लासेस भी बहुत काम आता है. बेहद साधारण दिखने वाले इस चश्मे से अपने पीछे हो रही गतिविधियों को आसानी से देखा जा सकता है. टॉकी पिक्चर्स से बोले हुए शब्द की तस्वीर कैमरे में क़ैद की जा सकती है. डिसअपीयरिंग इंक पेन का इस्तेमाल गुप्त सूचनाएं लिखने के लिए किया जाता है. इसमें विशेष प्रकार की स्याही का इस्तेमाल होता है, जिसकी लिखावट 24 घंटे के बाद ख़ुद मिट जाती है. कमरे के बाहर की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दरवाज़े के पीप होल पर होल व्यूअर लगाया जाता है. बिग इयर से 400 फीट की दूरी से सबकुछ सुना जा सकता है. सिगरेट ट्रांसमीटर से 1200 फीट की दूरी तक सुनाई देता है. लेजर बीम की मदद से किसी भी स्थान पर हो रही बातचीत को कर में बैठे भी सुना जा सकता है. स्पाइप ऐसा उपकरण है जो पाइप सिस्टम के ज़रिये बेसमेंट से बेडरूम में कही गई हर बात पिक कर लेता है. शुगर लंप माइक को आसानी से कहीं भी छुपाया जा सकता है. बगड मैं नामक इस छोटे वाइस रिकॉर्डर को घड़ी, पेन या टाई में लगाया जा सकता है.

इसके अलावा स्टिंग ऑपरेशन में फ़ोन टेपिंग का भी इस्तेमाल किया जाता है. टेलीग्राफ एक्ट, 1885 के गैरकानूनी तरीके से किसी का फ़ोन टेप करने की मनाही है. सरकार विशेष परिस्थिति में किसी के फ़ोन टेप करने की इजाज़त देती है. 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ोन टेपिंग से संबंधित दिशा-निर्देश तय किए और इसे टेपिंग निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया. फ़रवरी 2006 में दूरसंचार विभाग ने फ़ोन टेपिंग से संबंधित नए दिशा-निर्देश जारी किए. इसके तहत फ़ोन टेपिंग मामले में सुरक्षा एजेंसियों और फ़ोन कंपनियों को ज़्यादा जवाबदेह बनाया गया. हालांकि निजी जासूस एजेंसियां, स्टॉक मार्केट ऑपरेटर्स, व्यापारी, शातिर अपराधी और गैरकानूनी एक्सचेंज चलाने वाले बड़े पैमाने पर फ़ोन टेप करते हैं.

हालांकि गत अगस्त में 'लाइव इंडिया' द्वारा फ़र्जी स्टिंग ऑपरेशन दिखाए जाने के बाद स्टिंग ओप्रशंस की विश्वसनीयता और ख़बरिया चैनलों के माप-दंडों को लेकर बहस छिड़ गई है. स्टिंग ऑपरेशन के अलावा न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.

दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.

इसके अलावा न्यूज़ चैनलों में ख़बरें कम और सस्ता मनोरंजन ज़्यादा से ज़्यादा परोसा जाने लगा है, मगर इस सबके बावजूद हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये ही भ्रष्टाचार के अनेक बड़े मामले सामने आए हैं, जिन्होंने संसद तक को हिलाकर रख दिया. इसके अलावा अनेक पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने कि मुहिम में भी मीडिया ने सराहनीय भूमिका निभाई है.मीडिया पर लगाम कसने के लिए सरकार नियमन विधेयक-2007 लाने कि बात कर रही है और बाक़ायदा इसके लिए कंटेंट कोड को सभी प्रसारकों के पास सुझावों और आपत्तियों के लिए भेजा गया है, लेकिन सरकार के इस क़दम को लेकर सभी ख़बरिया चैनलों ने हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी है.

हालांकि कंटेंट कोड में प्रत्यक्ष रूप से ख़बरिया चैनलों पर सरकारी नियंत्रण कि कोई बात नहीं है, लेकिन इसमें दर्ज नियमों को देखा जाए तो ये चैनलों पर लगाम कसने के लिए काफ़ी हैं. प्रसारकों को जिन बातों पर सख्त एतराज़ है उनमें कंटेंट ऑडिटर कि नियुक्ति और पब्लिक मैसेजिंग सर्विस है. कंटेंट कोड के मुताबिक़ सभी चैनलों को कंटेंट कोड कि नियुक्ति करनी होगी और उन्हें हर प्रसारण सामग्री के लिए सरकार के प्रति जवाबदेह बनाया जाएगा. इसके अलावा पब्लिक मैनेजिंग सर्विस कोड के तहत कुल कंटेंट का 10 फ़ीसदी हिस्सा इससे तय किया जाएगा. सरकार निजी प्रसारकों से जनहित में अपने कसीस भी कार्यक्रम का प्रचार करवा सकती है. हालांकि प्रसारकों ने सरकार कि मंशा को देखते हुए न्यूज़ ब्रोडकास्टर एसोसिएशन (एनबीए) बनाकर मोर्चा संभाल लिया है. उनका कहना है कि सरकार निजी न्यूज़ चैनलों को सरकारी प्रचार के लिए इस्तेमाल करना चाहती है, जिसे क़तई मंज़ूर नहीं किया जा सकता. टीवी चैनलों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार मीडिया पर किसी भी प्रकार के सरकारी नियंत्रण का विरोध करते हुए कहते हैं कि सरकार खोजी पत्रकारिता पर रोक लगाने के मक़सद से प्रसारण विधेयक ला रही है, क्यूंकि कई स्टिंग ओप्रशनों ने राजनीतिज्ञों के काले कारनामे दिखाकर उनकी पोल खोल दी थी.

समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.

(यह आलेख जनवरी 2008 में बहुभाषी संवाद समिति 'हिन्दुस्थान समाचार' की स्वर्ण जयंती पर प्रकाशित स्मारिका में शाया हुआ था)


3 Comments:

Anonymous said...

आप तेज़तर्रार पत्रकार, संजीदा शायरा और उम्दा अफसानानिगार हैं...क्या ब्लॉग में कभी आपकी कोई कहानी पढ़ने का मौक़ा मिलेगा...हमें इंतज़ार रहेगा... आप वाक़ई लफ्ज़ों के जजीरे की शहज़ादी हैं...

Arvind Mishra said...

आप ने विस्तार से इस मसले को टेक अप किया है -शुरू में तो इन आपरेशनों में उत्साह था और नैतिकता भी थी मगर अब तो यह आपरेशन के बजाय ऑप्रेशन बँटा जा रहा है -साधन और साध्य दोनों की शुचिता टी आर पी की भेंट चढ़ गयी है .

sarfarazonn said...

आपने बेहद ज्ञान वर्धक लेख लिखा है , जैसा कि आपने अभी अभी मुझे अवगत कराया कि आपका ये लेख चोरी कर लिया गया है ...अत्यंत दुखद है ... हम लेखकों के साथ यही समस्या है ...हमारे लेख हमारी कवितायेँ लोग चुरा कर उनको अपने नाम से छपवाते हैं ....निंदनीय है ये !

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