Wednesday, December 21, 2016

काले धन पर पारदर्शिता बरतनी होगी

फ़िरदौस ख़ान
कालेधन पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले के बाद अब सबकी नज़र सियासी दलों के चंदे पर है.  देश की अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सामाजिक अंकेक्षण की मांग उठ रही है. जब नोटबंदी, कैश लेस ट्रांजेक्शन, सोना, रियल स्टेट में कैश लेस ख़रीद-बिक्री को लेकर आम जनता प्रभावित है, तो फिर जनता द्वारा भरे गए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करों से मिली रक़म का इस्तेमाल करने वाले नेताओं और सियासी दलों को भी पारदर्शिता बरतनी होगी.

इस बाबत चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को क़ानून में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसके लिए चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को तीन सुझाव भी दिए हैं. पहला सियासी दलों के दो हज़ार रुपये से ज़्यादा गुप्त चंदा लेने पर रोक लगाई जाए, दूसरा चुनाव न लड़ने वाले सियासी दलों को आयकर से छूट नहीं दी जाए और तीसरा सियासी दल कूपन के ज़रिये चंदा देने वाले लोगों की भी पूरी जानकारी रखें. क़ाबिले-ग़ौर है कि फ़िलहाल गुप्त चंदे पर क़ानूनी रोक नहीं है. जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29(सी) के तहत 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा के चंदे की सूचना चुनाव आयोग को देनी होती है. इससे नीचे की रक़म का कोई ब्यौरा नहीं दिया जाता. आमदनी के मामले में कांग्रेस ने चुनाव आयोग को बताया कि एक दशक में उसे दो-तिहाई रकम 20 हज़ार रुपये से नीचे के चंदे के ज़रिये हुई है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी 44 फ़ीसद आमदनी को 20 हज़ार रुपये से नीचे की मदद को बताया है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुताबिक़  उन्हें 20 हज़ार रुपये से ज़्यादा चंदा देने वाला कोई नहीं है, इसलिए उनमें यह दर 100 फ़ीसद है. ऐसे में नियामक एजेंसियां यह पता लगाने में नाकाम रहती हैं कि सियासी दलों के पास आख़िर इतनी बड़ी रक़म कहां से आई है. सियासी दलों को आयकर भरने से भी छूट है. आयकर क़ानून की धारा 13ए के तहत  संपत्ति, चंदा, या दूसरे स्रोतों से हुई आमदनी पर कोई कर नहीं देना पड़ता. कूपन या रसीद के ज़रिये चंदा देने वालों का ब्यौरा देना भी ज़रूरी नहीं है. इस तरह छोटी-छोटी रक़म के कूपनों के ज़रिये कितनी भी रक़म दिखाई जा सकती है. सियासी दल चुनाव आयोग को जिस रक़म का ब्यौरा देते हैं, वह पैसा कॊरपोरेट घरानों से चंदे के तौर पर आता है, जो पूरी तरह आयकर से मुक्त है. इसके अलावा सियासी आरटीआई के दायरे में नहीं आते. सियासी दलों की आमदनी और ख़र्च दोनों ही में पारदर्शिता नहीं होती. चुनाव आयोग भी अपने लेखा विभाग से इसकी जांच नहीं करा सकता. ऐसी हालत में कालेधन को बहुत ही आसानी से सफ़ेद किया जा सकता है. सियासी दलों पर आरोप लग रहे हैं कि नोटबंदी के बाद उनके खातों में एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा के पुराने नोट जमा हुए हैं. यह भी आरोप है कि बहुत से छोटे सियासी दल 25 फ़ीसद कमीशन पर कालेधन को सफ़ेद बनाने में लगे हैं. साथ ही सियासी गलियारे में चर्चा थी कि नोटबंदी के बाद सियासी दलों के खातों में जमा हुए पुराने नोटों की जांच नहीं होगी. हालांकि विवाद बढ़ने पर राजस्व सचिव हंसमुख अढिया को सफ़ाई देनी पड़ी कि नोटबंदी के बाद कोई भी सियासी दल 500 और 1000 रूपये में चंदा स्वीकार नहीं कर सकता. अगर उन्होंने ऐसा किया, तो उन पर भी कार्रवाई होगी.

ग़ौरतलब है कि चुनावों में कालेधन का ख़ूब इस्तेमाल होता है. चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली एजेंसियों का भी यही कहना है कि काला धन सबसे ज़्यादा चुनावों में ही खपता है. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि सियासी दलों को मिली रियायत का ग़लत फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिला रहता है. बड़ी रक़म को ज़्यादा हिस्सों में बांटकर कालेधन को सफ़ेद बनाया जा सकता है. आयकर में छूट हासिल करने के मक़सद से ही ज़्यादतर सियासी दलों का गठन हुआ है. फ़िलहाल देश में 1900 से ज़्यादा सियासी दल हैं, जिनमें से तक़रीबन 1400 सियासी दलों ने किसी भी चुनाव में अपना एक उम्मीदवार भी मैदान में नहीं उतारा. हालत यह है कि पिछले आम चुनाव में महज़ 45 दलों ने ही चुनाव लड़ा. चंदे के कूपन का भी कोई नियम नहीं है. कितने भी कूपन छपवाकर कितनी भी रक़म का चंदा दिखाया जा सकता है.

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफ़ॊर्म्स (एडीआर) की साल 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक़ सियासी दलों को 75 फ़ीसद से ज़्यादा चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला. पिछले दस सालों में सियासी दलों के चंदे में 478 की बढ़ोतरी हुई. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में 38 दलों को 253.46 करोड़ रुपये का चंदा मिला, जो साल 2014 में बढ़कर 1463.63 करोड़ रुपये तक पहुंच गया. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में 44 फ़ीसद चंदा नक़दी के तौर पर था. लोकसभा चुनावों के अलावा इस दौरान हुए विधानसभा चुनावों में भी सियासी दलों ने चंदे के तौर पर करोड़ों रुपये जुटाये.  साल 2004 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों को 3368.06 करोड़ रुपये मिले. इसमें से 63 फ़ीसद रक़म नक़दी के तौर पर मिली. चुनाव आयोग में जमा किए गए चुनावी ख़र्च के विवरण के मुताबिक़ पिछले तीन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा रक़म खर्च भी की है. साल 2004 और 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना और तृणमूल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा चंदा मिला है और इन्हीं दलों ने सबसे ज़्यादा पैसे ख़र्च किए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2014-15 में चुनावी ट्रस्टों ने 177.55 करोड़ चंदे के तौर पर जुटाये हैं और उनमें से 177.40 करोड़ अलग-अलग सियासी दलों को चंदे के रूप में दिए गए.

अफ़सोस की बात है कि अपनी आमदनी के मामले में सियासी दल पारदर्शिता नहीं चाहते. सनद रहे कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने जब साल 2013 में पार्टियों को सार्वजनिक संस्था घोषित करते हुए उन्हें सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का आदेश दिया था, तब कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा और वामदलों से लेकर तक़रीबन सभी बड़े-छोटे दलों ने एक सुर में इसका विरोध किया था. पिछले सरकार केंद्र की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा था कि सियासी दलों को आरटीआई के दायरे में लाने से उनके संचालन पर असर पड़ेगा और सियासी विरोधी भी इसका फ़ायदा उठा सकते हैं. सियासी दल भी इस बात को बख़ूबी जानते हैं कि चुनाव के दौरान कालाधन बाहर आ जाता है. कालेधन के मामले में सख़्ती होने से उनकी आमदनी पर भी इसका असर पड़ेगा. सियासी दलों के इसी विरोध की वजह से ही चुनाव आयोग और लॊ कमीशन के सुझावों की तमाम फ़ाइलें दफ़्तरों में पड़ी धूल फांक रही हैं. चुनाव आयोग ने सियासी दलों के लिए कई और भी सिफ़ारिशें की थीं, जिनमें सियासी दलों को आरटीआई का जवाब देने, उनके दान खातों का ऒडिट करने, एक उम्मीदवार के एक ज़्यादा सीटों से चुनाव लड़ने और निर्दलीय उम्मीदवार के चुनाव लड़ने आदि पर रोक लगाना शामिल है.

दरअसल, कालेधन से जुड़ा मुद्दा चुनावी सुधारों से भी जुड़ा हुआ है. अगर सरकार कालेधन के मामले में वाक़ई गंभीर है, तो उसे चुनाव सुधारों की दिशा में भी सख़्त फ़ैसले लेने होंगे. उसे चुनाव में धन-बल के अत्यधिक इस्तेमाल पर भी पाबंदी लगानी होगी. सियासी दलों को चाहिए कि वे भी कैश लेस चंदा लेना शुरू करें और साथ ही अपनी आमदनी को सार्वजनिक करें. विदेशों की तर्ज़ पर भारत को भी इस दिशा में कारगर क़दम उठाने होंगे. अमेरिका, ब्रिटेन्, जर्मनी, फ़्रांस, ऒस्ट्रेलिया और आयरलैंड आदि देशों ने सियासी दलों को मिलने वाले चंदे पर सख़्त नियम बनाए हुए हैं. सियासी दलों को अपनी आमदनी का ब्यौरा देना होता है. फ़्रांस में चुनाव का सारा ख़र्च सरकार ही वहन करती है.

बहरहाल, कालेधन पर पारदर्शिता बरतने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ जनता की ही नहीं है, सरकार और सियासी दलों को भी अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाने के अपने दायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ निभाना होगा.

Wednesday, December 14, 2016

यह जनता के पैसे का दुरुपयोग है

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं, बुरी घड़ी कहकर नहीं आती. बुरा वक़्त कभी भी आ जाता है. मौत या हादसों का कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं होता. जब कोई हादसा होता है, जान या माल का नुक़सान होता है, तो किसी भी व्यक्ति को इसका सदमा लग सकता है. ऐसे में व्यक्ति के जिस्म में ताक़त नहीं रहती और शारीरिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. दिमाग़ रक्त वाहिनियों की पेशियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता, जिससे दिमाग़ और जिस्म का तालमेल गड़बड़ा जाता है. दिल की धड़कन भी धीमी हो जाती है. व्यक्ति क चक्कर आने लगते हैं, वह बेहोश हो जाता है, कई बार उसकी मौत भी हो जाती है. मौत कभी पूरा न होने वाला नुक़सान है. मौत के सदमे से उबरना आसान नहीं है. सदमे का ताल्लुक़ भावनाओं से है, संवेदनाओं से है. अगर कोई इन संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करे, तो उसे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन सियासी हलक़े में मौत और सदमे पर भी सियासत की बिसात बिछा ली जाती है. फिर अपने फ़ायदे के लिए शह और मात का खेल खेला जाता है. इन दिनों तमिलनाडु में भी यही सब देखने को मिल रहा है.
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी अन्नाद्र्मुक दावा कर रही है कि जयललिता की मौत के सदमे से 470 लोगों की मौत हो चुकी है. पार्टी ने मृतकों के परिवार को तीन लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है. पार्टी ने ऐसे लोगों की फ़ेहरिस्त जारी की है, जिनकी मौत सदमे की वजह से हुई है. पार्टी का यह भी कहना है कि जयललिता के निधन के बाद अब तक छह लोग ख़ुदकुशी की कोशिश कर चुके हैं. ऐसे चार लोगों का ब्यौरा भी जारी किया गया है. जयललिता की मौत की ख़बर सुनने पर ख़ुदकुशी की कोशिश करने वाले एक व्यक्ति को पार्टी ने 50 हज़ार रुपये देने की घोषणा की है. इतना ही नहीं जयललिता की मौत की ख़बर सुनकर अपनी उंगली काटने वाले व्यक्ति को भी 50 हज़ार रुपये की मदद देने का ऐलान किया जा चुका है.

इसमें कोई शक नहीं है कि ’अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध जयललिता तमिलनाडु की लोकप्रिय नेत्री थीं. उन्होंने राज्य की ग़रीब जनता के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं. उन्होंने साल 2013 में चेन्नई में ‘अम्मा कैंटीन’ शुरू की, जहां बहुत कम दाम पर भोजन मुहैया कराया जाता है. अब पूरे राज्य में 300 से ज़्यादा ऐसी कैंटीन हैं, जिनमें एक रुपये में एक इडली और सांभर दिया जाता है, और पांच रुपये में चावल और सांभर परोसा जाता है. ग़रीब तबक़े के लोग इन कैंटीन में नाममात्र के दाम पर भरपेट भोजन करते और ’अम्मा’ के गुण गाते हैं. ये कैंटीन सरकारी अनुदान पर चलती हैं. इसके अलावा ग़रीबी रेखा के नीचे के परिवारों को हर महीने 25 किलो चावल, दालें, मसाले और खाने का अन्य सामान मुफ़्त दिया जाता है. सरकारी अस्पतालों में लोगों का मुफ़्त इलाज किया जाता है. उन्होंने पालना बेबी योजना, अम्मा मिनरल वॉटर, अम्मा सब्ज़ी की दुकान, अम्मा फ़ार्मेसी, बेबी केयर किट, अम्मा मोबाइल जैसी कई योजनाएं भी चलाई. इतना ही नहीं उन्होंने मुफ़्त में भी कई सुविधाएं लोगों को दीं, जिनमें ग़रीब औरतों को मिक्सर ग्राइंडर, लड़कियों को साइकिलें, छात्रों को स्कूल बैग, किताबें, यूनिफॉर्म और मुफ़्त में मास्टर हेल्थ चेकअप आदि शामिल हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि चुनाव के वक़्त लोगों को लुभाने के लिए उन्हें  रोज़मर्रा के काम आने वाली चीज़ें ’तोहफ़े’ में दी जाती हैं, जिनमें टेलीविज़न, एफ़एम रेडियो,  इडली-डोसा बनाने में इस्तेमाल की जाने वाली पिसाई मशीन, साइकिल, लैपटॉप वग़ैरह शामिल हैं. अपने इन्हीं ग़रीब हितैषी कार्यों की वजह से जयललिता जनप्रिय हो गईं. उनकी लोकप्रिय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बाक़ी राज्यों में भाजपा की लहर चल रही थी, उस वक़्त उनकी पार्टी अन्नाद्रमुक ने तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत का परचम लहराया था. वह अपने सियासी गुरु एमजी रामचंद्रन के बाद सत्ता में लगातार दूसरी बार आने वाली तमिलनाडु में पहली राजनीतिज्ञ थीं.

ग़ौरतलब है कि 68 वर्षीय जयललिता को 22 सितंबर को अस्पताल में दाख़िल कराया, तो बहुचर्चित सबरीमाला मंदिर ने उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना के साथ तक़रीबन 75 हज़ार श्रद्धालुओं को मुफ़्त भोजन कराना शुरू कर दिया था. लोग उनके लिए दुआएं कर रहे थे. 5 दिसंबर को उनकी मौत के बाद राज्य में शोक की लहर दौड़ गई. जन सैलाब उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ. सरकार ने पांच दिन का शोक घोषित कर दिया.  जगह-जगह शोक सभाओं का आयोजन कर उनकी आत्मिक शांति के लिए प्रार्थनाएं होने लगीं. फिर ख़बरें आने लगीं कि जयललिता की मौत के सदमे में फ़लां-फ़लां व्यक्ति की मौत हो गई. अन्नाद्रमुक ने मृतकों के लिए सहायता राशि देने की घोषणा कर डाली. इस काम में राज्य सरकार भी पीछे नहीं रही.  इन मरने वाले लोगों की मौत सदमे से हुई है या नहीं ? ये बात अलग है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह सरकारी ख़ज़ाने पर बोझ डालना सही है, क्या करदाताओं की मेहनत की कमाई, जिसका बड़ा हिस्सा करों के रूप में राज्य को मिलता है, उसका इस्तेमाल इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा देने में होना भी चाहिए था? जयललिता की लोकप्रियता के बाद भी इस सवाल का जवाब ’न’ ही है. तमिलनाडु सरकार को सरकारी ख़ज़ाने के पैसे का इस तरह से दुरुपयोग करने से बचना चाहिए था.

इससे बेहतर यह होता कि अन्नाद्रमुक जन कल्याण की कोई और योजना शुरू करती, जिससे ग़रीबों का भला होता ही, वह योजना जयललिता के प्रशंसकों-समर्थकों के मन में उनकी स्मृतियों को भी तरोताज़ा किए रहती. इसके साथ-साथ उन योजनाओं को जारी रखने का संकल्प भी लिया जाना चाहिए था, जो जयललिता ने अपने कार्यकाल में शुरू की थीं. अन्नाद्रमुक और पन्नीर सेल्वम की सरकार को समझना होगा कि हथकंडे अपनाकर कुछ वक़्त के लिए ही जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता है, पर इस तरह खींचा गया ध्यान स्थाई नहीं होता है. यह तो तभी होता है, जब जन कल्याण के कार्य एक संकल्प के तौर पर किए जाएं. जयललिता यही करती थीं, इसीलिए उन्हें ’अम्मा’ कहा जाता है, जबकि पन्नीर सेल्वम सरकारी ख़ज़ाने का दुरुपयोग ही कर रहे हैं. यह उन मौतों को गरिमा प्रदान करनी भी है, जो जयललिता के निधन के बाद सदमा लगने से हुई बताई जा रही हैं. इंसान का जीवन अनमोल होता है. अलबत्ता अल्पकाल में होने वाली मौतों को महिमा-मंडित करना भी प्रकृति और उसके नियमों के ख़िलाफ़ है.