Saturday, December 30, 2017

राहुल गांधी जीते, रणनीतिकार हारे

फ़िरदौस ख़ान
हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजे बहुत कुछ कहते हैं. इन नतीजों से बहुत से सवाल पैदा होते हैं. इन नतीजों के मद्देनज़र यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जीत गए, लेकिन उनके रणनीतिकार बुरी तरह हार गए. इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी ने गुजरात में ख़ूब मेहनत की, लेकिन इसके बावजूद उन्हें सत्ता के तौर मेहनत को फल नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था या जिसके वे मुसतहक़ (अधिकारी( थे.

लेकिन इतना ज़रूर हुआ है कि राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के गृह राज्य में जाकर यह बता दिया है कि वे अकेले दम पर पूरी सरकार से टकरा सकते हैं. कांग्रेस की तरफ़ से जहां अधिकारिक रूप से अकेले राहुल गांधी गुजरात में पार्टी की चुनाव मुहिम संभाले हुए थे, वहीं भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री भी चुनाव प्रचार में दिन-रात जुटे हुए थे. ऐसा लग रहा था, मानो एक अकेले राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पूरी सरकार चुनाव में उतर आई है. इतना ही नहीं, मीडिया भी राहुल गांधी के ख़िलाफ़ था. चुनाव आयोग भी पूरी तरह से सरकार के पक्ष में नज़र आ रहा था. जिस तरह चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के साक्षात्कार को लेकर न्यूज़ चैनलों को नोटिस भेजा और भारतीय जनता पार्टी के 8  दिसम्बर पर घोषणा पत्र जारी करने, मतदान वाले दिन प्रधानमंत्री के रोड शो करने आदि मामलों में आंखें मूंद लीं, उसने चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा कर दिया है.

कांग्रेस ने साबरमती के रानिप में वोट डालने के बाद लोगों की भीड़ को खुली गाड़ी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अभिवादन को चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बताते हुए कहा था कि चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री के निजी सचिव की तरह काम कर रहा है. कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला और गुजरात चुनाव के प्रभारी अशोक गहलोत का कहना था कि प्रधानमंत्री चुनाव आयोग और प्रशासन के साथ मिलकर गुजरात में रोड शो करके संविधान की धज्जियां उड़ा रहे है. रणदीप सुरजेवाला ने कहा था कि राहुल गांधी का इंटरव्यू दिखाने पर चुनाव आयोग ने टीवी चैनलों और अख़बारों पर एफ़आईआर दर्ज कराने के आदेश दिए, राहुल गांधी को नोटिस भेजा, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की. उन्होंने कहा, 'देश चुनाव आयोग से जानना चाहता है कि 8 दिसंबर को जब बीजेपी चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन कर अहमदाबाद में अपना घोषणा-पत्र जारी करती है, तो चुनाव आयोग मूकदर्शक क्यों बना रहता है. क्या कारण है कि वोटिंग से एक दिन पहले अहमदाबाद एयरपोर्ट जैसी सार्वजनिक संपत्ति पर अमित शाह पत्रकार गोष्ठी करते हैं. क्या कारण है कि एक केंद्रीय मंत्री (पीयूष गोयल) गुजरात को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं.' उन्होंने कहा था कहा कि चुनाव आयोग पूरी तरह पीएम और पीएमओ के दबाव में काम कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव आयोग को बंधक बना लिया है. इस मुद्दे को लेकर दिल्ली में काग्रेस कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग के दफ़्तर के बाहर प्रदर्शन किया था.

भले ही भारतीय जनता पार्टी गुजरात विधानसभा चुनाव जीत गई हो, लेकिन नैतिक रूप से उसकी हार ही हुई है. इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में हुई ग़ड़बड़ी के मामले सामने आने के बाद अवाम के दिल में यह बात बैठ गई है कि चुनाव में धांधली हुई है. हार्दिक पटेल का कहना है,''बेईमानी करके जीत हासिल की है. अगर हैकिंग न हुई होती,तो बीजेपी जीत हासिल नहीं कर पाती. विपक्षी दलों को ईवीएम हैक के ख़िलाफ़ एकजुट होना चाहिए. अगर एटीएम हैक हो सकता है,तो ईवीएम क्यों हैक नहीं हो सकती.''
इसी तरह कांग्रेस नेता संजय निरुपम ने भी अपना एक पुराना ट्वीट री-ट्वीट करते हुए लिखा है, ''मैं अब भी इस ट्वीट पर क़ायम हूं. अगर ईवीएम से छेड़छाड़ न हुई होती, तो रिज़ल्ट कांग्रेस के पक्ष में होता.'' कांग्रेस कार्यकर्ताओं का आरोप है कि मतगणना में ईवीएम के साथ लगाई गई वोटर वेरीफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) पर्चियों का मिलान किया जाता, तो कांग्रेस ज़रूर जीत जाती. ग़ौरतलब है कि
कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाख़िल करके मांग की थी कि मतगणना के दौरान कम से कम 20 फ़ीसद वीवीपीएट पर्चियों का ईवीएम से मिलान किया जाए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में दख़ल नहीं दे सकता. सवाल यह है कि अगर ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हुई, तो फिर चुनाव आयोग ने मतगणना के दौरान वीवीपीएट पर्चियों का ईवीएम से मिलान क्यों नहीं किया?
सियासी गलियारों में तो यहां तक कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में पूरी कोशिश की है नतीजा ऐसा रहे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, यानी भाजपा की सरकार बन जाए, और एकतरफ़ा चुनाव भी न लगे, ताकि ईवीएम में ग़ड़बड़ी का मुद्दा थम जाए.

हालांकि गुजरात में राहुल गांधी की मेहनत कुछ रंग लाई. जो भारतीय जनता पार्टी 150 सीटें जीतने का दावा कर कर थी, वह महज़ 99 सीटों तक सिमट गई. कांग्रेस ने 61 से 19 सीटों की बढ़ोतरी करते हुए 80 सीटों पर जीत दर्ज कर की है. ख़ास बात ये भी है कि राहुल गांधी ने जिन मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना की, उन इलाक़ों में कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया. राज्य में 15 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस उम्मीदवार कम वोटों के अंतर से चुनाव हारे हैं. ग्रामीण इलाक़ों में भी कांग्रेस को ख़ासा जन समर्थन हासिल हुआ है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भारतीय जनता पार्टी की जीत पर तंज़ करते हुए कहा है कि गुजरात में भाजपा का दो अंकों में सिमट जाना उनके पतन की शुरुआत है. ये गांव, ग़रीब और ग्रामीण की उपेक्षा का नतीजा है. ये भाजपा की तथाकथित जीत है.

दरअसल, कांग्रेस समझ चुकी थी कि गुजरात और हिमाचल उनके साथ से निकल रहा है, इसलिए इन राज्यों के चुनाव नतीजे आने से दो दिन पहले ही यानी 16 दिसम्बर को राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई. कार्यकर्ता राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष के तौर पर पाकर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे. वे ख़ूब जश्न मना रहे थे, मिठाइयां बांटी जा रही थीं, लेकिन इसके दो दिन बाद आए चुनाव नतीजों ने उनकी ख़ुशी को कम कर दिया. कांगेस कार्यकर्ताओं को जीत न पाने का उतना मलाल नहीं था, जितना दुख इस बात का था कि वे जीत कर भी हार गए. उनका कहना है कि अगर अगर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन की जगह मतपत्र से मतदान होता, तो कांग्रेस की जीत तय थी.
हालांकि राहुल गांधी ने हिम्मत नहीं हारी है. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जनता के फ़ैसले का सम्मान करती है और नई सरकारों को शुभकामनाएं देती है, गुजरात और हिमाचल प्रदेश की अवाम ने जो प्यार दिया, उसके लिए तहे-दिल से शुक्रिया.

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि कांग्रेस की नाकामी की सबसे बड़ी वजह सही रणनीति की कमी है. कांग्रेस के पास या ये कहना ज़्यादा सही होगा कि राहुल गांधी के पास ऐसे सलाहकारों की, ऐसे रणनीतिकारों की बेहद कमी है, जो उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त कर सकें. सही रणनीति की कमी की वजह से ही कांग्रेस जीतकर भी हार जाती है. यही वजह है कि कांग्रेस डेमेज कंट्रोल भी नहीं कर पाती. कांग्रेस नेता मणिशंकर के बयान पर उन्हें बर्ख़ास्त करने के बाद भी पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं हुआ. कांग्रेस जन हितैषी काम करके भी हार जाती है, जबकि आतंकियों को कंधार पहुंचाने वाले, बिन बुलाए पाकिस्तान जाकर बिरयानी खाने वाले नेताओं की पार्टी जीत जाती है. इसलिए राहुल गांधी को ऐसे सलाहकारों की ज़रूरत है, जो उन्हें कामयाबी की बुलंदियों तक ले जाएं. 

Sunday, December 24, 2017

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे


फ़िरदौस ख़ान
बहुमुखी संगीत प्रतिभा के धनी मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसम्बर, 1924 को पंजाब के अमृतसर ज़िले के गांव मजीठा में हुआ. संगीत प्रेमियों के लिए यह गांव किसी तीर्थ से कम नहीं है. मोहम्मद रफ़ी के चाहने वाले दुनिया भर में हैं. भले ही मोहम्मद रफ़ी साहब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ रहती दुनिया तक क़ायम रहेगी. साची प्रकाशन द्वारा प्रकाशित विनोद विप्लव की किताब मोहम्मद रफ़ी की सुर यात्रा मेरी आवाज़ सुनो मोहम्मद रफ़ी साहब के जीवन और उनके गीतों पर केंद्रित है. लेखक का कहना है कि मोहम्मद रफ़ी के विविध आयामी गायन एवं व्यक्तित्व को किसी पुस्तक में समेटना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है, फिर भी अगर संगीत प्रेमियों को इस पुस्तक को पढ़कर मोहम्मद रफ़ी के बारे में जानने की प्यास थोड़ी-सी भी बुझ जाए तो मैं अपनी मेहनत सफल समझूंगा. इस लिहाज़ से यह एक बेहतरीन किताब कही जा सकती है.

मोहम्मद ऱफी के पिता का नाम हाजी अली मोहम्मद और माता का नाम अल्लारखी था. उनके पिता ख़ानसामा थे. रफ़ी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की हजामत की दुकान थी, जहां उनके बचपन का काफ़ी वक़्त गुज़रा. वह जब क़रीब सात साल के थे, तभी उनके बड़े भाई ने इकतारा बजाते और गीत गाते चल रहे एक फ़क़ीर के पीछे-पीछे उन्हें गाते देखा. यह बात जब उनके पिता तक पहुंची तो उन्हें काफ़ी डांट पड़ी. कहा जाता है कि उस फ़क़ीर ने रफ़ी को आशीर्वाद दिया था कि वह आगे चलकर ख़ूब नाम कमाएगा. एक दिन दुकान पर आए कुछ लोगों ने ऱफी को फ़क़ीर के गीत को गाते सुना. वह उस गीत को इस क़दर सधे हुए सुर में गा रहे थे कि वे लोग हैरान रह गए. ऱफी के बड़े भाई ने उनकी प्रतिभा को पहचाना. 1935 में उनके पिता रोज़गार के सिलसिले में लाहौर आ गए. यहां उनके भाई ने उन्हें गायक उस्ताद उस्मान ख़ान अब्दुल वहीद ख़ान की शार्गिदी में सौंप दिया. बाद में रफ़ी ने पंडित जीवन लाल और उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से भी संगीत सीखा.

मोहम्मद रफ़ी उस वक़्त के मशहूर गायक और अभिनेता कुंदन लाल सहगल के दीवाने से और उनके जैसा ही बनना चाहते थे. वह छोटे-मोटे जलसों में सहगल के गीत गाते थे. क़रीब 15 साल की उम्र में उनकी मुलाक़ात सहगल से हुई. हुआ यूं कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल गाने वाले थे. रफ़ी भी अपने भाई के साथ वहां पहुंच गए. संयोग से माइक ख़राब हो गया और लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. व्यवस्थापक परेशान थे कि लोगों को कैसे ख़ामोश कराया जाए. उसी वक़्त रफ़ी के बड़े भाई व्यवस्थापक के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि माइक ठीक होने तक रफ़ी को गाने का मौक़ा दिया जाए. मजबूरन व्यवस्थापक मान गए. रफ़ी ने गाना शुरू किया, लोग शांत हो गए. इतने में सहगल भी वहां पहुंच गए. उन्होंने रफ़ी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि एक दिन तुम्हारी आवाज़ दूर-दूर तक फैलेगी. बाद में रफ़ी को संगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी के मार्गदर्शन में लाहौर रेडियो में गाने का मौक़ा मिला. उन्हें कामयाबी मिली और वह लाहौर फ़िल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने की कोशिश करने लगे. उस दौरान उनकी रिश्ते में बड़ी बहन लगने वाली बशीरन से उनकी शादी हो गई. उस वक़्त के मशहूर संगीतकार श्याम सुंदर और फ़िल्म निर्माता अभिनेता नासिर ख़ान से रफ़ी की मुलाक़ात हुई. उन्होंने उनके गाने सुने और उन्हें बंबई आने का न्यौता दिया. ऱफी के पिता संगीत को इस्लाम विरोधी मानते थे, इसलिए बड़ी मुश्किल से वह संगीत को पेशा बनाने पर राज़ी हुए. रफ़ी अपने भाई के साथ बंबई पहुंचे. अपने वादे के मुताबिक़ श्याम सुंदर ने रफ़ी को पंजाबी फ़िल्म गुलबलोच में ज़ीनत के साथ गाने का मौक़ा दिया. यह 1944 की बात है. इस तरह रफ़ी ने गुलबलोच के सोनियेनी, हीरिएनी तेरी याद ने बहुत सताया गीत के ज़रिये पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखा. रफ़ी ने नौशाद साहब से भी मुलाक़ात की. नौशाद ने फ़िल्म शाहजहां के एक गीत में उन्हें सहगल के साथ गाने का मौक़ा दिया. रफ़ी को सिर्फ़ दो पंक्तियां गानी थीं-मेरे सपनों की रानी, रूही, रूही रूही. इसके बाद नौशाद ने 1946 में उनसे फ़िल्म अनमोल घड़ी का गीत तेरा खिलौना टूटा बालक, तेरा खिलौना टूटा रिकॉर्ड कराया. फिर 1947 में फ़िरोज़ निज़ामी ने रफ़ी को फ़िल्म जुगनूं का युगल गीत नूरजहां के साथ गाने का मौक़ा दिया. बोल थे- यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है. यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म मेला का एक गीत ये ज़िंदगी के मेले गवाया. इस फ़िल्म के बाक़ी गीत मुकेश से गवाये गए, लेकिन रफ़ी का गीत अमर हो गया. यह गीत हिंदी सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतों में से एक है. इस बीच रफ़ी संगीतकारों की पहली जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के संपर्क में आए. इस जोड़ी ने अपनी शुरुआती फ़िल्मों प्यार की जीत, बड़ी बहन और मीना बाज़ार में रफ़ी की आवाज़ का भरपूर इस्तेमाल किया. इसके बाद तो नौशाद को भी फ़िल्म दिल्लगी में नायक की भूमिका निभा रहे श्याम कुमार के लिए रफ़ी की आवाज़ का ही इस्तेमाल करना पड़ा. इसके बाद फ़िल्म चांदनी रात में भी उन्होंने रफ़ी को मौक़ा दिया. बैजू बावरा संगीत इतिहास की सिरमौर फ़िल्म मानी जाती है. इस फ़िल्म ने रफ़ी को कामयाबी के आसमान तक पहुंचा दिया. इस फ़िल्म में प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां साहब और डी वी पलुस्कर ने भी गीत गाये थे. फ़िल्म के पोस्टरों में भी इन्हीं गायकों के नाम प्रचारित किए गए, लेकिन जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो मोहम्मद रफ़ी के गाये गीत तू गंगा की मौज और ओ दुनिया के रखवाले हर तरफ़ गूंजने लगे. रफ़ी ने अपने समकालीन गायकों तलत महमूद, मुकेश और सहगल के रहते अपने लिए जगह बनाई. रफ़ी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तक़रीबन 26 हज़ार गाने गाये, लेकिन उनके तक़रीबन पांच हज़ार गानों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें ग़ैर फ़िल्मी गीत भी शामिल हैं. देश विभाजन के बाद जब नूरजहां, फ़िरोज़ निज़ामी और निसार वाज्मी जैसी कई हस्तियां पाकिस्तान चली गईं, लेकिन वह हिंदुस्तान में ही रहे. इतना ही नहीं, उन्होंने सभी गायकों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा देशप्रेम के गीत गाये. रफ़ी ने जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के एक माह बाद गांधी जी को श्रद्धांजलि देने के लिए हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में राजेंद्र कृष्ण रचित सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी गीत गाया तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे. भारत-पाक युद्ध के वक़्त भी रफ़ी ने जोशीले गीत गाये. यह सब पाकिस्तानी सरकार को पसंद नहीं था. शायद इसलिए दुनिया भर में अपने कार्यक्रम करने वाले रफ़ी पाकिस्तान में शो पेश नहीं कर पाए. ऱफी किसी भी तरह के गीत गाने की योग्यता रखते थे. संगीतकार जानते थे कि आवाज़ को तीसरे सप्तक तक उठाने का काम केवल ऱफी ही कर सकते थे. मोहम्मद रफ़ी ने संगीत के उस शिखर को हासिल किया, जहां तक कोई दूसरा गायक नहीं पहुंच पाया. उनकी आवाज़ के आयामों की कोई सीमा नहीं थी. मद्धिम अष्टम स्वर वाले गीत हों या बुलंद आवाज़ वाले याहू शैली के गीत, वह हर तरह के गीत गाने में माहिर थे. उन्होंने भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, दशभक्ति गीत, दर्दभरे तराने, जोशीले गीत, हर उम्र, हर वर्ग और हर रुचि के लोगों को अपनी आवाज़ के जादू में बांधा. उनकी असीमित गायन क्षमता का आलम यह था कि उन्होंने रागिनी, बाग़ी, शहज़ादा और शरारत जैसी फ़िल्मों में अभिनेता-गायक किशोर कुमार पर फ़िल्माये गीत गाये.

वह 1955 से 1965 के दौरान अपने करियर के शिखर पर थे. यह वह व़क्त था, जिसे हिंदी फ़िल्म संगीत का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. उनकी आवाज़ के जादू को शब्दों में बयां करना नामुमकिन है. उनकी आवाज़ में सुरों को महसूस किया जा सकता है. उन्होंने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत के करियर में नौशाद, सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र, रोशन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैयर, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रवींद्र जैन, इक़बाल क़ुरैशी, हुस्नलाल, श्याम सुंदर, फ़िरोज़ निज़ामी, हंसलाल, भगतराम, आदि नारायण राव, हंसराज बहल, ग़ुलाम हैदर, बाबुल, जी एस कोहली, वसंत देसाई, एस एन त्रिपाठी, सज्जाद हुसैन, सरदार मलिक, पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रखा, ए आर क़ुरैशी, लच्छीराम, दत्ताराम, एन दत्ता, सी अर्जुन, रामलाल, सपन जगमोहन, श्याम जी-घनश्यामजी, गणेश, सोनिक-ओमी, शंभू सेन, पांडुरंग दीक्षित, वनराज भाटिया, जुगलकिशोर-तलक, उषा खन्ना, बप्पी लाह़िडी, राम-लक्ष्मण, रवि, राहुल देव बर्मन और अनु मलिक जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत का जादू बिखेरा.

रफ़ी साहब ने 31 जुलाई, 1980 को आख़िरी सांस ली. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. जिस रोज़ उन्हें जुहू के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया, उस दिन बारिश भी बहुत हो रही थी. उनके चाहने वालों ने उन्हें नम आंखों से विदाई दी. लग रहा था मानो ऱफी साहब कह रहे हों-
हां, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीते मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे…

Saturday, December 23, 2017

एक विश मुहब्बत की

फ़िरदौस ख़ान
क्रिसमस है... साल भर बेसब्री से इंतज़ार करते हैं इस बड़े दिन का... बहुत ख़ूबसूरत यादें जुड़ी हैं क्रिसमस से... बचपन से ही यह त्यौहार बहुत अच्छा लगता है... गुज़रते वक़्त के साथ इस त्यौहार से एक गहरा रिश्ता जुड़ गया... वो कहीं भी हों, इस दिन चर्च ज़रूर जाते हैं...
बचपन से सुनते आए हैं कि क्रिसमस के दिन सांता क्लाज आते हैं. अपने साथ बहुत सारे तोहफ़े और खुशियां लाते हैं. बचपन में बस संता क्लॊज़ को देखने की ख़्वाहिश थी. उनसे कुछ पाने का ख़्याल कभी ज़हन में आया तक नहीं, क्योंकि हर चीज़ मुहैया थी. जिस चीज़ की तरफ़ इशारा कर दिया कुछ ही पलों में मिल जाती थी. किसी चीज़ का अभाव किया होता है. कभी जाना ही नहीं. मगर अब सांता क्लाज़ से पाना चाहते हैं- मुहब्बत, पूरी कायनात के लिए, ताकि हर तरफ़ बस मुहब्बत का उजियारा हो और नफ़रतों का अंधेरा हमेशा के लिए छंट जाए... हर इंसान ख़ुशहाल हो, सबका अपना घरबार हो, सबकी ज़िन्दगी में चैन-सुकून हो, आमीन.. संता क्लॊज़ वही हैं, मगर उम्र बढ़ने के साथ ख़्वाहिशें भी बढ़ जाती हैं...

दुनियाभर में मनाए जाने वाले क्रिसमस की दास्तां बहुत ही रोचक है. क्रिसमस ईसाइयों के सबसे ख़ास त्यौहारों में से एक है. इसे ईसा मसीह के जन्म की ख़ुशी में मनाया जाता है. क्रिसमस को बड़े दिन के रूप में भी मनाया जाता है. क्रिसमस से 12 दिन का उत्सव क्रिसमस टाइड शुरू होता है. ‘क्रिसमस’ शब्द ‘क्राइस्ट्स और मास’ दो शब्दों से मिलकर बना है, जो मध्य काल के अंग्रेज़ी शब्द ‘क्रिस्टेमसे’ और पुरानी अंग्रेज़ी शब्द ‘क्रिस्टेसमैसे’ से नक़ल किया गया है. 1038 ईस्वी से इसे ‘क्रिसमस’ कहा जाने लगा. इसमें ‘क्रिस’ का अर्थ ईसा मसीह और ‘मस’ का अर्थ ईसाइयों का प्रार्थनामय समूह या ‘मास’ है. सोलहवीं सदी के मध्य से ‘क्राइस्ट’ शब्द को रोमन अक्षर एक्स से दर्शाने की प्रथा चल पड़ी. इसलिए अब क्रिसमस को एक्समस भी कहा जाता है.
भारत सहित दुनिया के ज़्यादातर देशों में क्रिसमस 25 दिसम्बर को मनाया जाता है, क्योंकि इन हिस्सों में 1582 में पोप ग्रेगोरी द्वारा बनाए गए कैलेंडर का इस्तेमाल होता है. इसके हिसाब से 25 दिसम्बर को ही क्रिसमस आता है, लेकिन रूस, मिस्त्र, अरमेनिया, इथोपिया, गॉर्गिया, युक्रेन, जार्जिया, सर्बिया और कजाकिस्तान आदि देशों में लोग 7 जनवरी को क्रिसमस मनाते हैं, क्योंकि पारंपरिक जुलियन कैलेंडर का 25 दिसम्बर यानी क्रिसमस का दिन गेगोरियन कैलेंडर और रोमन कैलेंडर के मुताबिक़ 7 जनवरी को आता है. क़ाबिले-ग़ौर है कि इटली में 6 जनवरी को क्रिसमस मनाया जाता है. यहां 'द फ़ीस्ट ऑफ़ एपिफ़ेनी' नाम से इसे मनाया जाता है. माना जाता है कि यीशू के पैदा होने के बारहवें दिन तीन आलिम उन्हें तोहफ़े और दुआएं देने आए थे.

हालांकि पवित्र बाइबल में कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं है कि क्रिसमस मनाने की परम्परा आख़िर कैसे, कब और कहां शुरू हुई. एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म 7 से 2 ईसा पूर्व के बीच हुआ था. 25 दिसम्बर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं है. शोधकर्ताओं का कहना है कि ईसा मसीह के जन्म की सही तारीख़ के बारे में पता लगाना काफ़ी मुश्किल है. सबसे पहले रोम के बिशप लिबेरियुस ने ईसाई सदस्यों के साथ मिलकर 354 ईस्वी में 25 दिसम्बर को क्रिसमस मनाया था. उसके बाद 432 ईस्वी में मिस्र में पुराने जुलियन कैलेंडर के मुताबिक़ 6 जनवरी को क्रिसमस मनाया गया था. उसके बाद धीरे-धीरे पूरी दुनिया में जहां भी ईसाइयों की तादाद ज़्यादा थी, यह त्यौहार मनाया जाने लगा. छठी सदी के आख़िर तक इंग्लैंड में यह एक परम्परा का रूप ले चुका था.

ग़ौरतलब है ईसा मसीह के जन्म के बारे में व्यापिक स्वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा के मुताबिक़ प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा. गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी और बच्चे् का नाम जीसस रखा जाएगा. वह बड़ा होकर राजा बनेगा, और उसके राज्य की कोई सीमा नहीं होगी. देवदूत गैब्रियल, जोसफ़ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्चे को जन्म देगी, और उसे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे और उसका परित्याग न करे. जिस रात को जीसस का जन्म  हुआ, उस वक़्त लागू नियमों के मुताबिक़ अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ़ बेथलेहेम जाने के लिए रास्ते में थे. उन्होंने एक अस्तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्म दिया और उसे एक नांद में लिटा दिया. इस प्रकार जीसस का जन्म हुआ. क्रिसमस समारोह आधी रात के बाद शुरू होता है. इसके बाद मनोरंजन किया जाता है. ख़ूबसूरत रंगीन लिबास पहने बच्चे ड्रम्स, झांझ-मंजीरों के आर्केस्ट्रा के साथ हाथ में चमकीली छड़ियां लिए हुए सामूहिक नृत्यु करते हैं.

क्रिसमस का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि ईसा मसीह के जन्म की कहानी का संता क्लॉज़ की कहानी के साथ कोई रिश्ता नहीं है. वैसे तो संता क्लॉज़ को याद करने का चलन चौथी सदी से शुरू हुआ था और वे संत निकोलस थे, जो तुर्किस्तान के मीरा नामक शहर के बिशप थे. उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था और वे ग़रीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों को तोहफ़े दिया करते थे.
पुरानी कैथोलिक परंपरा के मुताबिक़ क्रिसमस की रात को ईसाई बच्चे अपनी तमन्नाओं और ज़रूरतों को एक पत्र में लिखकर सोने से पूर्व अपने घर की खिड़कियों में रख देते थे. यह पत्र बालक ईसा मसीह के नाम लिखा जाता था. यह मान्यता थी कि फ़रिश्ते उनके पत्रों को बालक ईसा मसीह तक पहुंचा देंगे. क्रिसमस ट्री की कहानी भी बहुत ही रोचक है. किवदंती है कि सर्दियों के महीने में एक लड़का जंगल में अकेला भटक रहा था. वह सर्दी से ठिठुर रहा था. वह ठंड से बचने के लिए आसरा तलाशने लगा. तभी उसकी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी. वह झोपडी के पास गया और उसने दरवाजा खटखटाया. कुछ देर बाद एक लकड़हारे ने दरवाज़ा खोला. लड़के ने उस लकड़हारे से झोपड़ी के भीतर आने का अनुरोध किया. जब लकड़हारे ने ठंड में कांपते उस लड़के को देखा, तो उसे लड़के पर तरस आ गया और उसने उसे अपनी झोपड़ी में बुला लिया और उसे गर्म कपड़े भी दिए. उसके पास जो रूख-सूखा था, उसने लड़के को बभी खिलाया. इस अतिथि सत्कार से लड़का बहुत ख़ुश हुआ. हक़ीक़त में वह लड़का एक फ़रिश्ता था और लकड़हारे का इम्तिहान लेने आया था. उसने लकड़हारे के घर के पास खड़े फ़र के पेड़ से एक तिनका निकाला और लकड़हारे को देकर कहा कि इसे ज़मीन में बो दो. लकड़हारे ने ठीक वैसा ही किया जैसा लड़के ने बताया था. लकड़हारा और उसकी पत्नी इस पौधे की देखभाल करने लगे. एक साल बाद क्रिसमस के दिन उस पेड़ में फल लग गए. फलों को देखकर लकड़हारा और उसकी पत्नी हैरान रह गए, क्योंकि ये फल, साधारण फल नहीं थे बल्कि सोने और चांदी के थे. कहा जाता है कि इस पेड़ की याद में आज भी क्रिसमस ट्री सजाया जाता है. मगर मॉडर्न क्रिसमस ट्री की शुरुआत जर्मनी में हुई. उस वक़्त एडम और ईव के नाटक में स्टेज पर फ़र के पेड़ लगाए जाते थे. इस पर सेब लटके होते थे और स्टेज पर एक पिरामिड भी रखा जाता था. इस पिरामिड को हरे पत्तों और रंग-बिरंगी मोमबत्तियों से सजाया जाता था. पेड़ के ऊपर एक चमकता तारा लगाया जाता था. बाद में सोलहवीं सदी में फ़र का पेड़ और पिरामिड एक हो गए और इसका नाम हो गया क्रिसमस ट्री. अट्ठारहवीं सदी तक क्रिसमस ट्री बेहद लोकप्रिय हो चुका था. जर्मनी के राजकुमार अल्बर्ट की पत्नी महारानी विक्टोरिया के देश इंग्लैंड में भी धीरे-धीरे यह लोकप्रिय होने लगा. इंग्लैंड के लोगों ने क्रिसमस ट्री को रिबन से सजाकर और आकर्षक बना दिया. उन्नीसवीं सदी तक क्रिसमस ट्री उत्तरी अमेरिका तक जा पहुंचा और वहां से यह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो गया. क्रिसमस के मौक़े पर अन्य त्यौहारों की तरह अपने घर में तैयार की हुई मिठाइयां और व्यंजनों को आपस में बांटने और क्रिसमस के नाम से तोहफ़े देने की परम्परा भी काफ़ी पुरानी है. इसके अलावा बालक ईसा मसीह के जन्म की कहानी के आधार पर बेथलेहम शहर के एक गौशाला की चरनी में लेटे बालक ईसा मसीह और गाय-बैलों की मूर्तियों के साथ पहाड़ों के ऊपर फ़रिश्तों और चमकते तारों को सजा कर झांकियां बनाई जाती हैं, जो तक़रीबन दो हज़ार साल पुरानी ईसा मसीह के जन्म की याद दिलाती हैं.

दिसम्बर का महीना शुरू होते ही दुनियाभर में क्रिसमस की तैयारियां शुरू हो जाती हैं . गिरजाघरों को सजाया जाता है. भारत में अन्य मज़हबों के लोग भी क्रिसमस के जश्न में शामिल होते हैं. क्रिसमस के दौरान प्रभु की प्रशंसा में लोग कैरोल गाते हैं. वे प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हुए घर-घर जाते हैं. भारत में ख़ासकर गोवा में कुछ लोकप्रिय चर्च हैं, जहां क्रिसमस बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है. इनमें से ज़्यादातर चर्च ब्रि‍टिश और पुर्तगाली शासन के दौरान बनाए गए थे. इनके अलावा देश के कुछ बड़े चर्चों मे सेंट जोसफ़ कैथेड्रिल, आंध्र प्रदेश का मेढक चर्च, सेंट कै‍थेड्रल, चर्च ऑफ़ सेंट फ्रांसिस ऑफ़ आसीसि और गोवा का बैसिलिका व बोर्न जीसस, सेंट जॊन्स चर्च इन विल्डरनेस और हिमाचल में क्राइस्ट  चर्च, सांता क्लॊज बैसिलिका चर्च, और केरल का सेंट फ्रासिस चर्च, होली क्राइस्ट चर्च, महाराष्ट्र में माउन्टल मैरी चर्च, तमिलनाडु में क्राइस्ट द किंग चर्च व वेलान्कन्नी चर्च, और आल सेंट्स चर्च और उत्तर प्रदेश का कानपुर मेमोरियल चर्च शामिल हैं. क्रिसमस पर देश भर के सभी छोटे-बड़े चर्चों में रौनक़ रहती है. यह हमारे देश की सदियों पुरानी परंपरा रही है कि यहां सभी त्यौहारों को मिलजुल कर मनाया जाता है. हर त्यौहार का अपना ही उत्साह होता है- बिलकुल ईद और दिवाली की तरह. 

Friday, December 22, 2017

अवाम की आस हैं राहुल गांधी

फ़िरदौस ख़ान
कहते हैं जब तरक़्क़ी मिलती है, तो उसके साथ ही ज़िम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं. राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए हैं. उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद मिल गया है और इसके साथ ही उन्हें ढेर सारी चुनौतियां भी मिली हैं, जिसका सामना उन्हें क़दम-क़दम पर करना है. राहुल गांधी ऐसे वक़्त में पार्टी के अध्यक्ष बने हैं, जब कांग्रेस देश की सत्ता से बाहर है. ऐसी हालत में उन पर दोहरी ज़िम्मेदारी आन पड़ी है. पहली ज़िम्मेदारी पार्टी संगठन को मज़बूत बनाने की है और दूसरी खोई हुई हुकूमत को फिर से हासिल करने की है. राहुल गांधी पर इससे बड़ी भी एक ज़िम्मेदारी है और वह है देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी, देश में चैन-अमन क़ायम करने की ज़िम्मेदारी. देश में ऐसा माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी, जिसमें सभी मज़हबों के लोग चैन-अमन के साथ मिलजुल कर रह सकें. पिछले तीन-चार सालों में देश में जो सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं, उनकी वजह से न सिर्फ़ देश का माहौल ख़राब हुआ है, बल्कि विदेशों में भी भारत की छवि धूमिल हुई है. ऐसी हालत में देश को, अवाम को राहुल गांधी से बहुत उम्मीदें हैं.

देश के कई राज्यों में जहां पहले कांग्रेस की हुकूमत हुआ करती थी, अब वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. लगातार बढ़ती महंगाई, नोटबंदी, जीएसटी और सांप्रदायिक घटनाओं को लेकर लोग भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ नज़र आ रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस के पास अच्छा मौक़ा है. वह जन आंदोलन चलाकर भारी जन समर्थन जुटा सकती है, अपना जनाधार बढ़ा सकती है, पार्टी को मज़बूत कर सकती है. इसके लिए राहुल गांधी को देशभर के सभी राज्यों में युवा नेतृत्व को आगे लाना होगा. इसके साथ ही कांग्रेस के शासनकाल में हुए विकास कार्यों को भी जनता के बीच रखना होगा. जनता को बताना होगा कि कांग्रेस और भाजपा के शासन में क्या फ़र्क़ है. कांग्रेस ने मनरेगा, आरटीआई और खाद्य सुरक्षा जैसी अनेक कल्याणकारी योजनाएं दीं, जिनका सीधा फ़ायदा जनता को हुआ. लेकिन कांग्रेस के नेता चुनावों में इनका कोई भी फ़ायदा नहीं ले पाए. यह कांग्रेस की बहुत बड़ी कमी रही, जबकि भारतीय जनता पार्टी जनता से कभी पूरे न होने वाले लुभावने वादे करके सत्ता तक पहुंच गई.

ये कांग्रेस की ख़ासियत है कि वह जन हित की बात करती है, जनता की बात करती है. कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है, जो बिना किसी भेदभाव के सभी तबक़ों को साथ लेकर चलती है. कांग्रेस ने देश के लिए बहुत कुछ किया है. जिन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है, उनमें कांग्रेस के ही नेता सबसे आगे रहे हैं, चाहे वह पंडित जवाहरलाल नेहरू हों या फिर श्रीमती इंदिरा गांधी या उनके बेटे राजीव गांधी. कांग्रेस की अध्यक्ष रहते हुए श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी को सत्ता तक पहुंचाया. उन्होंने एक दशक तक देश को मज़बूत और जन हितैषी सरकार दी. अब बारी राहुल गांधी की है. मौजूदा हालात को देखते हुए यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि आज देश को राहुल गांधी जैसे ईमानदार नेता की ज़रूरत है, जो मक्कारी और फ़रेब की सियासत नहीं करते. वे बेबाक कहते हैं, 'मैं झूठे वादे नहीं करता. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता." राहुल गांधी की यही ईमानदारी उन्हें क़ाबिले-ऐतबार बनाती है, उन्हें लोकप्रिय बनाती है. सनद रहे कि एक सर्वे में विश्वसनीयता के मामले में दुनिया के बड़े नेताओं में राहुल गांधी को तीसरा दर्जा मिला हैं, यानी दुनिया भी उनकी ईमानदारी का लोहा मानती है. उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस कामयाबी की बुलंदियों को छुये, ऐसी उम्मीद उनसे की जा सकती है.

राहुल गांधी पर यह भी ज़िम्मेदारी रहेगी कि युवाओं को आगे लाने के साथ-साथ वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी साथ लेकर चलें. वरिष्ठ नेताओं के अनुभव की रौशनी में युवा नेताओं का जोश और मेहनत पार्टी को मज़बूती दे सकती है. इसके साथ ही उन्हें अंदरूनी कलह से भी चो-चार होना पड़ेगा. पार्टी का नया संगठन खड़ा होना है, ऐसे में जिन लोगों को उनकी पसंद का पद नहीं मिलेगा, वे पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं. इतना ही नहीं, पार्टी को रणनीति पर भी ख़ास ध्यान देना होगा. एक छोटी-सी ग़लती भी बड़े नुक़सान की वजह बन जाया करती है. मिसाल के तौर पर मणिपुर और गोवा को ही लें, इन दोनों ही राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन सियासी रणनीति सही नहीं होने की वजह से कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही. इतना ही नहीं, बिहार के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भी कांग्रेस सरकार को संभाल नहीं पाई और सत्ता भारतीय जनता पार्टी ने हथिया ली. यहां भी कांग्रेस को बड़ी नाकामी मिली. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस की नैया डुबोने में पार्टी के खेवनहारों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. राहुल गांधी को इस बात को भी मद्देनज़र रखते हुए आगामी रणनीति बनानी होगी. कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पार्टी को अपनी जागीर समझ रखा है और सत्ता के मद में चूर वे कार्यकर्ताओं और जनता से दूर होते चले गए, जिसका ख़ामियाज़ा कांग्रेस को पिछले आम चुनाव और विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ा. पार्टी की अंदरूनी कलह, आपसी खींचतान, कार्यकर्ताओं की बात को तरजीह न देना कांग्रेस के लिए नुक़सानदेह साबित हुआ. हालत यह रही कि अगर कोई कार्यकर्ता पार्टी के नेता से मिलना चाहे, तो उसे वक़्त नहीं दिया जाता था. कांग्रेस में सदस्यता अभियान के नाम पर भी सिर्फ़ ख़ानापूर्ति ही की गई. इसके दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत की. भाजपा का जनाधार बढ़ाने पर ख़ासा ज़ोर दिया. संघ और भाजपा ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पार्टी से जोड़ा. केंद्र में सत्ता में आने के बाद भी भाजपा अपना जनाधार बढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है. कांग्रेस को भी अपना जनाधार बढ़ाने और उसे मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए.

राहुल गांधी पिछड़ों और दलितों को पार्टी से जोड़ने का काम कर रहे हैं, इसका उन्हें फ़ायदा होगा. उन्हें अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों को भी कांग्रेस से जोड़ने के लिए काम शुरू करना चाहिए. वैसे तो मुस्लिम कांग्रेस के कट्टर समर्थक रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ बरसों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाई है. इससे मुस्लिम वोट का बंटवारा हो गया, जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी को होता है.

साल 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे, जिनमें कर्नाटक, मेघालय, मिज़ोरम, त्रिपुरा और नगालैंड शामिल हैं. कर्नाटक, मेघालय और मिज़ोरम में कांग्रेस की हुकूमत है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सत्ता है. इन राज्यों में कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी से कड़ा मुक़ाबला करना होगा. इसके लिए कांग्रेस को अभी से तैयारी शुरू करनी होगी. गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे इन राज्यों को कितना प्रभावित करते हैं, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.

बहरहाल, राहुल गांधी को अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों, विधायकों, कार्यकर्ताओं और समर्थकों से ऐसा रिश्ता क़ायम करना होगा, जिसे बड़े से बड़ा लालच भी तोड़ न पाए. इसके लिए उन्हें पार्टी कार्यकर्ताओं से संवाद करना होगा, आम लोगों से मिलना होगा, उनके मन की बात सुननी होगी. राहुल गांधी ने पार्टी संगठन को मज़बूत कर लिया, तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. उन्हें चाहिए कि वे पार्टी के आख़िरी कार्यकर्ता तक से संवाद करें. उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक हो और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए. अगर ऐसा हो गया तो कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा और आने वाला वक़्त कांग्रेस का होगा. राहुल गांधी के पास वक़्त है, मौक़ा है, वे चाहें तो इतिहास रच सकते हैं.

Thursday, December 21, 2017

राहुल गांधी को भी ज़िन्दगी जीने का हक़ है

फ़िरदौस ख़ान
राहुल गांधी भी औरों की तरह ही इंसान हैं. वे कोई बेजान मूरत नहीं हैं, जिसके अपने कोई जज़्बात न हों, अहसासात न हों, ख़्वाहिशात न हों. उनके भी अपने सुख-दुख हैं. उन्हें भी ज़िन्दगी जीने का पूरा हक़ है, ख़ुश रहने का हक़ है. जब इंसान परेशान होता है, दिल बोझल होता है, तो वह दिल बहलाने के सौ जतन करता है... कोई किताबें पढ़ता है, कोई गीत-संगीत सुनता है, कोई फ़िल्म देखता है, कोई घूमने निकल जाता है या इसी तरह का अपनी पसंद का कोई काम करता है.

ख़बरों के मुताबिक़ गुज़श्ता 18 दिसंबर की शाम को गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजे आने के बाद राहुल गांधी अपने क़रीबी दोस्तों के साथ हॉलीवुड फ़िल्म 'स्टार वॉर' देखने सिनेमा हॉल चले गए. लेकिन कुछ वक़्त बाद ही वे फ़िल्म बीच में छोड़कर वापस आ गए. कुछ लोगों ने उन्हें सिनेमा हॊल में देख लिया और फिर क्या था, भारतीय जनता पार्टी ने इसे एक बड़ा सियासी मुद्दा बना दिया.

भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की काम करने की क्षमता पर तंज़ कसते हुए कई ट्वीट्स किए. उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस ने ना केवल गुजरात चुनाव हारा, बल्कि जहां पार्टी की सरकार थी, हिमाचल प्रदेश में, वहां भी हार गई, लेकिन राहुल गांधी इस बात का आंकलन ना करके फ़िल्म देखने निकल गए.’ एक के बाद एक ट्वीट कर अमित मालवीय ने राहुल से पूछा कि, 'अगर राहुल ने सिनेमा छोड़ गुजरात में ही पार्टी के प्रदर्शन का आंकलन किया होता, तो उन्हें पता चल जाता कि सौराष्ट्र जहां वह सबसे ज़्यादा सीटें जीते हैं, वहां भी बीजेपी को सबसे ज़्यादा वोट मिले हैं. यहां बीजेपी को 45.9 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि कांग्रेस को 45.5 प्रतिशत.

कहा जा रहा है कि जिस वक़्त प्रधानमंत्री दोनों राज्यों की जनता को संबोधित कर रहे थे, ठीक उसी वक़्त राहुल गांधी फ़िल्म का लुत्फ़ उठा रहे थे. दरअसल, उस वक़्त राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालत में बहुत फ़र्क़ था. कांग्रेस दोनों राज्यों में चुनाव हारी है, और उसने हिमाचल प्रदेश में अपनी हुकूमत भी गंवा दी. ऐसी हालत में उदास होना लाज़िमी है. भारतीय जनता पार्टी ने जहां गुजरात की अपनी सत्ता बचाई, वहीं हिमाचल प्रदेश भी उसकी झोली में आ गया. ऐसे में प्रधानमंत्री का ख़ुश होकर जनता को संबोधित करना कोई अनोखी और बड़ी बात नहीं है.
फ़र्ज़ करें कि अगर चुनाव नतीजे इससे बिल्कुल उलट होते. भारतीय जनता पार्टी गुजरात हार जाती और कांग्रेस हिमाचल प्रदेश बचाने के साथ ही गुजरात भी जीत जाती, तो उस वक़्त राहुल गांधी भी पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे होते, उनके साथ जश्न मना रहे होते.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस वक़्त क्या करते, ये वही जानें और भारतीय जनता पार्टी वाले जानें.
बहरहाल, राहुल गांधी की ज़ाती ज़िन्दगी में दख़ल देने का किसी को कोई हक़ नहीं है.

Sunday, December 17, 2017

जब राहुल गांधी ने मां की पेशानी चूमी

फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस की वरिष्ठ नेता श्रीमती सोनिया गांधी ने बीते शनिवार को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय में आयोजित एक समारोह में राहुल गांधी को पार्टी के अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंपी. इस मौक़े पर राहुल गांधी ने अपनी मां की पेशानी (माथे) को चूमकर अपने जज़्बात का इज़हार किया.
हमेशा मौक़े की ताक में बैठे रहने वाले ’राष्ट्रवादी’ लोगों ने इस बात पर ही बवाल खड़ा कर दिया. उनका कहना था कि राहुल गांधी ने अपनी मां की पेशानी चूमकर विदेशी होने का सबूत दिया है. उन्हें सोनिया गांधी के पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहिए था. ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी पहली बार ट्रोल हुए हैं. एक गिरोह उन्हें और उनकी मां को हमेशा विदेशी साबित करने पर आमादा रहता है.

दरअसल, सियासत का कोई मज़हब नहीं होता. सियासत का सिर्फ़ मक़सद होता है, और वह है सत्ता हासिल करना.  येन केन प्रकारेण यानी किसी भी तरह सत्ता हासिल करना. साम, दाम, दंड, भेद तो सियासत के हथियार रहे ही हैं. कहने को भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, लेकिन यहां की सियासत धर्म की बैसाखियों के सहारे ही आगे बढ़ती है. इस मामले में भारतीय जनता पार्टी सबसे आगे हैं. ये एक ऐसी पार्टी है, जो धार्मिक मुद्दों को आधार बनाकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ती है, वह मुद्दा राम मंदिर का हो, या फिर सांप्रदायिकता को हवा देने का कोई और मामला. भारतीय जनता पार्टी सत्ता के लिए न सिर्फ़ धर्म की राजनीति करती है, बल्कि अगड़े-पिछड़े तबक़े के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करती. इसके बनिस्बत कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, मार्क्सवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और इसी तरह के अन्य दलों ने हमेशा जनता की आवाज़ उठाई है, उनके हक़ की बात की है.

चुनाव के दौरान हर बार की तरह इस मर्तबा भी भारतीय जनता पार्टी ने धर्म को मुद्दा बनाकर देश में एक और विवाद पैदा कर दिया था. सर्व घोषित राष्ट्रवादी पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि मंदिर वही लोग जा सकते हैं, जिनके पुरखों ने मंदिर बनवाया हो. पिछले दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी चुनावी मुहिम के दौरान गुजरात के कई मंदिरों में पूजा-अर्चना की थी. इसी कड़ी में वे सोमनाथ मंदिर भी गए और वहां भी पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद लिया. इस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तंज़ किया, "आपके परनाना ने नहीं बनवाया सोमनाथ मंदिर." यानी जिनके पुरखों ने मंदिर बनवाए हैं, वही मंदिर जा सकते हैं. इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी का यह भी कहना है कि राहुल गांधी ने सोमनाथ मंदिर की उस विज़िटर्स बुक में अपना नाम लिखा है, जो ग़ैर हिन्दुओं के लिए रखी गई है. इसमें पार्टी के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल ने भी दस्तख़्त किए हैं. भारतीय जनता पार्टी ने इसकी प्रतियां जारी करते हुए राहुल गांधी के ’हिन्दू’ होने पर सवाल उठाए हैं.

विवाद गहराता देख कांग्रेस को प्रेस कांफ़्रेसं कर सफ़ाई पेश करनी पड़ी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सुरजेवाला का कहना है कि राहुल गांधी न सिर्फ़ ’हिन्दू’ हैं, बल्कि ’जनेऊधारी’ भी हैं. अपने बयान के पक्ष में कांग्रेस ने तीन तस्वीरें जारी की हैं. एक तस्वीर में राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी के अंतिम संस्कार के दौरान अस्थियां इकट्ठा कर रहे हैं,  दूसरी तस्वीर में वे जनेऊ पहने नजर आ रहे हैं, जबकि तीसरी तस्वीर में वे अपनी बहन प्रियंका के साथ खड़े हैं.  इतना ही नहीं, कांग्रेस सोनिया गांधी, राजीव गांधी, इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की वे तस्वीरें सोशल मीडिया पर प्रसारित कर रही हैं, जिनमें उन्हें हिन्दू कर्म-कांड करते हुए दिखा गया है. रणदीप सुरजेवाला ने भाजपा पर घटिया स्तर की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा है कि न तो यह हस्ताक्षर राहुल गांधी का है और न ही यह वह रजिस्टर है, जो एंट्री के वक़्त राहुल गांधी को दिया गया था.

ख़ुद के ’ग़ैर हिन्दू’ होने पर राहुल गांधी का कहना है, "मैं मंदिर के भीतर गया. तब मैंने विज़िटर्स बुक पर हस्ताक्षर किए. उसके बाद भाजपा के लोगों ने दूसरी पुस्तिका में मेरा नाम लिख दिया." उन्होंने कहा, ‘‘मेरी दादी (दिवंगत इंदिरा गांधी) और मेरा परिवार शिवभक्त है. लेकिन हम इन चीज़ों को निजी रखते हैं. हम आमतौर पर इस बारे में बातचीत नहीं करते हैं, क्योंकि, हमारा मानना है कि यह बेहद व्यक्तिगत मामला है और हमें इस बारे में किसी के सर्टिफ़िकेट की आवश्यकता नहीं है.’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘हम इसका 'व्यापार' नहीं करना चाहते हैं. हम इसको लेकर दलाली नहीं करना चाहते हैं. हम इसका राजनैतिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहते हैं.’’

इस मामले में भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि राहुल गांधी जन्म से ही ग़ैर हिन्दू हैं. उनका दावा है कि पढ़ाई के दौरान राहुल गांधी ने कई जगहों पर ख़ुद को कैथोलिक क्रिश्चयन के तौर पर अपना मज़हब दर्ज कराया है. सनद रहे, सुब्रमण्यम स्वामी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी कैथोलिक क्रिश्चयन बताते हैं. ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी के कथित ’ग़ैर हिन्दू’ होने को लेकर पहली बार हंगामा बरपा है. इससे पहले भी उन पर ग़ैर-हिंदू होने के आरोप लगते रहे हैं. यहां तक कि उनकी मां सोनिया गांधी के मज़हब को लेकर भी ऐसी ही बातें फैलाई जाती रही हैं. उनके दादा फ़िरोज़ गांधी, परदादा जवाहरलाल नेहरू और उनके पिता के मज़हब को लेकर भी विरोधी सवाल उठाते रहे हैं.

राहुल गांधी किस मज़हब से ताल्लुक़ रखते हैं या वे किस मज़हब को मानते हैं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. दरअसल, फ़र्क़ मज़हब से नहीं पड़ता, फ़र्क़ किसी के अच्छे या बुरे होने से पड़ता है. राहुल गांधी एक अच्छे इंसान हैं. वे ईमानदार हैं, मिलनसार हैं. वे लोगों के दर्द को महसूस करते हैं, उनके सुख-दुख में शरीक होते हैं. वे मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं, तो मज़ारों पर फूल और चादर भी चढ़ाते हैं. वे चर्च जाते हैं, तो गुरुद्वारों में माथा भी टेकते हैं. वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं, जो सर्वधर्म सदभाव में विश्वास करती है. इसलिए अब राहुल गांधी को कह देना चाहिए कि वे सर्वधर्म में य़कीन रखते हैं, उनके लिए सभी मज़हब बराबर हैं, ताकि मज़हब के झगड़े ही ख़त्म हो जाएं.

यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां बुनियादी ज़रूरतों और विकास को मुद्दा नहीं बनाया जाता. इसके लिए सिर्फ़ सियासी दलों को दोष देना भी सही नहीं है, क्योंकि अवाम भी वही देखना और सुनना चाहती है, जो उसे दिखाया जाता है, सुनाया जाता है. जब तक स्कूल, अस्पताल, रोज़गार और बुनियादी ज़रूरत की सुविधाएं मुद्दा नहीं बनेंगी, तब तक सियासी दल मज़हब के नाम पर लोगों को बांटकर सत्ता हासिल करते रहेंगे, सत्ता का सुख भोगते रहेंगे और जनता यूं ही पिसती रहेगी. अब वक़्त आ गया है. जनमानस को धार्मिक मुद्दों को तिलांजलि देते हुए राजनेताओं से कह देना चाहिए कि उसे मंदिर-मस्जिद नहीं खाना चाहिए, बिजली-पानी चाहिए, स्कूल-कॊलेज-यूनिवर्सिटी चाहिए, अस्पताल चाहिए, रोज़गार चाहिए. अवाम को वे सब बुनियादी सुविधाएं चाहिए, जिसकी उसे ज़रूरत है.

और जहां तक राहुल गांधी के अपनी मां की पेशानी चूमने का सवाल है, तो ये किसी भी इंसान का ज़ाती मामला है कि वे अपने जज़्बात का इज़हार किस तरह करता है. इस तरह की बातों को फ़िज़ूल में तूल देना किसी भी सूरत में सही नहीं है.

Monday, December 11, 2017

राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने

फ़िरदौस ख़ान
एक लम्बे इंतज़ार के बाद आख़िरकार राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए. पिछले काफ़ी अरसे से पार्टी में उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने की मांग उठ रही थी. कांग्रेस नेताओं का मानना था कि पार्टी की बागडोर अब राहुल गांधी के सुपुर्द कर देनी चाहिए. सोमवार को पार्टी अध्यक्ष पद के प्रस्तावित चुनाव के लिए नामांकन की आख़िरी तारीख़ थी. राहुल गांधी के ख़िलाफ़ किसी ने भी परचा दाख़िल नहीं किया था. कांग्रेस नेता मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने कहा कि नामांकन के 89 प्रस्ताव दाख़िल किए गए थे. सभी वैध पाए गए. सिर्फ़ एक ही उम्मीदवार मैदान में है, इसलिए मैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी के निर्वाचन की घोषणा करता हूं. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी निर्विरोध चुन लिए गए हैं

ग़ौरतलब है कि अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसम्बर 1885 को हुई थी. 1885 में बोमेश चंद्र बनर्जी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. इसके बाद 1886 में दादाभाई नौरोजी, 1887 में बदरूद्दीन तैय्यबजी, 1888 में जार्ज यूल, 1889 में सर विलियम वेडरबर्न, 1890 में सर फ़िरोज़शाह मेहता, 1891 में पी. आनन्द चार्लू,  1892 में बोमेश चन्द्र बनर्जी, 1893 में दादाभाई नौरोजी,  1894 में अलफ़्रेड वेब, 1895 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, 1896 में रहीमतुल्ला सयानी, 1897 में सी. शंकरन नायर, 1898 में आनन्द मोहन बोस, 1899 में रमेश चन्द्र दत्त, 1900 में एनजी चन्द्रावरकर, 1901 में दिनशा इदुलजी वाचा, 1902 में एसएन बनर्जी, 1903 में लाल मोहन घोष, 1904 में सर हैनरी कॊटन, 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले, 1906 में दादाभाई नौरोजी, 1907 में डॉ. रास बिहारी घोष, 1909 में पंडित मदन मोहन मालवीय, 1910 में सर विलियम वेडर्बन, 1911 में पंडित बिशन नारायण धर, 1912 में आरएन माधोलकर, 1913 मेंसैयद मोहम्मद बहादुर, 1914 में भूपेन्द्रनाथ बसु, 1915 में सर सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा, 1916 में अम्बिका चरण मज़ूमदार, 1917 में एनी बेसेंट, 1918 में हसन इमाम और मदनमोहन मालवीय, 1919 में पंडित मोतीलाल नेहरू, 1920 में सी विजया राघवाचारियर, 1921 में सीआर दास, 1923 में लाला लाजपत राय और मुहम्मद अली, 1924 में मोहनदास करमचंद गांधी, 1925 में सरोजिनी नायडू, 1926 में एस श्रीनिवास आयंगार, 1927 में डॉ. एमए अंसारी, 1928 में मोतीलाल नेहरू, 1929 में पंडित जवाहरलाल नेहरू, 1931 में सरदार बल्लभभाई पटेल, 1932 में आर अमृतलाल, 1933 में नेल्ली सेन गुप्ता, 1934 में बाबू राजेन्द्र प्रसाद, 1936 में पंडित जवाहरलाल नेहरू, 1938 में सुभाष चन्द्र बोस, 1940 में मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद, 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू और सितंबर 1946 में आचार्य जेबी कृपलानी पार्टी अध्यक्ष बने. आज़ादी के बाद 1948 में बी पट्टाभि सीतारमय्या कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. इसके बाद 1950 में पुरुषोत्तम दास टंडन, 1951 में पंडित जवाहरलाल नेहरू, 1955 में यूएन ढेबर, 1960 में इंदिरा गांधी, 1961 में एन संजीव रेड्डी, 1962 में डी संजिवैया, 1964 में के कामराज, 1968 में एस निजिलिंगप्पा, 1969 में सी सुब्रमण्यम, 1970 में जगजीवन राम, 1971 में डी संजिवैया, 1972 में डॊ. शंकर दयाल शर्मा, 1975 में देवकांत बरूआ, 1976 में ब्रहमनंदा रेड्डी और 1978 में इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं. इंदिरा गांधी की मौत के बाद पंडित कमलापति त्रिपाठी कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए. फिर 1984 में राजीव गांधी को पार्टी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. उनके बाद 1991 में पी वी नरसिंह राव, 1996 में सीताराम केसरी और 1998 में सोनिया गांधी को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया.

क़ाबिले-ग़ौर है कि मोतीलाल नेहरू जी से राहुल गांधी जी तक नेहरू परिवार के सिर्फ़ 6 लोग ही कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं. कांग्रेस की कट्टर विरोधी भारतीय जनता पार्टी के नेता इसे ’गांधी परिवार’ की पार्टी कहकर जनता को गुमराह करते हैं. कांग्रेस ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए हैं, जिनमें जवाहरलाल नेहरू, गुलज़ारी लाल नन्दा, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह शामिल हैं. इनमें से सिर्फ़ तीन प्रधानमंत्री ही गांधी परिवार से हैं.

कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को दिल्ली में हुआ. वे देश के मशहूर गांधी-नेहरू परिवार से हैं. उनकी मां श्रीमती सोनिया गांधी हैं, जो अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं. उनके पिता स्वर्गीय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. राहुल गांधी कांग्रेस में उपाध्यक्ष हैं और लोकसभा में उत्तर प्रदेश में स्थित अमेठी चुनाव क्षेत्र की नुमाइंदगी करते हैं. राहुल गांधी को साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली शानदार जीत का श्रेय दिया गया था. वे सरकार में कोई किरदार निभाने की बजाय पार्टी संगठन में काम करना पसंद करते हैं, इसलिए उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री का ओहदा लेने से साफ़ इंकार कर दिया था.

राहुल गांधी की शुरुआती तालीम दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में हुई. उन्होंने प्रसिद्ध दून विद्यालय में भी कुछ वक़्त तक पढ़ाई की, जहां उनके पिता ने भी पढ़ाई की थी. सुरक्षा कारणों की वजह से कुछ अरसे तक उन्हें घर पर ही पढ़ाई-लिखाई करनी पड़ी. साल 1989 में उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में दाख़िला लिया. उनका यह दाख़िला पिस्टल शूटिंग में उनके हुनर की बदौलत स्पोर्ट्स कोटे से हुआ. उन्होंने इतिहास ऑनर्स में नाम लिखवाया. वे सुरक्षाकर्मियों के साथ कॉलेज आते थे. तक़रीबन सवा साल बाद 1990  में उन्होंने कॊलेज छोड़ दिया. उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ़्लोरिडा से साल 1994 में अपनी कला स्नातक की उपाधि हासिल की. इसके बाद उन्होंने साल 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से  डेवलपमेंट स्टडीज़ में एम.फ़िल. की उपाधि हासिल की.

राहुल गांधी को घूमने-फिरने और खेलकूद का बचपन से ही शौक़ रहा है. उन्होंने तैराकी, साईलिंग और स्कूबा-डायविंग की और स्वैश खेला. उन्होंने बॊक्सिंग सीखी और पैराग्लाइडिंग का भी प्रशिक्षण लिया. उनके बहुत से शौक़ उनके पिता राजीव गांधी जैसे ही हैं. अपने पिता के तरह उन्होंने दिल्ली के नज़दीक हरियाणा स्थित अरावली की पहाड़ियों पर एक शूटिंग रेंज में निशानेबाज़ी सीखी. उन्हें भी आसमान में उड़ना उतना ही पसंद है, जितना उनके पिता को पसंद था. उन्होंने भी हवाई जहाज़ उड़ाना सीखा. वे अपनी सेहत का भी काफ़ी ख़्याल रखते हैं. कितनी ही मसरूफ़ियत क्यों न हो, वे कसरत के लिए वक़्त निकाल ही लेते हैं. वे रोज़ दस किलोमीटर तक जॉगिंग करते हैं. वे जापानी मार्शल आर्ट आइकीडो में ब्लैक बेल्ट हैं. एक बार उन्होंने कहा था, "मैं अभ्यास करता हूं, दौड़ता हूं, तैराकी करता हूं और आइकीडो में ब्लैक बेल्ट भी हूं." उन्हें फ़ुटबॊल बहुत पसंद है. लंदन में पढ़ने के दौरान वे फ़ुटबॊल के दीवाने थे.

राहुल गांधी छल और फ़रेब की राजनीति नहीं करते. वे कहते हैं,  ''मैं गांधीजी की सोच से राजनीति करता हूं. अगर कोई मुझसे कहे कि आप झूठ बोल कर राजनीति करो, तो मैं यह नहीं कर सकता. मेरे अंदर ये है ही नहीं. इससे मुझे नुक़सान भी होता है. 'मैं झूठे वादे नहीं करता. "  वे कहते हैं, 'सत्ता और सच्चाई में फ़र्क़ होता है. ज़रूरी नहीं है, जिसके पास सत्ता है उसके पास सच्चाई है. गुजरात में एक आयोजित एक रैली में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मासिक रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' पर तंज़ करते हुए कहते हैं, अगर कांग्रेस चुनाव जीतती है, तो हमारी सरकार हर किसी के लिए होगी न कि केवल एक व्यक्ति के लिए. अपने 'मन की बात' कहने के बजाय हमारी सरकार आपके मन की बात सुनने का प्रयास करेगी.

बहरहाल, राहुल गांधी के सामने कई चुनौतियां हैं, जिनका सामना उन्हें पूरी हिम्मत और कुशलता से करना है.