Monday, October 4, 2010

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...


आज राष्ट्रीय अखंडता दिवस  है...

फ़िरदौस ख़ान
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा...
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है। दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं। दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफ़ें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं.

ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है. क़रीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारख़ाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं. वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ़ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था. बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था. इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फ़ैसला कर लिया. इस वाकिये को क़रीब छह साल बीत चुके हैं. रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है. उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं. उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी. बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है. उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है. जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा, तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया. उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक़ रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक़ सिखाता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे. इनमें से तक़रीबन तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की. युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फ़साद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज़्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं. हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं. इनकी तादाद मरने वाले लोगों से क़रीब 25 गुना ज़्यादा होती है. हर साल क़रीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नज़दीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं.

इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुक़सान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है. कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है. भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है. आज़ादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है.

दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं. बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए. हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही ‘वही ढाक के तीन पात’ रहा. आख़िर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ़ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली.

सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मक़सद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैंक.

ग़ौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है. हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा. इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं. इससे जहां रोज़मर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फ़साद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी. अहिंसक जीवन जीने के लिए यह ज़रूरी है कि ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की प्रवृत्ति को अपनाया जाए. अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं. देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए यह भी ज़रूरी है कि सांप्रदायिक मुद्दों को आपसी बातचीत से हल किया जाए.

6 Comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपसी बात चीत से हर बात का हल निकाला जा सकता है यदि कोई वाकई में निकालने पर कटिबद्ध हो तो ....सार्थक लेख

समयचक्र said...

हिंसा को हर हाल में रोके जाने पर विचार किया जाना चाहिए .... आपके विचारों से सहमत हूँ.... आभार

शूरवीर रावत said...

"मजहब नहीं सिखाता........" के माध्यम से आपने तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों को आईना दिखा दिया है. गुलशन बानो के लिए इज्ज़त पैदा होती है दिल में. यकीन नहीं होता कि कोई महिला समाज से लड़कर इस तरह के फैसले ले सकती है. और वह भी इस महंगाई के दौर में, जब अपने जिगर के टुकड़ों को पालने के लिए ही दिन रात एक करनी पड़ रही हो. बेहतरीन article के लिए आभार. (और फोटो तो माशाल्लाह article की जान है).

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प्रवीण पाण्डेय said...

एक धरती में पैदा हुये तो झगड़ा किस लिये। प्रेरणाप्रद लेख।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

राष्ट्रीय अखंडता दिवस के मौके पर बहुत ख़ूबसूरत और शिक्षाप्रद लेख..बधाई

Mahak said...

हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है। हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा।

आपसे सहमत हूँ

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