Tuesday, October 20, 2015

मुहर्रम


मुहर्रम के दस दिनों तक हमारे घरों में बाज़ार जाकर ख़रीदारी नहीं करते और न ही कोई नया काम शुरू करते हैं... आठ तारीख़ को खीर पर कर्बला के शहीदों की नियाज़ दिलाई जाती है... इसी तरह नौ तारीख़ को बिरयानी और दस तारीख़ को हलीम पर नियाज़ होती है... दस तारीख़ की सुबह शर्बत पर भी नियाज़ दिलाई जाती है...
मुहर्रम को लेकर शिया और सुन्नियों की अपनी-अपनी अक़ीदत है... शिया इस दौरान मातक करते हैं, ताज़िये निकालते हैं... जबकि सुन्नी इसके ख़िलाफ़ हैं...
इस बारे में सबकी अपनी-अपनी दलीलें हैं, अपनी-अपनी अक़ीदत है...
अल्लामा इक़बाल साहब ने ग़म-ए-शब्बीर के बारे में कहा है-
कह दो ग़म-ए- हुसैन मनाने वालों को
मुसलमान कभी शोहदा का मातम नहीं करते
है इश्क़ अपनी जान से ज़्यादा आले-रसूल (सल्ल) से
यूं सरेआम उनका तमाशा नहीं करते
रोयें वो जो मुनकिर हैं शहादत-ए-हुसैन के
हम ज़िन्दा-ओ-जावेद का मातम नहीं करते...
मरहूम अली नक़ी साहब ने इसका जवाब कुछ इस तरह दिया है-
गिरया किया याक़ूब ने उनको भी तो टोको
यूसुफ़ तो अभी ज़िंदा हैं यूं ग़म नहीं करते
आदम ने तो हव्वा के लिए पीटा है सीना
समझाओ उन्हें ज़िन्दों का मातम नहीं करते
हमज़ा तो शहीदों के भी सरदार हैं लेकिन
करते ना मुहम्मद तो चलो हम नहीं करते
हक़ बात है बस बुग़्ज़-ए-अली का ये चक्कर
तुम इसलिए शब्बीर का मातम नहीं करते
अपना कोई मरता है तो रोते हो तड़प कर
पर सिब्ते-पयम्बर का कभी ग़म नहीं करते
हिम्मत है तो महशर में पयम्बर से ये कहना
हम ज़िन्दा-ओ-जावेद का मातम नहीं करते
बस एक रिवायत रही है रोज़-ए-अज़ल से
क़ातिल कभी मक़तूल का मातम नहीं करते...
कर्बला के शहीद हमारे अपने हैं... कौन उन्हें किस तरह याद करता है, ये उसकी अपनी अक़ीदत है... वैसे भी हर इंसान को अपनी अक़ीदत के साथ जीने का पूरा हक़ है. हम अपनी अक़ीदत के साथ जियें और दूसरों को उनकी अक़ीदत के साथ जीने दें...

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