फ़िरदौस ख़ान
बरसात का मौसम शुरू ही देश के कई राज्य बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. बाढ़ से जान व माल का भारी नुक़सान होता है. लाखों लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं. कितने ही लोग बाढ़ की वजह से मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. सैकड़ों मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, हज़ारों लोगों को बेघर होकर शरणार्थी जीवन गुज़ारने को मजबूर होना पड़ता हैं. खेतों में खड़ी फ़सलें तबाह हो जाती हैं.
देश में बाढ़ आने के कई कारण हैं. बाढ़ अमूमन उत्तर पूर्वी राज्यों को ही निशाना बनाती है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि चीन और ऊपरी पहाड़ों में भारी बारिश होती है और वर्षा का यह पानी भारत के निचले इलाक़ों की तरह बहता है. फिर यही पानी तबाही की वजह बनता है. नेपाल में भारी बारिश का पानी भी बिहार की कोसी नदी को उफ़ान पर ला देता है, जिससे नदी के रास्ते में आने वाले इलाक़े पानी में डूब जाते हैं. ग़ौरतलब है कि कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है. यह नदी बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में दाख़िल होती है. कोसी बिहार में भारी तबाही मचाती है, इसलिए इसे बिहार का शोक या अभिशाप भी कहा जाता है. कोसी नदी हर साल अपनी धारा बदलती रहती है. साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था. हालांकि बांध नेपाल की सीमा में बनाया गया है, लेकिन इसके रखरखाव का काम भारत के ज़िम्मे है. नदी के तेज़ बहाव के कारण यह बांध कई बार टूट चुका है. आधिकारिक जानकारी के मुताबिक़ बांध बनाते वक्त आकलन किया गया था कि यह नौ लाख क्यूसेक पानी के बहाव को सहन कर सकता है और बांध की उम्र 25 साल आंकी गई थी. पहली बार यह बांध 1963 में टूटा. इसके बाद 1968 में पांच जगहों से यह टूटा. उस वक़्त कोसी का बहाव नौ लाख 13 हज़ार क्यूसेक मापा गया था. फिर साल 1991 नेपाल के जोगनिया और 2008 में नेपाल के ही कुसहा नामक स्थान पर बांध टूट गया. हैरानी की बात यह रही कि उस वक़्त नदी का बहाव महज़ एक लाख 44 हज़ार क्यूसेक था. फ़िलहाल कोसी पर बने बांध में जगह-जगह दरारें पड़ी हुई हैं.
कोसी की तरह गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाख़िल करती है. गंडक को नेपाल में सालिग्राम और मैदान में नारायणी कहते हैं. यह पटना में आकर गंगा में मिल जाती है. बरसात में गंडक भी उफ़ान पर होती है और इसके आसपास के इलाक़े बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त देश है. देश में कुल 62 प्रमुख नदी प्रणालियां हैं, जिनमें से 18 ऐसी हैं जो अमूमन बाढ़ग्रस्त रहती हैं. उत्तर-पूर्व में असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु बाढ़ग्रस्त इलाके माने जाते हैं, लेकिन कभी-कभार देश के अन्य राज्य भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. पश्चिम बंगाल की मयूराक्षी, अजय, मुंडेश्वरी, तीस्ता और तोर्सा नदियां तबाही मचाती हैं, ओडिशा में सुवर्णरेखा, बैतरनी, ब्राह्मणी, महानंदा, ऋषिकुल्या, वामसरदा नदियां उफ़ान पर रहती हैं. आंध्रप्रदेश में गोदावरी और तुंगभद्रा, त्रिपुरा में मनु और गुमती, महाराष्ट्र में वेणगंगा, गुजरात और मध्य-प्रदेश में नर्मदा नदियों की वजह से इनके तटवर्ती इलाक़ों में बाढ़ आती है.
बाढ़ से हर साल करोड़ों रुपये का नुक़सान होता है, लेकिन नुक़सान का यह अंदाज़ा वास्तविक नहीं होता. बाढ़ से हुए नुक़सान की सही राशि का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है, क्योंकि बाढ़ से मकान व दुकानें क्षतिग्रस्त होती हैं. फ़सलें तबाह हो जाती हैं. लोगों का कारोबार ठप हो जाता है. बाढ़ के साथ आने वाली बीमारियों की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर भी काफ़ी पैसा ख़र्च होता है. लोगों को बाढ़ से नुक़सान की भरपाई में काफ़ी वक़्त लग जाता है. यह कहना ग़लत न होगा कि बाढ़ किसी भी देश, राज्य या व्यक्ति को कई साल पीछे कर देती है. बाढ़ से उसका आर्थिक और सामाजिक विकास ठहर जाता है. इसलिए बाढ़ से होने वाले नुक़सान का सही अंदाज़ा लगाना बेहद मुश्किल है.
जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़, देश में पिछले साढ़े छह दशक के दौरान बाढ़ से सालाना औसतन 1654 लोगों की मौत हुई और 92763 पशुओं की जान गई. इससे सालाना औसतन 71.69 लाख हेक्टेयर इलाक़े पर असर पड़ा और तकरीबन 1680 करोड़ रुपये फ़सलें तबाह हो गईं. बाढ़ से सालाना 12.40 लाख मकानों को नुक़सान पहुंचा. साल 1953 से 2017 के कुल नुक़सान पर नज़र डालें, तो देश में बाढ़ की वजह से 46.60 करोड़ हेक्टेयर इलाक़े में 205.8 करोड़
लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. इस दौरान 8.06 करोड़ मकानों को नुक़सान पहुंचा है. अफ़सोस की बात है कि हर साल बाढ़ से होने वाले जान व माल के नुकसान में बढ़ोतरी हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है.
पिछले सात दशकों में देश में अनेक बांध बनाए गए हैं. साथ ही पिछले क़रीब तीन दशकों से बाढ़ नियंत्रण में मदद के लिए रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं. बाढ़ से निपटने के लिए 1978 में केंद्रीय बाढ़ नियंत्रण बोर्ड का गठन किया गया था. देश के कुल 32.9 करोड़ हेक्टेयर में से तक़रीबन 4.64 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित इलाक़े में आती है. देश में हर साल तक़रीबन 4000 अरब घन मीटर बारिश होती है.
हैरत का बात यह भी है कि बाढ़ एक राष्ट्रीय आपदा है, इसके बावजूद इसे राज्य सूची में रखा गया है. इसके तहत केंद्र सरकार बाढ़ से संबंधित कितनी ही योजनाएं बना ले, लेकिन उन पर अमल करना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है. प्रांतवाद के कारण राज्य बाढ़ से निपटने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं कर पाते. एक राज्य की बाढ़ का पानी समीपवर्ती राज्य के इलाक़ों को भी प्रभावित करता है. मसलन हरियाणा का बाढ़ का पानी राजधानी दिल्ली में छोड़ दिया जाता है, जिससे यहां के इलाक़े पानी में डूब जाते हैं. राज्यों में हर साल बाढ़ की रोकथाम के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं, मगर प्रशासनिक लापरवाही की वजह से इन योजनाओं पर ठीक से अमल नहीं हो पाता. नतीजतन, यह योजनाएं महज़ काग़जों तक ही सिमट कर जाती हैं. हालांकि बाढ़ को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनमें बाढ़ प्रभावित इलाकों में बांध बनाना, नदियों के कटान वाले इलाक़ों में कटान रोकना, पानी की निकासी वाले नालों की सफ़ाई और उनकी सिल्ट निकालना, निचले इलाक़ों के गांवों को ऊंचा करना, सीवरेज व्यवस्था को सुधारना और शहरों में नालों के रास्ते आने वाले कब्ज़ों को हटाना आदि शामिल है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि विकसित देशों में आगजनी, तूफ़ान, भूकंप और बाढ़ के लिए क़स्बों का प्रशासन भी पहले से तैयार रहता है. उन्हें पहले से पता होता है कि किस पैमाने पर, किस आपदा की दशा में, उन्हें क्या-क्या करना है. वे बिना विपदा के छोटे पैमाने पर इसका अभ्यास करते रहते हैं. गली-मोहल्लों के हर घर तक यह सूचना मीडिया या डाक के ज़रिये संक्षेप में पहुंचा दी जाती है कि किस दशा में उन्हें क्या करना है. संचार व्यवस्था के टूटने पर भी वे प्रशासन से क्या उम्मीद रख सकते हैं. पहले तो वे इसकी रोकथाम की कोशिश करते हैं. इसमें विशेषज्ञों की सलाह ली जाती है. इस प्रक्रिया को आपदा प्रबंधन कहते हैं. आग तूफ़ान और भूकंप के दौरान आपदा प्रबंधन एक ख़र्चीली प्रक्रिया है, लेकिन बाढ़ का आपदा नियंत्रण उतना ख़र्चीला काम नहीं है. इसे बख़ूबी बाढ़ आने वाले इलाक़ों में लागू किया जा सकता है. विकसित देशों में बाढ़ के आपदा प्रबंधन में सबसे पहले यह ध्यान रखा जाता है कि मिट्टी, कचरे वगैरह के जमा होने से इसकी गहराई कम न हो जाए. इसके लिए नदी के किनारों पर ख़ासतौर से पेड़ लगाए जाते हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी को थामकर रखती हैं. नदी किनारे पर घर बसाने वालों के बग़ीचों में भी अनिवार्य रूप से पेड़ लगवाए जाते हैं. जहां बाढ़ का ख़तरा ज़्यादा हो, वहां नदी को और अधिक गहरा कर दिया जाता है. गांवों तक में पानी का स्तर नापने के लिए स्केल बनी होती है.
हमारे देश में भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा. इसके लिए जहां प्रशासन को चाक-चौबंद रहने की ज़रूरत है, वहीं जनमानस को भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. स्कूल, कॉलेजों के अलावा जगह-जगह शिविर लगाकर लोगों को यह प्रशिक्षण दिया जा सकता है. इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है. इस तरह प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है.
बरसात का मौसम शुरू ही देश के कई राज्य बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. बाढ़ से जान व माल का भारी नुक़सान होता है. लाखों लोग बाढ़ से प्रभावित होते हैं. कितने ही लोग बाढ़ की वजह से मौत की आग़ोश में समा जाते हैं. सैकड़ों मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, हज़ारों लोगों को बेघर होकर शरणार्थी जीवन गुज़ारने को मजबूर होना पड़ता हैं. खेतों में खड़ी फ़सलें तबाह हो जाती हैं.
देश में बाढ़ आने के कई कारण हैं. बाढ़ अमूमन उत्तर पूर्वी राज्यों को ही निशाना बनाती है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि चीन और ऊपरी पहाड़ों में भारी बारिश होती है और वर्षा का यह पानी भारत के निचले इलाक़ों की तरह बहता है. फिर यही पानी तबाही की वजह बनता है. नेपाल में भारी बारिश का पानी भी बिहार की कोसी नदी को उफ़ान पर ला देता है, जिससे नदी के रास्ते में आने वाले इलाक़े पानी में डूब जाते हैं. ग़ौरतलब है कि कोसी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है. यह नदी बिहार में भीम नगर के रास्ते भारत में दाख़िल होती है. कोसी बिहार में भारी तबाही मचाती है, इसलिए इसे बिहार का शोक या अभिशाप भी कहा जाता है. कोसी नदी हर साल अपनी धारा बदलती रहती है. साल 1954 में भारत ने नेपाल के साथ समझौता करके इस पर बांध बनाया था. हालांकि बांध नेपाल की सीमा में बनाया गया है, लेकिन इसके रखरखाव का काम भारत के ज़िम्मे है. नदी के तेज़ बहाव के कारण यह बांध कई बार टूट चुका है. आधिकारिक जानकारी के मुताबिक़ बांध बनाते वक्त आकलन किया गया था कि यह नौ लाख क्यूसेक पानी के बहाव को सहन कर सकता है और बांध की उम्र 25 साल आंकी गई थी. पहली बार यह बांध 1963 में टूटा. इसके बाद 1968 में पांच जगहों से यह टूटा. उस वक़्त कोसी का बहाव नौ लाख 13 हज़ार क्यूसेक मापा गया था. फिर साल 1991 नेपाल के जोगनिया और 2008 में नेपाल के ही कुसहा नामक स्थान पर बांध टूट गया. हैरानी की बात यह रही कि उस वक़्त नदी का बहाव महज़ एक लाख 44 हज़ार क्यूसेक था. फ़िलहाल कोसी पर बने बांध में जगह-जगह दरारें पड़ी हुई हैं.
कोसी की तरह गंडक नदी भी नेपाल के रास्ते बिहार में दाख़िल करती है. गंडक को नेपाल में सालिग्राम और मैदान में नारायणी कहते हैं. यह पटना में आकर गंगा में मिल जाती है. बरसात में गंडक भी उफ़ान पर होती है और इसके आसपास के इलाक़े बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त देश है. देश में कुल 62 प्रमुख नदी प्रणालियां हैं, जिनमें से 18 ऐसी हैं जो अमूमन बाढ़ग्रस्त रहती हैं. उत्तर-पूर्व में असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु बाढ़ग्रस्त इलाके माने जाते हैं, लेकिन कभी-कभार देश के अन्य राज्य भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. पश्चिम बंगाल की मयूराक्षी, अजय, मुंडेश्वरी, तीस्ता और तोर्सा नदियां तबाही मचाती हैं, ओडिशा में सुवर्णरेखा, बैतरनी, ब्राह्मणी, महानंदा, ऋषिकुल्या, वामसरदा नदियां उफ़ान पर रहती हैं. आंध्रप्रदेश में गोदावरी और तुंगभद्रा, त्रिपुरा में मनु और गुमती, महाराष्ट्र में वेणगंगा, गुजरात और मध्य-प्रदेश में नर्मदा नदियों की वजह से इनके तटवर्ती इलाक़ों में बाढ़ आती है.
बाढ़ से हर साल करोड़ों रुपये का नुक़सान होता है, लेकिन नुक़सान का यह अंदाज़ा वास्तविक नहीं होता. बाढ़ से हुए नुक़सान की सही राशि का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है, क्योंकि बाढ़ से मकान व दुकानें क्षतिग्रस्त होती हैं. फ़सलें तबाह हो जाती हैं. लोगों का कारोबार ठप हो जाता है. बाढ़ के साथ आने वाली बीमारियों की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर भी काफ़ी पैसा ख़र्च होता है. लोगों को बाढ़ से नुक़सान की भरपाई में काफ़ी वक़्त लग जाता है. यह कहना ग़लत न होगा कि बाढ़ किसी भी देश, राज्य या व्यक्ति को कई साल पीछे कर देती है. बाढ़ से उसका आर्थिक और सामाजिक विकास ठहर जाता है. इसलिए बाढ़ से होने वाले नुक़सान का सही अंदाज़ा लगाना बेहद मुश्किल है.
जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक़, देश में पिछले साढ़े छह दशक के दौरान बाढ़ से सालाना औसतन 1654 लोगों की मौत हुई और 92763 पशुओं की जान गई. इससे सालाना औसतन 71.69 लाख हेक्टेयर इलाक़े पर असर पड़ा और तकरीबन 1680 करोड़ रुपये फ़सलें तबाह हो गईं. बाढ़ से सालाना 12.40 लाख मकानों को नुक़सान पहुंचा. साल 1953 से 2017 के कुल नुक़सान पर नज़र डालें, तो देश में बाढ़ की वजह से 46.60 करोड़ हेक्टेयर इलाक़े में 205.8 करोड़
लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. इस दौरान 8.06 करोड़ मकानों को नुक़सान पहुंचा है. अफ़सोस की बात है कि हर साल बाढ़ से होने वाले जान व माल के नुकसान में बढ़ोतरी हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है.
पिछले सात दशकों में देश में अनेक बांध बनाए गए हैं. साथ ही पिछले क़रीब तीन दशकों से बाढ़ नियंत्रण में मदद के लिए रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं. बाढ़ से निपटने के लिए 1978 में केंद्रीय बाढ़ नियंत्रण बोर्ड का गठन किया गया था. देश के कुल 32.9 करोड़ हेक्टेयर में से तक़रीबन 4.64 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित इलाक़े में आती है. देश में हर साल तक़रीबन 4000 अरब घन मीटर बारिश होती है.
हैरत का बात यह भी है कि बाढ़ एक राष्ट्रीय आपदा है, इसके बावजूद इसे राज्य सूची में रखा गया है. इसके तहत केंद्र सरकार बाढ़ से संबंधित कितनी ही योजनाएं बना ले, लेकिन उन पर अमल करना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है. प्रांतवाद के कारण राज्य बाढ़ से निपटने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं कर पाते. एक राज्य की बाढ़ का पानी समीपवर्ती राज्य के इलाक़ों को भी प्रभावित करता है. मसलन हरियाणा का बाढ़ का पानी राजधानी दिल्ली में छोड़ दिया जाता है, जिससे यहां के इलाक़े पानी में डूब जाते हैं. राज्यों में हर साल बाढ़ की रोकथाम के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं, मगर प्रशासनिक लापरवाही की वजह से इन योजनाओं पर ठीक से अमल नहीं हो पाता. नतीजतन, यह योजनाएं महज़ काग़जों तक ही सिमट कर जाती हैं. हालांकि बाढ़ को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनमें बाढ़ प्रभावित इलाकों में बांध बनाना, नदियों के कटान वाले इलाक़ों में कटान रोकना, पानी की निकासी वाले नालों की सफ़ाई और उनकी सिल्ट निकालना, निचले इलाक़ों के गांवों को ऊंचा करना, सीवरेज व्यवस्था को सुधारना और शहरों में नालों के रास्ते आने वाले कब्ज़ों को हटाना आदि शामिल है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि विकसित देशों में आगजनी, तूफ़ान, भूकंप और बाढ़ के लिए क़स्बों का प्रशासन भी पहले से तैयार रहता है. उन्हें पहले से पता होता है कि किस पैमाने पर, किस आपदा की दशा में, उन्हें क्या-क्या करना है. वे बिना विपदा के छोटे पैमाने पर इसका अभ्यास करते रहते हैं. गली-मोहल्लों के हर घर तक यह सूचना मीडिया या डाक के ज़रिये संक्षेप में पहुंचा दी जाती है कि किस दशा में उन्हें क्या करना है. संचार व्यवस्था के टूटने पर भी वे प्रशासन से क्या उम्मीद रख सकते हैं. पहले तो वे इसकी रोकथाम की कोशिश करते हैं. इसमें विशेषज्ञों की सलाह ली जाती है. इस प्रक्रिया को आपदा प्रबंधन कहते हैं. आग तूफ़ान और भूकंप के दौरान आपदा प्रबंधन एक ख़र्चीली प्रक्रिया है, लेकिन बाढ़ का आपदा नियंत्रण उतना ख़र्चीला काम नहीं है. इसे बख़ूबी बाढ़ आने वाले इलाक़ों में लागू किया जा सकता है. विकसित देशों में बाढ़ के आपदा प्रबंधन में सबसे पहले यह ध्यान रखा जाता है कि मिट्टी, कचरे वगैरह के जमा होने से इसकी गहराई कम न हो जाए. इसके लिए नदी के किनारों पर ख़ासतौर से पेड़ लगाए जाते हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी को थामकर रखती हैं. नदी किनारे पर घर बसाने वालों के बग़ीचों में भी अनिवार्य रूप से पेड़ लगवाए जाते हैं. जहां बाढ़ का ख़तरा ज़्यादा हो, वहां नदी को और अधिक गहरा कर दिया जाता है. गांवों तक में पानी का स्तर नापने के लिए स्केल बनी होती है.
हमारे देश में भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा. इसके लिए जहां प्रशासन को चाक-चौबंद रहने की ज़रूरत है, वहीं जनमानस को भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. स्कूल, कॉलेजों के अलावा जगह-जगह शिविर लगाकर लोगों को यह प्रशिक्षण दिया जा सकता है. इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है. इस तरह प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है.
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