Monday, October 6, 2008

बाढ़ आती ही नहीं, लाई भी जाती है


फ़िरदौस ख़ान
देश के अन्य राज्यों के साथ ही बाढ़ ने इस साल पंजाब में भी कहर बरपाया, लेकिन पंजाब की बाढ़ प्राकृतिक आपदा न होकर मानवीय लापरवाही का नतीजा है. बाढ़ से जहां राज्य के सैकड़ों गांव जलमग्न हो गए, वहीं क़रीब 13 लोग भी बाढ़ की वजह से मौत की आगोश में समा गए. खेतों में खड़ी वे फसलें भी बाढ़ के पानी में बह गईं, जिन्हें किसानों के अपने खून-पसीने से सींचा था.

राज्य के अधिकारियों के मुताबिक़ फिरोज़पुर के 140 गांव, कपूरथला के 106 गांव, मोगा के 40 गांव, तरनतारन के 28 गांव और जालंधर के 14 गांव बाढ़ की चपेट में आए हैं. इन गांवों की क़रीब 66 हज़ार एकड़ भूमि बाढ़ से प्रभावित हुई है. फिरोज़पुर के 100 गांव तो पूरी तरह पानी में डूब गए, जिससे कई दिनों तक वहां की बिजली सप्लाई पूरी तरह बंद कर दी गई.

बाढ़ का कारण धुस्सा बांध का टूटना है. भाखड़ा डैम और सतलुज डैम से सतलुज में पानी छोड़ा गया, जिससे हालात और ज्यादा गंभीर हो गए. सिंचाई विभाग के मुताबिक़ भांखरपुर, धर्मकोट और धालीवाल नहर में भी जरूरत से ज्यादा पानी छोड़ा गया. अधिकारियों का कहना है कि अगर रोजाना एक से डेढ़ घंटा लगातार बारिश पड़ती है तो डैम और नहरों में पानी का स्तर बढ़ जाता है, जिससे भारी नुकसान होने की आशंका बढ़ जाती है. अफ़सोस की बात यह भी है कि सरकार के नुमाइंदे प्रशासनिक खामियों को नकारते हुए बाढ़ के लिए ग्रामीणों को ही क़सूरवार ठहराते हैं.

इसी कड़ी में, बाढ़ प्रभावित इलाकों का जायज़ा लेने के लिए मोगा के गांव संघेड़ा में पहुंचे सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने लोगों से बातचीत करते हुए धुस्सी बांध टूटने का ठीकरा ग्रामीणों के ही सिर ही फोड़ दिया. इससे ग्रामीण भड़क उठे और उन्होंने बांध प्रबंधों के नाम पर हुई घपलेबाजी की पोल खोलनी शुरू कर दी. अब भड़कने की बारी सिंचाई मंत्री की थी. मामले की नजाकत को भांपते हुए डिप्टी कमिश्नर वीके मीणा और एसडीएम लखमीर सिंह ने दोनों पक्षों को शांत कराया. ग्रामीणों का कहना है कि 1993 के बाद प्रशासन ने बांध पर मिट्टी डलवाने तक की कोशिश नहीं की. गांव के लोग हर साल ख़ुद ही मिट्टी डालते रहे हैं और सिंचाई विभाग फर्जी बिल बनाकर पैसा हड़प करता रहा है. उनका यह भी कहना है कि हर साल बांध पर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी भी डलवाई होती तो इतनी तबाही नहीं हुई होती. उनका कहना है कि अधिकारियों और राजनेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के लिए हजारों लोगों को बर्बाद कर दिया.

गौरतलब है कि सतलुज में आई बाढ़ से हुई तबाही ने प्रशासनिक प्रबंधों की कलई खोलकर रख दी है. मोगा के गांव बोगेवाल के समीप जिस स्थान पर धुस्सी बांध टूटा है, वहां 1997 में तकनीकी रूप से गलत ढंग से नोज तैयार की गई थी, जिससे बांध में दरारें पड़ गईं. धुस्सी बांध के किनारों पर लगाए गए बबूल के पेड़ों के कटान के चलते भी बांध सुरक्षा संबंधी सवालों के घेरे में था. हर साल मानसून शुरू होने से पहले धुस्सी बांध का जायजा लेने वाले अधिकारियों ने नोज की तकनीकी कमी और पेड़ों के कटान के कारण कमज़ोर होते बांध की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. नोज निर्माण में लापरवाही स्वीकार करते हुए सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने कहा कि मामले की जांच सिंचाई विभाग के मुख्य इंजीनियर को सौंपी गई है.

सिंचाई मंत्री के मुताबिक़ राज्य के 134 गांवों में बाढ़ आई है, जिससे 55 हज़ार प्रभावित हुए हैं. इन गांवों में क़रीब 11080 हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फ़सलें भी पूरी तरह तबाह हो गई हैं. उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की कि प्रभावित किसानों के नुक़सान की भरपाई की जाए, क्योंकि केंद्रीय पूल दिए जाने वाले अनाज में पंजाब के किसानों की हिस्सेदारी 60 से 70 फ़ीसदी रहती है. साथ ही उन्होंने किसानों के क़र्ज़ भी माफ़ किए जाने की मांग की. गौरतलब है कि बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त देश है. 1960 से 1980 के बीच दुनिया में बाढ से जो लोग मरे उनमें से 20 फ़ीसदी भारत से ही थे. विडंबना यह भी है कि पिछले क़रीब छह दशकों में बाढ़ से होने वाले नुक़सान में 50 से 90 गुना बढ़ोतरी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक़ 1953 में जहां कुल नुक़सान क़रीब 50 करोड़ रुपए था, वहीं 1984 में यह 2500 करोड़, 1985 में 4100 करोड़ और 1988 में 4600 करोड़ रुपए हो गया. 1990 के शुरू में कम नुक़सान हुआ. 1997 में 800 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था, लेकिन 1999 और 2000 में बाढ़ से ज़्यादा तबाही हुई. हर साल बाढ़ से होने वाले जान व माल के नुक़सान में बढ़ोतरी ही हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है.

देश में कुल 62 प्रमुख नदी प्रणालियां हैं, जिनमें से 18 ऐसी हैं जो अमूमन बाढ़ग्रस्त रहती हैं. उत्तर-पूर्व में असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु बाढ़ग्रस्त इलाके माने जाते हैं. लेकिन कभी-कभार देश के अन्य राज्य भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. 1996 में हरियाणा में बाढ़ ने कहर बरपाया था.

पिछले करीब छह दशकों में देश में 256 बड़े बांध बनाए गए हैं और 154 निर्माणाधीन हैं. साथ ही पिछले करीब दो दशकों से बाढ़ नियंत्रण में मदद के लिए रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं.

गौरतलब है कि विकसित देशों में आगजनी, तूफान, भूकंप और बाढ़ के लिए कस्बों का प्रशासन भी पहले से तैयार रहता है. उन्हें पहले से पता होता है कि किस पैमाने पर, किस आपदा की दशा में, उन्हें क्या-क्या करना है. वे बिना विपदा के छोटे पैमाने पर इसका अभ्यास करते रहते हैं. इसमें आम शहरियों के मुखियाओं को भी शामिल किया जाता है. गली-मोहल्ले के हर घर तक यह सूचना मीडिया या डाक के जरिये संक्षेप में पहुंचा दी जाती है कि किस दशा में उन्हें क्या करना है. संचार व्यवस्था के टूटने पर भी वे प्रशासन से क्या उम्मीद रख सकते हैं. पहले तो वे इसकी रोकथाम की कोशिश करते हैं. इसमें विशेषज्ञों की सलाह ली जाती है. इस प्रक्रिया को आपदा प्रबंधन कहते हैं. आग तूफान और भूकंप के दौरान आपदा प्रबंधन एक खर्चीली प्रक्रिया है, लेकिन बाढ़ का आपदा नियंत्रण उतना खर्चीला काम नहीं है. इसे बखूबी बाढ़ आने वाले इलाकों में लागू किया जा सकता है.

विकसित देशों में बाढ़ के आपदा प्रबंधन में सबसे पहले यह ध्यान रखा जाता है कि मिट्टी, कचरे वगैरह के जमा होने से इसकी गहराई कम न हो जाए. इसके लिए नदी के किनारों पर खासतौर से पेड़ लगाए जाते हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी को थामकर रखती हैं. नदी किनारे पर घर बसाने वालों के बगीचों में भी अनिवार्य रूप से पेड़ लगवाए जाते हैं. जहां बाढ़ का खतरा ज्यादा हो, वहां नदी को और अधिक गहरा कर दिया जाता है. गांवों तक में पानी का स्तर नापने के लिए स्केल बनी होती है.

भारत में भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा. इसके लिए जहां प्रशासन को चाक-चौबंद रहने की ज़रूरत है, वहीं जनमानस को भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. स्कूल, कॉलेजों के अलावा जगह-जगह शिविर लगाकर लोगों को यह प्रशिक्षण दिया जा सकता है. इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है. इस तरह प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है.

7 Comments:

Unknown said...

बाढ़ आती ही नहीं, लाई भी जाती है...

बहुत ख़ूब...एक अरसे बाद आपकी तहरीर पढ़ने का मौक़ा मिला...बराहे-करम हम जैसे अपने प्रशंसकों के लिए ही सही...इतने दिनों के लिए गायब न रहा करें...

Unknown said...

फिरदौस जी आप का लेख हकीकत बयां कर रहा है । बहुत अच्छा लिखा इसके लिए बधाई । मुझे तो कहीं न कहीं ये वोट बैंक की राजनीति भी लगती है ।

rakhshanda said...

कहाँ थीं आप? लगता है ईद में कुछ ज़्यादा ही बिजय होगयी थीं..बहरहाल आई हैं तो एक बेहद अच्छी पोस्ट के साथ...आपका कहना बिल्कुल सही, पता नही सियासत क्या क्या करवाती है...

Nitish Raj said...

ये ही हकीकत है कि लोग खुद बांध बचाने का काम करते रहते हैं और सरकार की तरफ से कोई मदद जब नहीं मिल पाती तो जो हाल कोसी का हुआ वो ही यहां का भी हुआ। सही कहा बाढ़ आती ही नहीं, लाई भी जाती है।

sumansourabh.blogspot.com said...

सच में आप का लेख जोरदार है,
और मौसम जी की बेचैनी भी चिंता जनक है

नीरज गोस्वामी said...

आपने बहुत मेहनत की है इतनी सारी जानकारी हम तक पहुँचाने के लिए... तथ्यों को इतनी अच्छी तरह से बताने के लिए धन्यवाद....
नीरज

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

firdausji,
lambi teekhey tewar wali kavita key baad saadhi lambi chuppi ab jakar toot hai.chaliye tooti to sahi.

punjab ki baadh key sandarbh mein aapney jin muddon ko udhaya hai, un per gaur karna jaroori hai. achcha likha hai aapney.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

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