Tuesday, October 7, 2008

मासूमों को निगल रहा है कुपोषण


फ़िरदौस ख़ान
बेशक भारत आर्थिक और परमाणु शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में वह काफ़ी पीछे है. मध्य प्रदेश में कुपोषण से हो रहीं मौतें इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं. गौरतलब है कि पिछले क़रीब एक महीने में मध्यप्रदेश के खंडवा, झाबुआ, सतना और शिवपुरी ज़िलों में क़रीब 100 बच्चों की मौत हो चुकी है और दो सौ से ज़्यादा अस्पताल में भर्ती हैं.


कुछ समय पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के क़रीब 47 फीसदी बच्चे कम वज़न के हैं. इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है. देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फ़ीसदी, झारखंड में 59.2 फ़ीसदी, बिहार में 58 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 52.2 फ़ीसदी, उड़ीसा में 44 फ़ीसदी, राजस्थान में भी 44 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.9 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फ़ीसदी, उत्तरांचल में 38 फ़ीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फ़ीसदी और पंजाब में 27 फ़ीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं.


यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफगानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुकाबले बहुत ज़्यादा है.


यूनिसेफ़ के एक अधिकारी के मुताबिक़ भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फ़ीसदी का कारण कुपोषण होता है. भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.


दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं. देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढ़ी बेरोज़गारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है. आज भी भारत में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक़्त की रोटी भी नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे.


एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है. इसलिए सबसे बड़ी चुनौती फ़िलहाल भूखों को भोजन कराना है. हमारे संविधान में कहा गया है कि 'राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा.' मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो ज़ाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं.


1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तक़रीबन सभी देशों के प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा.उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड़ लोगों को पोषक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है. यह संख्या क़रीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फ़ीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है.


हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फ़सल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोज़गार की कमी और ग़रीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज़्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योंकि वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए.


क़ाबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ़ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की ज़रूरत होती है तो दूसरी तरफ़ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आज़ादी के बाद से अब तक ग़रीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफ़ीताशाही के चलते वे महज़ कागज़ों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया ग़रीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है. एक तरफ़ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ़ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?
(इस आलेख को आज यानि 7 अक्टूबर 2008 के दैनिक जागरण में भी पढ़ा जा सकता है)

9 Comments:

Unknown said...

हमारे देश में एक तरफ़ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की ज़रूरत होती है तो दूसरी तरफ़ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आज़ादी के बाद से अब तक ग़रीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफ़ीताशाही के चलते वे महज़ कागज़ों तक ही सीमित होकर रह गईं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया ग़रीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है। एक तरफ़ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ़ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं। ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?


बहुत सही कहा है आपने...

Unknown said...

फिरदौस जी आपका लेख पूरी हकीकत को बयां कर रहा है ।आपने सारे आकंङे दिये है पर इसके बावजूद राज्य और केन्द्र सरकार के कान में जूँ तक नहीं रेंग रही है । इस लेख के लिए धन्यवाद ।

admin said...

हमारे देश में एक तरफ़ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की ज़रूरत होती है तो दूसरी तरफ़ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं।

और आश्‍चर्य का विषय यह है कि दूसरे प्रकार के लोगों की संख्‍या बढती जा रही है।

इस गम्‍भीर विषय से परिचित कराने का शुक्रिया। हमारी सरकार को इसपर जल्‍दी ही कोई ठोस कदम उठाना चाहिए।

हिन्दीवाणी said...

बच्चों के कुपोषण पर इतनी बारीकी से लिखने के लिए मुबारकबाद। आप इस तरह के लेखों से समाज में जागरूकता ला रही हैं, किसी भी तथाकथित समाजसेवी से यह बड़ा काम है। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

firdaus ji,
jaagran key sampadkiye page par subah yeh lekh padkar achcha lag. kuposhan pure desh mein badi gambhir samasya hai. apney is mudde ko bahut tathyaparak dhang sey uthaya hai.

Hari Joshi said...

कुपोषण पर गंभीर और विचारोत्‍तेजक आलेख के लिए आभार। दोष व्‍यवस्‍था का ही है।

योगेन्द्र मौदगिल said...

Beshak....
sahi kaha aapne...
lekin vyavastha nahi sudhregi.........

subhash Bhadauria said...

फिरदौसजी आपने अपने ब्लॉग पर मुझ अछूत के ब्लॉग का लिंक देकर ज़र्रे को आफ़ताब किया.मश्कूर हूँ और फ़िक्र इस बात की हो रही है-मश्हूर पंक्तियां याद आ रही है.
मुझे रात दिन ये ख़याल है
वो नज़र से मुझको गिरा ने दे.
आप दिल की गहराइयों से लिखती है.आप इंसाफ़ पसंद है गरीब और बेबस लोगों के लिए आपके दिल में हम दर्दी है. बेबस बच्चों की हालत का आपना जाइज़ा लिया इससे तो यही राय बनती है.
मैं तो आपकी दर्दगाह में अर्ज़ करना चाहता हूँ ग़ौर फ़र्मायें-
बोम्ब सड़कों पे ये धरते ही नहीं
हादिसे ऐसे गुज़रते ही नहीं.

तुम ने पहले से संभाला होता,
बागी बच्चे ये बिगड़ते ही नहीं.

Dev said...

Firdaus ji,
Aapki lekhi me bahut dam hai...
Very Nice...

http://dev-poetry.bolgspot.com

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