वृक्ष और वनस्पति स्वच्छ पर्यावरण, स्वस्थ जीवन पध्दति तथा सतत् कृषि की आधारभूत आवश्यकताएं हैं। हालांकि भारत एक कृषि समृध्द देश है, लेकिन रेगिस्तान, मिट्टी की उपजाऊ शक्ति का विनाश, भूमि कटाव, खारा पानी जल प्लावन आदि समस्याएं सतत् कृषि उत्पादन के लिए पहले से ही भारी खतरा उत्पन्न कर रही हैं और अब घटते वनों ने एक नई चुनौती पैदा कर दी है। हरियाणा में गायब होते करोड़ों वृक्ष वन विभाग के प्रदेश को हरा-भरा बनाने के तमाम दावों को धूल चटा रहे हैं।
गौरतलब है कि वन विभाग वर्ष 2010 तक प्रदेश के 10 फीसदी और 2021 तक 20 फीसदी वन क्षेत्र को विकसित करने का सपना पाले हुए है, लेकिन हकीकत में लक्ष्य पूरा होता नजर नहीं आ रहा। हैरत की बात यह भी है कि वन विभाग के करीब 15 करोड़ वृक्ष भी गायब हैं। यह खुलासा विभाग के एक सर्वे में हुआ है। पिछले साल अक्टूबर में कराए गए इस सर्वे में वर्ष 2005 तक लगाए गए वृक्षों की नंबरिंग में पता चला है कि प्रदेश में वन के नाम पर महज 1.33 करोड़ वृक्ष ही हैं, जबकि इनकी तादाद 16.5 करोड़ होनी चाहिए थी। सर्वे में पांच साल तक के वृक्षों को शामिल किया गया, जबकि 2005 के बाद लगाए गए वृक्षों की गिनती नहीं की गई।
इतना ही नहीं वन विभाग के दावों और विभाग के सर्वे में भी भारी विरोधाभास है। विभाग के दावों के मुताबिक प्रदेश में हर साल करीब 2.5 करोड़ पौधे रोपे जाते हैं, जबकि सर्वे में हर साल इनकी तादाद घटती जा रही है। अब इसका मतलब यही हो सकता है कि या तो वन विभाग के दावे झूठे हैं या फिर देखरेख के अभाव में पौधे सूख जाते हैं। अब अगर पौधों की ठीक से देखभाल ही नहीं की जाती तो उनके रोपने का औचित्य ही क्या रह जाता है, इसका जवाब तो वन विभाग के आला अधिकारी ही दे सकते हैं। प्रदेश की वन एवं पर्यावरण मंत्री किरण चौधरी का कहना है कि हम अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रयासरत हैं और हमें कामयाबी जरूर मिलेगी।
हरियाणा के कुल भौगोलिक क्षेत्र में केवल 3.5 फीसदी हिस्से पर वन हैं। वर्ष 1966 में हरियाणा के गठन के समय वन का यह क्षेत्र महज 2.28 फीसदी ही था। उस समय किसान अपने खेतों में शीशम, कीकर, आम, अमरूद, बेर, जामुन और शहतूत आदि के वृक्ष लगाया करते थे। उनका मकसद इनसे छाया, फल और लकड़ी प्राप्त करना होता था। बाद में 1978 में विश्व बैंक से मिले अनुदान से वन विभाग ने राज्य में सामुदायिक वन परियोजना शुरू की। इसके तहत किसानों को जल्द बढ़ने वाले पॉपुलर और सफेदे के पौधे मुफ्त बांटे गए। इसके बाद वर्ष 1999 में राज्य में शुरू हुई सामुदायिक वानिकी परियोजना को वन विभाग व यूरोपीय संघ के 109.5 करोड़ रुपये के अनुदान और हरियाणा सरकार के 32 करोड़ रुपये के योगदान से कार्यान्वित किया गया यह परियोजना वर्ष 2008 में खत्म हो गई। परियोजना राज्य के पंचकुला, अम्बाला, यमुनानगर, कुरुक्षेत्र, सिरसा, फतेहाबाद, हिसार, भिवानी, महेंद्रगढ़ और रेवाड़ी जिलों के तीन सौ गांवों में सामुदायिक भूमि, पंचायती भूमि, कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि और निजी भूमि पर लागू की गई।
भारत के वन सर्वेक्षण, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की रिपोर्ट-2003 के मुताबिक वर्ष 1999 से 2001 तक की तीन साल की अवधि में हरियाणा के वन क्षेत्र में 82 फीसदी इजाफा हुआ। हरियाणा में इस समय 1754 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है, जो 1999 के वन क्षेत्र की तुलना में 790 किलोमीटर की वृध्दि दर्शाता है। वन क्षेत्र में यह सुधार गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों रूप से हुआ है। राज्य में घने वनों का क्षेत्रफल 449 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 1139 वर्ग किलोमीटर हो गया है, जो पहले के मुकाबले 54 फीसदी ज्यादा है। वन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक वन क्षेत्र में यह बढ़ोतरी कुछ वर्षों के दौरान चलाई गई सघन पौधारोपण गतिविधियों के कारण हुई है। वर्ष 1999 के बाद सरकारी, संस्थाओं और निजी फार्मों की भूमि पर 10 करोड़ पौधे लगाए जा चुके हैं। सर्वेक्षण में हरियाणा में सरकारी वन क्षेत्र के अलावा फार्म की भूमि, संस्थाओं और समुदायिक भूमि पर लगाए गए पौधों का अनुमान भी लगाया गया। वनों के बाहर राज्य के 1526 वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र पर पौधारोपण किया जा चुका है। इस तरह वन तथा वृक्षों के अधीन कुल क्षेत्र बढ़कर 7.4 फीसदी हो गया है, जबकि समूचे भारत का औसत 2.5 फीसदी है।
भारतीय वन संरक्षण की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 238 मिलियन हेक्टेयर में केवल 64 मिलियन हेक्टेयर ही वन क्षेत्र है, यानी 19.27 फीसदी क्षेत्र पर वन हैं। इनमें से भी केवल 11.7 फीसदी क्षेत्र पर ही सघन वन हैं, जबकि बाकी वन क्षेत्र में भूमि कटाव और कम घनत्व जैसी समस्याएं हैं। केंद्रीय वन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2003 तक देश में 26 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के सघन वन खत्म हो चुके हैं, जबकि किसी समय देश के तीन लाख 90 हजार 564 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में घने वन थे और दो लाख 87 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में खुले वन थे। सबसे ज्यादा वन कर्नाटक में 34 फीसदी क्षेत्र को हरा-भरा बना रहे थे। उसक बाद जम्मू कश्मीर में 25 फीसदी, असम में 24 फीसदी, केरल में 22.7 फीसदी, बिहार व झारखंड में 22.5 फीसदी, महाराष्ट्र में 11.8 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 11.3 फीसदी, राजस्थान में 3.8 फीसदी और पंजाब में 2.5 फीसदी क्षेत्र में वन थे।
'द स्टेट ऑफ इंडियन फॉरेस्ट' की एक रिपोर्ट के मुताबिक फिलहाल मिजोरम में सबसे ज्यादा 87 फीसदी, अंडमान और निकोबार में 84 फीसदी, नागालैंड में 82 फीसदी, मणिपुर में 77 फीसदी, मेघालय में 75 फीसदी, लक्ष्यद्वीप 71 फीसदी, अरुणाचल प्रदेश मे 68 फीसदी, सिक्किम में 45 फीसदी, उत्तराखंड में 45 फीसदी, केरल में 40 फीसदी, दिल्ली में 11 फीसदी, जम्मू-कश्मीर में 10 फीसदी, पांडिचेरी में 8 फीसदी, गुजरात में 7 फीसदी, दमन और दीप में 7 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 6 फीसदी,, बिहार में 6 फीसदी, राजस्थान में 4 फीसदी, तथा पंजाब और हरियाणा में सबसे कम 3 फीसदी भू-भाग पर ही वन हैं। भारत की 1988 की वन नीति के मुताबिक देश के कुल भौगोलिक भू-भाग का 33 फीसदी हिस्सा वनों से परिपूर्ण होना चाहिए। केंद्रीय सरकार का लक्ष्य 2012 तक 33 फीसदी क्षेत्र को वन क्षेत्र के तहत लाना है।
सरकार इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए निजी सहयोग के अलावा जनमानस की भागीदारी सुनिश्चित करने पर खासा ध्यान दे रही है। अगर सरकार इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए वाकई गंभीर है तो उसे वनों के विस्तार के अलावा फार्मों और कृषि वानिकी जैसी वैकल्पिक भू-उपयोग की पध्दतियों को बढ़ावा देना होगा। भारत में करीब 200 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर कृषि होती है। इसलिए कृषि भूमि पर फसलों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के वृक्ष लगाकर ज्यादा से ज्यादा भूमि को हरा-भरा बनाया जा सकता है।
गौरतलब है कि वनों के घटने के कई कारण हैं, जिनमें वृक्षों का सूखना, घरेलू ईंधन, लकड़ी के कोयले का कारोबार, फर्नीचर व इसी तरह के अन्य कार्यों के लिए पेड़ों का काटा जाना शामिल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि वृक्ष को देवता की तरह पूजने वाले देश में वन माफिया लोगों को थोड़े से धन का लालच देकर उनसे पेड़ कटवा लेते हैं। देश की लचर कानून व्यवस्था और आपसी मिलीभगत के चलते न तो वन विभाग इनके खिलाफ कोई कार्रवाई करता है और न ही पुलिस इस मामले में कोई केस दर्ज करती है। नियम तो यह है कि राजस्व भूमि से पेड़ काटने से पहले प्रशासन से लिखित अनुमति ली जाए और इसके एवज में दोगुने पौधे रोपे जाएं और वृक्ष बनने तक उनकी समुचित देखभाल की जाए, मगर शायद ही कोई ऐसा करता हो।
बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर देश और प्रदेश को हरा-भरा बनाना है तो पौधों को फाइलों में नहीं, बल्कि धरती पर रोपा जाए और वृक्ष बनने तक ईमानदारी से उनकी देखभाल की जाए। साथ ही जनमानस को भी वृक्षों के महत्व को बताना हागा, ताकि पौधारोपण एक जन आंदोलन बन सके। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब तक कोई अभियान जन अभियान का रूप धारण नहीं करता तब तक वह कामयाब नहीं हो पाता।
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लफ्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी बहिन फिरदौस को हमारा सलाम
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