Wednesday, April 20, 2016

लुप्त होती कठपुतली कला...


फ़िरदौस ख़ान
भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब लोककलाओं में झलकता है. इन्हीं लोककलाओं में कठपुतली कला भी शामिल है. यह देश की सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम भी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता के चलते मनोरंजन के नित नए साधन आने से सदियों पुरानी यह कला अब लुप्त होने की क़गार पर है.

कठपुतली का इतिहास बहुत पुराना है. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है. कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का ज़िक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी. कहानी 'सिंहासन बत्तीसी' में भी विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख है. सतवध्दर्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ. आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है. इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है. वहां कठपुतली मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है.

भारत में पारंपरिक पुतली नाटकों की कथावस्तु में पौराणिक साहित्य, लोककथाएं और किवदंतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फ़रहाद की कथाएं ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब साम-सामयिक विषयों, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य, ज्ञानवर्ध्दक व अन्य मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाने लगे हैं. रीति-रिवाजों पर आधारित कठपुतली के प्रदर्शन में भी काफ़ी बदलाव आ गया है. अब यह खेल सड़कों, गली-कूचों में न होकर फ़्लड लाइट्स की चकाचौंध में बड़े-बड़े मंचों पर होने लगा है.

छोटे-छोटे लकड़ी के टुकड़ों, रंग-बिरंगे कपड़ों पर गोटे और बारीक काम से बनी कठपुतलियां हर किसी को मुग्ध कर लेती हैं. कठपुतली के खेल में हर प्रांत के मुताबिक़ भाषा, पहनावा व क्षेत्र की संपूर्ण लोक संस्कृति को अपने में समेटे रहते हैं. राजा-रजवाड़ों के संरक्षण में फली-फूली इस लोककला का अंग्रेजी शासनकाल में विकास रुक गया. चूंकि इस कला को जीवित रखने वाले कलाकार नट, भाट, जोगी समाज के दलित वर्ग के थे, इसलिए समाज का तथाकथित उच्च कुलीन वर्ग इसे हेय दृष्टि से देखता था.

महाराष्ट्र को कठपुतली की जन्मभूमि माना जाता है, लेकिन सिनेमा के आगमन के साथ वहां भी इस पारंपरिक लोककला को क्षति पहुंची. बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने की बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. कठपुतली को अपने इशारों पर नचाकर लोगों का मनोरंजन करने वाले कलाकर इस कला के क़द्रदानों की घटती संख्या के कारण अपना पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर हैं. अनके परिवार ऐसे हैं, जो खेल न दिखाकर सिर्फ़ कठपुतली बनाकर ही अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं. देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशी लोगों में यह लोकप्रिय हो रही है. पर्यटक सजावटी चीज़ों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी यहां से ले जाते हैं, मगर इन बेची जाने वाली कठपुतलियों का फ़ायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं. बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इनको बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं.

कठपुतली व अन्य इसी तरह की चीज़ें बेचने का काम करने वाले बीकानेर निवासी राजा का कहना है कि जीविकोपार्जन के लिए कठपुतली कलाकारों को गांव-क़स्बों से पलायन करना पड़ रहा है. कलाकरों ने नाच-गाना और ढोल बजाने का काम शुरू कर लिया है. रोज़गार की तलाश ने ही कठपुतली कलाकरों की नई पीढ़ी को इससे विमुख किया है. जन उपेक्षा व उचित संरक्षण के अभाव में नई पीढ़ी इस लोक कला से उतनी नहीं जुड़ पा रही है जितनी ज़रूरत है. उनके परिवार के सदस्य आज भी अन्य किसी व्यवसाय की बजाय कठपुतली बनाना पसंद करते हैं. वह कहते हैं कि कठपुतली से उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई हैं. उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.

पुरानी फ़िल्मों और दूरदर्शन के कई कार्यक्रमों में कठपुतलियों का अहम किरदार रहा है, मगर वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है. इन विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बात यह है कि कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है. भविष्य को लेकर इनकी आंखों में इंद्रधनुषी सपने सजे हैं. इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोककलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी और अपनी अतीत की विरासत को लेकर नई पीढ़ी अपनी जड़ों की ओर लौटेगी.

30 Comments:

Gyan Darpan said...

सही कह रहीं आप यह लोककला ख़त्म होने के कगार पर है हमारी आने वाली पीढियां कटपुतली खेल का सिर्फ इतिहास ही पढेगी |
हमें भी कटपुतली खेल देखे वर्षों बीत गए | स्कूल के दिनों में कटपुतली का खेल दिखाने वाले कलाकार गांवों में व स्कूल में आकर खेल दिखाते थे |

VICHAAR SHOONYA said...

आपकी डायरी के इस नए पृष्ट ने मन मोह लिया।
कठपुतलियाँ......... मुझे कठपुतलियां बचपन से पसंद नहीं रहीं। पता नहीं क्यों। उन्हें देख कर अजीब सा डर लगता था। आज बड़ा हो गया हूँ यांत्रिक तरीके से कह सकता हूँ की बहुत पुरानी कला है.... हमारी सांस्कृतिक विरासत है..... हमें इसे सहेज कर रखना चाहिए... इत्यादि इत्यादि.....
गुणवत्ता की दृष्टि से आपका लेख उत्तम है। पढ़ कर अच्छा लगा।

kunwarji's said...

"उन्हें इस बात का मलाल है कि प्राचीन भारतीय संसकृति व कला को बचाने और प्रोत्साहन देने के तमाम दावों के बावजूद कठपुतली कला को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।"
उनका मलाल सच्चा है जी!कठपुतली के बारे बहुत दिनों के बाद कुछ इमानदारी से कहा हुआ सुना/पढ़ा जी!सच अब तो दिखाई ही नहीं देते कहीं कठपुतली वाले!आपकी एक और सार्थक पोस्ट!बधाई स्वीकार करें!

कुंवर जी,

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

पता नहीं वह दिन कब आयेगा... मैंने भी अपने बचपन में कठपुतलियों का खेल देखा है...

SANJEEV RANA said...

इस बात का आह्वान करने के लिए बधाई .
आपसे इसके लिए सहमत हू.
ये भी एक अलग तरह की कला हैं जिसको देखते हुए बहुत मजा आता हैं
सच में इस कला का कोई सानी नही हैं किस तरह से वो मोवेमेंट देते हैं धागों के जरिये मुह से आवाज निकल कर .
बहुत खूब
एक बार फिर इस सब की याद दिलाने के लिए आभार

honesty project democracy said...

कभी कठपुतली समाज का दर्पण हुआ करता था और इसके जरिये सामाजिक परिवेश की एक झलक भी देखने को मिल जाती थी / इस अमूल्य कला का समुचित विकास न होना वास्तव में दुखदायी है /

Ganesh Prasad said...

बहुत खूब,
दुख तो तो होता है अपनी बिरासत को यु मिटता देख पर क्या करे ?//. दुआ करते है कठपुतली के भी कद्रदान होंगे और इसकी भी एक मुकाम होंगी ......

nilesh mathur said...

लोककलाओं को तो बचाना ही होगा, किसी भी कीमत पर!

Unknown said...

अत्यन्त ज्ञानवर्धक पोस्ट! हिन्दी ब्लोगिंग में ऐसी ही जानकारी की आवश्यकता है। आशा है कि भविष्य में भी इस ब्लोग में ज्ञानवर्धक पोस्ट आते रहेंगे।

"बच्चे भी अब कठपुतली का तमाशा देखने के बजाय ड्राइंग रूम में बैठकर टीवी देखना ज्यादा पसंद करते हैं।"

विज्ञान और तकनीकी के विकास ने जहाँ हमारे जीवन को बहुत सारी सुविधाएँ दी है वहीं यह हमारी परम्पराओं, प्राचीन विद्या, कला आदि को निगलती भी जा रहा है।

योगेन्द्र मौदगिल said...

badiya post...badhai..

राजकुमार सोनी said...

लगभग दो साल पहले ही महाराष्ट्र जाना हुआ था। एक ढाबे जैसी जगह पर जब मैं रूका तब वहां सभी प्रकार का भोजन मिल रहा था। वही आए हुए मेहमानों के बच्चों को एक कठपुतली वाला अपना खेल दिखा रहा था। कठपुतली वाले ने सनी दयोल और अमरीश पुरी की लड़ाई भी दिखाई थी। तब खेल तो मैंने देख लिया था लेकिन बहुत देर तक खेल के भविष्य को लेकर सोचता रहा। वैसे भिलाई में मेरे एक परिचित है.. विभाष जी। वे इस खेल को जिन्दा रखे हुए हैं। अच्छी-खासी नौकरी करने के बाद भी वे मेले में अपना करतब सिर्फ इसलिए दिखाते है ताकि लोग इस खेल को न भूले। आगे क्या लिखूं.. हमेशा की तरह आपने शानदार तो लिखा ही है। जबरदस्त।

शिवम् मिश्रा said...

बढ़िया लेख ........बधाइयाँ और शुभकामनाएं !!

aarya said...

अब तो ऐसा लगता है कि इन बिलुप्त होती संस्कृतियों को हमारी आने वाली पीढ़ी पुस्तकों से ही जान पायेगी . आपने इसे समझाने का सही प्रयास किया है, बधाई स्वीकार करें!

रत्नेश

पंकज कुमार झा. said...

किसने कहा कि लुप्त हो गयी यह कला? हां रूप ज़रूर बदल गया है….अब इस तरह के कलाकारी का नाम राजनीति हो गया है…..अच्छा आलेख.
पंकज झा.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अरे वाह, बहुत सुंदर जानकारी। शुक्रिया।
--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?

rashmi ravija said...

जायज चिंता है,आपकी...कई सारी लोक कथाओं के साथ यह भी विलुप्त होने के कगार पर है...पर स्कूल में अब भी कुछ बढ़ावा मिल रहा है....बाल दिवस पर स्कूलों में बुलाकर इनका प्रदर्शन करवाते हैं पर फिर साल भर?...बच्चों को अब भी बहुत पसंद आती है ,यह कला

कविता रावत said...

लोककलाओं को तो बचाने के लिए आगे आने की आज सख्त आवश्यकता है.. इस दिशा में आपके सार्थक और चिंतनशील प्रस्तुति के लिए बहुत धन्यवाद....

श्यामल सुमन said...

आम आदमी के मनोभावों को कठपुतली के माध्यम से व्यक्त करने की वह प्राचीन कला प्रायः लुप्त होते जा रही है। आपने एक अलग हँटकर बिषय का चुनाव किया है - जो सराहनीय है फिरदौस जी। सुन्दर।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

महामूर्खराज said...

वाह क्या बात है कल ही मैं अपने विद्यालय मे हुए कठपुतलियों के प्रोग्राम को याद कर रहा था और इस पर थोड़ी खोजबीन कर रहा था और आज आपका एक अच्छा लेख इस विषय पर पढने का मौका मिल गया
सादर धन्यवाद

Satish Saxena said...

वाह ! फिरदौस जी
आज तो सांस्कृतिक झांकी ही लगा दी ...सुखद बदलाव ..अच्छा लगा !
लगता है पिछले जन्म में मीरा थीं !

Udan Tashtari said...

बहुत सही...बहुत बेहतरीन पोस्ट!!


एक अपील:

विवादकर्ता की कुछ मजबूरियाँ रही होंगी अतः उन्हें क्षमा करते हुए विवादों को नजर अंदाज कर निस्वार्थ हिन्दी की सेवा करते रहें, यही समय की मांग है.

हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में आपका योगदान अनुकरणीय है, साधुवाद एवं अनेक शुभकामनाएँ.

-समीर लाल ’समीर’

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

कठपुतली कला और कलाकार के प्रति बचपन से सहानुभूति है. बहुत सी यादें जुडी है.

कहीं हम इन्हें खो न दें.

बहुत बढ़िया पोस्ट है ये.

Unknown said...

शुभरात्री
हमारी जानकारी बढ़ाने के लिए धन्यावाद

माधव( Madhav) said...

बहुत सही...बहुत बेहतरीन पोस्ट!!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

सांस्कृतिक धरोहर को लेकर पेश किया गया बेहतरीन आलेख.

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 28 मई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता के संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट कठपुतली के सपने शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब के लिए http://www.jansattaraipur.com/ के पेज 4 अथवा प्रिंट मीडिया में ब्‍लॉग चर्चा ब्‍लॉग में से ले सकती हैं अथवा देख सकती हैं।

सुज्ञ said...

बेहतरीन आलेख.लोककलाओं,सांस्कृतिक परम्पराओं पर शोधपूर्ण आलेख

राजेश उत्‍साही said...

इस सुंदर आलेख को प्रस्‍तुत करने के लिए बधाई।

लाल बुझक्कड़ said...

बहुत अच्छा आलेख. लगे रहिये फिरदौस जी...
मैंने तब से आपका लेखनी का हुनर देखा है जब आप दैनिक ट्रिब्यून में लिखती थीं...
तब से आज तक वही धार....

www.ulti-dhara.blogspot.com

Bhavesh (भावेश ) said...

हर बार की तरह एक अच्छा और ज्ञानवर्धक आलेख. आपने सपेरों और कठपुतली दोंनो पर काफी अध्यन करके सारगर्भित पोस्ट लिखी है. मुझे लगता है कि वक़्त के साथ-साथ कठपुतलियों का वजूद अब लगभग ख़त्म हो चुका है. कितना अच्छा हो अगर इन कलाओ को संरक्षण मिले और इन्हें दुर्गति से बचाने का कोई सार्थक प्रयास हो.

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