कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी एक ऐसी शख़्सियत के मालिक हैं, जिनसे शायद ही कोई मुतासिर हुए बिना रह सके... मुल्क की एक बड़ी सियासी पार्टी के एक नेता ने हमसे कहा था कि राहुल का विरोध करना उनकी पार्टी की नीति का एक अहम हिस्सा है, लेकिन ज़ाती तौर पर वो राहुल को बहुत पसंद करते हैं...पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल ने जितनी मेहनत की, शायद ही किसी और पार्टी के नेता ने की हो...लेकिन कांग्रेस के उन नेताओं ने ही राहुल की मेहनत पर पानी फेर दिया, जिन्हें राहुल ने अपना समझा...
बहरहाल, कुछ अरसा पहले दैनिक भास्कर में राहुल के बारे में एक लेख शाया हुआ था, पेश है वही तहरीर...
साल 2008 की गर्मियों में भारत के बेहतरीन बॉक्सिंग कोच और द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित ओमप्रकाश भारद्वाज के फोन की घंटी बजी. फोन भारतीय खेल प्राधिकरण से आया था. उन्हें बताया गया कि 10 जनपथ से कोई उनसे संपर्क करेगा. कुछ समय बाद नेहरू-गांधी परिवार के निजी स्टाफ में दो दशकों से ज़्यादा समय से कार्यरत पी माधवन ने उन्हें फ़ोन किया और एक असामान्य-सी गुज़ारिश की- राहुल गांधी बॉक्सिंग सीखना चाहते हैं. क्या भारद्वाज उन्हें सिखाएंगे? ‘मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ.’ तब 70 की उम्र को छू रहे भारद्वाज बताते हैं. ‘राहुल बॉक्सिंग रिंग में उतरने की योजना तो नहीं ही बना रहे होंगे. मैंने सोचा वह शायद आत्मरक्षा के गुर सीखना चाहते होंगे.’ हाथ आया मौक़ा गंवाने से पहले ही भारद्वाज फ़ौरन राज़ी हो गए. फ़ीस के तौर पर वह कुल इतना चाहते थे कि उन्हें घर से लाने-ले जाने की व्यवस्था करवा दी जाए. कक्षाएं 12 तुगलक लेन में होनी थीं, जहां राहुल रहते थे. भारद्वाज के लिए यह राहुल को क़रीब से जानने-समझने का भी मौक़ा था. न सिर्फ़ बॉक्सिंग सीख रहे छात्र के रूप में, बल्कि उस शख्स के रूप में भी जिसे भारत का भावी प्रधानमंत्री कहा जा रहा था. ‘वह हमेशा ज़्यादा के लिए तैयार रहते थे. वार्म अप के लिए अगर मैंने लॉन का एक चक्कर लगाने को कहा, तो वे तीन चक्कर लगा लेते.’
बॉक्सिंग सत्र 12 तुगलक लेन के लॉन पर हफ्ते में तीन दिन होते. कभी-कभी प्रियंका और उनके बच्चे भी राहुल को मुक्केबाज़ी के हुनर सीखते देखने आते. कई बार सोनिया भी वहां बैठकर देखतीं. ‘एक दिन प्रियंका ने मुझसे कहा कि मुझे भी सिखाइए.’ भारद्वाज बताते हैं. उन्होंने उतनी ही चुस्त-दुरुस्त छोटी बहन को भी मुक्केबाज़ी की कुछ चालें समझाईं और उनके एक पंच पर दंग रह गए. ‘यह बहुत ख़ूबसूरत पंच था, उस शख़्स से तो इसकी उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी, जो पहली बार मुक्केबाज़ी में हाथ आज़मा रहा था.
जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई, वह आख़िरी दिन जब राहुल और प्रियंका स्कूल गए. अगले पांच वर्ष उनकी पढ़ाई-लिखाई घर पर ही हुई. राजीव गांधी के शब्दों में ‘घूमने-फिरने और खेलकूद के शौक़ीन व्यक्ति होने के नाते राहुल ने खेलकूद में अपनी अभिरुचि को आगे बढ़ाने के रास्ते खोज लिए. उन्होंने तैराकी, साईलिंग और स्कूबा-डायविंग की और स्वैश खेला. अपने पिता की तरह उन्होंने दिल्ली के नज़दीक अरावली की पहाड़ियों पर एक शूटिंग रेंज में निशानेबाज़ी का प्रशिक्षण लिया और हवाई जहाज़ उड़ाना भी सीखा. खेलों में अभिरुचि की वजह से ही 1989 में उन्हें दिल्ली के बेहतरीन सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाख़िला मिला. नंबरों के बल पर तो उन्हें इस कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल सका, अलबत्ता पिस्टल शूटिंग में अपने हुनर की बदौलत स्पोर्ट्स कोटे में प्रवेश मिल गया. उन्होंने इतिहास ऑनर्स में नाम लिखवाया. वह सुरक्षा गार्डो के साथ कॉलेज आते और अक्सर क्लास में पीछे बैठते. रैगिंग के दौरान वह काफ़ी मज़े लेते, लेकिन कॉलेज में बाक़ी समय बहुत कम मौक़ों पर ही बोलते. एक साल और तीन महीने बाद उन्होंने सेंट स्टीफेंस कॉलेज छोड़ दिया. कॉलेज के प्रिंसीपल डॉ. अनिल विल्सन भी राहुल के अधबीच में कोर्स छोड़ देने के कारणों के बारे में अन्य लोगों की तरह सिर्फ़ अनुमान ही लगा पाते हैं.
उन्होंने पाया कि राहुल ज़मीन से जुड़े व्यक्ति थे और गांधी परिवार का सदस्य होने के नाज़-नख़रों से मुक्त थे. उन्हें लगा कि राहुल हर कहीं साये की तरह साथ चलती कड़ी सुरक्षा से असहज महसूस करते थे और संभवत: इसी वजह से उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी. सेंट स्टीफेंस कॉलेज छोड़ने के फ़ौरन बाद राहुल अमेरिका चले गए और इकॉनोमिक्स के छात्र के तौर पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया. वह बीस साल के थे. हार्वर्ड में अभी मुश्किल से एक साल ही बिताया था कि उनके पिता की हत्या हो गई. त्रासदी का असर उनकी पढ़ाई पर पड़ा. राहुल हार्वर्ड छोड़कर लिबरल आर्ट्स के एक निजी संस्थान रॉलिन्स कॉलेज में पढ़ने के लिए विंटर पार्क, लोरिडा आ गए. इसकी वजह भी एक बार फिर सुरक्षा चिंताओं को ही बताया गया. अब तक सुरक्षा गार्डो की सतत पहरेदारी में ज़िन्दगी बिताते आ रहे नौजवान को इस उपनगरीय शहर ने, जिसे अमीर उद्योगपतियों ने प्रारंभ में रिसॉर्ट डेस्टिनेशन की तौर पर बसाया था, आदर्श माहौल मुहैया किया. यहां राहुल ने वह कोर्स पूरा किया, जिसमें दाख़िला लिया था और 1994 में कॉलेज में पढ़ाए जाने वाले छह मुख्य विषयों में से एक, इंटरनेशनल रिलेशंस में डिग्री के साथ ग्रेजुएट किया.
इसके बाद राहुल कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ने गए. उनके परदादा जवाहरलाल नेहरू भी 1907 से 1910 तक इसी कॉलेज में पढ़े थे और क़ानून की डिग्री ली थी. राजीव गांधी ने भी ट्रिनिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी. राहुल ने डेवलपमेंट स्टडीज़ में एम फिल करने का विकल्प चुना, जिसे 1995 में पूरा किया.
ट्रिनिटी कॉलेज से उत्तीर्ण होकर राहुल फ़ौरन भारत नहीं लौटे. वह लंदन चले गए, जहां उन्होंने एक ग्लोबल मैनेजमेंट एंड स्ट्रैटजी कंसल्टेंसी फर्म, मॉनीटर ग्रुप, में काम किया. इसके सह-संस्थापक थे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफ़ेसर माइकल यूजीन पोर्टर, जिन्हें ब्रैंड स्ट्रैटजी का अग्रणी आधिकारिक विद्वान माना जाता है. राहुल ने वहां तीन साल काम किया, लेकिन फ़र्ज़ी नाम से. उनके सहयोगियों को अंदाज़ तक नहीं था कि इंदिरा गांधी का पौत्र उनके बीच काम कर रहा है. प्रायवेसी की ज़रूरत के बारे में, जिससे वह हमेशा वंचित रहे, राहुल ने कहा, ‘अमेरिका में पढ़ाई के बाद मैंने जोखिम उठाया और अपने सुरक्षा गार्डो से छुटकारा पा लिया, ताकि इंग्लैंड में सामान्य ज़िन्दगी बिता सकूं.’ उनके पिता ने भी कभी ऐसी ही ज़रूरत महसूस की थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब अपने और परिवार के लिए वक़्त निकालना मुश्किल हो गया और राजनीति की रफ़्तार ने उड़ान के जज़्बे को नेपथ्य में धकेल दिया, तब उन्होंने कहा था, ‘कभी-कभी मैं कॉकपिट में चला जाता हूं, बिल्कुल अकेला, और दरवाज़ा बंद कर लेता हूं. मैं उड़ भले न सकूं, कम से कम कुछ देर के लिए दुनिया से अपने को अलग तो कर पाता हूं.’
उधर, राहुल इंग्लैंड में सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे, इधर भारत में उनकी मां सोनिया गांधी राजनीति में गहरे और गहरे उतरती जा रही थीं. 1997 में राजनीति में प्रवेश के बाद अब वह कांग्रेस का नेतृत्व कर रही थीं. इस दौरान प्रियंका उनके साथ खड़ी थीं, शक्तिस्रोत बनकर. कांग्रेस के भीतर शोर-शराबा बढ़ रहा था कि प्रियंका पार्टी में शामिल हों. राहुल को देश से बाहर रहते दस साल से ज़्यादा हो चुके थे, लेकिन राजनीति उन्हें पुकार रही थी और यह संकेत था कि उनके लौटने का वक़्त आ गया है. वह लौटे, 2002 में. भारत में आउटसोर्सिग इंडस्ट्री उछाल पर थी. पश्चिम की मल्टीनेशनल कंपनियां भारत का रुख़ कर रही थीं, ताकि काम तेज़ी से और सस्ते में करवाए जा सके. राहुल ने देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में एक इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी आउटसोर्सिग फर्म, बेकॉप्स सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड बनाई. इस बीपीओ उद्यम में सिर्फ़ आठ लोग काम करते थे और रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनीज में दर्ज आवेदन के मुताबिक़ इसका लक्ष्य था घरेलू और अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों को सलाह व सहायता मुहैया करना, सूचना प्रौद्योगिकी में परामर्शदाता और सलाहकार की भूमिका निभाना और वेब सॉल्यूशन देना. राहुल, अपने पारिवारिक मित्र मनोज मट्टू के साथ, इसके निदेशकों में से एक थे. अन्य दो निदेशक थे - कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामेश्वर ठाकुर के बेटे अनिल ठाकुर और दिल्ली में रहने वाले रणवीर सिन्हा. दोनों ने 2006 में ‘निजी कारणों’ का हवाला देते हुए इस्तीफ़ा दे दिया. 2004 के आम चुनाव से पहले चुनाव आयोग को दिए हलफ़नामे के मुताबिक़ बेकॉप्स सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड में राहुल की हिस्सेदारी 83 फ़ीसद थी. कंपनी की बैलेंस शीट से पता चलता था कि यह एक छोटा व्यावसायिक उद्यम था.
2004 में राहुल के राजनीति में प्रवेश के कुछ समय बाद उनकी कंपनी ने सीईओ की तलाश के लिए विज्ञापन निकाला. ‘हम एक सीईओ की खोज में हैं, हालांकि मैं समय-समय पर कर्मचारियों के साथ मीटिंग करता हूं और बड़े मुद्दे सुलझाता हूं.’ जून 2004 में राहुल ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा था. उस वक़्त कंपनी के पास तीन विदेशी ग्राहक थे और राहुल ने माना कि पहले साल कोई रेवन्यू नहीं आया. 2009 में, लोकसभा चुनाव से कुछ पहले, राहुल ने अपने को इस उद्यम से बाहर कर लिया. कांग्रेसियों के मुताबिक़ राजनीति के तक़ाज़ों में उन्हें बिजनेस चलाने के लिए वक़्त ही नहीं मिलता था.
राहुल की पढ़ाई-लिखाई में जैसे अवरोध आए, वैसे ही उनके कॅरियर में भी. लेकिन शारीरिक चुस्ती और रोमांचक खेलों को लेकर उनके जज़्बे में कभी कमी नहीं आई. दिन में कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, वह व्यायाम के लिए वक़्त निकाल ही लेते. जिस साल उन्होंने बॉक्सिंग में क्रैश कोर्स किया, उसी साल पैराग्लाइडिंग में भी हाथ आज़माया. अपनी मैनेजमेंट ट्रेनिंग का अच्छा इस्तेमाल करते हुए वह अमेठी से सात-आठ लोगों की एक टीम को महाराष्ट्र के कामशेट स्थित निर्वाणा एडवेंचर्स नामक एक लाइंग क्लब में ले गए. यह तीन दिनों का पैराग्लाइडिंग कोर्स था, जो 28 से 30 जनवरी 2008 तक चला. इसने टीम बिल्डिंग का भी काम किया. पश्चिमी घाट में पुणो से 85 किलोमीटर दूर कामशेट ऐसी जगह नहीं थी, जहां कोई राजनीतिज्ञ अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ एकत्र हो और काम पर चर्चा करे. लेकिन राजनीतिज्ञों की बंधी-बधाई लीक से हटकर चलने वाले राहुल के लिए असामान्य बात नहीं थी. सरसों के खेतों, शांत झीलों और प्राचीन बौद्घ गुफ़ा मंदिरों से सजी-धजी पहाड़ियों के बीच राहुल की अमेठी टीम सुबह पैराग्लाइडिंग के पाठ सीखती और शामें धुआंधार बहसों में बीततीं. कामशेट में उन्हें देखने वाले बताते हैं कि चर्चाएं हरेक के साथ सीधे होतीं. कौन छोटा है और कौन बड़ा यह सिर्फ़ तब पता चलता जब टीम राहुल को संबोधित करती. सभी उन्हें राहुल भैया कहते. राहुल और उनकी टीम के कामशेट पहुंचने से पहले उनकी मेज़बान एस्ट्रिड राव अपने इस शांत और मनोरम अंचल में एक हाईप्रोफाइल राजनेता के आगमन को लेकर ख़ासी आशंकित थीं. अपने शौहर संजय राव के साथ मिलकर निर्वाणा एडवेंचर्स की स्थापना करने वाली एस्ट्रिड मुतमईन थीं कि इस आगमन से इलाक़े की शांति भंग हो जाएगी. उन्होंने कहा, ‘मुझे यक़ीन था कि राहुल के साथ आने वाली कड़ी सुरक्षा व्यवस्था पूरे इलाक़े की घेराबंदी कर देगी.’ ऐसा कुछ नहीं हुआ. ‘हमारे कहे बग़ैर राहुल ने सुनिश्चित कर दिया कि गेस्ट हाउस के आसपास कोई भी वर्दीधारी या बंदूक़ धारी दिखाई न दे.
उनकी मौजूदगी से एक बार भी हमारी दिनचर्या में ख़लल नहीं पड़ा.’वे किसी भी दूसरे मेहमान की तरह वहां रहे. पहली रात राव दंपती ने आगंतुकों के लिए मेमना पकाया. बुफ़े सजा दिया गया. एस्ट्रिड बताती हैं, ‘मुझे देखकर ताज्जुब हुआ कि राहुल अपने साथियों को प्लेटें दे रहे थे. अपनी प्लेट भी वह ख़ुद किचन में रखकर आए.’ अगले दिन खाने के वक़्त राहुल रसोइये के पास गए और पूछा कि क्या कल रात का मेमना बचा हुआ है. कोच भारद्वाज भी राहुल को ग़ुरूर से मुक्त बताते हैं. ‘जब मैंने उन्हें सिखाना शुरू किया, मैं उन्हें सर या राहुल जी कहता.’ लेकिन दो दिन बाद राहुल ने अपने कोच से गुज़ारिश की, ‘मुझे सर मत कहिए. राहुल कहिए. मैं आपका शिष्य हूं.’ भारद्वाज बताते हैं, एक बार उन्होंने राहुल से कहा कि वह पानी पीना चाहते हैं. ‘पास ही सेवक खड़े थे, लेकिन उन्हें बुलाने की बजाय राहुल ख़ुद किचन में गए और गिलास में मुझे पानी लाकर दिया.’ और सीखने के बाद वह अपने गुरु को गेट तक छोड़ने आते.
कामशेट के पैराग्लाइडिंग स्कूल में राहुल ने पहला दिन लाइट ट्रैनर संजय राव के साथ बिताया, जिन्होंने उन्हें मैदानी प्रशिक्षण दिया. असली लाइट बाद के दो दिनों में सिखाई गई. ‘राहुल का परफॉर्मेस बहुत अच्छा था. उन्होंने ग्लाइडर उठाया और बस उड़ गए.’ संजय ने बताया. वह राहुल को अपने टॉप 10 फ़ीसदी छात्रों में शुमार करते हैं. ‘वह बहुत ध्यान से सुनते हैं, इसीलिए तेज़ी से सीखते हैं.’ जिन्होंने उन्हें देखा है, वे उन्हें ऐसा शख्स बताते हैं जो ‘हमेशा अपना एंटीना खुला रखता है.’ कामशेट में रहने के दौरान राहुल पड़ोस की झील में तैरने जाना चाहते थे, लेकिन उनके सुरक्षा गार्डो ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी. उन्होंने उनकी बात मानी. ‘यह बड़े दुख की बात थी, ख़ासकर जब वह बहुत एथलेटिक शख्स हैं और रोज़ 10 किलोमीटर जॉगिंग करते हैं.’ एस्ट्रिड बताती हैं. वह ऐसे शख्स भी नहीं हैं, जो वादा करके भूल जाएं. एस्ट्रिड को यह बात राहुल और उनकी टीम के कामशेट से जाने के एक महीने बाद पता चली. जब वह उन्हें अपना बगीचा दिखा रही थीं, राहुल ने उनसे कहा कि उनकी मां को भी बाग़वानी बहुत प्रिय है. उन्होंने बताया कि सोनिया के पास एक ख़ास किताब है जिसका वह अकसर ज़िक्र करती हैं, लेकिन उस वक़्त वह उसका नाम याद नहीं कर सके. उन्होंने वादा किया कि दिल्ली जाकर वह किताब भेजेंगे. एक महीने बाद एस्ट्रिड को एक अप्रत्याशित पार्सल मिला. इसमें बाग़वानी की वही किताब थी, जिसकी राहुल ने चर्चा की थी. राहुल न तो भूलते नहीं हैं और न ही वह माफ़ करते हैं.
यह बात कुछ पत्रकारों को ख़ासी क़ीमत चुकाकर समझ आई. 22 जनवरी 2009 को एनएसयूआई ने राहुल के कहने पर पुलिस में एक शिकायत दर्ज की. दरअसल एक सभा स्थल से लंच ब्रेक के दौरान राहुल के भाषण और प्रेजेंटेशन के लिए तैयार नोट्स ग़ायब हो गए थे. घटना दिल्ली के कॉंस्टिट्यूशन क्लब में घटी, जहां पार्टी की एक वर्कशॉप आयोजित की गई थी. शक एक टीवी क्रू के सदस्यों पर था जो उस वक़्त हॉल में दाख़िल हुए थे, जब बाक़ी सब लोग खाना खाने चले गए थे. वहां क़रीब पच्चीस पत्रकार मौजूद थे. एनएसयूआई प्रमुख हिबी ईडन ने पार्लियामेंट स्ट्रीट पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की. कहा जाता है कि यह क़दम तभी उठाया गया जब राहुल ने ज़ोर डाला कि मामला पुलिस में दिया जाए. पत्रकार ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाएं जुटाने के लिए अक्सर किसी भी हद तक चले जाते हैं, लेकिन सार्वजनिक नहीं की गई जानकारी हासिल करने की ग़रज़ से किसी के काग़ज़ उठा लेना, राहुल के लिए यह चोरी से कम नहीं था. दो दिनों तक पुलिस ने अलग-अलग चैनलों के तीन पत्रकारों को बुलाकर ग़ायब काग़ज़ों के बारे में पूछताछ की. हालांकि राहुल की टीम के सदस्यों ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की कि आख़िरकार ये प्रेजेंटेशन के काग़ज़ात कागजात ही थे और उनमें कोई गोपनीय जानकारी नहीं थी, लेकिन वह पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर ज़ोर देते रहे.
19 जून 2011 को राहुल इकतालीस साल के हो गए. राजनेता की व्यस्त ज़िन्दगी जीने के बावजूद वह अपने शौक़ पूरे करते हैं और अपने माता-पिता की तरह सामान्य जीवन बिताने के रास्तों की तलाश में रहते हैं. जब उनके पति पायलट थे और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, तब सोनिया को अक्सर दिल्ली की खान मार्केट में सब्ज़ियां ख़रीदते देखा जाता था. उन्हें खाना पकाना बहुत प्रिय था. प्रियंका भी इसी बाज़ार से अपनी ख़रीदारी करना पसंद करती हैं. दुनिया की सबसे महंगी खुदरा हाई स्ट्रीट में शुमार खान मार्केट दिल्ली में राहुल का भी सबसे प्रिय हैंगआउट है. उन्हें बरिस्ता में कॉफी पीते या बाज़ार की बाहरी तरफ़ बुक शोप्स में किताबें पलटते देखा जा सकता है. उन्हें अपनी भांजी, मिराया और भांजे रेहान के साथ वक़्त बिताना भी बहुत अच्छा लगता है. 'ज़ाहिर तौर पर वह प्रियंका के बच्चों को बहुत स्नेह करते हैं.' कामशेट में उनके मेज़बान बताते हैं. पैराग्लाइडिंग यात्रा के दौरान वह हमेशा उनके और प्रियंका के बारे में बात करते थे. एस्ट्रिड बताती हैं, ‘वह अक्सर कहते थे कि प्रियंका को यहां आना चाहिए, लेकिन वह आलसी है.’
ख़ामोश शामें राहुल को जितनी अपील करती हैं, उतना ही फास्ट ट्रैक जीवन. यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह के साथ घनिष्ठ रूप से काम कर चुके एक अधिकारी ने कहा कि हाई-ऑ टेन ग्रां प्री सीजन के दौरान जब सिंगापुर की सड़कें फॉर्मूला वन रेसिंग ट्रैक में बदल जातीं, तब राहुल चुपचाप वहां के लिए उड़ जाते. वे दिनभर संगीत सभाओं और पार्टियों में शिरकत करते. उत्सुक बाइकर होने के साथ-साथ राहुल को अपने क़रीबी दोस्तों के समूह के साथ गो-कार्टिंग में भी बहुत आनंद आता है. अप्रैल 2011 में मुंबई में वर्ल्ड कप क्रिकेट मैच के दौरान एक दोपहर 1.30 बजे के आसपास राहुल पिज्जा, पास्ता और मैकिसकन तोस्तादा सलाद की दावत के लिए चौपाटी बीच पर न्यू यॉर्कर रेस्त्रां पहुंच गए. उन्होंने वेटर से गपशप की और खाने का ख़र्च वहन करने के मैनेजर के आग्रह को ठुकरा दिया. फिर राहुल और उनके दोस्तों ने 2,233 रुपये का बिल आपस में बांट लिया.
5 Comments:
IRFAN KHAN (Faculty)
Jawaharlal Nehru Leadership Institute
Mai..apney is neta ka Kaayal huun.. iske pahle maine kisiko apna Neta nahi Maana tha... ho sakta hai mai kabhi Rahul ji mil bhi na paaun.. lekin mai JNLI me ek Faculty ke roop me .. Rahul ji aur Congress ko bahut kaabliyat ke saath nichle istar (Aam Aadmi) tak samjhaane me laga huunn.. mujhe kaamyaabi bhi il rai hai.. woh log meri baat se agree karte hain... .. Rahul Gandhi ji Zindaabad.
Mai..apney is neta ka Kaayal huun.. iske pahle maine kisiko apna Neta nahi Maana tha... ho sakta hai mai kabhi Rahul ji mil bhi na paaun.. lekin mai JNLI me ek Faculty ke roop me .. Rahul ji aur Congress ko bahut kaabliyat ke saath nichle istar (Aam Aadmi) tak samjhaane me laga huunn.. mujhe kaamyaabi bhi il rai hai.. woh log meri baat se agree karte hain... .. Rahul Gandhi ji Zindaabad
राहुल गांधी के कुछ व्यक्तिगत जीवन की जानकारी देने के लिए आभार,,,,,,
MY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
I am highly touched to read above blog. Currently my heart is singing a song- "Dil Diya he jaan bhi denge ae watan tere liye" I see my great nation under the leadership of Dedicated Gandhi Family and INC. My leader is Gr8 and he is Mr Rahul Gandhi!
- Sandeep Malviya
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है
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