इस दुनिया में जितनी नफ़रत मज़हब के नाम पर देखने को मिलती है, उतनी कहीं और दिखाई नहीं देती... मज़हब का नाम आते ही इंसान के अंदर का वहशी दरिन्दा जाग उठता है... वह इसी फ़िराक में रहता है कि कब उसे बहाना मिले और वो दूसरे मज़हब वाले इंसान का ख़ून पिये... हिन्दुस्तान समेत दुनिया भर में आज यही सब तो हो रहा है...
बेशक, मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...
फिर मज़हब के नाम पर ये ख़ून-ख़राबा क्यों ?
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