फ़िरदौस ख़ान
मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त. ये कहावत इस वक़्त कांग्रेस के नेताओं और रणनीतिकारों पर बिल्कुल सही बैठ रही है. पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस को वापस सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं. जनमानस भी कांग्रेस पर यक़ीन करना चाहता है. मेघालय में जनता ने कांग्रेस को 21 सीटें जिताकर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनाया, लेकिन इसके बावजूद महज़ दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने के लिए दावा पेश कर दिया. यहां कांग्रेस नैतिक रूप से भले ही चुनाव जीत गई हो, लेकिन रणनीति के लिहाज़ से पार्टी की हार हुई है. भारतीय जनता पार्टी के कारनामों को देखा जाए, तो उसके लिए नैतिकता कोई मायने नहीं रखती. वह सिर्फ़ जीतना चाहती है, भले ही उसके लिए उसे तमाम क़ायदे-क़ानून ताक़ पर ही क्यों न रखने पड़ें. एक कहावत भी है कि मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है. ये सियासी जंग है, जिसे वही जीत सकता है, जिसमें जीतने की ख़्वाहिश हो, जीतने का जज़्बा हो. और ये ख़्वाहिश और ये जज़्बा इस वक़्त भारतीय जनता पार्टी में कूट-कूट कर भरा हुआ है.
ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी मेहनत नहीं करते हैं. वे भी दिन-रात मेहनत करते हैं. मीलों पैदल चलते हैं, जनसभाएं करते हैं. ट्वीट कर प्रधानमंत्री से सवाल करते हैं. लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि चुनाव जीतने के लिए सिर्फ़ यही काफ़ी नहीं होता. इसके लिए जनता का समर्थन जुटाना होता है. जनसभाओं और रैलियों में महज़ भीड़ इकट्ठी करना ही काफ़ी नहीं है. इस भीड़ को वोटों में भी बदले जाने की ज़रूरत होती है. पिछ्ले कुछ सालों में देश के हालात काफ़ी ख़राब हुए हैं. लगातार बढ़ती महंगाई, नोटबंदी और जीएसटी ने लोगों के काम-धंधे चौपट कर दिए. एक तो पहले ही बेरोज़गारी कम नहीं थी, ऊपर से जो लोग काम में लगे थे, वे भी घर बैठ गए. सांप्रदायिक और जातिगत संघर्ष ने भी माहौल को ख़राब करने का काम किया. इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी जिन वादों के बूते सत्ता में आई थी, उसे भी उसने तिलांजली दे दी. ऐसे में कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी नहीं है. कांग्रेस को देशभर में एक जन आंदोलन चलाना चाहिए. इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के मामले में भी कांग्रेस ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए है. कांग्रेस जिस तरह घोटालों का विरोध कर रही है, उसे इसी तरह महंगाई व अन्य मुद्दों को लेकर जनता के बीच बने रहना चाहिए.
चुनाव में बहुमत न मिले, तो सरकार बनाने के लिए गठबंधन की ज़रूरत होती है. चुनाव से पहले ही इसके लिए तैयारी कर लेनी चाहिए. सियासत में एक-एक पल बेशक़ीमती हुआ करता है, इसलिए बहुत ही चौकस रहने की ज़रूरत होती है. जब मुक़ाबला किसी भारतीय जनता पार्टी से हो, तो और भी होशियार रहने की ज़रूरत होती है. राहुल गांधी अच्छे से जानते हैं कि उनका मुक़ाबला किससे है. उन्होंने ख़ुद कहा है कि भारतीय जनता पार्टी मणिपुर और गोवा की तरह मेघालय में जनादेश को अनदेखा करते हुए ग़लत तरीक़े से सरकार बना रही है. महज़ दो सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी ने परोक्ष ढंग से मेघालय में सत्ता हथिया ली. भारतीय जनता पार्टी का यह रवैया लोगों के जनादेश के प्रति घोर असम्मान दिखाता है. भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता हथियाने की भूख और अवसरवादी गठबंधन बनाने के लिए धन का इस्तेमाल किया है.
सियासी लिहाज़ से ऐसे नाज़ुक वक़्त में राहुल गांधी अपनी नानी के घर चले गए. बेहतर होता कि वे कुछ दिन बाद इटली जाते. वे यहीं रहकर पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ, पार्टी समर्थकों के साथ होली का त्यौहार मनाते और हर सियासी उठापटक़ पर नज़र रखते. मेघालय में सही रणनीति बनाई गई होती, गठबंधन किया होता, तो पार्टी की सरकार बन सकती थी. कांग्रेस ने जीत के बाद मणिपुर और गोवा की सत्ता गंवाने के बाद भी सबक़ नहीं लिया. ऐसे वक़्त में राहुल गांधी का कार्यकर्ताओं के बीच होना बेहद ज़रूरी था, ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल कमज़ोर न पड़े.
त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय की हार सिर्फ़ राहुल गांधी की ही शिकस्त नहीं है, बल्कि यह पूरी पार्टी की हार है, ख़ासकर कांग्रेस के रणनीतिकारों की हार है. कांग्रेस के पास या यूं कहें कि राहुल गांधी को ऐसे रणनीतिकारों की बेहद ज़रूरत है, जो हालात पर पैनी नज़र रख सकें. जो जनमानस के बीच कांग्रेस को मज़बूत करने का काम कर सकें, जो भीड़ को वोटों में बदलने के फ़न में माहिर हों, जो विरोधियों की हर चाल को समझ सकें और उसे मात दे सकें. लोकसभा चुनाव को बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. इस साल के आख़िर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने हैं. अगर कांग्रेस अब भी पूरी ताक़त झोंक दे, तो कामयाबी उसके क़दम चूम सकती है.
बेशक, राहुल गांधी एक अच्छे इंसान हैं. वे लोगों से मिलते हैं, उनके सुख-दुख में शरीक होते हैं. मंदिरों में पूजा-पाठ करते हैं, मज़ारों पर चादरें चढ़ाते हैं. वे हर काम चुनावी फ़ायदे के लिए नहीं करते. लोगों से मिलना-जुलना और उनके सुख-दुख में शामिल होना, उसके स्वभाव में शामिल है. ये कांग्रेस के लिए फ़क्र की बात है कि उन्हें एक सच्चा नेता मिला है, लेकिन सियासत में सच्चाई और अच्छाई के साथ सही रणनीति की भी ज़रूरत होती है. ये बात कांग्रेस ख़ासकर राहुल गांधी को समझनी होगी.
मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त. ये कहावत इस वक़्त कांग्रेस के नेताओं और रणनीतिकारों पर बिल्कुल सही बैठ रही है. पार्टी कार्यकर्ता कांग्रेस को वापस सत्ता में लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं. जनमानस भी कांग्रेस पर यक़ीन करना चाहता है. मेघालय में जनता ने कांग्रेस को 21 सीटें जिताकर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनाया, लेकिन इसके बावजूद महज़ दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने के लिए दावा पेश कर दिया. यहां कांग्रेस नैतिक रूप से भले ही चुनाव जीत गई हो, लेकिन रणनीति के लिहाज़ से पार्टी की हार हुई है. भारतीय जनता पार्टी के कारनामों को देखा जाए, तो उसके लिए नैतिकता कोई मायने नहीं रखती. वह सिर्फ़ जीतना चाहती है, भले ही उसके लिए उसे तमाम क़ायदे-क़ानून ताक़ पर ही क्यों न रखने पड़ें. एक कहावत भी है कि मुहब्बत और जंग में सब जायज़ है. ये सियासी जंग है, जिसे वही जीत सकता है, जिसमें जीतने की ख़्वाहिश हो, जीतने का जज़्बा हो. और ये ख़्वाहिश और ये जज़्बा इस वक़्त भारतीय जनता पार्टी में कूट-कूट कर भरा हुआ है.
ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी मेहनत नहीं करते हैं. वे भी दिन-रात मेहनत करते हैं. मीलों पैदल चलते हैं, जनसभाएं करते हैं. ट्वीट कर प्रधानमंत्री से सवाल करते हैं. लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि चुनाव जीतने के लिए सिर्फ़ यही काफ़ी नहीं होता. इसके लिए जनता का समर्थन जुटाना होता है. जनसभाओं और रैलियों में महज़ भीड़ इकट्ठी करना ही काफ़ी नहीं है. इस भीड़ को वोटों में भी बदले जाने की ज़रूरत होती है. पिछ्ले कुछ सालों में देश के हालात काफ़ी ख़राब हुए हैं. लगातार बढ़ती महंगाई, नोटबंदी और जीएसटी ने लोगों के काम-धंधे चौपट कर दिए. एक तो पहले ही बेरोज़गारी कम नहीं थी, ऊपर से जो लोग काम में लगे थे, वे भी घर बैठ गए. सांप्रदायिक और जातिगत संघर्ष ने भी माहौल को ख़राब करने का काम किया. इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी जिन वादों के बूते सत्ता में आई थी, उसे भी उसने तिलांजली दे दी. ऐसे में कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी नहीं है. कांग्रेस को देशभर में एक जन आंदोलन चलाना चाहिए. इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के मामले में भी कांग्रेस ख़ामोशी अख़्तियार किए हुए है. कांग्रेस जिस तरह घोटालों का विरोध कर रही है, उसे इसी तरह महंगाई व अन्य मुद्दों को लेकर जनता के बीच बने रहना चाहिए.
चुनाव में बहुमत न मिले, तो सरकार बनाने के लिए गठबंधन की ज़रूरत होती है. चुनाव से पहले ही इसके लिए तैयारी कर लेनी चाहिए. सियासत में एक-एक पल बेशक़ीमती हुआ करता है, इसलिए बहुत ही चौकस रहने की ज़रूरत होती है. जब मुक़ाबला किसी भारतीय जनता पार्टी से हो, तो और भी होशियार रहने की ज़रूरत होती है. राहुल गांधी अच्छे से जानते हैं कि उनका मुक़ाबला किससे है. उन्होंने ख़ुद कहा है कि भारतीय जनता पार्टी मणिपुर और गोवा की तरह मेघालय में जनादेश को अनदेखा करते हुए ग़लत तरीक़े से सरकार बना रही है. महज़ दो सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी ने परोक्ष ढंग से मेघालय में सत्ता हथिया ली. भारतीय जनता पार्टी का यह रवैया लोगों के जनादेश के प्रति घोर असम्मान दिखाता है. भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता हथियाने की भूख और अवसरवादी गठबंधन बनाने के लिए धन का इस्तेमाल किया है.
सियासी लिहाज़ से ऐसे नाज़ुक वक़्त में राहुल गांधी अपनी नानी के घर चले गए. बेहतर होता कि वे कुछ दिन बाद इटली जाते. वे यहीं रहकर पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ, पार्टी समर्थकों के साथ होली का त्यौहार मनाते और हर सियासी उठापटक़ पर नज़र रखते. मेघालय में सही रणनीति बनाई गई होती, गठबंधन किया होता, तो पार्टी की सरकार बन सकती थी. कांग्रेस ने जीत के बाद मणिपुर और गोवा की सत्ता गंवाने के बाद भी सबक़ नहीं लिया. ऐसे वक़्त में राहुल गांधी का कार्यकर्ताओं के बीच होना बेहद ज़रूरी था, ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल कमज़ोर न पड़े.
त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय की हार सिर्फ़ राहुल गांधी की ही शिकस्त नहीं है, बल्कि यह पूरी पार्टी की हार है, ख़ासकर कांग्रेस के रणनीतिकारों की हार है. कांग्रेस के पास या यूं कहें कि राहुल गांधी को ऐसे रणनीतिकारों की बेहद ज़रूरत है, जो हालात पर पैनी नज़र रख सकें. जो जनमानस के बीच कांग्रेस को मज़बूत करने का काम कर सकें, जो भीड़ को वोटों में बदलने के फ़न में माहिर हों, जो विरोधियों की हर चाल को समझ सकें और उसे मात दे सकें. लोकसभा चुनाव को बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है. इस साल के आख़िर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने हैं. अगर कांग्रेस अब भी पूरी ताक़त झोंक दे, तो कामयाबी उसके क़दम चूम सकती है.
बेशक, राहुल गांधी एक अच्छे इंसान हैं. वे लोगों से मिलते हैं, उनके सुख-दुख में शरीक होते हैं. मंदिरों में पूजा-पाठ करते हैं, मज़ारों पर चादरें चढ़ाते हैं. वे हर काम चुनावी फ़ायदे के लिए नहीं करते. लोगों से मिलना-जुलना और उनके सुख-दुख में शामिल होना, उसके स्वभाव में शामिल है. ये कांग्रेस के लिए फ़क्र की बात है कि उन्हें एक सच्चा नेता मिला है, लेकिन सियासत में सच्चाई और अच्छाई के साथ सही रणनीति की भी ज़रूरत होती है. ये बात कांग्रेस ख़ासकर राहुल गांधी को समझनी होगी.
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