Tuesday, September 16, 2008

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल गुलशन बानो


फ़िरदौस ख़ान
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है. दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं. दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं.
ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है. करीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारखाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं. वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था. बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था. इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फैसला कर लिया. इस वाकिये को करीब छह साल बीत चुके हैं. रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है. उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं. उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी. बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है. उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है. जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया. उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक सिखाता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे. इनमें से करीब तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की. युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फसाद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं. हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं. इनकी तादाद मरने वाले लोगों से करीब 25 गुना ज्यादा होती है. हर साल करीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं.
इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुकसान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है. कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है. भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है. आजादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है.
दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं. बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए. हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही 'वही ढाक के तीन पात' रहा. आखिर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली.
सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मकसद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैं.
गौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है. हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा. इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं. इससे जहां रोजमर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फसाद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी. अहिंसक जीवन जीने के लिए यह जरूरी है कि 'सादा जीवन, उच्च विचार' की प्रवृत्ति को अपनाया जाए. अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं.

5 Comments:

admin said...

गुलशन बानो जैसी महिलाएँ हमारे लिए प्रेरणा का विषय हैं।
गुलशन बानो के बारे में लिख कर आपने इन्सानियत के जिन्दा रहने के एहसास को बढाया है। शुक्रिया इस पोस्ट के लिए।

pallavi trivedi said...

इंसानियत का कोई धर्म नहीं होता.....गुलशन बानो जैसे अगर सभी हो जाएँ तो साम्प्रदायिकता का ज़हर समाज में घुलने से बच जायेगा!

Anonymous said...

हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है। दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं। दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं।

बहुत ख़ूब कहा है आपने...अच्छा लेख है...

Smart Indian said...

बहुत खूब फिरदौस! ऐसे विशाल-ह्रदय लोगों की आज हमारे देश को बहुत ज़रूरत है!

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह इंन्सानियत की बहुत खूब मिसाल है। काश! सभी लोग ऐसे ही हो जाएँ।

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