पिछले शनिवार को दिल्ली के हिंदी भवन में हिंदी साहित्य निकेतन ने अपनी पचास वर्ष की विकास यात्रा के उपलक्ष्य में एक समारोह का आयोजन किया... इस समारोह में ब्लॉगरों को सम्मानित भी किया गया... हमें भी इस समारोह के लिए आमंत्रित किया गया... मसरूफ़ियत की वजह से इस तरह के कार्यक्रमों में जाना नहीं हो पाता... दिन-रात बस ख़बरें और सिर्फ़ ख़बरें...वक़्त का पता ही नहीं चल पाता कि कब दोपहर आई और कब शाम हो गई... और जब कभी वक़्त मिलता है तो परिवार और दोस्तों की ही याद आती है... अरसा हो जाता है अपनों से मिले हुए...यह तो भला हो संचार क्रांति का, जिसकी वजह से दुआ-सलाम हो जाया करती है...ख़ैर, शनिवार की शाम को एक मीटिंग में जाना था...सोचा-सोचा दो-दो निमंत्रण पत्र आए हुए हैं...कुछ देर के लिए हिन्दी भवन जाया जाए, वहां कुछ पत्रकार साथियों से मुलाक़ात हो गई...समारोह में क़रीब दस मिनट गुज़ारने के बाद हम बाहर आ गए...
यहां मुलाक़ात हुई लेखक लक्ष्मण राव जी से... वह हिंदी भवन के बाहर चाय बनाकर अपनी रोज़ी कमा रहे हैं... महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले के गांव तडेगांव दशासर में 22 जुलाई 1954 को जन्मे लक्ष्मण राव किसी के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत हो सकते हैं...उन्होंने दिल्ली तिमारपुर पत्राचार विद्यालय से उच्चतर माध्यमिक व दिल्ली विश्वविधालय से बीए किया. उन्होंने दसवीं कक्षा पास करके महाराष्ट्र के अमरावती में सूत मिल में काम किया... कुछ वक़्त बाद मिल बंद हो गई. इसके बाद वह गांव चले गए और वहां खेतीबाड़ी करने लगे... यहां उनका मन नहीं लगा और वह भोपाल आ गए और यहां बेलदार का काम करने लगे... यहां भी उनका मन नहीं रमा और फिर उन्होंने दिल्ली आने का फ़ैसला किया... 30 जुलाई 1975 को वह दिल्ली आ गए और दो वक़्त की रोटी के लिए मेहनत मजदूरी करने लगे... 1977 में दिल्ली के आईटीओ के विष्णु दिगम्बर मार्ग पर वह पान और बीड़ी-सिगरेट बेचने लगे. उन्हें शुरू से ही किताबों से बहुत लगाव था... वह दरियागंज में रविवार को लगने वाले पुस्तक बाज़ार में जाते और कई किताबें ले आते... जब भी उन्हें वक़्त मिलता वह किताबें पढ़ते... किताबों के इसी शौक़ ने उन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया...
उन्होंने लिखना शुरू कर दिया...उनका पहला उपन्यास ' नई दुनिया की नई कहानी' 1979 में प्रकाशित हुआ... इसके बाद वह सुर्ख़ियों में आ गए... लोगों को यक़ीन नहीं हो पा रहा था कि पान और बीड़ी-सिगरेट बेचने वाला व्यक्ति भी उपन्यास लिख सकता है... फ़रवरी 1981 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संडे रिव्यू में उनका परिचय प्रकाशित हुआ...27 मई, 1984 को तीन मूर्ति भवन में उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने का मौक़ा मिला... उन्होंने इंदिरा गांधी से उनके जीवन पर किताब लिखने की ख्वाहिश ज़ाहिर की. इस पर इंदिरा गांधी ने उन्हें अपने प्रधानमंत्रित्व काल के बारे में किताब लिखने की सलाह दी... इसके बाद लक्ष्मण राव ने प्रधानमंत्री नामक एक नाटक लिखा. 1982 में उनका उपन्यास रामदास प्रकाशित हुआ... 2001 में नर्मदा (उपन्यास) और 2006 में परंपरा से जुड़ी भारतीय राजनीति नामक किताब प्रकाशित हुई... फिर 2008 में रेणु नामक किताब का प्रकाशन हुआ...
इनके अलावा वह कई और किताबें लिख चुके हैं, जिनमें शिव अरुणा, सर्पदंश, साहिल, पत्तियों की सरसराहट, प्रात: काल, नर्मदा, दृष्टिकोण, अहंकार, समकालीन संविधान, अभिव्यक्ति, मौलिक पत्रकारिता, प्रशासन, राष्ट्रपति (नाटक ) आत्मकथा साहित्य व्यासपीठ और स्वर्गीय राजीव गांधी की जीवनी संयम आदि शामिल है...
भारतीय अनुवाद परिषद सहित क़रीब 11 संस्थाएं उन्हें सम्मानित कर चुकी हैं, जिनमें भारतीय अनुवाद परिषद, कोच लीडरशिप सेंटर, इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती, निष्काम सेवा सोसायटी, अग्निपथ, अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच, शिव रजनी कला कुंज, प्रागैतिक सहजीवन संस्थान, यशपाल जैन स्मृति, चिल्ड्रेन वैली स्कूल, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद शामिल हैं...
वह बताते हैं कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उनका नवीनतम उपन्यास " रेणु" पढ़ने के बाद उन्हें राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया था...उन्हें इस बात का मलाल है कि उन्हें प्रकाशक नहीं मिला...इसलिए वह ख़ुद ही प्रकाशक बन गए...उन्होंने भारतीय साहित्य कला प्रकाशन शुरू किया... वह यह भी कहते हैं कि प्रकाशक बन्ने के लिए बड़े तामझाम की ज़रूरत नहीं... बस मज़बूत इरादा और लगन होनी चाहिए... वह ख़ुद साइकिल से विभिन्न स्कूलों और कॉलेजों में जाकर अपनी किताबें बेचते हैं... वह अपने नियमित ग्राहकों को हर किताब पर पचास फ़ीसदी की छूट भी देते हैं...
लक्ष्मण जी ने चाय बनाई... हम चाय पी रहे थे...और यहां-वहां की बातें चल रही थीं...कुछ साथी मौजूदा व्यवस्था से परेशान थे...वे एक और बग़ावत पर ज़ोर दे रहे थे...सब अपने-अपने कामों में मसरूफ़ थे...लक्ष्मण जी भी तल्लीनता से आने वालों को चाय बना-बनाकर दे रहे थे... हिन्दी भवन के सभागार से तालियों की आवाज़ें आ रही थीं...उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक पुरस्कार बांट रहे थे... और हम सोच रहे थे कि साहित्य पर भी सियासत और सत्ता ही भारी पड़ती है... काश निशंक की जगह लक्ष्मण राव ब्लॉगरों को सम्मानित कर रहे होते तो बात ही कुछ और होती और तब हम भी हिंदी भवन के बाहर न होकर अंदर रहकर उस खुशनुमा लम्हे को जी रहे होते...
10 Comments:
बात तो एकदम ठीक कही है तुमने फिरदौस.सोचती हूँ आखिर किस काम के ये साहित्यिक पुरस्कार जिसे पाने वाला रोजी रोटी के लिए चाय बेचने पर मजबूर हो...
साहित्य हर जगह बिखरा है और यूँ ही बिखरा है।
लक्ष्मण राव से आपके जरिये मुलाकात हुई, अच्छा लगा ! वे आज भी बहुतों को समझा पाने में समर्थ हैं ...
शुभकामनायें !!
एक गरीब साहित्यकार से सम्मानित होने के लिए भीड़ कहा जुटती.
इस देश में जेनुइन बुद्धिजीवी की यही नियति है!ओह कितना दुर्भाग्यपूर्ण -वे चाय न बेचें तो फुटपाथ पर ही एक दिन दिवंगत हो जायं !
बात तो एकदम ठीक कही है| दुर्भाग्यपूर्ण
लक्ष्मण राव साहब वाकई एक मिशाल हैं!
लक्ष्मण जी को अवश्य कोई अच्छा सम्मान मिलना चाहिये..
hi..
first time i see ur blog......
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ai.mere.pyare.vatn@gmail.com
hindustani
लक्ष्मण राव जी को नमन!!!
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