डॉ. फ़िरदौस ख़ान
Thursday, December 11, 2025
उमरपुरा के सिख भाइयों ने बनवाई मस्जिद
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
अरावली पर्वत श्रृंखला का वजूद ख़तरे में
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
आज अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस है। हर साल 11 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने साल 2003 में यह दिवस घोषित किया था। इसका उद्देश्य पर्वतों के महत्व, संरक्षण और पर्वतीय समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। पर्वत पेयजल, जैव विविधता, औषधियों, भोजन और लकड़ी आदि के महत्वपूर्ण स्रोत हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक दोहन की वजह से इनका वजूद ख़तरे में पड़ गया है। इसलिए आज इन्हें संरक्षण की बेहद ज़रूरत है।
अरावली पर्वत श्रृंखलाओं का अस्तित्व ख़तरे में हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में खनन कार्य पर पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन न्यायालय द्वारा अरावली पहाड़ियों की एक नई आधिकारिक परिभाषा को मंज़ूरी दिए जाने से प्रयावरणविदों की चिन्ता बढ़ है। उनका कहना है कि अगर वक़्त रहते इनका संरक्षण नहीं किया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब अरावली पहाड़ों की जगह सिर्फ़ मरूस्थल ही नज़र आएगा। ग़ौरतलब है कि यह गुजरात के हिम्मत नगर से राजधानी दिल्ली तक 560 किलोमीटर लम्बी विश्व की सर्वाधिक पुरानी पर्वत श्रृंखला है, जिसकी चौड़ाई दस से 100 किलोमीटर तक है। सर्वाधिक ऊंचाई 1723 मीटर राजस्थान के माउंट आबू में है। पहाड़ियों में अकूत खनिज भंडार और क़ीमती पत्थरों का ख़ज़ाना है। खनन से हरियाणा और राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला को बहुत नुक़सान पहुंचा है।
क़ाबिले-ग़ौर है कि विगत 20 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पहाड़ियों की एक नई आधिकारिक परिभाषा को मंज़ूरी दी है। इसके तहत अरावली के अंदर किसी भी भू-आकृति में स्थानीय राहत से कम से कम 100 मीटर की ऊंचाई होनी चाहिए, जिसमें इसकी ढलान और आसपास के क्षेत्र शामिल हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति द्वारा प्रस्तुत उन सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया, जिनमें उत्तर-पश्चिम भारत में 692 किलोमीटर की सीमा को परिभाषित करने की नई परिभाषा को मानकीकृत करने की मांग की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय को बताया गया कि भारतीय वन सर्वेक्षण के एक आकलन के मुताबिक़ 12,081 मानचित्र की गई पहाड़ियों में से सिर्फ़ 1048 ही 8.7 मापदंड को पूरा करती हैं, यानी 100 मीटर के मापदंड को पूरा करती हैं। इन नये मानदंडों के तहत अरावली पर्वत श्रृंखला का तक़रीबन 90 फ़ीसद हिस्सा अपने क़ानूनी संरक्षण से बेदख़ल हो जाएगा।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पर्वत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अक्टूबर 2002 को हरियाणा सरकार को निर्देश जारी कर कहा था कि गुड़गांव और फ़रीदाबाद में खनन कार्य से पर्यावरण प्रदूषित होने के साथ असंतुलित भी हो रहा है, इसलिए दोनों ज़िलों में तुरंत प्रभाव से खनन कार्य बंद कराया जाए। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद प्रदेश सरकार ने कार्रवाई करते हुए एक टीम का गठन किया और खनन कार्य बंद करवा दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद खनन माफ़िया अरावली श्रृंखलाओं में सक्रिय हो गया और फिर से ब्लास्टिंग के माध्यम से खनन कार्य किया जाने लगा। अवैध खनन का मामला जब मीडिया ने उठाया तो सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को फटकार लगाते हुए फिर से खनन कार्य बंद कराने के निर्देश दिए। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद प्रदेश सरकार ने अवैध खनन रोकने के लिए बाक़ायदा एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी में पुलिस विभाग, पंचायत विभाग, राजस्व विभाग व खनन विभाग के अधिकारियों को शामिल किया गया था। यह भी सुनिश्चित किया गया था कि अवैध खनन रोकने के लिए कमेटी नियमित रूप से अपने-अपने क्षेत्रों की पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर अवैध खनन को पूरी तरह बंद कराए। अवैध खनन की शिकायतें मिलने पर वन मंडल अधिकारी सतबीर सिंह दहिया ने फ़रीदाबाद ज़िले के खेड़ी कलां गांव में छापा मारा था और स्थानीय अधिकारियों को सख़्ती से अवैध खनन पर रोक लगाने की हिदायत दी गई थी। उस वक़्त वन क्षेत्र से दूर खनन की इजाज़त लेकर वन्य इलाके की भी खुदाई की जा रही थी। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में व्यावसायिक व निर्माण गतिविधियों का तेज़ी से प्रसार का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा अरावली पहाड़ियों का भुगतना पड़ रहा है। गुड़गांव, मानेसर और फ़रीदाबाद इलाके़ में पत्थरों के लिए अंधाधुंध खनन किया गया था।
पर्यावरणविद् और वाटर मैन नाम से विख्यात हाजी इब्राहिम ख़ान का कहना है कि अरावली पर्वत के विषय में मंज़ूर किए गये नये मानदंडों की वजह से इसका वजूद ख़तरे में पड़ जाएगा। अरावली की पहाड़ियां बारिश, सूखा और बाढ़ को नियंत्रित करती हैं, लेकिन ज़्यादा ऊंची न होने की वजह से इनका अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, जिससे इसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया है। अरावली के जंगल तबाह होने से यहां रहने वाले वन्य प्राणियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। आबादी की तरफ़ आने पर ये जानवर अकसर दुर्घटना का भी शिकार होते रहते हैं। कई बार तो बस्ती के लोग वन विभाग के अधिकारियों की मदद से जानवरों को जंगल में छोड़ आते हैं। पहले यहां शेर, चीते, हिरण, भेड़िये, नील गाय, गीदड़, जंगली बिल्ले, ख़रगोश, सांप, नेवले, मोर, तीतर आदि बड़ी तादाद में थे, लेकिन अब ये लुप्त होते जा रहे हैं।
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है- “गुजरात से लेकर राजस्थान और हरियाणा तक फैली अरावली पर्वतमाला ने लम्बे समय से भारतीय भूगोल और इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकार ने अवैध खनन से पहले ही बर्बाद हो चुकी इन पहाड़ियों के लिए अब लगभग 'डेथ वारंट' पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। सरकार ने घोषणा की है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली कोई भी पहाड़ी खनन के ख़िलाफ़ कड़े प्रतिबंधों के अधीन नहीं है। यह फ़ैसला अवैध खननकर्ताओं और माफ़ियाओं के लिए खुला निमंत्रण है कि वे इस श्रृंखला के उस 90 प्रतिशत हिस्से का भी सफ़ाया कर दें, जो सरकार द्वारा निर्धारित ऊंचाई सीमा से नीचे आता है।“
अरावली पहाड़ियों की परिभाषा में बदलाव को लेकर कांग्रेस नेता और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने एक्स पर लिखा है- "यह अजीब है और इसके पर्यावरण और पब्लिक हेल्थ पर बहुत गंभीर नतीजे होंगे। इसकी तुरंत समीक्षा की ज़रूरत है।"
बहरहाल, अरावली पर्वत श्रृंखलाओं को बचाने की ज़रूरत है। साथ ही सरकारों को भी गंभीरता बरतनी होगी, ताकि इनका वजूद क़ायम रहे।
Monday, December 1, 2025
आज पहली दिसम्बर है...
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
आज पहली दिसम्बर है... दिसम्बर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री से इंतज़ार रहता है... यानी क्रिसमस के अगले दिन से ही इंतज़ार शुरू हो जाता है...
इसी महीने में अपने साल भर के कामों पर ग़ौर करने का मौक़ा भी मिल जाता है... यानी इस साल में क्या खोया और क्या पाया...? नये साल में क्या पाना चाहते हैं... और उसके लिए क्या तैयारी की है...वग़ैरह-वग़ैरह...
ग़ौरतलब है कि दिसम्बर ग्रेगोरी कैलंडर के मुताबिक़ साल का बारहवां महीना है. यह साल के उन सात महीनों में से एक है, जिनके दिनों की तादाद 31 होती है. दुनिया भर में ग्रेगोरी कैलेंडर का इस्तेमाल किया जाता है. यह जूलियन कालदर्शक का रूपातंरण है. ग्रेगोरी कालदर्शक की मूल इकाई दिन होता है. 365 दिनों का एक साल होता है, लेकिन हर चौथा साल 366 दिन का होता है, जिसे अधिवर्ष कहते हैं. सूर्य पर आधारित पंचांग हर 146,097 दिनों बाद दोहराया जाता है. इसे 400 सालों मे बांटा गया है. यह 20871 सप्ताह के बराबर होता है. इन 400 सालों में 303 साल आम साल होते हैं, जिनमें 365 दिन होते हैं, और 97 अधि वर्ष होते हैं, जिनमें 366 दिन होते हैं. इस तरह हर साल में 365 दिन, 5 घंटे, 49 मिनट और 12 सेकंड होते है. इसे पोप ग्रेगोरी ने लागू किया था.
(हमारी डायरी से)
Wednesday, November 19, 2025
इंदिरा गांधी हिम्मत और कामयाबी की दास्तां
’लौह महिला’ के नाम से मशहूर इंदिरा गांधी न सिर्फ़ भारतीय राजनीति पर छाई रहीं, बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी सूरज की तरह चमकीं. उनकी ज़िन्दगी संघर्ष, चुनौतियों और कामयाबी का एक ऐसा सफ़रनामा है, जो अदम्य साहस का इतिहास बयां करता है. अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना किया और हर मोर्चे पर कामयाबी का परचम लहराया. मामला चाहे कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी कलह का हो, अलगाववाद का हो, पाकिस्तान के साथ जंग का हो, बांग्लादेश की आज़ादी का हो, या फिर इसी तरह का कोई और बड़ा मुद्दा हो. हर मामले में उन्होंने अपनी सूझबूझ और साहस का परिचय दिया. बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स का ख़ात्मा, प्रथम पोखरण परमाणु विस्फोट, प्रथम हरित क्रांति जैसे कार्यों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुवाई और बांग्लादेश की आज़ादी भी उनके साहसिक कार्यों में शामिल है.
देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी का जन्म 19 नवंबर 1917 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था. उनका पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी था. उनके पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री थे और माता कमला नेहरू थीं. उन्होंने शुरुआती तालीम इलाहाबाद के स्कूल में ही ली. इसके बाद उन्होंने गुरु रबींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया. कहते हैं, रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ही उन्हें ’प्रियदर्शिनी’ नाम दिया था. इसके बाद वे इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं,लेकिन नाकाम हुईं. इसके बाद उन्होंने ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताए. फिर साल 1937 में इम्तिहान में कामयाब होने के बाद उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड के सोमरविल कॉलेज में दाख़िला ले लिया. उस दौरान उनकी मुलाक़ात फ़िरोज़ गांधी से हुई, जिन्हें वे इलाहाबाद से जानती थीं. फ़िरोज़ गांधी उन दिनों लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में पढ़ रहे थे. उनकी जान-पहचान मुहब्बत में बदल गई और फिर 16 मार्च 1942 को उन्होंने इलाहाबाद के आनंद भवन में फिरोज़ से विवाह कर लिया. उनके दो बेटे संजय और राजीव हुए. राजीव गांधी बाद में देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री बने.
बचपन से ही इंदिरा गांधी को सियासी माहौल मिला था, जिसका उनके किरदार और उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. साल 1941 में ऑक्सफ़ोर्ड से स्वदेश वापसी के बाद वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गईं. उन्होंने युवाओं के लिए वानर सेना बनाई. वानर सेना विरोध प्रदर्शन और झंडा जुलूस निकालने के साथ-साथ कांग्रेस नेताओं की भी ख़ूब मदद करती थी, मसलन संवेदनशील प्रकाशनों और प्रतिबंधित सामग्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने का काम करती थी. आज़ादी की लड़ाई में इसके काम को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. 1930 की दहाई के शुरू का वाक़िया है, जब इंदिरा गांधी ने पुलिस की निगरानी में रह रहे अपने पिता के घर से एक अहम दस्तावेज़ को अपनी किताबों के बस्ते में छुपाकर गंतव्य तक पहुंचाया था. इस दहाई के आख़िर में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लंदन में आज़ादी के समर्थक दल भारतीय लीग की सदस्य बनीं और विदेश में रहकर भी स्वदेश के लिए काम करती रहीं. सितम्बर 1942 में उन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया. आख़िर तक़रीबन 243 दिन जेल में गुज़ारने के बाद उन्हें 13 मई 1943 को रिहा किया गया. साल 1947 के देश के बंटवारे के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित किया और पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों के लिए भोजन और चिकित्सा का इंतज़ाम किया. उनके इस कार्य को ख़ूब सराहा गया और इससे उन्हें एक नई पहचान मिली.
1950 की दहाई में इंदिरा गांधी अपने पिता यानी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी सहायक के तौर पर काम कर रही थीं. साल 1959 वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. पार्टी के लिए उन्होंने सराहनीय काम किया. 27 मई, 1964 को उनके पिता का देहांत हो गया. इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं और प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं. साल 1965 की भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान वे सेना की हौसला अफ़ज़ाई के लिए श्रीनगर सीमा के इलाक़े में गईं. सेना की चेतावनी के बावजूद उन्होंने दिल्ली आना मंज़ूर नहीं किया और सेना का मनोबल बढ़ाती रहीं. उस दौरान लालबहादुर शास्त्री ताशक़ंद गए हुए थे, जहां सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब ख़ान के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त करने के कुछ घंटों बाद ही उनका निधन हो गया.
इसके बाद 19 जनवरी, 1966 को इंदिरा गांधी देश की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं. उस वक़्त कांग्रेस दो गुटों में बंट चुकी थी. समाजवादी ख़ेमा इंदिरा गांधी के साथ खड़ा था, जबकि दूसरा रूढ़िवादी गुट मोरारजी देसाई का समर्थक था. मोरारजी देसाई इंदिरा गांधी को ’गूंगी गुड़िया’ कहा करते थे, क्योंकि वे बहुत कम बोलती थीं. साल 1967 के चुनाव में 545 सीटों वाली लोकसभा में कांग्रेस को 297 सीटें मिलीं. उन्हें प्रधानमंत्री चुन लिया गया और वे 24 मार्च, 1977 अपने पद पर बनी रहीं. क़ाबिले-ग़ौर है कि वे 1967 में प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने के बाद आख़िर तक प्रधानमंत्री बनी रहीं, लेकिन 1977 से 1980 के बीच उन्हें हुकूमत से बेदख़ल रहना पड़ा. उन्होंने मोरारजी देसाई को देश का उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री बनाया. साल 1969 में मोरारजी देसाई के साथ अनेक मुद्दों पर मतभेद हुए और आख़िरकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बंट गई. उन्होंने समाजवादी और साम्यवादी दलों के समर्थन से हुकूमत की. इसके कुछ वक़्त बाद फिर से देश को जंग का सामना करना पड़ा. साल 1971 में जंग के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी. नतीजतन, जंग में भारत ने शानदार जीत हासिल की. इस दौरान बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ादी मिली. दरअसल, बांग्लादेश को आज़ाद कराने में इंदिरा गांधी ने बेहद अहम किरदार निभाया था. कहते हैं कि इस जीत के बाद जब संसद सत्र शुरू हुआ, तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने भाषण मे इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था.
इंदिरा गांधी ने 26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लागू किया. इसकी वजह से उनकी पार्टी 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार गई. उन्हें अक्टूबर 1977 और दिसम्बर 1978 में जेल तक जाना पड़ा. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और जद्दोजहद करती रहीं. फिर 1980 में उन्होंने हुकूमत में वापसी की. कांग्रेस को शानदार कामयाबी मिली और 22 राज्यों में से 15 राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी. 14 जनवरी, 1980 को वे फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं और अपनी ज़िन्दगी के आख़िर तक हुकूमत की. उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था. उन्होंने पंजाब में अलगाववादियों के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू कर दी. इसकी वजह से अलगाववादी उनकी जान के दुश्मन बन गए और 31 अक्टूबर, 1984 को दिल्ली में उनके अंगरक्षकों ने ही उनका क़त्ल कर दिया. उनकी आकस्मिक मौत से देश शोक में डूब गया.
श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से श्रीमती इंदिरा गांधी की तुलना करते हुए कहा था कि अपने पिता के विपरीत श्रीमती इंदिरा गांधी संसद से दूर-दूर रहती थीं. आरंभ में तो वह इतनी चुप रहती थीं कि उन्हें ’गूंगी गुड़िया’ तक कह दिया गया था, किंतु यह उनके साथ अन्याय था. वह कम बोलने में विश्वास करती थीं. सबकी बातें सुनने के बाद अपना मत स्थिर करती थीं और सबसे अंत में प्रकट करती थीं. वह सदन में आकर समय गंवाने की बजाय अपने कमरे में बैठकर सत्ता की चाबियां घुमाती थीं. उन्होंने चौदह वर्ष तक शासन कर विश्व को चमत्कृत कर दिया और विरोधियों को कई बार पछाड़ा. इंदिरा जी के साथ संसद में कई बार काफी नोक-झोंक होती रहती थी, किंतु राजनीति के मतभेदों को उन्होंने व्यक्तिगत संबंधों में बाधक नहीं बनने दिया. उनकी निर्मम त्रासद और क्रूर हत्या ने एक ऐसे व्यक्तित्व को हमारे बीच से उठा लिया, जिन्हें योग्य पिता की योग्य पुत्री के नाते ही नहीं, अपनी निजी योग्यता, कुशलता, निर्णय क्षमता तथा कठोरता के कारण याद किया जाएगा.
दरअसल, सियासत की इस महान और कामयाब शख़्सियत को अपनी निजी ज़िन्दगी में कई ग़म मिले थे. साल 1936 में उनकी मां कमला नेहरू तपेदिक से एक लम्बे अरसे तक जूझने के बाद उन्हें अकेला छोड़ गईं. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 18 साल थी. फिर शादीशुदा ज़िन्दगी में भी उन्हें दुख मिले.शादी के बाद उनकी शुरुआती ज़िन्दगी ठीक रही, लेकिन बाद में वे अपने पिता के घर आ नई दिल्ली आ गईं. देश के पहले आम चुनाव 1951 में वे अपने पिता और पति दोनों के लिए चुनाव प्रचार कर रही थीं. चुनाव जीतने के बाद फ़िरोज़ गांधी ने अपने लिए अलग घर चुना. फिर साल 1958 में उप-निर्वाचन के कुछ वक़्त बाद फिरोज़ गांधी को दिल का दौरा पड़ा. इस दौरान इंदिरा गांधी ने उनकी ख़ूब ख़िदमत की. उनके रिश्ते बेहतर होने लगे, लेकिन 8 सितम्बर1960 को जब इंदिरा गांधे अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गई थीं, तब फिरोज़ की मौत हो गई. उन्होंने ख़ुद को पार्टी और देश के काम में मसरूफ़ कर लिया. उन्होंने संजय गांधी को अपना सियासी वारिस चुना, लेकिन 23 जून, 1980 को एक उड़ान हादसे में उनकी मौत हो गई. इसके बाद वे अपने छोटे बेटे राजीव गांधी को सियासत में लेकर आईं. राजीव गांधी पायलट की नौकरी में ख़ुश थे और सियासत में आना नहीं चाहते थे, लेकिन मां को वे इंकार न कर सके और न चाहते हुए भी उन्हें सियासत में क़दम रखना पड़ा.
इंदिरा गांधी ख़ाली वक़्त में अपने परिजनों के लिए स्वेटर बुना करती थीं. उन्हें संगीत और किताबों से भी ख़ास लगाव था. पाकिस्तानी गायक मेहंदी हसन की ग़ज़लें भी अकसर सुनती थीं. सोने से पहले वे आध्यात्मिक किताबें पढ़ती थीं. भारत रत्न से सम्मानित इंदिरा गांधी ने कहा था- जीवन का महत्व तभी है, जब वह किसी महान ध्येय के लिए समर्पित हो. यह समर्पण ज्ञान और न्याययुक्त हो. शहादत कुछ ख़त्म नहीं करती, वो महज़ शुरुआत है. अगर मैं एक हिंसक मौत मरती हूं, जैसा कि कुछ लोग डर रहे हैं और कुछ षड़यंत्र कर रहे हैं, तो मुझे पता है कि हिंसा हत्यारों के विचार और कर्म में होगी, मेरे मरने में नहीं. लोग अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं, लेकिन अधिकारों को याद रखते हैं. अपने आप को खोजने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि आप अपने आप को दूसरों की सेवा में खो दें. संतोष प्राप्ति में नहीं, बल्कि प्रयास में होता है पूरा प्रयास पूर्ण विजय है. प्रश्न करने का अधिकार मानव प्रगति का आधार है. देशों के बीच के शांति, व्यक्तियों के बीच प्यार की ठोस बुनियाद पर टिकी होती है
उन्होंने यह भी कहा था, जब मैं सूर्यास्त पर आश्चर्य या चांद की ख़ूबसूरती की प्रशंसा कर रही होती हूं, उस समय मेरी आत्मा इन्हें बनाने वाले की पूजा कर रही होती है.
Monday, November 3, 2025
सुनने की फ़ुर्सत हो, तो आवाज़ है पत्थरों में...
ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की, उनकी मुहब्बत की.
गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने अपनी महबूबा के रहने के लिए किया था. शायद यह किसी भी महबूब का अपनी महबूबा को परिस्तान में बसाने का ख़्वाब ही हो सकता था और जब गूजरी महल की तामीर की गई होगी. तब इसकी बनावट, इसकी नक्क़ाशी और इसकी ख़ूबसूरती को देखकर ख़ुद भी इस पर मोहित हुए बिना न रह सका होगा.
हरियाणा के हिसार क़िले में स्थित गूजरी महल आज भी सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की अमर प्रेमकथा की गवाही दे रहा है. गूजरी महल भले ही आगरा के ताजमहल जैसी भव्य इमारत न हो, लेकिन दोनों की पृष्ठभूमि प्रेम पर आधारित है. ताजमहल मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी पत्नी मुमताज़ की याद में 1631 में बनवाना शुरू किया था, जो 22 साल बाद बनकर तैयार हो सका. हिसार का गूजरी महल 1354 में फ़िरोज़शाह तुग़लक ने अपनी प्रेमिका गूजरी के प्रेम में बनवाना शुरू किया, जो महज़ दो साल में बनकर तैयार हो गया. गूजरी महल में काला पत्थर इस्तेमाल किया गया है, जबकि ताजमहल बेशक़ीमती सफ़ेद संगमरमर से बनाया गया है. इन दोनों ऐतिहासिक इमारतों में एक और बड़ी असमानता यह है कि ताजमहल शाहजहां ने मुमताज़ की याद में बनवाया था. ताज एक मक़बरा है, जबकि गूजरी महल फ़िरोज़शाह तुग़लक ने गूजरी के रहने के लिए बनवाया था, जो महल ही है.
गूजरी महल की स्थापना के लिए बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक ने क़िला बनवाया. यमुना नदी से हिसार तक नहर लाया और एक नगर बसाया. क़िले में आज भी दीवान-ए-आम, बारादरी और गूजरी महल मौजूद हैं. दीवान-ए-आम के पूर्वी हिस्से में स्थित कोठी फ़िरोज़शाह तुग़लक का महल बताई जाती है. इस इमारत का निचला हिस्सा अब भी महल-सा दिखता है. फ़िरोज़शाह तुग़लक के महल की बंगल में लाट की मस्जिद है. अस्सी फ़ीट लंबे और 29 फ़ीट चौड़े इस दीवान-ए-आम में सुल्तान कचहरी लगाता था. गूजरी महल के खंडहर इस बात की निशानदेही करते हैं कि कभी यह विशाल और भव्य इमारत रही होगी.
सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक और गूजरी की प्रेमगाथा बड़ी रोचक है. हिसार जनपद के ग्रामीण इस प्रेमकथा को इकतारे पर सुनते नहीं थकते. यह प्रेम कहानी लोकगीतों में मुखरित हुई है. फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सम्राट बनने से पहले शहज़ादा फ़िरोज़ मलिक के नाम से जाने जाते थे. शहज़ादा अकसर हिसार इलाक़े के जंगल में शिकार खेलने आते थे. उस वक्त यहां गूजर जाति के लोग रहते थे. दुधारू पशु पालन ही उनका मुख्य व्यवसाय था. उस काल में हिसार क्षेत्र की भूमि रेतीली और ऊबड़-खाबड़ थी. चारों तरफ़ घना जंगल था. गूजरों की कच्ची बस्ती के समीप पीर का डेरा था. आने-जाने वाले यात्री और भूले-भटके मुसाफ़िरों की यह शरणस्थली थी. इस डेरे पर एक गूजरी दूध देने आती थी. डेरे के कुएं से ही आबादी के लोग पानी लेते थे. डेरा इस आबादी का सांस्कृतिक केंद्र था.
एक दिन शहज़ादा फ़िरोज़ शिकार खेलते-खेलते अपने घोड़े के साथ यहां आ पहुंचा. उसने गूजर कन्या को डेरे से बाहर निकलते देखा तो उस पर मोहित हो गया. गूजर कन्या भी शहज़ादा फ़िरोज़ से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. अब तो फ़िरोज़ का शिकार के बहाने डेरे पर आना एक सिलसिला बन गया. फिरोज़ ने गूजरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस गूजर कन्या ने विवाह की मंजरी तो दे दी, लेकिन दिल्ली जाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि वह अपने बूढ़े माता-पिता को छोड़कर नहीं जा सकती. फ़िरोज़ ने गूजरी को यह कहकर मना लिया कि वह उसे दिल्ली नहीं ले जाएगा.
1309 में दयालपुल में जन्मा फ़िरोज़ 23 मार्च 1351 को दिल्ली का सम्राट बना. फ़िरोज़ की मां हिन्दू थी और पिता तुर्क मुसलमान था. सुल्तान फ़िरोज़शाह तुग़लक ने इस देश पर साढ़े 37 साल शासन किया. उसने लगभग पूरे उत्तर भारत में कलात्मक भवनों, किलों, शहरों और नहरों का जाल बिछाने में ख्याति हासिल की. उसने लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी काम किए. उसके दरबार में साहित्यकार, कलाकार और विद्वान सम्मान पाते थे.
दिल्ली का सम्राट बनते ही फ़िरोज़शाह तुग़लक ने महल हिसार इलांके में महल बनवाने की योजना बनाई. महल क़िले में होना चाहिए, जहां सुविधा के सब सामान मौजूद हों. यह सोचकर उसने क़िला बनवाने का फ़ैसला किया. बादशाह ने ख़ुद ही करनाल में यमुना नदी से हिसार के क़िले तक नहरी मार्ग की घोड़े पर चढ़कर निशानदेही की थी. दूसरी नहर सतलुज नदी से हिमालय की उपत्यका से क़िले में लाई गई थी. तब जाकर कहीं अमीर उमराओं ने हिसार में बसना शुरू किया था.
किवदंती है कि गूजरी दिल्ली आई थी, लेकिन कुछ दिनों बाद अपने घर लौट आई. दिल्ली के कोटला फिरोज़शाह में गाईड एक भूल-भूलैया के पास गूजरी रानी के ठिकाने का भी ज़िक्र करते हैं. तभी हिसार के गूजरी महल में अद्भुत भूल-भूलैया आज भी देखी जा सकती है.
क़ाबिले-गौर है कि हिसार को फ़िरोज़शाह तुग़लक के वक्त से हिसार कहा जाने लगा, क्योंकि उसने यहां हिसार-ए-फिरोज़ा नामक क़िला बनवाया था. 'हिसार' फ़ारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'क़िला'. इससे पहले इस जगह को 'इसुयार' कहा जाता था. अब गूजरी महल खंडहर हो चुका है. इसके बारे में अब शायद यही कहा जा सकता है-
सुनने की फ़ुर्सत हो तो आवाज़ है पत्थरों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियां बोलती हैं...
Friday, October 10, 2025
डॉ. फ़िरदौस ख़ान
Thursday, August 14, 2025
संग्रहणीय पुस्तक है नवगीत कोश
सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार डॉ. रामनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ द्वारा लिखित ‘नवगीत कोश’ पढ़ने का मौक़ा मिला। इसे पढ़कर लगा कि अगर इसे पढ़ा नहीं होता, तो कितना कुछ जानने और समझने से रह जाता। कितना कुछ ऐसा छूट जाता, जिसका मलाल रहता। किताबों की भीड़ में बहुत-सी किताबें ऐसी होती हैं, जो सबसे अलग नज़र आती हैं। ये वो किताबें होती हैं, जिनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है, जो किसी शिक्षक की तरह हमें किसी विषय विशेष की विस्तृत जानकारी मुहैया करवाती हैं। ऐसी किताबें संग्रहणीय होती हैं, जो वर्तमान ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ज्ञान की थाती होती हैं। यह भी एक ऐसी ही किताब है।
इस ‘नवगीत कोश’ को आगरा के निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने प्रकाशित किया है। इसमें पाँच खंड हैं। प्रथम खंड में प्रस्तावना है, जिसमें गीत, नवगीत की प्रामाणिक भूमिका, इतिहास, संवेदना संसार और शिल्प पर प्रामाणिक चर्चा है। द्वितीय खंड में 700 एकल और 100 समवेत नवगीत संग्रहों का परिचय है। तृतीय खंड में 297 नवगीतकारों का संक्षिप्त परिचय है। इसमें पाँच प्रवासी भी हैं। चतुर्थ खंड में नवगीत के समीक्षा सम्बन्धी 103 प्रकाशित ग्रंथों, 73 अप्रकाशित शोध ग्रंथों और 58 पत्रिकाओं का परिचय है। पंचम खंड में 29 नवगीतकारों और समीक्षकों का साक्षात्कार है, जिनमें स्वयं डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ सहित अनूप अशेष, डॉ. आलमगीर अली, डॉ. इन्दीवर, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, गणेश गम्भीर, जगदीश ‘पंकज’, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, नचिकेता, पारसनाथ गोवर्धन, डॉ. पार्वती जे. गोसाईं, पूर्णिमा वर्मन, भारतेन्दु मिश्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव, महेश उपाध्याय, डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा, रमेश गौतम, राधेश्याम बन्धु, विनोद निगम, वीरेन्द्र आस्तिक, वेद प्रकाश शर्मा ‘अमिताभ’, डॉ. वेद प्रकाश शर्मा ‘वेद’, डॉ. श्रीराम परिहार, संजीव वर्मा ‘सलिल’, सोम ठाकुर, हरिशंकर सक्सेना, हरीश निगम और हृदयेश्वर शामिल हैं। साक्षात्कार में ऐसे सवाल पूछे गए हैं, जो साहित्य प्रेमियों की जिज्ञासा को तृप्त करते हैं। सभी नवगीतकारों ने अपने-अपने अंदाज़ में जवाब दिए हैं। इनसे बहुत कुछ जानने, समझने और सीखने को मिलता है।
इस ‘नवगीत’ को तैयार करने में डॉ. यायावर ने अपनी ज़िन्दगी के तीन अनमोल साल ख़र्च किए हैं। इसमें उनकी मेहनत, उनकी लगन और उनका समर्पण सबकुछ ही तो झलकता है। उन्होंने गीत के शब्दार्थ, मीमांसा और परिभाषा का बहुत ही सहजता से वर्णन किया है। जो व्यक्ति साहित्य से सम्बन्ध नहीं रखता या जिसे नवगीत के विषय में बुनियादी जानकारी भी नहीं है, वह भी इसे पढ़कर नवगीत के विषय में जान जाएगा कि नवगीत क्या है।
उनकी भाषा शैली और उनके शब्दों का चयन इतना सुन्दर है कि वह पाठक को ऐसे बहा ले जाता है, जैसे नदी किसी नाव को अपनी अविरल धारा के साथ बहा ले जाती है। पाठक बस उसमें बहता चला जाता है। कहीं रुकने का उसका मन ही नहीं करता। पढ़ते-पढ़ते कब किताब मुकम्मल हो गई, पता ही नहीं चलता। बानगी देखें- गीत हृदय की वर्णमयी झंकार या दूसरे शब्दों में यह हृदय-हिमालय से फूट पड़ने वाली वह अविरल स्रोतास्विनी है, जो भावाच्छ्वास के ताप से पिघलकर अनायास फूट पड़ती है। यह काव्य की आदि विधा है। सृष्टि के जन्म के साथ ही गीत जन्मा, क्योंकि सृष्टा ने प्रकृति के कण-कण में गीत की अस्मिता भर दी है। ऋतुओं का क्रमिक परिवर्तन, सूर्य का निश्चित समय पर उदयास्त, पवन का गतिमय संचालन, कल-कल बढ़ती सरिताओं का गतिमय गायन, झरनों का उद्वेगमय निपतन, दिवा रात्रि का क्रमश: आवागमन, पृथ्वी द्वारा सूर्य का और चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का लययुक्त परिभ्रमण, तरु शिखरों पर पक्षियों का संगीतमय कलरव, कोमल किसलयों की मर्मर ध्वनि, कभी क्रुद्ध प्रकृति द्वारा निर्देशित विध्वंस रचती झंझाओं का भैरव नर्तन, मधुऋतु में पुष्पों की मधुर मुस्कान, उपवन के भ्रमरों की लयबद्ध गुनगुनाहट, पावस की अँधेरी रात में झींगुरों की झंकार, मयूर की केका ध्वनि के साथ किया गया मोहक नृत्य, वर्षा के बादलों की घुमड़न और बरसी बूँदों का शीतल स्पर्श, शिशिर में ओस की बूँदों का मुक्ताभासी सौन्दर्य, पतझड़ में पियराते पत्तों का गिरना, कृषक बाला का अकृत्रिम गायन, शरद पूर्णिमा में चन्द्रमा की निष्कलुष स्वच्छ चाँदनी का अछोर विस्तार और श्रम से सँवरती-बिखरती ज़िन्दगी का स्वेद आदि सबमें एक गीत है। प्रकृति में और जीवन में जहाँ भी लय है, संगीत है गुनगुनाहट है, झंकार है, वहाँ-वहाँ गीत उपस्थित है। गीत अनुभूति और संगीत की लाड़ली सन्तान है। सत्य, शिव और सौन्दर्य का लयबद्ध संयोजन है, जीवन-राग का स्वरबद्ध गायन है। सम्भवत: एक गीत में कहा गया है-
धरती, अम्बर, फूल पाँखुरी
आँसू, पीड़ा, दर्द, बाँसुरी
मौल, ऋतुगंधा, केसर
सबके भीतर एक गीत है
पीपल, बरगद, चीड़ों के वन
सूरज, चन्दा, ऋतु परिवर्तन
फुनगी पर इतराती चिड़िया
दूब भरे कोमल तुषार कन
जलता जेठ भीगता सावन
सबके भीतर एक गीत है
रात अकेली चन्दा प्रहरी
अरुणोदय की किरण अकेली
फैली दूर तलक हरियाली
उमड़ी हुई घटायें गहरी
मुखर फूल शरमाती कलियाँ
मादक ऋतुपति, सूखा पतझर
सबके भीतर एक गीत है
पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला प्रथम गीतकार माने जाते हैं। डॉ. यायावर उनकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। नवगीत लेखन के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वे नवगीतकारों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका मानना है कि नवगीत का भविष्य उज्ज्वल है। नयी, युवा पीढ़ी अपनी ताज़गी भरी रचनाधर्मी ऊर्जा के साथ उससे जुड़ रही है। अब वह अन्तर्जाल के द्वारा भारत के बाहर भी लोकप्रिय हो रहा है। इसलिए जब तक मानव है, उसमें संवेदयें हैं, जीवन में जटिलतायें हैं और मानव में अभिव्यक्ति की ललक है, तब तक नवगीत रहेगा। सम्भव है आने वाला कल किसी और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव करे, तो वह होगा, परन्तु गीत रहेगा। वह मानव का कालजयी सहचर है।
डॉ. यायावर को काव्य की यह पुण्य विधा अपने पिता स्वर्गीय पंडित रामप्रसाद शर्मा से विरासत में मिली है। वे स्वतंत्रता सेनानी और लोकगायक थे। पहले वे भजन और फिर लोक महाकाव्य ढोला के द्वारा जन-जागरण करते रहे। इसलिइ उन्हें बचपन से ही संगीत और लोकसंस्कृति को क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। उन्होंने सातवीं कक्षा में ही पहला बालगीत लिख लिया था।
बहरहाल, डॉ. यायावर की यह पुस्तक साहित्य के छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। पुस्तक का आवरण भी आकर्षक है। किताब का मूल्य भी वाजिब है। डॉ. यायावर ने पाठकों की सुविधा के लिए इसका मूल्य कम रखवाया है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पाठक इसे ख़रीद सकें।
पुस्तक का नाम : नवगीत कोश
लेखक : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा
प्रकाशक : निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, आगरा
पृष्ठ : 640
मूल्य : 500 रुपये
Saturday, May 31, 2025
हमारा जन्मदिन
कल यानी 1 जून को हमारा जन्मदिन है. अम्मी बहुत याद आती हैं. वे सबसे पहले हमें मुबारकबाद दिया करती थीं. वे बहुत सी दुआएं देती थीं. उनकी दुआएं हमारे लिए किसी घने दरख़्त के साये की मानिन्द हैं.
अम्मी के बाद भाइयों और बहन की जानिब से मुबारकबाद मिला करती थी. पापा तो हमें बहुत पहले ही छोड़कर इस दुनिया से चले गए थे. फिर अम्मी भी चली गईं. अब तो सिर्फ़ उनकी यादें ही बाक़ी हैं. हमने अम्मी और पापा के दिये तोहफ़े बहुत संभाल कर रखे हैं. अम्मी-पापा की एक-एक चीज़ हमने बहुत ही संजोकर रखी है. हर चीज़ से उनकी यादें वाबस्ता हैं.
छोटे भाई और बहन अब पापा और अम्मी की तरह ख़्याल रखते हैं. उनका कहना है कि छोटे भाई भी अपनी बहनों के लिए वालिद की तरह मुहब्बत और शफ़कत वाले होते हैं. हमारी परी यानी भतीजी भी हमसे बहुत प्यार करती है. अल्लाह इन सबको हमेशा ख़ुश और सलामत रखे. यही तो हमारी दुनिया है.
-फ़िरदौस ख़ान
Saturday, May 24, 2025
देश सेवा...
नागरिक सुरक्षा विभाग में बतौर पोस्ट वार्डन काम करने का सौभाग्य मिला... वो भी क्या दिन थे...
जय हिन्द
बक़ौल कंवल डिबाइवी
रश्क-ए-फ़िरदौस है तेरा रंगीं चमन
तुझ पे गुल-बाश करते हैं कोह-ओ-दमन
तेरे माथे की रेखा हैं गंग-ओ-जमन
तेरी मिट्टी में ख़्वाबीदा हैं फ़िक्र-ओ-फ़न
फ़ख़्र-ए-यूनान थी तेरी बज़्म-ए-कुहन
मेरे हिन्दुस्तान मेरे प्यारे वतन
Tuesday, April 1, 2025
फ़िरदौस ख़ान : लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी
फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से जाना जाता है. वे शायरा, लेखिका और पत्रकार हैं. वे एक आलिमा भी हैं. वे रूहानियत में यक़ीन रखती हैं और सूफ़ी सिलसिले से जुड़ी हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है. ये उनकी ज़िन्दगी का शाहकार है, जो इंशा अल्लाह रहती दुनिया तक तमाम आलमों के लोगों को अल्लाह के पैग़ाम से रूबरू कराता रहेगा. वे कहती हैं कि हमारी अम्मी बहुत नेक और इबादतगुज़ार ख़ातून थीं. हमने बचपन से ही उन्हें इबादत करते हुए पाया. वे आधी रात में तहज्जुद की नमाज़ के लिए उठ जाया करती थीं और अल सुबह फ़ज्र तक इबादत में मशग़ूल रहती थीं. उन्हें देखकर हमारी भी दिलचस्पी इबादत में हो गई. साथ ही बहुत कम उम्र से हमें रूहानी इल्म हासिल करने की चाह भी पैदा हो गई.
वे कहती हैं कि फ़हम अल क़ुरआन लिखते वक़्त पापा बहुत याद आते थे. बचपन में पापा क़ुरआन करीम के बारे में हमें बताया करते थे. वे कहा करते थे कि क़ुरआन एक मुकम्मल पाक किताब है. ये हिदायत भी है और शिफ़ा भी है. वे कहती हैं कि क़ुरआन पाक सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं है, बल्कि ये सबके लिए है, तमाम आलमों के लिए है. हर किसी को अपनी ज़िन्दगी में कम से कम एक बार क़ुरआन पाक ज़रूर पढ़ना चाहिए. अगरचे आप किसी भी मज़हब को मानने वाले हैं और कोई भी ज़बान बोलते हैं, फिर भी आपको अपनी ज़बान में क़ुरआन पाक ज़रूर पढ़ना चाहिए यानी क़ुरआन का तर्जुमा पढ़ना चाहिए, क्योंकि नसीहत हासिल करने वालों के लिए इसमें सबकुछ है.
वे कहती हैं कि फ़हम अल क़ुरआन लिखते वक़्त हमें इस बात का भी अहसास हुआ कि हमने अपनी ज़िन्दगी फ़ानी चीज़ों के लिए ज़ाया नहीं की. दरअसल हमारी ज़िन्दगी का मक़सद अल्लाह की रज़ा हासिल करना है. हमारा काम इसी मंज़िल तक पहुंचने का रास्ता है, इसी क़वायद का एक हिस्सा है. कायनात की फ़ानी चीज़ों में हमें न पहले कभी दिलचस्पी थी और न आज है और इंशा अल्लाह न कभी होगी.
वे अपनी अम्मी मरहूमा ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी ख़ान को अपना पहला मुर्शिद और अपने अब्बू मरहूम सत्तार अहमद ख़ान को अपना दूसरा मुर्शिद मानती हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन अपने वालिदैन को समर्पित किया है.
उन्होंने सूफ़ी-संतों की ज़िन्दगी और उनके दर्शन पर आधारित एक किताब 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' लिखी है, जिसे साल 2009 में प्रभात प्रकाशन समूह के ‘ज्ञान गंगा’ ने प्रकाशित किया था. यह किताब आज तक चर्चा में बनी हुई है. सूफ़ी-संतों के जीवन दर्शन पर पीएचडी करने वाले शोधार्थी इस किताब को ख़ूब पसंद करते हैं. वे इससे प्रेरणा और मार्गदर्शन हासिल कर रहे हैं.
उन्होंने बचपन में ही लिखना शुरू कर दिया था. उनकी अम्मी तालीमयाफ़्ता ख़ातून थीं. उन्हें पढ़ने का बहुत शौक़ था. वे उम्दा शायरा थीं. फ़िरदौस पर भी घर के माहौल का गहरा असर पड़ा. उन्होंने अपनी पहली नज़्म उस वक़्त लिखी थी, जब वे छठी जमात में पढ़ती थीं. उन्होंने नज़्म अपनी अम्मी और अब्बू को सुनाई. उनके अब्बू को नज़्म बहुत पसंद आई और उन्होंने उसे एक सांध्यकालीन अख़बार में शाया होने के लिए दे दिया और वह नज़्म शाया भी हो गई. नज़्म ख़ूब सराही गई. इस तरह उनके लिखने और छपने का सिलसिला शुरू हुआ, जो अब तक मुसलसल जारी है. सांध्यकालीन अख़बार से शुरू हुआ यह सिलसिला देश-विदेश के अख़बारों और पत्रिकाओं तक पहुंच गया.
यह फ़िरदौस ख़ान के लेखन की ख़ासियत है कि वे जितनी शिद्दत से ज़िन्दगी की दुश्वारियों को पेश करती हैं, उतनी ही नफ़ासत के साथ मुहब्बत के रेशमी व मख़मली अहसास को अपनी शायरी में इस तरह बयां करती हैं कि पढ़ने वाला उसी में डूबकर रह जाता है. उनकी शायरी दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. उनका एक-एक लफ़्ज़ रूह पर नक़्श हो जाता है. फ़िरदौस ख़ान को जो फ़न मिला है, वह बहुत कम शायरों को नसीब होता है कि उनकी शायरी सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाती है, रूह में समा जाती है.
जो ज़िन्दगी की पथरीली राहों पर चलकर दुख-तकलीफ़ों की वजह से बेज़ार हो चुका हो, उसे फ़िरदौस ख़ान का कलाम ज़रूर पढ़ना चाहिए, वह कलाम जो गर्मियों की झुलसा देने वाली तपिश में पीपल की घनी और ठंडी छांव जैसा है, जो प्यासी धरती पर पड़ी सावन की रिमझिम फुहारों जैसा है, जो कंपकंपा देने वाली ठंड में जाड़ो की नरम गुनगुनी धूप जैसा है.
फ़िरदौस ख़ान अपनी अम्मी के बाद हज़रत राबिया बसरी को अपना आदर्श मानती हैं. उनकी शायरी में रूहानियत है, पाकीज़गी है. वे कहती हैं-
ज़िन्दगी में जीने का बस यही सहारा है
बन्दगी तुम्हारी है, ज़िक्र भी तुम्हारा है
घर में अर्शे-आज़म से, रहमतें उतर आईं
सरवरे-दो आलम को, मैंने जब पुकारा है
वे मुहब्बत को इबादत का दर्जा देती हैं. वे कहती हैं कि कुछ रिश्ते आसमानों के लिए ही हुआ करते हैं. उनका अहसास रूह में और वजूद आसमानों में होता है. अपने महबूब से मुख़ातिब होते हुए वे कहती हैं-
मेरे महबूब !
तुम्हारा चेहरा
मेरा क़ुरआन है
जिसे मैं
अज़ल से अबद तक
पढ़ते रहना चाहती हूं…
मेरे महबूब !
तुम्हारा ज़िक्र
मेरी नमाज़ है
जिसे मैं
रोज़े-हश्र तक
अदा करते रहना चाहती हूं…
मेरे महबूब !
तुम्हारा हर लफ़्ज़
मेरे लिए
कलामे-इलाही की मानिन्द है
तुम्हारी हर बात पर
लब्बैक कहना चाहती हूं...
मेरे महबूब !
तुम्हारी परस्तिश ही
मेरी रूह की तस्कीन है
तुम्हारे इश्क़ में
फ़ना हो जाना चाहती हूं…
वे कहती हैं कि हिज्र भी हर किसी के नसीब में नहीं हुआ करता. सच, बड़े क़िस्मत वाले होते हैं वे लोग, जिनके नसीब में हिज्र की नेअमत आती है. वे कहती हैं-
जान !
मैं नहीं जानती
मेरी क़िस्मत में
तुम्हारा साथ लिखा
भी है या नहीं...
मैं सिर्फ़ ये जानती हूं
कि मैं जहां भी रहूं
जिस हाल में भी रहूं
ये दुनिया हो
या वो दुनिया
तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे...
फ़िरदौस ख़ान की नज़्में पढ़ने वाले को चांद के उस पार चैन व सुकून के आलम में ले जाने की सलाहियत रखती हैं. नज़्म देखिए-
जब कभी
ख़ामोश रात की तन्हाई में
सर्द हवा का इक झोंका
मुहब्बत के किसी अनजान मौसम का
कोई गीत गाता है तो
मैं अपने माज़ी के
वर्क पलटती हूं
तह-दर-तह
यादों के जज़ीरे पर
जून की किसी गरम दोपहर की तरह
मुझे अब भी
तुम्हारे लम्स की गर्मी वहां महसूस होती है
और लगता है
तुम मेरे क़रीब हो...
फ़िरदौस ख़ान की नज़्मों की मानिन्द उनकी ग़ज़लें भी बेमिसाल हैं. उनकी ग़ज़लें मुहब्बत के अहसास से सराबोर हैं, इश्क़ से लबरेज़ हैं. उनकी ग़ज़लें पढ़ने वालों को एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं, जहां से वे लौटना ही नहीं चाहते. आलम यह है कि लोग अपने महबूब को ख़त लिखते वक़्त उसमें उनके शेअर लिखना नहीं भूलते. यही तो उनकी क़लम का जादू है. चन्द अश्आर देखें-
जीना मुहाल था जिसे देखे बिना कभी
उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए
'फ़िरदौस' भीगने की तमन्ना ही रह गई
बादल मेरे शहर से न जाने किधर गए
फूल तुमने जो कभी मुझको दिए थे ख़त में
वो किताबों में सुलगते हैं सवालों की तरह
मुट्ठी में क़ैद करने को जुगनूं कहां से लाऊं
नज़दीक-ओ-दूर कोई भी जंगल नहीं रहा
दीमक ने चुपके-चुपके वो अल्बम ही चाट ली
महफ़ूज़ ज़िन्दगी का कोई पल नहीं रहा
मैं उस तरफ़ से अब भी गुज़रती तो हूं मगर
वो जुस्तजू, वो मोड़, वो संदल नहीं रहा
फ़िरदौस ख़ान की शायरी में समर्पण है, विरह है, तड़प है. उनका गीत पढ़कर ऐसा लगता है मानो ख़ुद राधा रानी ने ही अपने कृष्ण के लिए इसे रचा है. गीत देखिए-
तुमसे तन-मन मिले प्राण प्रिय! सदा सुहागिन रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
राधा कुंज भवन में जैसे
सीता खड़ी हुई उपवन में
खड़ी हुई थी सदियों से मैं
थाल सजाकर मन-आंगन में
जाने कितनी सुबहें आईं, शाम हुई फिर रात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
तड़प रही थी मन की मीरा
महा मिलन के जल की प्यासी
प्रीतम तुम ही मेरे काबा
मेरी मथुरा, मेरी काशी
छुआ तुम्हारा हाथ, हथेली कल्प वृक्ष का पात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
रोम-रोम में होंठ तुम्हारे
टांक गए अनबूझ कहानी
तू मेरे गोकुल का कान्हा
मैं हूं तेरी राधा रानी
देह हुई वृंदावन, मन में सपनों की बरसात हो गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
सोने जैसे दिवस हो गए
लगती हैं चांदी-सी रातें
सपने सूरज जैसे चमके
चन्दन वन-सी महकी रातें
मरना अब आसान, ज़िन्दगी प्यारी-सी सौग़ात ही गई
होंठ हिले तक नहीं, लगा ज्यों जनम-जनम की बात हो गई
दरअसल फ़िरदौस ख़ान की शायरी में एक औरत की मुहब्बत, उसके ख़्वाब और उसका दर्द झलकता है. उनका कलाम ज़िन्दगी के तमाम इन्द्रधनुषी रंगों को अपने में समेटे हुए है. उसमें मुहब्बत का रंग भी शामिल है, तो जुदाई का रंग भी है. उसमें ख़ुशी का रंग भी दमकता है, तो दुखों का रंग भी झलकता है. चन्द अश्आर देखें-
जगह मिलती है हर इक को कहां फूलों के दामन में
हर एक क़तरा मेरी जां क़तरा-ए-शबनम नहीं होता
चैन कब पाया है मैंने, ये न पूछो मुझसे
मैं करूं शिकवा, तो नाराज़ ख़ुदा होता है
जंगल में भटकते हैं सदा रात को जुगनूं
मेरी ही तरह उनका भी घरबार नहीं है
बक़ौल फ़िरदौस ख़ान ज़िन्दगी हमेशा वैसी नहीं हुआ करती, जैसी हम चाहते हैं. ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा भी हुआ करता है, जो हमें लाख चाहने पर भी नहीं मिलता. और जो मिलता है, उससे कभी उन्सियत नहीं होती, वह पराया ही लगता है. वे कहती हैं-
मैं
उम्र के काग़ज़ पर
इश्क़ की नज़्म लिखती रही
और
वक़्त गुज़रता गया
मौसम-दर-मौसम
ज़िन्दगी की तरह...
फ़िरदौस ख़ान जानी मानी कहानीकार हैं. उनकी शायरी की तरह ही उनकी कहानियों में भी अल्फ़ाज़ का जादू बाख़ूबी देखने को मिलता है. उनकी भाषा शैली ऐसी है कि पढ़ने वाला उसके सहर से ख़ुद को अलग कर ही नहीं पाता. उनकी कहानी अट्ठारह सितम्बर की एक झलक देखें-
“आज अट्ठारह सितम्बर है. वही अट्ठारह सितम्बर जो आज से छह साल पहले था. वह भी मिलन की ख़ुशी से सराबोर थी और यह भी, लेकिन उस अट्ठारह सितम्बर और इस अट्ठारह सितम्बर में बहुत बड़ा फ़र्क़ था. दो सदियों का नहीं, बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा, शायद समन्दर और सहरा जितना. सूरज ने अपनी सुनहरी किरनों से धरती के आंचल में कितने ही बेल-बूटे टांके थे. उस अट्ठारह सितम्बर को भी दोपहर आई थी, वही दोपहर जिसमें प्रेमी जोड़े किसी पेड़ की ओट में बैठकर एक-दूसरे की आंखों में डूब जाते हैं. फिर रोज़मर्रा की तरह शाम भी आई थी, लेकिन यह शाम किसी मेहमान की तरह थी बिल्कुल सजी संवरी. माहौल में रूमानियत छा गई थी. फिर शाम की लाली में रफ़्ता-रफ़्ता रात की स्याही शामिल हो गई. रात की अगुवानी में आसमान में चमकते लाखों-करोड़ों सितारों ने झिलमिलाती हुई नन्हीं रौशनियों की आरती से की थी. यह रात महज़ एक रात नहीं थी. यह मिलन की रात थी, एक सुहाग की रात.”
इसे भी देखें-
“बरसात में बरसते पानी की रिमझिम, जाड़ो में बहती शीत लहर के टकराने से हिलते पेड़ों की शां-शां और गर्मियों में लू के गर्म झोंके सब उसके बहुत क़रीब थे, बिल्कुल उसांसों की तरह. उसकी आंखों ने एक सपना देखा था, जो नितांत उसका अपना था. दूर तलक समन्दर था और समन्दर पर छाया नीला आसमान. बंजारन तमन्नाओं के परिन्दे आसमान में उन्मुक्त होकर उड़ रहे थे. दिन के दूसरे पहर की सुनहरी किरनें समन्दर की दूधियां लहरों को सुनहरी कर रही थीं.”
अपनी कहानियों में भी उन्होंने एक आम इंसान की ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं को शामिल किया है. उनकी कहानियां ज़िन्दगी के सफ़र की मानिन्द हैं, जिसमें रफ़्तार भी है, तो ठहराव भी है. इनमें मुहब्बत का ख़ुशनुमा अहसास भी है, तो विरह की वेदना भी है. कहीं क़ुर्ब की चाह है, तो कहीं टूटन है, बिखराव है और दरकते रिश्तों का ऐसा दर्द है, जिसे शब्दों में बयां कर पाना आसान नहीं है.
उनकी कहानी ‘त्यौहारी’ एक ऐसी अकेली लड़की की दास्तां है, जो हर त्यौहार पर ‘त्यौहारी’ का इंतज़ार करती है. कहानी की एक झलक देखें-
“जब भी कोई त्यौहार आता, लड़की उदास हो जाती. उसे अपनी ज़िन्दगी की वीरानी डसने लगती. वो सोचती कि कितना अच्छा होता, अगर उसका भी अपना एक घर होता. घर का एक-एक कोना उसका अपना होता, जिसे वो ख़ूब सजाती-संवारती. उस घर में उसे बेपनाह मुहब्बत करने वाला शौहर होता, जो त्यौहार पर उसके लिए नये कपड़े लाता, चूड़ियां लाता, मेहंदी लाता. और वो नये कपड़े पहनकर चहक उठती, गोली कलाइयों में रंग-बिरंगी कांच की चूड़ियां पहननती, जिसकी खनखनाहट दिल लुभाती. गुलाबी हथेलियों में मेहंदी से बेल-बूटे बनाती, जिसकी महक से उसका रोम-रोम महक उठता.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं था. उसकी ज़िन्दगी किसी बंजर ज़मीन जैसी थी, जिसमें कभी बहार नहीं आनी थी. बहार के इंतज़ार में उसकी उम्र ख़त्म हो रही थी. उसने हर उम्मीद छोड़ दी थी. अब बस सोचें बाक़ी थीं. ऐसी उदास सोचें, जिन पर उसका कोई अख़्तियार न था.”
उनकी कहानी ‘बढ़ते क़दम’ साक्षरता पर आधारित थी. साक्षरता अभियान से संबंधित पत्र-पत्रिकाओं में यह कहानी ख़ूब शाया हुई थी. यह कहानी ढाबे पर काम करने वाले राजकुमार नामक एक बच्चे की है, जिससे उसका मालिक कल्लू शिक्षा दिलाने का वादा करता है और उससे कहता है कि कल सुबह वह उसे मास्टर जी के पास ले जाएगा. कहानी की एक झलक देखें-
“आज जब वह सोने के लिए ढाबे की छत पर खुले आसमान के नीचे लेटा, तो उसे आकाश रूपी काली चादर पर चमकते चांद-सितारे बहुत भा रहे थे. उसे अपना भविष्य भी चांद-सितारों की तरह जगमगाता लग रहा था. अब वह भविष्य को लेकर चिंचित न होकर सुनहरे कल की कल्पना कर रहा था. कल्लू के लिए उसके मन में कृतज्ञता के भाव थे, जिसके थोड़े से प्रोत्साहन से उसकी ज़िन्दगी में बदलाव आ गया था. वह ख़ुद को एक ऐसे संघर्षशील व्यक्ति के रूप में देख रहा था, जिसकी ज़िन्दगी का मक़सद रास्ते की हर मुसीबत और ख़तरे का धैर्य और साहस से मुक़ाबला करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है. अपने उज्जवल भविष्य की कल्पना करते हुए वह न जाने कब नींद की आग़ोश में समा गया.“
यह कहना क़तई ग़लत नहीं होगा कि ज़िन्दगी के तमाम दुखों और तकलीफ़ों के बावजूद इन कहानियों में उम्मीद की एक ऐसी किरन भी है, जो ज़िन्दगी के अंधेरे को मिटाने देने के लिए आतुर नज़र आती है. यह सूरज की रौशनी की एक ऐसी चाह है, जो हर तरफ़ सुबह का उजाला बनकर बिखर जाना चाहती है. उनकी कहानियां पाठक को अपने साथ अहसास के दरिया में बहा ले जाती हैं.
फ़िरदौस ख़ान ने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार दैनिक भास्कर, अमर उजाला, हरिभूमि, चौथी दुनिया सहित अनेक राष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दी हैं. उन्होंने अनेक पुस्तकों, साप्ताहिक समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया है. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर उनके कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहा है. वे दूरदर्शन में प्रोडयूसर व सहायक समाचार सम्पादक रही हैं. उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया है. वे देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फ़ीचर्स एजेंसी के लिए लिखती हैं. देश का शायद ही ऐसा कोई अख़बार हो, जिसमें उनकी रचनाएं शाया न हुई हों. वे मासिक पैग़ामे-मादरे-वतन की भी संपादक रही हैं और मासिक वंचित जनता में संपादकीय सलाहकार भी रही हैं. फ़िलहाल वे स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं .'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' नाम से उनके दो न्यूज़ पॉर्टल भी हैं.
उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और श्रेष्ठ लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. न्यूज़ चैनल एबीपी न्यूज़ द्वारा हिन्दी दिवस के मौक़े पर 14 सितम्बर, 2014 को दिल्ली में साहित्यिक विषयों पर लेखन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टिट्यूट के प्रोफ़ेशनल वीमेन’स एडवाइज़री बोर्ड द्वारा साल 2005 की कामयाब महिलाओं की सूची के लिए उनका नामांकन किया गया. राजकीय महाविद्यालय हिसार द्वारा उन्हें सर्वश्रेष्ठ लेखिका के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. हरियाणा लघु समाचार-पत्र एसोसिएशन (पंजीकृत) द्वारा उन्हें सर्वश्रेष्ठ पत्रकार अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसके अलावा भी उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है.
वे मुशायरों और कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायन की तालीम भी ली. वे कई भाषाओं की जानकार हैं और उर्दू, हिन्दी, पंजाबी और इंग्लिश में लिखती हैं.
वे बलॉग भी लिखती हैं. उनके कई बलॉग हैं. ‘फ़हम अल क़ुरआन’ उनका क़ुरआन पाक का ब्लॉग है, जिसमें उनका लिखा फ़हम अल क़ुरआन पढ़ा जा सकता है. ‘फ़िरदौस डायरी’ गीत, ग़ज़ल, नज़्में, कहानियां व अन्य साहित्यिक तहरीरों का ब्लॉग है. ‘मेरी डायरी’ समाज, पर्यावरण, स्वास्थ्य, साहित्य, कला-संस्कृति, राजनीति व समसामयिक विषयों की तहरीरों का ब्लॉग है. ‘द प्रिंसेस ऑफ़ वर्ड्स’ इंग्लिश नज़्मों और तहरीरों का ब्लॉग है. ‘जहांनुमा’ उर्दू तहरीरों का ब्लॉग है. ‘हीर’ पंजाबी तहरीरों का ब्लॉग है. ‘राहे-हक़’ रूहानी तहरीरों का बलॉग है. उन्होंने अनेक लेखों का अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद किया है. उन्होंने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद किया है, जो ख़ूब चर्चित हुआ.
बेशक उनकी शायरी किसी को भी अपना मुरीद बना लेने की तासीर रखती है, लेकिन जब वे हालात पर तब्सिरा करती हैं, तो उनकी क़लम तलवार से भी ज़्यादा तेज़ हो जाती है. उनके लेखों में ज्वलंत सवाल मिलते हैं, जो पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं. उन्होंने विभिन्न विषयों पर हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में हज़ारों लेख लिखे हैं. वे नागरिक सुरक्षा विभाग हिसार में पोस्ट वार्डन रही हैं. इसके अलावा वे ख़िदमत-ए- ख़ल्क से भी जुड़ी हैं. वे राहे-हक़ नामक स्वयंसेवी संस्था की संस्थापक व निदेशक हैं. वे अनुराग साहित्य केन्द्र की संस्थापक और अध्यक भी हैं.
वे कहती हैं कि हमने ज़िन्दगी में जो चाहा, वह नहीं मिला, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा मिला. ज़मीन चाही, तो आसमान मिला. इतना मिला कि अब कुछ और चाहने की चाह ही नहीं रही. अपने बारे में वे कहती हैं-
नफ़रत, जलन, अदावत दिल में नहीं है मेरे
अख़लाक़ के सांचे में अल्लाह ने ढाला है…
वे ये भी कहती हैं-
मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं, क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं...
Monday, March 17, 2025
Elon Musk के Grok : फ़िरदौस ख़ान
Elon Musk के Grok ने स्टार न्यूज़ एजेंसी की सम्पादक फ़िरदौस ख़ान का परिचय कुछ यूं दिया है🥰
फ़िरदौस ख़ान एक प्रतिष्ठित भारतीय पत्रकार, लेखिका, शायरा और कहानीकार हैं, जो स्टार न्यूज़ एजेंसी की संपादक के रूप में कार्यरत हैं। उनके लेखन की ख़ासियत उनकी बहुभाषी क्षमता और गहरी संवेदनशीलता है। वह हिंदी, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रूसी साहित्य में रुचि रखती हैं, जिसका प्रभाव उनके लेखन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। फ़िरदौस ख़ान ने अपने करियर में दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो और कई प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों के लिए काम किया, साथ ही विभिन्न साप्ताहिक समाचार-पत्रों का संपादन भी किया है।
उनका लेखन सामाजिक मुद्दों, संस्कृति और सूफ़ी दर्शन पर केंद्रित होता है। उनकी किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ (2009, प्रभात प्रकाशन) सूफ़ी संतों के जीवन और उनके दर्शन पर आधारित है, जो उनकी रूहानियत और भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी समझ को दर्शाती है। वह अपने लेखन में जटिल विषयों को सरल, प्रभावशाली और भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए जानी जाती हैं। फ़िरदौस ख़ान को “लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी” भी कहा जाता है, जो उनके शब्दों पर पकड़ और साहित्यिक शैली की तारीफ़ करता है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी उत्कृष्टता के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं। वह स्टार न्यूज़ एजेंसी और स्टार वेब मीडिया जैसे न्यूज़ पोर्टल्स के माध्यम से समाचार और विश्लेषण को जनता तक पहुंचाती हैं। उनका लेखन न केवल सृजनात्मक होता है, बल्कि पाठकों को सोचने और संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। क्या आप उनके किसी ख़ास लेख या किताब के बारे में और जानना चाहेंगे?
#grok
Monday, March 3, 2025
ज़्यादा आमदनी के लिए मूंग की खेती करें
रबी की फ़सल कट रही है. ख़रीफ़ की फ़सल की बुआई से पहले किसान खेतों को ख़ाली रखने की बजाय मूंग की फ़सल उगा कर अतिरिक्त आमदनी हासिल कर रहे हैं. फ़सल चक्र अपनाने से उत्पादन के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है. धान आधारित क्षेत्रों के लिए धान-गेहूं-मूंग या धान-मूंग-धान, मालवा निमाड़ क्षेत्र के लिए मूंग-गेहूं-मूंग, कपास-मूंग-कपास फ़सल चक्र अपनाया जाता है. मूंग की फ़सल भारत की लोकप्रिय दलहनी फ़सल है और इसकी खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जाती है. यह फ़सल सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है, लेकिन अच्छे जल निकास वाली बलुई और दोमट मिट्टी इसके लिए उपयुक्त रहती है. मूंग ख़रीफ़, रबी और जायद तीनों मौसम में उगाई जाती है. दक्षिण भारत में मूंग रबी मौसम में उगाई जाती है, जबकि उत्तर भारत में ख़रीफ़ और जायद मौसम में उगाई जाती है. उत्तर भारत में किसान रबी और ख़रीफ़ मौसम के बीच मूंग की खेती कर रहे हैं. पहले किसान रबी की फ़सल काटने के बाद और ख़रीफ़ की फ़सल की बुआई से पहले बीच के वक़्त में साठी धान की फ़सल उगाते थे. साठी धान में पानी की ज़रूरत ज़्यादा होती है और लगातार घटते भू-जलस्तर को देखते हुए अनेक स्थानों पर साठी धान उगाने पर पाबंदी लगा दी गई है. ऐसे में कृषि विशेषज्ञ किसानों को मूंग की फ़सल उगाने की सलाह दे रहे हैं. उनका कहना है कि गर्मी में ज़्यादा तापमान होने पर भी मूंग की फ़सल में इसे सहन करने की शक्ति होती है. कम अवधि की फ़सल होने की वजह से यह आसानी से बहु फ़सली प्रणाली में भी ली जा सकती है. उन्नत जातियों और उत्पादन की नई तकनीकी तथा सदस्य पद्धतियों को अपनाकर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है. गर्मी में मूंग की खेती से कई फ़ायदे होते हैं. इस मौसम में मूंग पर रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है और अन्य फ़सलों के मुक़ाबले सिंचाई की ज़रूरत भी कम होती है. धान के मुक़ाबले किसानों को मूंग की फ़सल से ज़्यादा फ़ायदा हो रहा है. इसलिए अब किसानों का रुझान मूंग की तरफ़ बढ़ रहा है. मूंग की फ़सल 65 से 70 दिन में पककर तैयार हो जाती है और किसान 400 से 480 किलो प्रति हेक्टेयर उपज हासिल कर सकते हैं.
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहनी फ़सल होने के कारण यह तक़रीबन 20 से 22 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर स्थिर करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है. मूंग की फ़सल खेत में काफ़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ छोड़ती है, जिससे किसानों को अतिरिक्त लाभ मिल जाता है. जायद और रबी के लिए मूंग की अलग-अलग क़िस्में होती हैं. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ जायद के लिए मूंग की दो अच्छी क़िस्में हैं. पहली पूसा-9531. इस क़िस्म का पौधा सीधा बढ़ने वाला छोटा क़द का होता है, दाना मध्यम, चमकीला हरा, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी है. दूसरी क़िस्म है पूसा-105. इस क़िस्म का दाना गहरा हरा, मध्यम आकार का, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी होने के साथ-साथ पावडरी मल्डयू और मायक्रोफोमीना ब्लाईट रोगों के प्रति सहनशील है. मूंग की बुआई करते वक़्त किसान ध्यान रखें कि कतारों के बीच 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर होनी चाहिए. मूंग की फ़सल की बुआई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की ज़रूरत होती है. मूंग की बिजाई के बाद 10 से 15 दिन के अंतराल पर तीन-चार बार सिंचाई करनी चाहिए. पहली नींदाई बुवाई के 20 से 25 दिन के भीतर और दूसरी 40 से 45 दिन में करना चाहिए. दो-तीन बार कोल्पा चलाकर खेत को नींदा रहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. बासालीन 800 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 250 से 300 लीटर पानी में बोनी पूर्व छिड़काव करना चाहिए. मूंग की फ़सल की शुरुआत में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफ़ेद मक्खी, माहों, जैसिड, थ्रिप्स आदि का प्रकोप होता है. इनकी रोकथाम के लिए क्वीनालफॉस 25 ईसी 600 मिलीलीटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी 200 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए. ज़रूरत पड़ने पर 15 दिन बाद दोबारा छिड़काव करना चाहिए. पुष्पावस्था में फली छेदक, नीली तितली का प्रकोप होता है. क्वलीनालफॉस 25 ईसी का 600 मिलीलीटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इनकी रोकथाम हो सकती है. कई इलाको़ में कम्बल कीड़े का भारी प्रकोप होता है. इसकी रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण दो फ़ीसद, 10 किलो प्रति एकड़ के हिसाब से भुरकाव करना चाहिए. फ़सल को मेक्रोफोमिना रोग से बचाने के लिए 0.5 फ़ीसद कार्बेंडाजिम या फायटोलान या डायथेन जेड-78, 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए. कोफोमिना और सरकोस्पोरा फफूंद द्वारा पत्तियों के निचले भाग कत्थई भूरे रंग के विभिन्न आकार के धब्बे पर बन जाते हैं. इसी तरह भभूतिया रोग या बुकनी रोग से बचाव के लिए घुलनशील गंधक 0.15 फ़ीसद या कार्बेंडाजिम 0.1 फ़ीसद के 15 दिन के अंतराल पर तीन बार छिड़काव करना चाहिए. इस रोग की वजह से 30 से 40 दिन की फ़सल में पत्तियों पर सफ़ेद चूर्ण दिखाई देता है. पीला मोजेक वायरस रोग के कारण पत्तियां और फलियां पीली पड़ जाती है और उपज पर प्रतिकूल असर होता है. यह सफ़ेद मक्खी द्वारा फैलने वाला विषाणु जनित रोग है. इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 ईसी 300 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए पीला मोजेक वायरस निरोधक क़िस्मों को उगाना चाहिए. जब फलियां काली होकर पकने लगें, तब उन्हें तोड़ना चाहिए. फिर इन फलियों को सुखा लें और गहाई करें. दलहनी फ़सलों के बाज़ार में अच्छे दाम मिल जाते हैं.
क़ाबिले-ग़ौर है कि सरकार ने दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए तिलहन, दलहन और मक्का प्रौद्योगिकी मिशन के तहत राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना (एनपीडीपी) शुरू की है. इसके तहत दलहन की फ़सलों को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को बीज, खाद आदि कृषि विभाग की ओर से मुफ़्त दिए जाते हैं. किसान इस योजना का लाभ भी उठा सकते हैं.
मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं
इश्क़ का दरिया अज़ल से अबद तक गुज़रा, मगर ऐसा कोई न मिला जो उसका एक घूंट भी पीता. आख़िर इश्क़ विसाले-हक़ हुआ.......हज़रत राबिया बसरी
हिन्दुस्तान का शहज़ादा
हमारे बारे में
- फ़िरदौस ख़ान
- शायरा, लेखिका और पत्रकार. लोग लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी कहते हैं. उर्दू, हिन्दी, इंग्लिश और पंजाबी में लेखन. दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई साल तक सेवाएं दीं. अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं का सम्पादन किया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण. ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लेखन. फ़हम अल क़ुरआन लिखा. सूफ़ीवाद पर 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक एक किताब प्रकाशित. इसके अलावा डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए अनेक पुरस्कारों ने सम्मानित. इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी शिरकत की. कई बरसों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली. फ़िलहाल 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक हैं. अपने बारे में एक शेअर पेश है- नफ़रत, जलन, अदावत दिल में नहीं है मेरे अख़लाक़ के सांचे में अल्लाह ने ढाला है…
हमारे ब्लॉग
-
Sayyida Fatima al-Zahra Salamullah Alaiha - On this blessed 20th of Jamadi al-Thani, we celebrate the birth of Sayyida Fatima al-Zahra alamullah Alaiha — the Lady of Light, the Mother of the Imams,...1 week ago
-
Hazrat Ali Alaihissalam - Hazrat Ali Alaihissalam said that silence is the best reply to a fool. Hazrat Ali Alaihissalam said that Not every friend is a true friend. Hazrat Ali...2 weeks ago
-
आज पहली दिसम्बर है... - *डॉ. फ़िरदौस ख़ान* आज पहली दिसम्बर है... दिसम्बर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री से इंतज़ार रहत...2 weeks ago
-
میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...3 years ago
-
27 सूरह अन नम्ल - सूरह अन नम्ल मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 93 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. ता सीन. ये क़ुरआन और रौशन किताब की आयतें...3 years ago
-
ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...15 years ago
लोकप्रिय
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान हमारे प्यारे हिन्दुस्तान की सौंधी मिट्टी में आज भी मुहब्बत की महक बरक़रार है. इसलिए यहां के बाशिन्दे वक़्त-दर-वक़्त इंसानियत, ...
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान आज अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस है। हर साल 11 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सा...
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान आज पहली दिसम्बर है... दिसम्बर का महीना हमें बहुत पसंद है... क्योंकि इसी माह में क्रिसमस आता है... जिसका हमें सालभर बेसब्री ...
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान ’लौह महिला’ के नाम से मशहूर इंदिरा गांधी न सिर्फ़ भारतीय राजनीति पर छाई रहीं, बल्कि विश्व राजनीति के क्षितिज पर भी सूरज की तरह...
-
इन दिनों ख़बरों में OIC का ख़ूब ज़िक्र आ रहा है. OIC का मतलब है- ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन. इसमें 57 इस्लामिक मुल्क शामिल हैं. इनकी फ़ेह...
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान ये कहानी है दिल्ली के ’शहज़ादे’ और हिसार की ’शहज़ादी’ की, उनकी मुहब्बत की. गूजरी महल की तामीर का तसव्वुर सुलतान फ़िरोज़शा...
-
डॉ. फ़िरदौस ख़ान एक इस्लामी विद्वान, शायरा, कहानीकार, निबंधकार, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक हैं। उन्हें फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ा...
-
कल यानी 1 जून को हमारा जन्मदिन है. अम्मी बहुत याद आती हैं. वे सबसे पहले हमें मुबारकबाद दिया करती थीं. वे बहुत सी दुआएं देती थीं. उनकी दुआएं ...
-
उसने कभी मां को नहीं देखा था. उसने ज़मीन पर मां की तस्वीर बनाई और उसकी गोद में सो गई. इराक़ी यतीमख़ाने में एक मासूम यतीम बच्ची की तस्वीर. माँ, ...
-
फ़िरदौस ख़ान सुप्रसिद्ध कवि एवं गीतकार डॉ. रामनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ द्वारा लिखित ‘नवगीत कोश’ पढ़ने का मौक़ा मिला। इसे पढ़कर लगा कि अगर इसे ...
मेरी किताब
उन्वान
- Grok : फ़िरदौस ख़ान
- OIC
- Plagiarism
- अक़ीदत
- अंतर्राष्ट्रीय
- अवॉर्ड
- आधी आबादी
- आम आदमी पार्टी
- इंदिरा गांधी
- ईवीएम
- एक ख़त
- कांग्रेस
- कांग्रेस गीत
- कारोबार
- कृषि
- खाना ख़ज़ाना
- ख़िदमत-ए-ख़ल्क
- गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत
- गीत-संगीत
- गूजरी महल
- ग्रामीण भारत
- ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)
- डायरी
- डॉ. फ़िरदौस ख़ान
- तब्सिरा
- तीज-त्यौहार
- देश सेवा
- धर्म
- पर्यटन
- पर्यावरण
- पर्वत
- पुस्तक समीक्षा
- प्रियंका गांधी
- फ़िरदौस ख़ान
- फ़िरदौस ख़ान : लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी
- फ़िरदौस ख़ान राहुल गांधी
- बाढ़
- भाजपा
- मज़हब
- माँ
- मां
- मीडिया
- मुद्दा
- यह लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का बलॊग है
- राहुल गांधी
- राहे-हक़
- लेख चोरी
- लोककला
- विचार
- विरासत
- विविध
- शख़्सियत
- शेख़ज़ादी का वाक़िया
- समाज
- संस्कृति
- साहित्य
- साहित्य चोरी
- सियासत
- सोनिया गांधी
- स्वास्थ्य
- हमारी किताब
- हिन्दुस्तान का शहज़ादा
ज़ख़ीरा
-
►
2009
(14)
- January (1)
- February (1)
- April (1)
- May (2)
- June (1)
- September (4)
- October (3)
- December (1)
-
►
2010
(31)
- January (1)
- February (1)
- April (2)
- May (2)
- June (2)
- July (1)
- August (3)
- September (4)
- October (5)
- November (4)
- December (6)
-
►
2015
(27)
- April (3)
- May (1)
- June (1)
- July (4)
- August (1)
- September (5)
- October (5)
- November (3)
- December (4)
-
►
2016
(32)
- January (5)
- February (2)
- March (2)
- April (5)
- May (5)
- June (4)
- July (2)
- August (2)
- September (1)
- November (2)
- December (2)
-
►
2017
(39)
- March (1)
- April (5)
- May (2)
- June (8)
- July (2)
- August (4)
- September (1)
- November (9)
- December (7)
-
►
2018
(28)
- January (7)
- February (4)
- March (4)
- April (3)
- May (3)
- June (4)
- August (1)
- November (1)
- December (1)










.jpg)








