फ़िरदौस ख़ान
पहले मज़हब शिया और सुन्नी तबकों में बंटा था, लेकिन अब मज़हब बंटना शुरू हो गया है, क़ाज़ी साहब की नीयत से. जो रिवायतें पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के वक्त से चली आ रही हैं, अब उन्हें तोड़-मरोड़कर पेश करने की ही नहीं, बल्कि उन्हें ख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं. इसकी ताज़ा मिसाल है मध्य प्रदेश के नीमच इलाके के चेहलुम पर होने वाले चालीसवें के खाने को बंद करने का ऐलान. हैरत की बात तो यह है कि यह सब बच्चों को तालीम दिलाने के नाम पर किया जा रहा है. माना बच्चों को शिक्षित करना आज बेहद ज़रूरी है, लेकिन क्या रिवायतों को ख़त्म किए बिना बच्चों को तालीम नहीं दिलाई जा सकती है?
गौरतलब है कि हर साल पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के नवासे व कर्बला के शहीद हज़रत इमाम हुसैन के चालीसवें पर खाना लोगों को खिलाया जाता रहा है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा. इस परम्परा को ख़त्म किया जा रहा है. नीमच के शहर क़ाज़ी हिदायतुल्लाह ख़ान व हनीफि़या हेल्प सोसायटी के अध्यक्ष मज़हर भाई सदियों से चली आ रही इस परम्परा को ग़लत मानते हैं. उनका कहना है कि पिछले जुम्मे को नमाज़ के बाद उन्होंने शहर के मोज़िज़ लोगों से इस बारे में बात की और इसे बंद करने का फै़सला लिया. अपने फैसले के समर्थन में वह इस बात का हवाला भी देते हैं कि इस भोजन से बचने वाले पैसे को बच्चों की तालीम पर ख़र्च किया जाएगा.
दोस्त फ़ाउंडेशन के चेयरमैन हसन इमाम सख्त लहजे में इस फ़ैसले का विरोध करते हुए कहते हैं कि चेहलुम पर खाना खिलाना तो सवाब का काम है और इस तरह के आयोजनों से लोगों में अपनी रिवायतों के प्रति दिलचस्पी भी बनी रहती है. सामूहिक भोज की शुरुआत पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने ही की थी. इस तरह के आयोजनों में आने वाले लोगों को कार्यक्रम के मक़सद के बारे में भी बताया जाता था. हज़रत इमाम हुसैन ने नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए खुद को कु़र्बान कर दिया था. आज के दौर में ऐसे आयोजनों की ज़्यादा ज़रूरत है, जिनके ज़रिये हज़रत इमाम हुसैन की कु़र्बानी और उनकी शिक्षाओं के बारे में ग़ैर मुस्लिमों को भी जानकारी दी जानी चाहिए.
अफ़ज़ल का कहना है कि बच्चों को तालीम दिलाना अच्छी बात है. आज सबसे ज़्यादा इसी बात की ज़रूरत महसूस की जा रही है कि हर बच्चे को तालीम मिले, लेकिन हज़रत इमाम हुसैन के चालीसवें के खाने को बंद करना का फै़सला सही नहीं है. मुहर्रम और चेहलुम पर उनकी याद में होने वाली दुआओं और नियाज़ वगैरह से ही तो बच्चों को उनकी शिक्षाओं, आदर्शों और कुर्बानियों के बारे में मालूम होता है.
एस.ए. रहमान इस फैसले का विरोध करते हुए कहते हैं कि इस तरह के कार्यक्रमों से ही आने वाली पीढ़ियों को अपने शहीदों के बारे में जानकारी मिलती रहती है. कर्बला के शहीद हज़रत इमाम हुसैन की फ़ातिहा के खाने को बंद करने से ये लोग भला कितनी रक़म बचा लेंगे? बच्चों की तालीम के लिए पैसे जमा करने के और भी बहुत से तरीक़े हो सकते हैं. हम अपने ऐशो-आराम पर ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खर्च करते हैं, उसी मद से पैसा बचाकर या यूं कहिए कि फ़िज़ूल ख़र्च को कम करके पैसा बचाया जा सकता है. मगर चालीसवें के खाने को बंद करके पैसा बचाने की बात गले से नीचे नहीं उतर रही है.
दरअसल, इस तरह के लोग उन संगठनों के हाथों की कठपुतलियां बन चुके हैं, जिनका मक़सद ही इस्लाम की रिवायतों को ख़त्म करना है. सवाल यह भी है कि इस तरह के फ़ैसले लेने का हक़ क्या किसी छोटे से क़स्बे के किसी `व्यक्ति विशेष´ को है? हक़ीक़त यही है कि ऐसे लोग सिर्फ सुर्खियां बटोरने के लिए ही इस तरह का ऐलान करते हैं. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि आम चुनाव क़रीब हैं और सियासत में किस्मत आज़माने के ख्वाहिशमंद लोग ऐसे मौक़ों की फ़िराक़ में रहते हैं. सवाल यह भी है कि मुख्यधारा में शामिल होने के अपनी रिवायतों को ख़त्म करना ही कसौटी है? कट्टरपंथी जमातें उन्हीं मुसलमानों को राष्ट्रवादी मानती हैं जो इस्लाम की रिवायतों को दरकिनार कर उनके इशारों पर चलती हैं. सवाल यह भी है कि भारत जैसे मुल्क में जहां सबको अपनी मजहबी आजादी में जीने का हक़ हासिल है और अपने धार्मिक मान्यताओं पर चलने की पूरी आज़ादी है, ऐसे में किसी ख़ास कट्टरपंथी जमातों को खुश करने के लिए इस तरह के फ़रमान जारी करना कहां तक जायज़ है?
गौरतलब है कि हर साल पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के नवासे व कर्बला के शहीद हज़रत इमाम हुसैन के चालीसवें पर खाना लोगों को खिलाया जाता रहा है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा. इस परम्परा को ख़त्म किया जा रहा है. नीमच के शहर क़ाज़ी हिदायतुल्लाह ख़ान व हनीफि़या हेल्प सोसायटी के अध्यक्ष मज़हर भाई सदियों से चली आ रही इस परम्परा को ग़लत मानते हैं. उनका कहना है कि पिछले जुम्मे को नमाज़ के बाद उन्होंने शहर के मोज़िज़ लोगों से इस बारे में बात की और इसे बंद करने का फै़सला लिया. अपने फैसले के समर्थन में वह इस बात का हवाला भी देते हैं कि इस भोजन से बचने वाले पैसे को बच्चों की तालीम पर ख़र्च किया जाएगा.
दोस्त फ़ाउंडेशन के चेयरमैन हसन इमाम सख्त लहजे में इस फ़ैसले का विरोध करते हुए कहते हैं कि चेहलुम पर खाना खिलाना तो सवाब का काम है और इस तरह के आयोजनों से लोगों में अपनी रिवायतों के प्रति दिलचस्पी भी बनी रहती है. सामूहिक भोज की शुरुआत पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने ही की थी. इस तरह के आयोजनों में आने वाले लोगों को कार्यक्रम के मक़सद के बारे में भी बताया जाता था. हज़रत इमाम हुसैन ने नेकी और सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए खुद को कु़र्बान कर दिया था. आज के दौर में ऐसे आयोजनों की ज़्यादा ज़रूरत है, जिनके ज़रिये हज़रत इमाम हुसैन की कु़र्बानी और उनकी शिक्षाओं के बारे में ग़ैर मुस्लिमों को भी जानकारी दी जानी चाहिए.
अफ़ज़ल का कहना है कि बच्चों को तालीम दिलाना अच्छी बात है. आज सबसे ज़्यादा इसी बात की ज़रूरत महसूस की जा रही है कि हर बच्चे को तालीम मिले, लेकिन हज़रत इमाम हुसैन के चालीसवें के खाने को बंद करना का फै़सला सही नहीं है. मुहर्रम और चेहलुम पर उनकी याद में होने वाली दुआओं और नियाज़ वगैरह से ही तो बच्चों को उनकी शिक्षाओं, आदर्शों और कुर्बानियों के बारे में मालूम होता है.
एस.ए. रहमान इस फैसले का विरोध करते हुए कहते हैं कि इस तरह के कार्यक्रमों से ही आने वाली पीढ़ियों को अपने शहीदों के बारे में जानकारी मिलती रहती है. कर्बला के शहीद हज़रत इमाम हुसैन की फ़ातिहा के खाने को बंद करने से ये लोग भला कितनी रक़म बचा लेंगे? बच्चों की तालीम के लिए पैसे जमा करने के और भी बहुत से तरीक़े हो सकते हैं. हम अपने ऐशो-आराम पर ज़्यादा से ज़्यादा पैसा खर्च करते हैं, उसी मद से पैसा बचाकर या यूं कहिए कि फ़िज़ूल ख़र्च को कम करके पैसा बचाया जा सकता है. मगर चालीसवें के खाने को बंद करके पैसा बचाने की बात गले से नीचे नहीं उतर रही है.
दरअसल, इस तरह के लोग उन संगठनों के हाथों की कठपुतलियां बन चुके हैं, जिनका मक़सद ही इस्लाम की रिवायतों को ख़त्म करना है. सवाल यह भी है कि इस तरह के फ़ैसले लेने का हक़ क्या किसी छोटे से क़स्बे के किसी `व्यक्ति विशेष´ को है? हक़ीक़त यही है कि ऐसे लोग सिर्फ सुर्खियां बटोरने के लिए ही इस तरह का ऐलान करते हैं. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि आम चुनाव क़रीब हैं और सियासत में किस्मत आज़माने के ख्वाहिशमंद लोग ऐसे मौक़ों की फ़िराक़ में रहते हैं. सवाल यह भी है कि मुख्यधारा में शामिल होने के अपनी रिवायतों को ख़त्म करना ही कसौटी है? कट्टरपंथी जमातें उन्हीं मुसलमानों को राष्ट्रवादी मानती हैं जो इस्लाम की रिवायतों को दरकिनार कर उनके इशारों पर चलती हैं. सवाल यह भी है कि भारत जैसे मुल्क में जहां सबको अपनी मजहबी आजादी में जीने का हक़ हासिल है और अपने धार्मिक मान्यताओं पर चलने की पूरी आज़ादी है, ऐसे में किसी ख़ास कट्टरपंथी जमातों को खुश करने के लिए इस तरह के फ़रमान जारी करना कहां तक जायज़ है?
2 Comments:
बहुत ख़ूब, सुन्दर प्रस्तुति
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गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम
आपकी चिंता जायज है।
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