ज़्यादातर लोग किसी मज़हब को सिर्फ़ इसलिए मानते हैं, क्योंकि वे उस मज़हब को मानने वाले परिवार में पैदा हुए हैं... बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं, जो अपना मज़हब बदलते हैं... कई बार ऐसा भी होता है कि लोग अपना मज़हब नहीं बदलते, लेकिन उनकी अक़ीदत दूसरे मज़हब में होती है...
दरअसल, इबादत बहुत ज़ाती चीज़ है... कौन अपने ख़ुदा को किस तरह याद करता है... यह उसका ज़ाती मामला है...
अपने मज़हब को जबरन किसी पर थोपना अच्छी बात नहीं... अमूमन हर इंसान को अपना मज़हब ही सही लगता है... इसके लिए वह कुतर्क करने से भी बाज़ नहीं आता... अच्छा तो यही है कि हमें सभी मज़हबों की इज़्ज़त करनी चाहिए... जब हम दूसरों के मज़हब की इज़्ज़त करेंगे, तभी वो हमारे मज़हब की भी इज़्ज़त करेंगे...
-फ़िरदौस ख़ान
1 Comments:
बहुत ही अच्छे विषय को उठाया है आपने। सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है। पता नहीं हम इसे भूलकर क्यों जानवरों जैसा बर्ताव करने लगते हैं।
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