किसी को इतने खौफ़नाक तरीक़े से डराया जाए कि वह जान ही दे दे...,अगर यह सीखना हो तो न्यूज़ चैनल से सीखिए...कल हुए वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरों को लेकर न्यूज़ चैनलों ने दुनिया के ख़त्म होने की अफ़वाह को इतनी हवा दी कि मध्यप्रदेश के राजगढ़ ज़िले में एक किशोरी ने कथित तौर पर दुनिया ख़त्म होने की दहशत में परसों रात ज़हर खा लिया. उसकी कल इंदौर के एक अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई.
पुलिस सूत्रों के मुताबिक़ लड़की की पहचान छाया 16 के रूप में हुई है. मृतक के परिजनों ने बताया कि छाया पिछले दो दिन से टीवी पर जिनीवा में बुधवार को हो रहे वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरें देख रही थी. वह इन ख़बरों को देखने के बाद इस कद्र घबरा गई कि उसने सल्फास की गोलियां निगल लीं. गौरतलब है कि कुछ न्यूज़ चैनल महाप्रयोग के दौरान दुनिया ख़त्म होने के ख़तरे पर केंद्रित ख़बरों का लगातार प्रसारण कर दर्शकों को डराने की मुहिम में जुटे हुए थे. ख़ास बात यह रही कि बाद में पांसा बदलते हुए न्यूज़ चैनल चीख़ने लगे कि दुनिया ख़त्म नहीं होगी, बस देखते रहिए....न्यूज़ चैनल (यानि उनका न्यूज़ चैनल).
यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि न्यूज़ चैनल भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने और व्यस्क फ़िल्मों से ज़्यादा अश्लील होते जा रहे हैं...
न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.
दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.
समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.
पुलिस सूत्रों के मुताबिक़ लड़की की पहचान छाया 16 के रूप में हुई है. मृतक के परिजनों ने बताया कि छाया पिछले दो दिन से टीवी पर जिनीवा में बुधवार को हो रहे वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरें देख रही थी. वह इन ख़बरों को देखने के बाद इस कद्र घबरा गई कि उसने सल्फास की गोलियां निगल लीं. गौरतलब है कि कुछ न्यूज़ चैनल महाप्रयोग के दौरान दुनिया ख़त्म होने के ख़तरे पर केंद्रित ख़बरों का लगातार प्रसारण कर दर्शकों को डराने की मुहिम में जुटे हुए थे. ख़ास बात यह रही कि बाद में पांसा बदलते हुए न्यूज़ चैनल चीख़ने लगे कि दुनिया ख़त्म नहीं होगी, बस देखते रहिए....न्यूज़ चैनल (यानि उनका न्यूज़ चैनल).
यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि न्यूज़ चैनल भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने और व्यस्क फ़िल्मों से ज़्यादा अश्लील होते जा रहे हैं...
न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.
दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.
समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.
5 Comments:
मीडिया को अनुशासित होने की आवश्यकता है। नहीं हुआ तो उसे पता होना चाहिए कि डंडा भी चल सकता है।
यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि न्यूज़ चैनल भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने और व्यस्क फ़िल्मों से ज़्यादा अश्लील होते जा रहे हैं...
वाजिब कहा है आपने...
सही कहा आपने। इस तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों के खिलाफ सजा का भी प्राविधान होना चाहिए, ताकि वे भविष्य में इस तरह की हरकतों से बाज आएँ।
बिल्कुल सही फरमाया है जनाब!
मैंने हाल में जितने लेख हिन्दी ब्लाग पर पढ़े, यह उन सबमें बेहतरीन है ! आप लिखती रहें ,अच्छा लिखने वालों को कमेंट्स कम मिलते हैं यहाँ, परवाह न करें ! आपको शुभकामनाएं !
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