Friday, August 22, 2008

अंधेरे में रौशनी की किरण टप्पू का गर्ल्स स्कूल


फ़िरदौस ख़ान
बिहार के किशनगंज ज़िले के टप्पू नामक अति पिछड़े ग़ांव में स्थित मिल्ली गर्ल्स स्कूल साम्प्रदायिक सद्भावना की एक ज़िंदा मिसाल है. दिल्ली की ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन द्वारा स्थापित इस स्कूल के निर्माण में मुसलमान ही नहीं, हिन्दुओं की भी अहम भूमिका रही. दिलचस्प बात यह है कि स्कूल के लिए फाउंडेशन को एक इंच भी ज़मीन ख़रीदनी नहीं पड़ी. ग़ांव के बाशिंदे अब्दुल हफ़ीज़, मेरातुल हक़, गुलतनलाल पंडित, मास्टर सुखदेव और मुखिया किशनलाल दास ने फाउंडेशन को यह भूमि दान में दी. क़रीब 35 लाख रुपए से साढ़े तीन एकड़ में बने इस स्कूल में खेल का मैदान भी है. स्कूल की इमारत के समीप ही दो मंज़िला होस्टल और स्टाफ क्वार्टर भी बनाए गए हैं.

आठ दिसंबर 2002 को इस स्कूल की विधिवत् शुरुआत की गई. उस समय स्कूल में केवल 35 छात्राएं थीं, लेकिन अब इनकी तादाद बढक़र 355 हो गई है. स्कूल में हिन्दू लडक़ियां भी पढ़ रही हैं. दूर-दराज के इलाकों से यहां आकर शिक्षा ग्रहण करने वाली 160 छात्राएं हॉस्टल में रहती हैं जिनमें नौ हिन्दू लडक़ियां शामिल हैं. सीबीएससी से मान्यता प्राप्त सातवीं कक्षा तक के इस स्कूल का उद्देश्य गरीब लड़कियों को शिक्षित करना है. इसलिए हर छात्रा से ट्यूशन फ़ीस के मात्र एक सौ रुपए लिए जाते हैं और हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं से सात सौ रुपए लिए जाते हैं. जिनके अभिभावक यह फीस देने में समर्थ नहीं होते उन लडक़ियों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है. इस समय स्कूल में 109 ऐसी छात्राएं हैं, जिनसे फ़ीस नहीं ली जाती. स्कूल में लडक़ियों के स्वास्थ्य का भी विशेष ध्यान रखा जाता है. नाश्ते और भोजन में पौष्टिक तत्वों से भरपूर व्यंजन दिए जाते हैं. हफ्ते में एक दिन मांसाहारी भोजन परोसा जाता है जिसमें अंडा, मछली, चिकन और मटन शामिल है. चूंकि हॉस्टल में हिन्दू लडक़ियां भी रहती हैं, इसलिए 'बड़े' क़ा मीट यहां वर्जित है. स्कूल में शिक्षा के साथ सांस्कृतिक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया जाता है.

दिल्ली की संस्था ने स्कूल बनाने के लिए आखिर इतनी दूर बिहार के किशनगंज ज़िले के टप्पू गांव को ही क्यों चुना? इसकी भी एक रोचक दास्तां है. फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद इसरारुल हक़ क़ासिमी बताते हैं कि 1996 में मुसलमानों में शिक्षा की हालत को लेकर एक सर्वे आया था जिसके मुताबिक़ बिहार के मुसलमानों में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम था. सर्वे में कहा गया था कि किशनगंज ज़िले में मुसलमानों की आबादी करीब 65 फ़ीसदी है. एक बड़ा वोट बैंक होने के कारण अमूमन सभी सियासी दल यहां से मुसलमानों को ही अपना उम्मीदवार बनाकर चुनाव मैदान में उतारते हैं. नतीजतन, यहां से मुसलमान ही सांसद चुने जाते रहे हैं. इसके बावजूद यहां के मुसलमानों की हालत बेहद दयनीय है. रिपोर्ट के मुताबिक़ यहां केवल 37 फ़ीसदी मुसलमान ही शिक्षित थे. इनमें भी अधिकांश प्राइमरी स्तर तक ही शिक्षा हासिल करने वाले थे, जबकि दसवीं तक आते-आते यह आंकडा इकाई अंक तक नीचे आ गया. इनमें सबसे बुरी हालत महिलाओं की थी. यहां सिंर्फ 0.2 फ़ीसदी यानि एक फ़ीसदी से भी कम महिलाएं साक्षर थीं. यहां महिलाओं में उच्च शिक्षा की कल्पना करना तो अमावस की रात में सूरज तलाशने जैसा था. बस, इसी सर्वे की रिपोर्ट को पढक़र मौलाना साहब के ज़हन में किशनगंज के किसी गांव में ही स्कूल खोलने का विचार आया. मगर धन के अभाव में वे ऐसा नहीं कर पाए. वर्ष 2000 में उन्होंने ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन का गठन कर शिक्षा के क्षेत्र में काम शुरू किया. फाउंडेशन को लोगों का भरपूर सहयोग मिला. फाउंडेशन ने जगह-जगह स्कूल खोले. इस समय बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में फाउंडेशन 63 स्कूल चला रही है. उनकी योजना स्कूल को बारहवीं कक्षा तक करने की है. इसके अलावा शिक्षा की .ष्टि से पिछड़े इलाकों में इसी तरह के तीन और स्कूल खोलने के प्रयास जारी हैं.

फाउंडेशन की यह कोशिश अशिक्षा के अंधेरे में रौशनी की किरण बनकर फूटी है. इसी तरह ज्ञान के दीप जलते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब इस इलांके से निरक्षरता का अभिशाप हमेशा के लिए मिट जाएगा और हर तरफ़ शिक्षा का उजाला होगा.
(विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित)

किसानों के लिए वरदान बायो डीज़ल


फ़िरदौस ख़ान
डीज़ल नहीं अब खाड़ी से
तेल मिलेगा बाड़ी से
और
स्वच्छ वातावरण का संकल्प
रतनजोत है एक विकल्प
इन नारों के साथ केंद्र सरकार रतनजोत उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है. मौजूदा दौर में उत्पन्न ऊर्जा संकट और तेल की लगातार बढ़ती कीमतों के मद्देनज़र रतनजोत की खेती बेहद फ़ायदेमंद है. हालांकि बायो डीज़ल के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के मकसद से अरबों रुपए ख़र्च कर रही है, लेकिन इसी बीच रतनजोत उगाने के नाम पर ज़मीनों पर कब्जे करने और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोप भी सुर्खियों में हैं.

दसवीं पंचवर्षीय योजना के तहत केंद्र सरकार ने रतनजोत की खेती को बढ़ावा देने के लिए साढ़े 17 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान रखा था. इस परियोजना का संचालन योजना आयोग कर रहा है. इसके लिए योजना आयोग ने देश के 18 राज्यों में 200 ऐसे जिलों की पहचान की है, जिनमें रतनजोत की खेती की जाएगी. इन राज्यों में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ग़ोवा, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तमिलनाडु शामिल हैं. चयनित हर ज़िले में रतनजोत की खेती के लिए एक करोड़ रुपए दिए जाने का प्रावधान है.

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन, कृषि एवं सहकारिता तथा पेट्रोलियम मंत्रालय को भी इस मुहिम में शामिल किया गया है. योजना आयोग के मुताबिक़ वर्ष 2012 तक देश को क़रीब 19 करोड़ मीट्रिक टन तेल की ज़रूरत पड़ेगी. अगर देश में रतनजोत का अभियान कामयाब हो जाता है तो कुल तेल की मांग का क़रीब 50 फ़ीसदी हिस्सा बायो डीज़ल से पूरा हो सकेगा. इस समय देश पेट्रोलियम पदार्थों की खपत का 70 फ़ीसदी हिस्सा विदेशों से आयात कर रहा है. इस पर हर साल क़रीब 80 हज़ार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा ख़र्च हो जाती है. विशेषज्ञों के मुताबिक़ अगर मौजूदा दौर में डीज़ल में पांच फ़ीसदी बायो डीज़ल मिला दिया जाए तो भारत को हर साल चार हज़ार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की बचत होगी. इतना ही नहीं इतने बड़े पैमाने पर रतनजोत की खेती से देश के क़रीब 19 लाख ग्रामीणों को रोज़गार भी मिल जाएगा. इसके बाद उससे प्राप्त तेल परिशोधन और विपणन के काम से भी अन्य लाखों लोगों को रोज़गार उपलब्ध हो सकेगा.

रतनजोत के बीजों से उपलब्ध बायो डीज़ल वाहनों के लिए एक बेहतर ईंधन साबित हो रहा है. इसे देखते हुए सार्वजनिक तेल कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन और भारतीय रेलवे ने संयुक्त रूप से रेल की पटरियों के आसपास की बेकार पड़ी ज़मीन पर रतनजोत की खेती करने का अभियान शुरू कर दिया है. रतनजोत से मिले बायो डीज़ल का दुनिया की नामी कार निर्माता कंपनी अपनी मर्सिडीज बैंज कारों में सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर चुकी है. बायो डीज़ल के उत्साहवर्धक नतीजे सामने आने पर इंडियन ऑयल ने न केवल इसकी बड़े पैमाने पर रेलवे के साथ योजना शुरू कर दी है, बल्कि वह तेल एवं गैस संरक्षण पखवाड़े क़े दौरान किसानों को उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए इसकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रही है. भारतीय रेलवे ने भी लखनऊ यार्ड में अपने इंजनों में बायो डीज़ल उपयुक्त पाया है. इसके अलावा हरियाणा रोडवेज़ की बसों में भी बायो डीज़ल मिश्रित ईंधन का इस्तेमाल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की कार भी बायो डीज़ल से ही चलती है.रतनजोत की खेती के मामले में छत्तीसगढ़ राज्य काफ़ी आगे है. छत्तीसगढ़ बायो-फ्यूल विकास प्राधिकरण के मुताबिक़ रतनजोत की खेती को यहां नक़दी फ़सल की श्रेणी में रखा गया है और इसके लिए समर्थन मूल्य की भी घोषणा की गई है. साथ ही कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विक्रय करने संबंधी प्रक्रिया शुरू की गई है. इस समय राज्य की क़रीब 86 हजार हेक्टेयर भूमि पर रतनजोत की खेती की जा रही है. वित्तवर्ष 2005-06 में राज्य में पांच करोड़ पौधे लगाए गए थे. वित्तवर्ष 2006-07 में 16 करोड़ 16 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य है, जबकि आगामी वित्तवर्ष के लिए यह लक्ष्य 20 करोड़ तय किया गया है. पिछले वित्तवर्ष के दौरान राज्य में छह करोड़ से ज्यादा रतनजोत के पौधे किसानों को वितरित किए गए. चालू वित्त वर्ष में 16 करोड़ पौधे तैयार किए जा रहे हैं. निजी निवेशक भी रतनजोत की खेती के प्रति विशेष रूचि दिखा रहे हैं. क़रीब 118 निजी निवेशकों से रतनजोत का पौधारोपण और बायो डीज़ल संयंत्र स्थापना संबंधी प्रस्ताव राज्य सरकार को मिल चुके हैं. राज्य के ग्राम पंचायतों में सौ लीटर प्रति बैच क्षमता के मिनी बायो डीज़ल संयंत्रों की स्थापना की जाएगी.

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का मानना है कि रतनजोत से राज्य में एक नई क्रांति की शुरुआत हुई है. सस्ते बायो डीज़ल इसके दूसरी ओर विपक्षी दलों के नेता सत्ता से जुड़े लोगों पर बायो डीज़ल के नाम पर भूमि पर कब्ज़ा करने और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोप लगा रहे हैं. दुर्ग के किसान हरकू राम का आरोप है कि उसकी डेढ़ एकड़ ज़मीन दबा ली गई है. अपनी ज़मीन से कब्ज़ा हटवाने के लिए उसे उसे सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं. पूर्व मंत्री नंदकुमार पटेल व अन्य नेताओं का मानना है कि सरकार इसे लेकर जितनी उत्साहित है, उसके हिसाब से नतीजे सामने नहीं आ रहे हैं. कई जगह सिर्फ़ कागज़ों में ही रतनजोत का पौधारोपण हुआ है. इन नेताओं का यह भी मानना है कि रतनजोत की ग्लोबल पैटर्न पर फ़सल चक्र में बदलाव करना देश की ज़रूरत के विपरीत है.

इससे देश में खाद्य सुरक्षा का संकट पैदा हो जाएगा. अमेरिकी साम्राज्य के इशारे पर विश्व बैंक विकासशील देशों पर पश्चिमी देशों की ज़रूरत की वस्तुओं का उत्पादन करने का दबाव डाल रहा है. अगर किसान खाद्य की खेती छोडक़र रतनजोत उगाने लगे तो राज्य और देश को खाद्य के मामले में विदेशों पर निर्भर होना पडेग़ा. हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि किसानों को अनुपयोगी भूमि या अन्य फसलों के साथ ही इसे उगाना चाहिए. इसकी खेती के लिए पहले कृषि उपयोग में आ रही भूमि को न चुना जाए, क्योंकि ऐसी हालत में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाएगा. इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि रतनजोत से तेल निकालने के लिए कई किसान मिलकर संयुक्त रूप से प्लांट लगाएं. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें केवल बीजों की ही कीमत मिल पाएगी. इससे मिलने वाले ग्लिसरीन व अन्य पदार्थों का लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा और ऐसी स्थिति में प्लांट लगाने वाले ही चांदी कूटेंगे.

गौरतलब है कि कोलकाता स्थित ब्रिटिश इंस्टीटयूट ने वर्ष 1930 में ऊर्जा फसलों की फ़ेहरिस्त में रतनजोत को प्रथम स्थान पर रखा था. मगर तब से लेकर आज तक देश के विभिन्न वैज्ञानिक एवं शिक्षण अनुसंधान संस्थानों में लैटिन अमेरिकी मूल (मैक्सिको) के इस पौधे को लेकर कई अनुसंधान हुए और इसके फ़ायदों का विवरण इकट्ठा किया गया. मगर इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए कोई विशेष क़दम नहीं उठाया गया, जिसके कारण यह महत्वपूर्ण व उपयोगी पौधा उपेक्षित रहा. शुरुआत के वर्षों में रतनजोत 800 से 3500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक बीज का उत्पादन करता है. पांचवें साल से यह 1200 से पांच हजार किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक बीज देता है. इसके एक पौधे से 40 से 45 साल तक बीज लिए जा सकते हैं. यूं तो रतनजोत की कई किस्में हैं, लेकिन इसकी सबसे उपयोगी किस्म है रतनजोत करकास. इसके सूखे बीजों में 30 से 35 फीसदी तक तेल होता है. यह तेल बायो डीजल के तौर पर इस्तेमाल होता ही है, साथ ही यह कई प्रकार की औषधियों में भी काम आता है. मोमबत्ती, साबुन और सौंदर्य प्रसाधन सामग्रियों को बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है. इससे कीमती ग्लिसरीन प्राप्त होती है. तेल निकालने के बाद बची खली और सूखी पत्तियों से खाद बनाई जाती है. इसके छिलकों से उच्च स्तर का एक्टिवेटेड चारकोल बनता है, जिसकी रसायन उद्योग में काफी मांग है. हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का मानना है कि रतनजोत की खेती से जहां भूमि क्षरण जैसी समस्याओं से निजात मिलेगी, वहीं इसके तेल के इस्तेमाल से धरती के बढ़ते तापमान को कम किया जा सकेगा, क्योंकि भूमि को उपजाऊ बनाने के अलावा यह वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस घटाने में भी एक अहम भूमिका निभाता है.
(विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित)

Wednesday, August 20, 2008

दहलीज़ से सियासत तक ख्वातीन


फ़िरदौस ख़ान
सदियों की गुलामी और दमन का शिकार रही भारतीय नारी अब नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है. इसकी एक बानगी अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बसे अति पिछड़े मेवात ज़िले के गांव नीमखेडा में देखी जा सकती है. यहां की पूरी पंचायत पर महिलाओं का क़ब्ज़ा है. ख़ास बात यह भी है कि सरपंच से लेकर पंच तक सभी मुस्लिम समाज से ताल्लुक़ रखती हैं. जिस समाज के ठेकेदार महिलाओं को बुर्के में कैद रखने के हिमायती हों, ऐसे समाज की महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर गांव की तरक्की के लिए काम करें तो वाक़ई यह काबिले-तारीफ़ है. गुज़श्ता 30 अक्टूबर को नीमखेडा को आदर्श गांव घोषित किया गया है.

गांव की सरपंच आसुबी का परिवार सियासत में दखल रखता है. क़रीब 20 साल पहले उनके शौहर इज़राइल गांव के सरपंच थे. इस वक्त उनके देवर आज़ाद मोहम्मद हरियाणा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर हैं. वे बताती हैं कि यहां से सरपंच का पद महिला के लिए आरक्षित था. इसलिए उन्होंने चुनाव लडने का फैसला किया. उनकी देखा-देखी अन्य महिलाओं में भी पंचायत चुनाव में दिलचस्पी पैदा हो गई और गांव की कई महिलाओं ने पंच के चुनाव के लिए परचे दाखिल कर दिए.
पंच मैमूना का कहना है कि जब महिलाएं घर चला सकती हैं तो पंचायत का कामकाज भी बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, लेकिन उन्हें इस बात का मलाल जरूर है कि पूरी पंचायत निरक्षर है. इसलिए पढाई-लिखाई से संबंधित सभी कार्यों के लिए ग्राम सचिव पर निर्भर रहना पड़ता है. गांव की अन्य पंच हाजरा, सैमूना, शकूरन, महमूदी, मजीदन, आसीनी, नूरजहां और रस्सो का कहना है कि उनके गांव में बुनियादी सुविधाओं की कमी है. सडक़ें टूटी हुई हैं. बिजली भी दिनभर गुल ही रहती है. पीने का पानी नहीं है. महिलाओं को क़रीब एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है. नई पंचायत ने पेयजल लाइन बिछवाई है, लेकिन पानी के समय बिजली न होने की वजह से लोगों को इसका फ़ायदा नहीं हो पा रहा है.सप्लाई का पानी भी कडवा होने की वजह से पीने लायक़ नहीं है. स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी यहां बेहद खस्ता है. अस्पताल तो दूर की बात यहां एक डिस्पेंसरी तक नहीं है. गांव में लोग पशु पालते हैं, लेकिन यहां पशु अस्पताल भी नहीं है. यहां प्राइमरी और मिडल स्तर के दो सरकारी स्कूल हैं. मिडल स्कूल का दर्जा बढ़ाकर दसवीं तक का कराया गया है, लेकिन अभी नौवीं और दसवीं की कक्षाएं शुरू नहीं हुई हैं. इन स्कूलों में भी सुविधाओं की कमी है. अध्यापक हाज़िरी लगाने के बावजूद गैर हाज़िर रहते हैं. बच्चों को दोपहर का भोजन नहीं दिया जाता. क़रीब तीन हज़ार की आबादी वाले इस गांव से कस्बे तक पहुंचने के लिए यातायात की कोई सुविधा नहीं है. कितनी ही गर्भवती महिलाएं प्रसूति के दौरान समय पर उपचार न मिलने के कारण दम तोड़ देती हैं. गांव में केवल एक दाई है, लेकिन वह भी प्रशिक्षित नहीं है. पंचों का कहना है कि उनकी कोशिश के चलते इसी साल 22 जून से गांव में एक सिलाई सेंटर खोला गया है. इस वक़्त सिलाई सेंटर में 25 लड़कियां सिलाई सीख रही हैं.

गांववासी फ़ातिमा व अन्य महिलाओं का कहना है कि गांव में समस्याओं की भरमार है. पहले पुरुषों की पंचायत थी, लेकिन उन्होंने गांव के विकास के लिए कुछ नहीं किया. इसलिए इस बार उन्होंने महिला उम्मीदवारों को समर्थन देने का फ़ैसला किया. अब देखना यह है कि यह पंचायत गांव का कितना विकास कर पाती है, क्योंकि अभी तक कोई उत्साहजनक नतीजा सामने नहीं आया है. खैर, इतना तो जरूर हुआ है कि आज महिलाएं चौपाल पर बैठक सभाएं करने लगी हैं. वे बड़ी बेबाकी के साथ गांव और समाज की समस्याओं पर अपने विचार रखती हैं. पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उन्हें एक बेहतर मौका मिल गया है, वरना पुरुष प्रधान समाज में कितने पुरुष ऐसे हैं जो अपनी जगह अपने परिवार की किसी महिला को सरपंच या पंच देखना चाहेंगे. काबिले-गौर है कि उत्तत्तराखंड के दिखेत गांव में भी पंचायत पर महिलाओं का ही क़ब्जा है.

गौरतलब है कि संविधान के 73वें संशोधन के तहत त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पंचायती राज संस्थाओं में 10 लाख से ज़्यादा महिलाओं को निर्वाचित किया गया है, जो चुने गए सभी निर्वाचित सदस्यों का लगभग 37 फ़ीसद है. बिहार में महिलाओं की यह भागीदारी 54 फ़ीसद है. वहां महिलाओं के लिए 50 फ़ीसद आरक्षण लागू है. मध्यप्रदेश में भी गत मार्च में पंचायत मंत्री रुस्तम सिंह ने जब मध्यप्रदेश पंचायत राज व ग्राम स्वराज संशोधन विधेयक-2007 प्रस्तुत कर पंचायत और नगर निकाय चुनाव में महिलाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा की. पंचायती राज प्रणाली के तीनों स्तरों की कुल दो लाख 39 हज़ार 895 पंचायतों के 28 लाख 30 हज़ार 46 सदस्यों में 10 लाख 39 हज़ार 872 महिलाएं (36.7 फ़ीसद) हैं. इनमें कुल दो लाख 33 हजार 251 पंचायतों के 26 लाख 57 हज़ार 112 सदस्यों में नौ लाख 75 हज़ार 723 (36.7 फ़ीसद) महिलाएं हैं. इसी तरह कुल छह हज़ार 105 पंचायत समितियों के एक लाख 57 हज़ार 175 सदस्यों में से 58 हजार 328 (37.1 फ़ीसद) महिलाएं हैं. कुल 539 ज़िला परिषदों के 15 हज़ार 759 सदस्यों में पांच हज़ार 821 (36.9 फ़ीसद) महिलाएं हैं. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि भारत में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू होने की वजह से ही वे आगे बढ़ पाईं हैं.

हालांकि देश की सियासत में आज भी महिलाओं तादाद उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए. यह कहना भी क़तई गलत नहीं होगा कि अपने पड़ौसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन के मुकाबले संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अभी भी बहुत पीछे है. दुनियाभर में घोर कट्टरपंथी माने जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में महिलाएं प्रधानमंत्री पद पर आसीन रही हैं. यूनिसेफ द्वारा कई चुनिंदा देशों में 2001-2004 के आधार पर बनाकर जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 8.3 फ़ीसद, ब्राजील में 8.6 फ़ीसद, इंडोनेशिया में 11.3 फ़ीसद, बांग्लादेश में 14.8 फ़ीसद, यूएसए में 15.2 फ़ीसद, चीन में 20.3 फ़ीसद, नाइजीरिया में सबसे कम 6.4 फ़ीसद और पाकिस्तान में सबसे ज़्यादा 21.3 फ़ीसद रहा. इस मामले में पाकिस्तान ने विकसित यूएसए को भी काफी पीछे छोड़ दिया है. वर्ष 1996 में भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.3 फ़ीसद और 1999 में 9.6 फ़ीसद था. हालांकि चुनाव के दौरान कई सियासी दल विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण देने के नारे देते हैं, लेकिन यह महिला वोट हासिल करने का महज़ चुनावी हथकंडा ही साबित होता है. बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है. फिलहाल यही कहा जा सकता है कि नीमखेड़ा और दिखेत की महिला पंचायतें महिला सशक्तिकरण की ऐसी मिसालें हैं, जिनसे दूसरी महिलाएं प्रेरणा हासिल कर सकती हैं.

Wednesday, August 13, 2008

अपना वजूद तलाशतीं हव्वा की बेटियां


फ़िरदौस ख़ान
दुनिया की क़रीब आधी आबादी महिलाओं की है. इस लिहाज़ से महिलाओं को तमाम क्षेत्रों में बराबरी का हक़ मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है. कमोबेश दुनियाभर में महिलाओं को आज भी दोयम दर्जे पर रखा जाता है. अमूमन सभी समुदायों में महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानने की प्रवृत्ति है. भारत में ख़ासकर मुस्लिम समाज में तो महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े भी इस बात को साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुक़ाबले मुस्लिम महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से ख़ासी पिछड़ी हुई हैं, लेकिन काबिले-तारीफ़ बात यह है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति अर्जित कर रही हैं.

सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ देशभर में मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 53.7 फ़ीसदी है. इनमें से अधिकांश महिलाएं केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित हैं. सात से 16 आयु वर्ग की स्कूल जाने वाली लडक़ियों की दर केवल 3.11 फ़ीसदी है. शहरी इलाकों में 4.3 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 2.26 फ़ीसदी लडक़ियां ही स्कूल जाती हैं. वर्ष 2001 में शहरी इलाकों में 70.9 फ़ीसदी लडक़ियां प्राथमिक स्तर की शिक्षा हासिल कर पाईं, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह दर 47.8 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में यह दर क्रमश: 13.9 और 4.0 फ़ीसदी थी. वर्ष 2001 में आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने वाली शहरी इलाकों की लडक़ियों की दर 51.1 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 29.4 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में शहरी इलाकों में 5.2 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 0.9 फ़ीसदी लडक़ियां ही मिडल स्तर तक शिक्षा हासिल कर पाईं. वर्ष 2001 में मैट्रिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाली लडक़ियों की दर शहरी इलाकों में 32.2 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 11.2 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में यह दर क्रमश: 3.2 और 0.4 फ़ीसदी है.

शिक्षा की ही तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ 15 से 64 साल तक की हिन्दू महिलाओं (46.1 फ़ीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोज़गार के क्षेत्र में हैं. अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर एक भी पैसा ख़र्च नहीं कर पातीं.

यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए 'धार्मिक कारण' काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं. इनमें बहुपत्नी विवाह और तलाक़ के मामले मुख्य रूप से शामिल हैं. इतना ही नहीं शरीयत की आड़ में उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी किया जाता है और जब भी कोई पीड़ित महिला अदालत के दरवाज़े पर दस्तक देती है तो उससे कठमुल्लाओं को तकलीफ़ होने लगती है. गौरतलब है कि पिछले साल 21 जनवरी को मुंबई की एक अदालत द्वारा तलाक़ के बारे में दिए गए फ़ैसले से भी कठमुल्लाओं की भवें तन गई थीं. उन्होंने अदालत के फ़ैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में हस्तक्षेप क़रार देते हुए इसे मानने तक से इंकार कर दिया था.

पुरातनपंथी तुच्छ मानसिकता को त्याग कर मुंबई उच्च न्यायालय के फ़ैसले का खुले दिलो-दिमाग़ से स्वागत करना चाहिए था. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बीएच मारलापाले ने दिलशाद बेगम द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के बाद महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया कि कोई भी व्यक्ति महज़ तीन बार तलाक़ कहकर अपनी पत्नी से संबंध नहीं तोड़ सकता है. दिलशाद बेगम को जून 1989 में उसके पति अहमद ख़ान पठान ने तीन बार तलाक़ कहकर घर से निकाल दिया था. इस मामले में पश्चिमी महाराष्ट्र के बारामती के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धाराओं के तहत हर्जाने के रूप में दिलशाद बेगम को चार सौ रुपये प्रति माह दिए जाने का आदेश दिया था. महज़ एक माह गुज़ारा भत्ता देने के बाद मई 1994 में दिलशाद के पति ने एक स्थानीय मस्जिद में जाकर उसे तलाक़ दे दिया था. साथ ही अहमद ख़ान पठान ने दिलशाद बेगम को दिया जाना वाला भत्ता भी बंद कर दिया और सेशन कोर्ट में न्यायिक मजिस्ट्रेट के फ़ैसले को चुनौती भी दे डाली.

उसका तर्क था कि शरीयत (इस्लामी क़ानून) के मुताबिक़ तलाक़शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान नहीं है. इस पर सेशन कोर्ट ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश को ख़ारिज कर दिया. इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ दिलशाद बेगम ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई, जहां उसे इंसाफ़ मिल गया. मगर यहां फिर कट्टरपंथियों ने उच्च न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार करते जहां भारतीय संविधान का मखौल उड़ाया वहीं, एक पीड़ित महिला के साथ भी ज़्यादती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सनद रहे 1981 में भी इसी तरह के एक मामले में न्यायमूर्ति मणिसेना और न्यायमूर्ति एसवी राम की खंडपीठ ने अनवरी बेगम को राहत देते हुए तलाक़ को अवैध क़रार दिया था. इस मामले में जियाउद्दीन ने एक बार तलाक़ कहकर ही अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया था. अपना फ़ैसला सुनाते हुए अदालत ने शरीयत का हवाला भी दिया था.

गौर करने लायक़ बात यह भी है कि दिलशाद बेगम के मामले में अदालत की टिप्पणी शरीयत के मद्देनज़र भी जायज़ है. अदालत ने कहा है कि केवल तीन बार तलाक़ बोलकर ही कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता. मौखिक या लिखित तलाक़ कहने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि अपनी समस्या के निपटारे के लिए तलाक़ कहने वाले व्यक्ति ने सुलह के प्रयास किए हैं. शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ को एक बड़ा गुनाह माना गया है और इसे ख़ुदा की सबसे ज्यादा नापसंद चीज़ों में शामिल किया गया है. अगर हालात ऐसे पैदा हो जाएं कि तलाक़ के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता तो इसके लिए भी नियम तय किए गए हैं. इनके तहत पति और पत्नी के पक्ष का एक-एक व्यक्ति बातचीत के ज़रिये दोनों में सुलह कराने का प्रयास करेगा.अगर उन्हें इसमें कामयाबी न मिले तो वे क़ाज़ी के पास जाएंगे और क़ाज़ी उन्हें विचार-विमर्श के लिए तीन महीने का समय देगा. इस दौरान दोनों को एक ही घर में रहना होगा, ताकि समझौते की संभावना बनी रहे. अगर इस पर भी उनमें सुलह नहीं होती है तो क़ाज़ी उन्हें तलाक़ का हुकम देगा. क़ुरान शरीफ़ में कहीं भी एक साथ तीन बार तलाक़ कहने की बात नहीं कही गई है. मगर इसके बावजूद मुस्लिम समाज में पुरुष महिलाओं को तलाक़ देकर कभी भी घर से निकाल देते हैं और सबसे शर्मनाक बात यह है कि मंजहब के ठेकेदार भी इसमें पुरुषों को भरपूर सहयोग देते हैं. हैरत की बात यह भी है कि क़ुरान को अल्लाह का आदेश बताने वाले कठमुल्ला महिलाओं पर अत्याचार के मामले में ईश्वरीय आदेश तक की अवहेलना करने से बाज़ नहीं आते. यह कहना ग़लत न होगा कि कठमुल्लाओं को न तो ईश्वर के आदेश की परवाह है और न ही भारतीय संविधान की, उन्हें तो महज़ अपनी 'दुकानदारी' चलानी है.

यह कोई पहला मामला नहीं है जब शरीयत के नाम पर किसी पीड़ित महिला पर ज़्यादती की गई हो. 1986 में शाहबानो ने अपने पति से गुज़ारा भत्ता पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था. याचिका की सुनवाई के बाद अदालत ने जो फ़ैसला सुनाया था उससे शाहबानो को तो कुछ राहत मिली थी, लेकिन यह मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ के दायरे से बाहर चला गया था. दरअसल जिस धारा के तहत यह फ़ैसला सुनाया गया था, वह मुसलमानों पर (मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण) लागू ही नहीं होती थीं. नतीजतन, सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर काफ़ी हंगामा हुआ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को लोकसभा में विधेयक लाकर इस फ़ैसले को आंशिक रूप से बदलना तक पड़ा था. इस विधेयक का मक़सद सिर्फ़ कठमुल्लाओं को ख़ुश रखना था.अगर केंद्र की कांग्रेस सरकार चाहती तो सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान करते हुए इसे बरक़रार रख सकती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया.

गौरतलब है कि उड़ीसा के भद्रक की नजमा बीबी को उसके पति शेर मोहम्मद ने नशे की हालत में 15 जुलाई 2003 को तीन बार तलाक़ दे दिया था. इसी आधार पर कठमुल्लाओं ने उन्हें अलग रहने पर मजबूर कर दिया. इस पर दम्पति ने पारिवारिक अदालत की शरण ली और फ़ैसला उनके हक़ में रहा. इसके बाद भी कठमुल्लाओं के विरोध के चलते उन्होंने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसे ख़ारिज कर दिया गया. इस पर उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. अदालत ने सुनवाई के बाद 21 अप्रैल 2006 को तलाक़ को अनुचित क़रार देते हुए उन्हें साथ रहने की अनुमति दी. साथ ही उडीसा सरकार को दम्पति को सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश भी दिया. मगर कठमुल्लाओं ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को मानने तक से इंकार कर दिया. देवबंदी उलेमा ने तो यहां तक कह दिया कि सर्वोच्च न्यायालय को इस्लामी शरीयत में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है.

इतना ही नहीं महिलाओं के ख़िलाफ़ फ़तवे जारी करना भी कठमुल्लाओं का एक शगल बन चुका है. 15 मार्च 2006 को ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड (जदीद) के अध्यक्ष मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ां ने जदीद की बरेली में हुई बैठक में बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन का सिर क़लम करने वाले व्यक्ति को पांच लाख रुपये का इनाम देने का ऐलान किया था. साथ ही उनके भारत में प्रवेश पर रोक लगाने और उनका वीज़ा समाप्त करने की मांग भी केंद्र सरकार से कर डाली. इस मौलाना ने पिछले साल अमेरिका के राष्ट्रपति डब्ल्यू जॉर्ज बुश का सिर कलम करने वाले व्यक्ति को 25 सौ करोड़ रुपये देने की घोषणा की थी. अदालती फैसलों पर टिप्पणी करते हुए तौक़ीर मियां ने यह भी चेतावनी दे डाली कि शरीयत (इस्लामी क़ानून) में किसी किस्म की भी दख़ल अंदाज़ी बर्दाश्त नहीं की जाएगी. साथ ही पीड़ित मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए सहयोग देने पर मीडिया की सराहना करना तो दूर, बल्कि उन्होंने मीडिया पर ही कई आरोप जड़ डाले. इससे पहले कोलकाता के इमाम सैयद नुरूल रहमान बरकाती ने तस्लीमा नसरीन की मौत का फ़तवा जारी किया था.गत नौ अगस्त को हैदराबाद में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन (एमआईएम) के तीन विधायकों मौअज्ज़म ख़ान, मुक्तादा अफ़सर ख़ान और पाशा क़ादरी के नेतृत्व में भीड़ ने तसलीमा नसरीन पर हमला कर दिया और अगली बार हैदराबाद आने पर उनका सिर क़लम करने की घोषणा भी की.

बलात्कार के मामलों में भी पीड़ित महिलाओं पर अत्याचार करते हुए बलात्कारियों के पक्ष में फ़तवे जारी किए गए. जून 2005 में मुज़फ्फ़रपुर की इमराना को उसके ससुर अली मोहम्मद ने अपनी हवस का पक्ष में फ़तवा दिया था. फ़तवे कहा गया था कि वह अब अपने ससुर को पति मानेगी. इस रिश्ते से उसे अपने पति नूर इलाही को पुत्र मानना होगा. इमराना मामले में अदालत का फ़ैसला आने तक दो अन्य मुस्लिम महिलाओं ने इंसाफ़ के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग का दरवाज़ा खटखटाया. मुज़फ़्फ़रनगर की ही 28 वर्षीय रानी के साथ भी उसके ससुर ने बलात्कार किया था. हरियाणा की भी एक महिला को उसके ससुर ने हवस का शिकार बनाया. इस हादसे के बाद पीड़ित महिला अपने मायके आ गई तो बलात्कारी ससुर उसके पति की हैसियत से उसे लेने तक पहुंच गया.

गौरतलब है कि शरीयत के मुताबिक़ किसी महिला का अपने पति के रक्त संबंधियों के साथ शारीरिक संबंध क़ायम हो जाने पर उसकी शादी की मान्यता ख़त्म हो जाती है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसा संबंध बलात्कार नहीं होता.25 जुलाई 2006 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के गांव कंटाबागन की रेहाना के साथ वहीं के मंसूर मलिक ने बलात्कार किया. इस मामले में भी कठमुल्लाओं ने पीड़िता को प्रताड़ित करते हुए फ़ैसला सुनाया कि अब वह अपने पति की पत्नी नहीं रही और उसे बलात्कारी से निकाह करना होगा. शर्मनाक बात यह भी है कि रेहाना और उसके पति मुलुक शेख़ से कहा गया कि अगर वे 50 हजार रुपये मौलवी के पास जमा करा दें तो 'शरीयत' उन पर रहम करेगी, यानी सब खेल पैसों का है.

इसी तरह वर्ष 2006 में बिहार के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के गांव चांदवाडी में बलात्कार की शिकार एक गूंगी महिला को बच्चे को जन्म देने की वजह से नापाक क़रार दे दिया था. इतना ही नहीं कठमुल्लाओं ने दबाव बनाकर महिला को उसके पति के घर से निकलवा दिया. जब वह अपने पिता शमशेर अली के घर चली गई तो कठमुल्लाओं ने उसके पिता पर भी बेटी को घर से निकालने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया, मगर जब वह नहीं माने तो कठमुल्लाओं ने उन्हें प्रताड़ित करते हुए गांव के कुछ लोगों के साथ मिलकर उनका बहिष्कार करा दिया. हैरत की बात तो यह है कि बलात्कारी के ख़िलाफ़ कठमुल्लाओं ने कोई कार्रवाई नहीं की. पुरुषों को सज़ा देने की बात पर कठमुल्ला शरीयत को भूल जाते हैं कि इस्लाम में बलात्कारी को सरेआम तब तक कोड़े मारने की बात कही गई है, जब तक की उसकी मौत नहीं हो जाती.

यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि मुस्लिम समाज में महिलाओं को केवल भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. इसीलिए शरीयत का डंडा भी हमेशा महिलाओं के ख़िलाफ़ ही चलता है. फ़तवा चाहे तस्लीमा नसरीन के ख़िलाफ़ जारी हो या किसी अन्य पीड़ित महिला के ख़िलाफ़, सभी में अमानवीयता कूट-कूटकर भरी है. कठमुल्ला आए दिन फ़तवे जारी महिलाओं की ज़िन्दगी में ज़हर घोलते रहते हैं, लेकिन 14 करोड़ क़ी मुस्लिम आबादी वाले देश में न तो किसी मुस्लिम संगठन ने इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत की है और न ही छदम धार्मिक निरपेक्षता के चलते महिला आयोग या अन्य संगठन ने पीड़ित महिलाओं को सहारा दिया. कठमुल्लाओं का इतना खौफ़ है कि मार्च 2004 में मानवाधिकार आयोग ने भी नजमा बीबी के मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था. मुसलमानों के मसीहा होने का दम भरने वाले और क़ौम की तरक्की के लिए सरकार से अनेक सुविधाओं की मांग करने वाले तथाकथित मुस्लिम नेता भी इस तरह के मामलों में दुबककर बैठ जाते हैं. जो नेता अपने क़ौम की महिलाओं पर अत्याचार होते देख ख़ामोश रहकर कठमुल्लाओं के हौसले बुलंद करते हैं, वे समुदाय का क्या भला करेंगे, यह वाक़ई समझ से परे है.

वर्ष 2006 में राजधानी में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में जमीयत उलमा-ए-हिंद के महासचिव व राज्यसभा सांसद महमूद मदनी ने मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ जारी फ़तवों का समर्थन करते हुए कहा था कि मैं मुसलमान हूं और फ़तवों को मानने के लिए बाध्य हूं. यानी जो मुसलमान है, उसे फ़तवों को मानना ही पडेग़ा. अब जब क़ौम के रहनुमाओं की यह मानसिकता है तो अधिकांश अनपढ़ तबके से क्या उम्मीद की जा सकती है? हक़ीक़त यह भी है कि इसी तालिबानी मानसिकता ने मुसलमानों को आगे नहीं बढ़ने दिया.

हक़ीक़त यह है कि मज़हब के ठेकेदार 'शरीयत' की परिभाषा अपने स्वार्थ की पूर्ति के नजरिये से करते हैं. भारत में इस्लाम का जो रूप प्रचलित है, इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद उसे नापसंद करते थे. क़ुरान में महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा दिया गया है. यहां तक कहा जाता है कि मां के क़दमों के नीचे जन्नत है. हज़रत मुहम्मद के वक़्त में भी महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए थे. वे मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढती थीं और पुरुषों की तरह ही घर से बाहर जाकर काम करती थीं. अनगिनत युध्दों में महिलाओं ने अपने युध्द कौशल का लोहा भी मनवाया. प्रसिध्द औहद की जंग में जब हज़रत मुहम्मद ज़ख्मी हो गए तो उनकी बेटी फ़ातिमा ने उनका इलाज किया.

उस दौर में भी रफायदा और मैमूना नाम की प्रसिध्द महिला चिकित्सक थीं. रफायदा का तो मैदान-ए-नबवी में अस्पताल भी था, जहां गंभीर मरीज़ों को दाख़िल किया जाता था. मुस्लिम महिलाएं शल्य चिकित्सा भी करती थीं. उम्मे ज़ियाद शाज़िया, बिन्ते माऊज़, मआज़त-उल-अपगारिया, अतिया असरिया और सलीम अंसारिया आदि उस ज़माने की प्रसिध्द शल्य चिकित्सक थीं. मैदान-ए-जंग में महिला चिकित्सक भी पुरुषों जैसी ही वर्दी पहनती थीं. हज़रत मुहम्मद की पत्नी ख़दीजा कपड़े क़ा कारोबार करती थीं. महिला संत राबिया की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी. पुरुष संतों की तरह वे भी धार्मिक सभाओं में उपदेश देती थीं. सियासत में भी महिलाओं ने सराहनीय काम किए. रंजिया सुल्ताना हिन्दुस्तान की पहली महिला शासक बनीं. नूरजहां भी अपने वक्त क़ी ख्याति प्राप्त राजनीतिक रहीं, जो शासन का अधिकांश कामकाज देखती थीं.1857 की जंगे-आज़ादी में कानपुर की हरदिल अज़ीज़ नृत्यांगना अज़ीज़न बाई सारे ऐशो-आराम त्यागकर देश को गुलामी की ज़ंजीरों से छुड़ाने के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं. उन्होंने महिलाओं के समूह बनाए जो मर्दाना वेश में रहती थीं. वे सभी घोड़ों पर सवार होकर और हाथ में तलवार लेकर नौजवानों को जंगे-आंजादी में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती थीं. अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को मज़बूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए.

मौजूदा दौर में भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं. तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं, बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौक़ा मिला है. वाक़ई यह एक ख़ुशनुमा अहसास है कि 'मज़हब के ठेकेदारों' की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं आज राजनीति के साथ खेल, व्यापार, उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं. जम्मू कश्मीर के कुलाली-हिलकाक इलाक़े की मुनिरा बेगम ने आतंकवादियों का मुंकाबला करने के लिए बंदूक़ उठा ली. उन्हीं के नक्शे-क़दम पर चलते हुए सूरनकोट के गांव की अन्य महिलाओं ने भी हथियार उठाकर आतंकवादियों से अपने परिजनों की रक्षा करने का संकल्प लिया. पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम की शबनम आरा ने तमाम अवरोधों को पार कर गांव के क़ाज़ी का पद संभाला.

इसमें दो राय नहीं कि आज मुसलमानों में ऐसे चेहरे भी सामने आ रहे हैं जो इस्लाम के उस वास्तविक रूप को सबके सामने रखना चाहते हैं, जिसकी बुनियाद ही कुप्रथाओं के ख़ात्मे के लिए पड़ी थी. धर्म गुरुओं को भी चाहिए कि वे क़ौम को अज्ञानता और रूढ़ियों के अंधेरे से निकालने में महती भूमिका अदा करें. इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय काम करने वाली महिलाओं को प्रोत्साहित करते हुए आदर्श के रूप में पेश किया जाए, जिससे अन्य लडक़ियां भी प्रेरणा हासिल कर सकें.

Monday, August 11, 2008

पत्रकारिता बनाम स्टिंग ऑपरेशन


फ़िरदौस ख़ान
इन दिनों पत्रकारिता जगत विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का बोलबाला है. स्टिंग शब्द 1930 के अमेरिकन स्लेंग से निकलकर आया शब्द है, जिसका अर्थ है, पूर्व नियोजित चोरी या धोखेबाजी की क्रिया. इसके क़रीब चार दशक बाद यह शब्द अमेरिकन उपयोग में आने लगा, जिसका अर्थ था, पुलिस द्वारा नियोजित गुप्त ओप्रशंस जो किसी शातिर अपराधी को फंसाने के लिए किए जाते थे. धीरे-धीरे स्टिंग ऑपरेशन अपराधियों को पकड़ने का कारगर हथियार बन गया. इसकी कामयाबी को देखते हुए मीडिया ने भी इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया और इसमें उसे बेहतर नतीजे भी हासिल हुए हैं. स्टिंग ओप्रशंस ख़बरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का ज़रिया बन गए हैं. टैम मीडिया रिसर्च इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक़ शक्ति कपूर से जुड़े कास्टिंग काउच के प्रसारण के समय इंडिया टीवी की टीआरपी पांचवें पायदान से पहले पायदान पर आ गई थी. इसी तरह स्टिंग ऑपरेशन दुर्योधन, चक्रव्यूह, घूस महल और ऑपरेशन कलंक ने जहां लोगों को हकीक़त से रूबरू कराया, वहीं चैनलों की टीआरपी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई. भारत ही नहीं विदेशों में भी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों का पर्दाफाश किया गया है.

अमेरिका में 'वाशिंगटन पोस्ट' के बर्नस्टीन और वुडवर्ड नामक दो जासूस पत्रकारों ने 1970 में वाटरगेट कांड का खुलासा करके राष्ट्रपति निक्सन को अपना पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. इन दिनों पत्रकारिता जगत विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया में स्टिंग ऑपरेशन का बोलबाला है. स्टिंग शब्द 1930 के अमेरिकन स्लेंग से निकलकर आया शब्द है, जिसका अर्थ है, पूर्व नियोजित चोरी या धोखेबाजी की क्रिया. इसके क़रीब चार दशक बाद यह शब्द अमेरिकन उपयोग में आने लगा, जिसका अर्थ था, पुलिस द्वारा नियोजित गुप्त ओप्रशंस जो किसी शातिर अपराधी को फंसाने के लिए किए जाते थे. धीरे-धीरे स्टिंग ऑपरेशन अपराधियों को पकड़ने का कारगर हथियार बन गया. इसकी कामयाबी को देखते हुए मीडिया ने भी इसका इस्तेमाल शुरू कर दिया और इसमें उसे बेहतर नतीजे भी हासिल हुए हैं. स्टिंग ओप्रशंस ख़बरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ाने का ज़रिया बन गए हैं. टैम मीडिया रिसर्च इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक़ शक्ति कपूर से जुड़े कास्टिंग काउच के प्रसारण के समय इंडिया टीवी की टीआरपी पांचवें पायदान से पहले पायदान पर आ गई थी. इसी तरह स्टिंग ऑपरेशन दुर्योधन, चक्रव्यूह, घूस महल और ऑपरेशन कलंक ने जहां लोगों को हकीक़त से रूबरू कराया, वहीं चैनलों की टीआरपी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई. भारत ही नहीं विदेशों में भी स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों का पर्दाफाश किया गया है. अमेरिका में 'वाशिंगटन पोस्ट' के बर्नस्टीन और वुडवर्ड नामक दो जासूस पत्रकारों ने 1970 में वाटरगेट कांड का खुलासा करके राष्ट्रपति निक्सन को अपना पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

स्टिंग ऑपरेशन के लिए जहां एक अलग प्रकार की ख़ास भाषा को काम में लिया जाता है. इनमें मुख्य रूप से छोटे कैमरों का इस्तेमाल होता है. रेडियो कोवर्ट कैमरे से 500 फीट की दूरी तक के चित्र आसानी से लिए जा सकते हैं. वायरलैस कलर ब्रूच कैमरे को कपड़ों में कोट पिन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. कोवर्ट टाई में पहना जा सकता है. जैकेट कोवर्ट कैमरे की जैकेट हर साइज़ में बाज़ार में उपलब्ध है. क्योक कोवर्ट कैमरा-घड़ी में छुपे इस कैमरे में पॉकेट पीसी सॉफ्टवेर के साथ रिमोट कंट्रोल, मल्टी मीडिया कार्ड और पॉवर एडेप्टर है. टेबल लैंप वायरलैस कैमरे को टेबल लैंप में आसानी से छुपाया जा सकता है. पेंसिल शार्पनर कैमरे को किसी भी जगह रखा जा सकता है. एयर प्योरिफायर कोवर्ट कैमरा-पर्सनल एयर प्योरिफायर में लगा डिजिटल वीडियो रिकॉर्डर होता है. फोलिएज बास्केट कैमरे को फूलदान में छुपाया जा सकता है. पोर्टेबल वायरलैस बुक कैमरा-किताब में लगा पिनहोल कैमरा है. स्टिंग ऑपरेशन में सी बिहाइंड-यू सन ग्लासेस भी बहुत काम आता है. बेहद साधारण दिखने वाले इस चश्मे से अपने पीछे हो रही गतिविधियों को आसानी से देखा जा सकता है. टॉकी पिक्चर्स से बोले हुए शब्द की तस्वीर कैमरे में क़ैद की जा सकती है. डिसअपीयरिंग इंक पेन का इस्तेमाल गुप्त सूचनाएं लिखने के लिए किया जाता है. इसमें विशेष प्रकार की स्याही का इस्तेमाल होता है, जिसकी लिखावट 24 घंटे के बाद ख़ुद मिट जाती है. कमरे के बाहर की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दरवाज़े के पीप होल पर होल व्यूअर लगाया जाता है. बिग इयर से 400 फीट की दूरी से सबकुछ सुना जा सकता है. सिगरेट ट्रांसमीटर से 1200 फीट की दूरी तक सुनाई देता है. लेजर बीम की मदद से किसी भी स्थान पर हो रही बातचीत को कर में बैठे भी सुना जा सकता है. स्पाइप ऐसा उपकरण है जो पाइप सिस्टम के ज़रिये बेसमेंट से बेडरूम में कही गई हर बात पिक कर लेता है. शुगर लंप माइक को आसानी से कहीं भी छुपाया जा सकता है. बगड मैं नामक इस छोटे वाइस रिकॉर्डर को घड़ी, पेन या टाई में लगाया जा सकता है.

इसके अलावा स्टिंग ऑपरेशन में फ़ोन टेपिंग का भी इस्तेमाल किया जाता है. टेलीग्राफ एक्ट, 1885 के गैरकानूनी तरीके से किसी का फ़ोन टेप करने की मनाही है. सरकार विशेष परिस्थिति में किसी के फ़ोन टेप करने की इजाज़त देती है. 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ोन टेपिंग से संबंधित दिशा-निर्देश तय किए और इसे टेपिंग निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया. फ़रवरी 2006 में दूरसंचार विभाग ने फ़ोन टेपिंग से संबंधित नए दिशा-निर्देश जारी किए. इसके तहत फ़ोन टेपिंग मामले में सुरक्षा एजेंसियों और फ़ोन कंपनियों को ज़्यादा जवाबदेह बनाया गया. हालांकि निजी जासूस एजेंसियां, स्टॉक मार्केट ऑपरेटर्स, व्यापारी, शातिर अपराधी और गैरकानूनी एक्सचेंज चलाने वाले बड़े पैमाने पर फ़ोन टेप करते हैं.

हालांकि गत अगस्त में 'लाइव इंडिया' द्वारा फ़र्जी स्टिंग ऑपरेशन दिखाए जाने के बाद स्टिंग ओप्रशंस की विश्वसनीयता और ख़बरिया चैनलों के माप-दंडों को लेकर बहस छिड़ गई है. स्टिंग ऑपरेशन के अलावा न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.

दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.

इसके अलावा न्यूज़ चैनलों में ख़बरें कम और सस्ता मनोरंजन ज़्यादा से ज़्यादा परोसा जाने लगा है, मगर इस सबके बावजूद हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये ही भ्रष्टाचार के अनेक बड़े मामले सामने आए हैं, जिन्होंने संसद तक को हिलाकर रख दिया. इसके अलावा अनेक पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने कि मुहिम में भी मीडिया ने सराहनीय भूमिका निभाई है.मीडिया पर लगाम कसने के लिए सरकार नियमन विधेयक-2007 लाने कि बात कर रही है और बाक़ायदा इसके लिए कंटेंट कोड को सभी प्रसारकों के पास सुझावों और आपत्तियों के लिए भेजा गया है, लेकिन सरकार के इस क़दम को लेकर सभी ख़बरिया चैनलों ने हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी है.

हालांकि कंटेंट कोड में प्रत्यक्ष रूप से ख़बरिया चैनलों पर सरकारी नियंत्रण कि कोई बात नहीं है, लेकिन इसमें दर्ज नियमों को देखा जाए तो ये चैनलों पर लगाम कसने के लिए काफ़ी हैं. प्रसारकों को जिन बातों पर सख्त एतराज़ है उनमें कंटेंट ऑडिटर कि नियुक्ति और पब्लिक मैसेजिंग सर्विस है. कंटेंट कोड के मुताबिक़ सभी चैनलों को कंटेंट कोड कि नियुक्ति करनी होगी और उन्हें हर प्रसारण सामग्री के लिए सरकार के प्रति जवाबदेह बनाया जाएगा. इसके अलावा पब्लिक मैनेजिंग सर्विस कोड के तहत कुल कंटेंट का 10 फ़ीसदी हिस्सा इससे तय किया जाएगा. सरकार निजी प्रसारकों से जनहित में अपने कसीस भी कार्यक्रम का प्रचार करवा सकती है. हालांकि प्रसारकों ने सरकार कि मंशा को देखते हुए न्यूज़ ब्रोडकास्टर एसोसिएशन (एनबीए) बनाकर मोर्चा संभाल लिया है. उनका कहना है कि सरकार निजी न्यूज़ चैनलों को सरकारी प्रचार के लिए इस्तेमाल करना चाहती है, जिसे क़तई मंज़ूर नहीं किया जा सकता. टीवी चैनलों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार मीडिया पर किसी भी प्रकार के सरकारी नियंत्रण का विरोध करते हुए कहते हैं कि सरकार खोजी पत्रकारिता पर रोक लगाने के मक़सद से प्रसारण विधेयक ला रही है, क्यूंकि कई स्टिंग ओप्रशनों ने राजनीतिज्ञों के काले कारनामे दिखाकर उनकी पोल खोल दी थी.

समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.

(यह आलेख जनवरी 2008 में बहुभाषी संवाद समिति 'हिन्दुस्थान समाचार' की स्वर्ण जयंती पर प्रकाशित स्मारिका में शाया हुआ था)


Saturday, August 9, 2008

बाल विवाह ने छीना बचपन


फ़िरदौस ख़ान
तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में बाल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है. बाल विवाह की वजह से जहां बच्चों का बचपन छिन जाता है, वहीं वे विकास के मामले में भी पिछड़ जाते हैं... देश में विवाह के लिए कानूनन न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल निर्धारित है, लेकिन यहां अब भी बड़ी संख्या में नाबालिग लड़कियों का विवाह कराया जा रहा है. इस तरह के विवाह से जहां क़ानून द्वारा तय उम्र का उल्लंघन होता है, वहीं कम उम्र में मां बनने से लड़कियों की मौत तक हो जाती है. अफसोस और शर्मनाक बात यह भी है कि बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने वालों को गंभीर नतीजे तक भुगतने पड़ते हैं. मई 2005 में मध्य प्रदेश के एक गांव में बाल विवाह रोकने के प्रयास में जुटी आंगनबाड़ी सुपरवाइजर शकुंतला वर्मा से नाराज़ एक युवक ने नृशंसता के साथ उसके दोनों हाथ काट डाले थे. इसी तरह के एक अन्य मामले में भंवरी बाई के साथ दुर्व्यवहार किया गया था.
यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट-2007 में बताया गया है कि हालांकि पिछले 20 सालों में देश में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन बाल विवाह की कुप्रथा अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है. रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में औसतन 46 फ़ीसदी महिलाओं का विवाह 18 साल होने से पहले ही कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण इलाकों कमें यह औसत 55 फ़ीसदी है. अंडमान व निकोबार में महिलाओं के विवाह की औसत उम्र 19.6 साल, आंध्र प्रदेश में 17.2 साल, चंडीगढ़ में 20 साल, छत्तीसगढ़ में 17.6 साल, दादर व नगर हवेली में 18.8 साल दमन व द्वीव में 19.4 साल, दिल्ली में 19.2 साल, गोवा में 22.2 साल, गुजरात में 19.2 साल, हरियाणा में 18 साल, हिमाचल प्रदेश में 19.1 साल, जम्मू-कश्मीर में 20.1 साल, झारखंड में 17.6 साल, कर्नाटक में 18.9 साल, केरल में 20.8 साल, लक्षद्वीप में 19.1 साल, मध्य प्रदेश में 17 साल, महाराष्ट्र में 18.8 साल, मणिपुर में 21.5, मेघालय में 20.5 साल, मिज़ोरम में 21.8 साल, नागालैंड में 21.6 साल, उड़ीसा में 18.9 साल, पांडिचेरी में 20 साल, पंजाब में 20.5 साल, राजस्थान में 16.6 साल, सिक्किम में 20.2 साल, तमिलनाडु में 19.9 साल, त्रिपुरा में 19.3 साल, उत्तरप्रदेश में 17.5 साल, उत्तरांचल में 18.5 साल और पश्चिम बंगाल में 18.4 साल है. गौरतलब है कि वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक़ देश में 18 साल से कम उम्र के 64 लाख लड़के-लड़कियां विवाहित हैं कुल मिलाकर विवाह योग्य कानूनी उम्र से कम से एक कराड़ 18 लाख (49 लाख लड़कियां और 69 लड़के) लोग विवाहित हैं. इनमें से 18 साल से कम उम्र की एक लाख 30 हज़ार लड़कियां विधवा हो चुकी हैं और 24 हज़ार लड़कियां तलाक़शुदा या पतियों द्वारा छोड़ी गई हैं. यही नहीं 21 साल से कम उम्र के करीब 90 हजार लड़के विधुर हो चुके हैं और 75 हजार तलाक़शुदा हैं. वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक़ राजस्थान देश के उन सभी राज्यों में सर्वोपरि है, जिनमें बाल विवाह की कुप्रथा सदियों से चली आ रही है. राज्य की 5.6 फ़ीसदी नाबालिग आबाद विवाहित है. इसके बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल आते हैं.
दरअसल , बाल विवाह को रोकने के लिए 1929 में अंग्रेजों के शासनकाल में बने शारदा एक्ट के बाद कोई क़ानून नहीं आया. शारदा एक्त में तीन बार संशोधन किए गए, जिनमें हर बाल विवाही के लिए लड़के व लड़की उम्र में बढ़ोतरी की गई. शारदा एक्ट के मुताबिक़ बाल विवाह गैरकानूनी है, लेकिन इस एक्ट में बाल विवाह को खारिज करने का कोई प्रावधान नहीं है. इसी बड़ी खामी के चलते यह कारगर साबित नहीं हो पाया. इस अधिनियम में अधिकतम तीन माह तक की सज़ा का प्रावधान है. विडंबना यह भी है कि शादा एक्ट के तहत बाल विवाह करने वालों को सज़ा का प्रावधान है, लेकिन बाल विवाह कराने वालों या इसमें सहयोग देने वालों को सीधे दंडित किए जाने का कोई प्रावधान नहीं है. हालांकि दोषी पाए जाने पर नामामत्र सज़ा दी जा सकती है. इतना ही नहीं इस क़ानून की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि पहले तो इस संबंध में मामले ही दर्ज नहीं हो पाते और अगर हो भी जाते हैं तो दोषियों को सज़ा दिलाने में काफ़ी दिक्कत होती है. नतीजतन, दोषी या तो साफ बच निकलते हैं या फिर उन्हें मामूली सज़ा होती हैं. अंग्रेजों ने शारदा एक्ट में कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया और इसे दंड संहिता की बजाय सामाजिक विधेयक के माध्यम से रोकने की कोशिश की गई. दरअसल, अंग्रेज इस क़ानून को सख्त बनाकर भारतीयों को अपने खिलाफ़ नहीं करना चाहते थे.
अफ़सोस की बात यह भी है कि आज़ादी के बाद बाल विवाह को रोकने के लिए बड़े-बड़े दावे वाली सरकारों ने भी बाल विवाह को अमान्य या गैर जमानती अपराध की श्रेणी में लाने की कभी कोशिश नहीं की. महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार आयोग भी बाल विवाह पर अंकुश लगाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की बजाय भाषणों पर ही जोर देते हैं.बाल विवाह अधिनियम-1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम-1955 की दफा-3 में विवाह के लिए अनिवार्य शर्तों में से एक यह भी है कि विवाह के सम लड़ी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए. अगर विवाह के समय लड़के और लड़की की उम्र निर्धारित उम्र से कम हो तो इसकी शिकायत करने पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-18 के तहत दोषी व्यक्ति को 15 दिन की कैद या एक हजार रुपये जुर्माना या दोनों हो सकते हैं. कानून की नजर में भले ही इस तरह का विवाह दंडनीय अपराध हो, लेकिन इसके बावजूद इसे गैरकानूनी नहीं माना जाता और न ही इसे रद्द किया जा सकता है. इसके अलावा अगर हिंदू लड़की उम्र विवाह के समय 15 साल से कम है और 15 साल की होने के बाद वह अपने विवाह को स्वीकार करने में मना कर दे तो वह तलाक दे सकती है लेकिन अगर विवाह के समय उसकी उम्र 15 साल से ज्यादा (भले ही 18 साल से कम हो) हो तो वह इस आधार पर तलाक लेने की अधिकारी नहीं. हिंदू विवाह अधिनियम के मुताबिक विवाह के समय लड़की उम्र 18 साल से कम नहीं होनी चाहिए, लेकिन भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375 के तहत 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है.
क़ाबिले -गौर है कि भारतीय दंड संहिता-1860 की दफा-375(6) के मुताबिक किसी भी पुरुष द्वारा 16 साल से कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति या असहमति से किया गया सहवास बलात्कार है. भारतीय दंड संहिता की दफा-375 में 16 साल से कम उम्र की लड़ी के साथ बलात्कार की सजा कम से कम साल कैद और जुर्माना है, लेकिन इस उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में पुरुषों को विशेष छूट मिल जाती है. इतना ही नहीं अपराधिक प्रक्रिया संहिता-1973 में बलात्कार के सभी तरह के मामले संगीन अपराध हैं और गैर जमानती हैं, लेकिन 12 साल तक की पत्नी के साथ बलात्कार के मामले संगीन नहीं हैं और जमानती भी हैं. इस तरह के भेदभाव पूर्ण कानूनों के कारण भी देश में पीड़ित महिलाओं को इंसाफ़ नहीं मिल पाता.देश के विभिन्न इलाकों में अक्षय तृतीया, तीज और बसंत पंचमी जैसे मौकों पर सामूहिक बाल विवाह कार्यक्रम आयोजित कर खेलने-कूदने की उम्र में बच्चों को विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है. इन कार्यक्रमों में राजनीतिक दलों के नेता और प्रशासन के आला अधिकारी भी शिरकत कर बाल नन्हें दंपत्तियों को आशीष देते है.

भूखे लोगों का संकट

फ़िरदौस ख़ान
दिल्ली सरकार ने गरीबों को कम से कम एक बार दोपहर में भरपेट भोजन मुहैया कराने की योजना को मंजूरी दी है. इस योजना के तहत दोपहर 12 से एक बजे के बीच बेसहारा बच्चों, भिखारियों और अन्य ग़रीबों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जाएगा. सरकार की भागीदारी पहल के तहत आपकी रसोई कार्यक्रम में सरकार रैन बसेरे, संगठनों, एनजीओ और इच्छुक व्यक्तियों को सुविधा देगी, जो पका भोजन जरूरतमंदों में वितरित करेंगे. इसके लिए जल्द ही आवेदन मांगे जाएंगे.

बेशक, सरकार की यह योजना उन लोगों को फायदा पहुंचाएगी जिन्हें दिन में एक वक्त भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता. दरअसल आज देशभर में इस तरह की योजना लागू करने की बेहद जरूरत है. खासकर देश के उन हिस्सों में जो गरीबी की मार से बुरी तरह जूझ रहे हैं और जहां से बार-बार भूख और कुपोषण से लोगों के मरने की खबरें आती रहती हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है? भुखमरी के स्थायी समाधान के लिए लोगों को रोजगार मुहैया कराना होगा, क्योकिं एक वक्त भोजन उपलब्ध कराना इस समस्या का हल नहीं है. हां, इससे लोगों को कुछ राहत जरूर मिल सकती है. इस लिहाज से भूखों को दिन में एक वक्त भरपेट भोजन कराने का दिल्ली सरकार का कदम वाकई सराहनीय है, लेकिन यह योजना तभी कामयाब हो पाएगी जब इससे जुड़े अधिकारी व कर्मचारी ईमानदारी से काम करें. वरना इस योजना को भी भ्रष्टाचार का दीमक लगते देर न लगेगी.
(20 फ़रवरी 2008 को दैनिक जागरण में प्रकाशित)
तस्वीर : अनुराग मुस्कान