Thursday, September 25, 2008

सरस्वती को धरती पर लाने की क़वायद


फ़िरदौस ख़ान
हरियाणा में आदि अदृश्य नदी सरस्वती को फिर से धरती पर लाने की क़वायद शुरू कर दी गई है. इसके लिए राज्य के सिंचाई विभाग ने सरस्वती की धारा को दादूपुर नलवी नहर का पानी छोड़ने की योजना बनाई है. देश के अन्य राज्य में भी इस पर काम चल रहा है. अगर यह महती योजना सिरे चढ़ जाती है तो इससे हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के तकरीबन 20 करोड़ लोगों की काया पलट जाएगी. इस नदी से जहां राज्यों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध हो सकेगा, वहीं सिंचाई जल को तरस रहे खेत भी लहलहा उठेंगे.काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है. बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है. साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी. नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है. नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं.

गौरतलब है कि हरियाणा के सिंचाई विभाग ने मुर्तजापुर के पास सरस्वती नदी की बुर्जी आरडी 36284 से 94000 तक पक्का करके इसमें दादूपुर नलवी नहर का पानी प्रवाहित करने की योजना बनाई है. राज्य के सिंचाई मंत्री कैप्टन अजय यादव का कहना है कि सरस्वती नदी में नहर का पानी आ जाने के बाद इससे रजबाहे निकाले जाएंगे, ताकि लोगों को पानी मिल सके. सैटेलाइट से मिले सरस्वती के चित्र के आधार पर काम शुरू किया जाएगा.

काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है. बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है. साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी. नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है. नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं.

योजना की कामयाबी के लिए कुछ विदेशी भू-विज्ञानी और नासा भी योगदान दे रहे हैं. इस अनुसंधान में सरस्वती शोध संस्थान, रिमोट सैंसिंग एजेंसी, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, सेंट्रल वाटर कमीशन, स्टेट वाटर रिसोर्सेज, सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीटयूट, हरियाणा सिंचाई विभाग, अखिल भारतीय इतिहास संगठन योजना और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (अहमदाबाद ) आदि काम कर रहे हैं.

केंद्र सरकार ने 2000 में सरस्वती नदी को प्रवाहित करने के लिए तीन परियोजनाओं को चालू करने का काम अपने हाथ में लिया था, जो राज्य सरकारों की मदद से पूरा किया जाना है. चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है. दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है. इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा. सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है. तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है. इसके लिए मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान संस्थान और राजस्थान के जोधपुर के रिमोट सैंसिंग एप्लीकेशन केंद्र के विज्ञानी काम में जुटे हैं. इसके अलावा सरस्वती घाटी में पश्चिम गढ़वाल में स्थित हर-की दून ग्लेशियर से सोमनाथ तक प्रवाहित होने वाली प्राचीन जलधारा मार्ग की खोज पर भी जोर दिया जा रहा है.

तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है. निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी. निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है. दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं.

सरस्वती नदी को फिर से प्रवाहित किए जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके शोध में जुटी संस्थाएं सरकार से काफी खफा हैं. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन का कहना है कि आदिबद्री और कलायत में सरस्वती नदी का पानी मौजूद होने के बावजूद इसमें नहर का पानी प्रवाहित करना दुख की बात है. सरकार को चाहिए सरस्वतीकि कलायत में फूट रही सरस्वती की धाराओं को जमीन के ऊपर लाया जाए. महज नदी के एक हिस्से को पक्का करने की बजाय आदिबद्री से लेकर सिरसा तक नदी को पक्का कर पानी प्रवाहित किया जाए. साथ ही कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की तर्ज पर सरस्वती विकास प्राधिकरण का गठन किया जाए. उनका यह भी कहना है कि अगर सरकार चाहे तो तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम अपने खर्च पर हरियाणा में सरस्वती नदी खुदाई करने को तैयार है.

Wednesday, September 24, 2008

याद रहेगी बेगम हज़रत महल की क़ुर्बानी

पेशकश : चांदनी
जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज्यादा वक़्त तक आज़ाद रहा. इस बीच बेगम हज़रत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की. तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकदारों ने भी उनका साथ दिया. बेगम अपनी कयादत की छाप छोड़ने में कामयाब रहीं.

फैज़ाबाद के एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा हुई इस लडक़ी (बेगम) को नवाब वाजिद अली शाह के हरम में बेगमात की खातिरदारी के लिए रखा गया था, लेकिन उनकी खूबसूरती और अक्लमंदी पर फ़िदा होकर नवाब ने उसे अपने हरम में शामिल कर लिया. बेटा होने पर नवाब ने उसे 'महल' का दर्जा दिया. ब्रिटिश संवाददाता डब्ल्यू. एच. रसेल के मुताबिक़ बेगम अपने शौहर वाजिद अली शाह से कहीं ज़्यादा क़ाबिल थीं. वाजिद अली ने भी इसे मानने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की.

बेगम की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आज़ादी के दौरान नज़रबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी. योजना का भेद खुल गया, वरना वाजिद अली शाह शायद आज़ाद करा लिए जाते. इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढक़र लडाई के मैदान में फ़ौज का हौसला बढ़ाती थीं.


जंगे-आज़ादी की कमान संभालने से पहले बेगम हज़रत महल ने अपने बारह साला बेटे शहजादे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया था. इसकी मान्यता उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र से भी ली, ताकि उन्हें कानून उनका हक मिल सके. ऐसा इसलिए भी किया गया कि इससे पहले गाजिउद्दीन हैदर (1814-1827) ने मुगलों से नाता तोड़कर खुद को इंग्लैंड के राजा के अधीन घोषित कर दिया था. वे 1819 में अवध के प्रभु संपन्न राजा बने थे. इसलिए जंगे-आज़ादी के वक़्त नवाब की कानूनन हालत मुल्क के दूसरे सूबेदारों से अलग थी.

बेगम के सामने कई दिक्कतें थीं. वे खुद भी नवाब का ओहदा संभाल सकती थीं. उन्हें यह भी समझाया गया कि अगर वे बगावत करेंगी तो मटियाबुर्ज में वाजिद अली शाह की जान पर बन सकती है. उनकी राह में उनकी बाकी सौतों रोड़ा बनी हुई थीं. इन्हीं हालात के बीच उन्होंने फ़ैसला लिया. इसमें उनका सबसे ज़्यादा साथ वाजिद अली शाह के हरम के दरोगा मम्मू खान और नवाबों के पुश्तैनी वफ़ादार रहे राजा जयलाल सिंह ने दिया. राजा जयलाल सिंह ने अवध के ताल्लुकदारों को बेगम के इरादों से वाकिफ कराते हुए भरोसा दिलाया और उन्हें बेगम के समर्थन में लामबंद कर लिया. मम्मू खान ने बाकी बेगमों की तऱफ से हो रहे विरोध को भी संभाला. तब बिरजिस कद्र को जुलाई में अवध का नवाब बनाया गया और शासन की कमान बेगम ने ख़ुद संभाली.

शुरुआती अव्यवस्था से निपट कर बेगम ने अवध के शासन को व्यवस्थित करने का काम संभाला. उनके सामने कई चुनौतियां थीं. शहर की बिगडती क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए बेगम ने अली राजा बेग को शहर कोतवाल नियुक्त किया. शहर में अमन-चैन कायम होने लगा. राजधानी होने के नाते लखनऊ की सुरक्षा का काम काफी मुश्किल था, क्योंकि जंगे-आज़ादी के नेताओं में आपस में और बेगम व मौलवी अहमदुल्ला में मतभेद पैदा हो गए थे. कैसरबाग की कई बेगमें भी हज़रत महल के ख़िलाफ़ थीं और रेजिडेंसी में रह रहे अंग्रेज़ सेनापतियों को गुप्त सूचनाएं भेज रही थीं, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा और जागीरों की फ़िक्र अवध की बजाय ज़्यादा थी.

हालांकि ज़्यादातर अंग्रेज़ लखनऊ को छोड़ चुके थे, फिर भी अवध के कई ज़िलों में ताल्लुकदारों से उनका संघर्ष जारी था. इन सेनानियों को मदद पहुंचानी थी. यह जाहिर था कि अंग्रेज अवध पर अपना वर्चस्व फिर कायम करने के लिए जोरदार हमला करेंगे, इसलिए सुरक्षा की मुकम्मल रणनीति भी बनानी थी. बेगम की सरकार की माली हालत खस्ता थी, जिसे बेहतर करना था. साथ ही अवध की लड़ाई में साथ देने के लिए कानुपर और दिल्ली वगैरह से बंगाल आर्मी के काफ़ी तादाद में जो सिपाही लखनऊ पहुंच चुके थे, उनकी तनख्वाह और रसद का इंतज़ाम भी बेगम को करना था. मशहूर लेखक रोशन तकी के मुताबिक़ ताल्लुकदारों की मदद से बेगम इस काम में काफ़ी हद तक कामयाब रहीं.

इन चुनौतियों से निपटने के लिए 26 से 28 नवंबर 1857 के बीच बेगम ने फ़ौरी तौर पर कई काम किए. 26 नवंबर को ही राजा देवीबख्श सिंह की फ़ौज ने लखनऊ में चिनहट की लड़ाई के बाद बची रह गई फौज के हमले को नाकाम कर बनी गांव की तरफ खदेड दिया. 27 नवंबर को सूचना मिली कि कॉलिन कैंपबेल कानुपर से लखनऊ के लिए चल पड़ा है. इसी बीच जनरल आउटरम भी आलमबाग में डेरा डाल चुका था. उनको पीछे धकेलने के लिए कई ताल्लुकदारों की सेना राजा देवीबख्श सिंह की अगुवाई में तैनात की गई. साथ ही अवध के समृध्द इलाके के ताल्लुकदारों को उनके इलाके में रवाना किया गया कि वे रसद और सेना का इंतज़ाम करें.

इन शुरुआती कदमों के बाद बेगम ने एक रक्षा परिषद बनाई. इसने तय किया कि कैसरबाग को मुख्य दुर्ग माना जाए. इसके अलावा सात और ऐसी जगहों की निशानदेही की गई, जहां से अंग्रेजी सेना लखनऊ में दाखिल को सकती थी. यहां पर सेना की तैनाती के साथ-साथ खाई भी खुदवाई गई. इसी रणनीति का यह नतीजा रहा कि लंबे वक्त तक रेजिडेंसी घिरी रही. नतीजतन, दूसरी अहम लड़ाई मार्च 1858 में ही हो पाई, जिसमें अवध की सेना को पीछे हटना पड़ा.

हालात बिगड़ते देख ताल्लुकदारों ने बेगम को उनके बेटे बिरजिस कद्र के साथ सुरक्षित नेपाल भेज दिया और लडाई जारी रखी. बेगम के प्रमुख सेनापति राजा जयपाल सिंह और राना बेनीमाधव दरगाह पर लगे मोर्चे पर पहुंचे और कसम खाई कि वे आखिरी दम तक लडेंग़े. जंगे-आज़ादी के तमाम नेता महीनों गुरिल्ला लड़ाई लड़ते रहे. आखिरकार इनमें से ज़्यादातर फांसी पर चढ़ा दिए गए. खुद लार्ड कैनिंग ने कुबूल किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम 1859 तक अवध को एक हद तक शांत और व्यवस्थित कर सके. उधर, 1879 में नेपाल में बेगम का इंतकाल हो गया.

Tuesday, September 23, 2008

लड़कियों की ख़रीद-फ़रोख्त की मंडी बना हरियाणा



फ़िरदौस ख़ान
पिछले क़रीब दो दशकों से हरियाणा में मानव तस्करी का सिलसिला बदस्तूर जारी है. ख़ास बात यह है कि यह सब 'विवाह' की आड़ में किया जा रहा है. जिन राज्यों की लड़कियों को हरियाणा में लाकर बेचा जा रहा है, उनमें असम, मेघालय, पं. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र्र और तमिलनाडू मुख्य रूप से शामिल हैं. पशुओं की तरह खरीदी और बेची जाने वाली इन लड़कियों का सामाजिक और पारिवारिक जीवन तबाह होकर रह गया है. हालत यह है कि इस तरह 'ख़रीद' कर लाई गई लड़की को अपने तथाकथित पति के अलावा उसके अन्य भाइयों के साथ भी शारीरिक संबंध बनाने पड़ते हैं. ऐसा न करने पर उसको मौत की नींद सुला दिया जाता है.

गौरतलब है कि फरवरी 2006 में हरियाणा के जींद जिले के गांव धौला निवासी अजमेर सिंह ने रांची से खरीद कर लाई गई 14 वर्षीय अपनी आदिवासी 'पत्नी' त्रिपला का सिर्फ इसलिए बेरहमी से कत्ल कर दिया कि उसने उसके भाइयों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इंकार कर दिया था. अजमेर सिंह का कहना था कि उसे उसके सभी भाइयों के साथ 'पत्नी' की तरह रहना होगा. इस मामले को मीडिया ने 'द्रौपदी सिंड्रोम नाम दिया था. त्रिपला बेहद गरीब परिवार की लड़की थी. भुखमरी से परेशान उसकी मां ने उसे अजमेर सिंह के हाथों बेच दिया था. यह कोई इकलौता मामला नहीं है. असम की ही औनू को उसके गरीब माता-पिता ने 20 हजार रुपए में रामफल नाम के एक वृध्द विधुर को बेचा था. हालांकि उसकी विवाह रामफल के साथ हुआ. इसके बावजूद उसे उसके छोटे भाई 45 वर्षीय कृपाल सिंह के साथ भी शारीरिक संबंध बनाने पड़ते हैं.

रामफल और कृपाल सिंह के मुताबिक़ वे छोटे से सब्जी उगाने वाले किसान हैं. उनकी आमदनी इतनी नहीं कि वे अलग-अलग पत्नियां रख सकें. इसलिए उन्होंने एक ही महिला के साथ 'पांडवों' की तरह रहने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने एक दलाल से संपर्क किया, जिसने उन्हें असम में औनू के परिवार से मिलवाया. ऐसा ही वाकिया हरियाणा के राजू का है. वह कहता है कि वह मजूदर है और उसकी आमदनी भी बेहद कम है. ऐसी हालत में कौन उसे अपनी बेटी देना चाहेगा. इसलिए उसने मीनू को ख़रीदा.
इसी तरह, 22 वर्षीय प्रणीता को क़रीब छह साल पहले असम के कामरूप जिले के गांव हाजो से लाकर मेवात में बेचा गया था. इस मामले में उसके माता-पिता करकंतू और राधेदास ने कामरूप के पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर अपनी बेटी को ढूंढने की गुज़ारिश की थी. उनका आरोप था कि दीपा दास नाम की एक महिला उनकी बेटी का विवाह कराने का वादा करने उसको अपने साथ ले गई थी, लेकिन एक साल से उसकी कोई खबर नहीं मिली. अपने बेटी को लेकर चिंतित अभिभावकों ने पुलिस से बेटी को वापस दिलाने की गुहार लगाई थी. इस मामले में खास बात यह रही कि प्रणीता ने वापस असम जाने से इंकार कर दिया. उसका कहना था कि अब उसका एक बच्चा है और वह अपने पति पप्पू सिंह अहीर के साथ ही रहना चाहती है. पप्पू सिंह अहीर असम के ही गांव केयाजेनी की लड़की कनिका दास को ख़रीदने के मामले का आरोपी है, जबकि प्रणीता उसे इस मामले में बेकसूर बताती है.

कनिका दास की बहन बबीता ने अपनी बहन को तलाश करने के लिए स्थानीय स्वयंसेवी संस्था दिव्य ज्योति जनकल्याण समिति की मदद ली और बाद में उसे पता चला कि उसकी बहन की मौत हो चुकी है. कनिका दास गर्भवती थी और इसी दौरान गर्भावस्था से संबंधित किसी समस्या के चलते उसकी मौत हो गई. बताया जाता है कि असम की दीपा दास नामक महिला का विवाह मेवात के गांव शबजपुर में हुआ था. वह असम से गरीब परिवारों से संपर्क कर उनके माता-पिता को इस बात के लिए राजी करती थी कि वे अपनी बेटियों की शादी हरियाणा में कर दें.

ग़रीब परिवारों के लिए दो जून की रोटी जुटाना बेहद मुश्किल होता है. ऐसी हालत में बेटी के विवाह में दहेज देना उनके बूते से बाहर की बात है. बेटी या तो उम्रभर घर में कुंवारी बैठी रहे जा फिर दूसरे राज्य में ऐसी जगह उसका विवाह कर दिया जाए, जहां दहेज की कोई मांग न हो तो जाहिर है, माता-पिता बेटी का विवाह करने को ही तरजीह देंगे. बस इसी मजबूरी का फायदा उठाकर दीपा दास असम से लड़कियां लाती और हरियाणा में बेच देती. उसने कनिका दास को रेवाड़ी में एक व्यक्ति के हाथों मोटी रकम में बेचा. वह प्रणीता और कनिका दास जैसी न जाने कितनी ही मासूम लड़कियों की ज़िन्दगी तबाह कर चुकी है.

असम की 15 वर्षीय लाली को राज सिंह चौधरी ने एक दलाल के माध्यम से ख़रीदा था. लाली अपने जीवन से खुश नहीं है उसका कहना है कि वह वापस असम जाकर फिर से अपनी जिन्दगी की शुरुआत करना चाहती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. राज सिंह चौधरी का कहना है कि वह यहां से असम जाकर भी सुखी नहीं रह सकती, क्योंकि उसे फिर किसी और के हाथ बेच दिया जाएगा.

पशिचम बंगाल की कविता को हिसार जिले के शेर सिंह ने ख़रीदा था. वह छोटे से घर में रहती है और पौ फटने से लेकर देर रात तक घर के कामकाज के अलावा पशुओं को चारा देने, दूध निकालने और उनकी देखभाल करने का काम करती है. घर से सभी लोग उस पर कड़ी नज़र रखते हैं, क्योंकि वह ख़रीदकर लाई गई है इसलिए किसी को उस पर भरोसा नहीं है. इसी तरह इसी साल मार्च में हिसार में बिहार से लाई गई बीना पर उसका पति तरसेम कड़ी नज़र रखता है. हालत यह है कि काम पर जाने से पहले वह उसे आंगन में बिठाकर कमरे को ताला लगा देता है. उसका कहना है कि क्या भरोसा कब यह टीवी और दूसरा सामान समेटकर अपने किसी यार के साथ फरार हो जाए.

मालती की कहानी तो बेहद दर्द भरी है. महिपाल क़रीब 15 साल पहले उसे बिहार से महज़ दो हज़ार रुपए में ख़रीदकर लाया था. दोनों पति-पत्नी सर्दियों के मौसम में रजाई में धागे डालने का काम करते थे और गर्मियों के मौसम में मेहनत-मज़दूरी करके किसी तरह ज़िन्दगी बसर कर रहे थे. मालती के मुताबिक़ उनके दो बच्चे भी हुए, लेकिन विवाह के करीब पांच साल बाद ही महिपाल बिहार से 13 साल की एक और लड़की को ख़रीदकर ले आया. इसके बाद उसकी परेशानियां और बढ़ गईं. महिपाल उसके साथ और ज़्यादा मारपीट करने लगा बेचने की कोशिश की, लेकिन अपने बच्चों के लिए उसने बिकना गवारा न किया. आज वह हर अत्याचार सहकर भी महिपाल और उसकी दूसरी पत्नी के साथ रहने को मजबूर है. वह कहती है कि शायद दूसरा आदमी भी कुछ ही दिन उसे अपने साथ रखकर किसी और के हाथों बेच देता. बार-बार बिकने से तो अच्छा है कि वह मारपीट सहकर यहीं पड़ी रहे. वह किसी पर बोझ थोड़े ही है. दिनभर मेहनत-मज़दूरी करके अपने और अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी तो कमा ही लेती है.

ये लड़कियां सिर्फ एक बार ही नहीं बिकतीं. समय-समय पर इन्हें एक हाथ से दूसरे हाथ बेचा जाता रहता है, जिससे ये पूरी तरह टूट जाती हैं. मगर इन लड़कियों में कुछ ऐसी खुशनसीब लड़कियां भी हैं, जिनकी पहले की ज़िन्दगी तो बहुत कठिनाइयों भरी थी, लेकिन आज वो सम्मान पूर्वक जीवन बसर कर रही हैं और अपनी ज़िन्दगी से खुश भी हैं. पं. बंगाल की 15 वर्षीय सीमा को उससे दोगुनी उम्र के हरियाणा के किसान महावीर सिंह के हाथों बेच दिया गया. सीमा के मुताबिक वह बेहद ग़रीब परिवार की लड़की है. उसके घर एक दिन छोड़कर चावल पकते थे, जबकि यहां अनाज, दूध और सब्जियां सब कुछ है. वह यहां आकर बेहद खुश है. उसके ससुराल के लोग भी उसे स्नेह और सम्मान देते हैं. इसी तरह सुनीता ओर किरण अपने नए जीवन से संतुष्ट हैं, लेकिन ऐसे मामले बहुत ही कम हैं.

एनजीओ शक्ति वाहिनी की वर्ष 2006 की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 593 जिलों में से 378 जिलों में 'मानव तस्करी' से प्रभावित हैं. पुलिस अधिकारी मानते हैं कि अन्य राज्यों से विवाह के खरीद कर लाई गई हजारों लड़कियां राज्य में हैं. साथ ही वे यह भी कहते हैं कि शिकायत मिलने पर जरूरी कार्रवाई की जाती है.समाज शास्त्री मानते हैं कि स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात बढ़ने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है. बेटे की चाह में भारतीय परिवारों में कन्या भ्रूण हत्या का चलन बड़ी तेजी से बढ़ा है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हरियाणा में वर्ष 1991 में एक हज़ार पुरुषों के पीछे 865 महिलाएं थी, जबकि वर्ष 2001 में यह तादाद घटकर 861 रह गई. हालात की गंभीरता को देखते हुए हरियाणा सरकार ने वर्ष 2006 को कन्या बालिका वर्ष घोषित किया था. इसके साथ ही लड़कियों के लिए 'लाडली' योजना शुरू की थी. इसके तहत दूसरी लड़की के जन्म पर उसके परिवार को पांच साल तक हर साल पांच हज़ार रुपए सरकार की ओर से दिए जाते हैं. अगर परिवार में केवल एक ही लड़की हो तो ऐसी हालत में उसके माता-पिता को 55 वर्ष की उम्र के बाद हर महीने तीन सौ रुपए वृध्दावस्था पेंशन के रूप में दिए जाते हैं. राज्य की स्वास्थ्य मंत्री करतार देवी दावा करती हैं कि सरकार की कोशिशों से हरियाणा में स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात में घटा है.

दूसरे राज्यों से ख़रीदकर लाई गई लड़कियां यौन प्रताड़ना का शिकार हैं. उनके तथाकथित पति के अलावा उनके भाइयों, अन्य रिश्तेदारों और मित्रों द्वारा उनका बलात्कार किया जाता है. प्रशासन को चाहिए कि वे इस तरह के दंपत्तियों के विवाह को पंजीकृत कराए, ताकि लड़की का जीवन कुछ तो सुरक्षित हो सके और उसे समाज में वह सम्मान भी मिले जिसकी वह हक़दार है.

लड़कियों की तस्करी सभ्य समाज के माथे पर कलंक है. यह एक अमानवीय प्रथा भी है. जहां सरकार को इसके खात्मे के लिए कारगर कदम उठाने होंगे, वहीं समाज को भी लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता को बदलना होगा.

Saturday, September 20, 2008

कब थमेगा गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला


देश में गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है...हालांकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने गिरजाघरों पर हमले और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा की न्यायिक जांच कराने के आदेश दिए हैं. इस दरम्यां कल भी बंगलौर और मंगलौर में दो गिरजाघरों पर हमले हुए हैं.
उनका कहना है कि जांच की ज़िम्मेदारी हाईकोर्ट के किसी अवकाश प्राप्त जज को सौंपी जाएगी. प्रदेश सरकार ने पहले इस मामले की जांच राज्य पुलिस की निगरानी इकाई से कराने का फ़ैसला किया था, लेकिन विपक्षी दल न्यायिक जांच कराने की मांग कर रहे थे.
मुख्यमंत्री ने कहा है कि न्यायिक जांच तो होगी, लेकिन इसके साथ-साथ निगरानी इकाई की जांच भी जारी रहेगी. पिछले दिनों प्रदेश के समुद्र तटीय मंगलौर, उडुपी, चिकमंगलूर और कोलार ज़िले में कई गिरजाघरों पर हमले हुए थे.
उड़ीसा में 23 अगस्त के बाद से लगातार ईसाइयों और गिरजाघरों पर हमले हो रहे हैं और वहां इस दौरान क़रीब 18 लोगों की मौत हुई है और सैकड़ों लोग बेघर हुए हैं. इसी तरह कर्नाटक में पिछले एक हफ़्ते से गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला जारी है.
देश में गिरजाघरों पर हो रहे लगातार हमलों से विदेशों में भारत की छवि धूमिल हुई है.

Tuesday, September 16, 2008

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल गुलशन बानो


फ़िरदौस ख़ान
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है. दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं. दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं.
ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है. करीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारखाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं. वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था. बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था. इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फैसला कर लिया. इस वाकिये को करीब छह साल बीत चुके हैं. रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है. उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं. उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी. बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है. उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है. जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया. उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक सिखाता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे. इनमें से करीब तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की. युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फसाद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं. हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं. इनकी तादाद मरने वाले लोगों से करीब 25 गुना ज्यादा होती है. हर साल करीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं.
इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुकसान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है. कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है. भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है. आजादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है.
दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं. बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए. हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही 'वही ढाक के तीन पात' रहा. आखिर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली.
सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मकसद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैं.
गौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है. हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा. इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं. इससे जहां रोजमर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फसाद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी. अहिंसक जीवन जीने के लिए यह जरूरी है कि 'सादा जीवन, उच्च विचार' की प्रवृत्ति को अपनाया जाए. अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं.

Thursday, September 11, 2008

भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने न्यूज़ चैनल


फ़िरदौस ख़ान
किसी को इतने खौफ़नाक तरीक़े से डराया जाए कि वह जान ही दे दे...,अगर यह सीखना हो तो न्यूज़ चैनल से सीखिए...कल हुए वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरों को लेकर न्यूज़ चैनलों ने दुनिया के ख़त्म होने की अफ़वाह को इतनी हवा दी कि मध्यप्रदेश के राजगढ़ ज़िले में एक किशोरी ने कथित तौर पर दुनिया ख़त्म होने की दहशत में परसों रात ज़हर खा लिया. उसकी कल इंदौर के एक अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई.
पुलिस सूत्रों के मुताबिक़ लड़की की पहचान छाया 16 के रूप में हुई है. मृतक के परिजनों ने बताया कि छाया पिछले दो दिन से टीवी पर जिनीवा में बुधवार को हो रहे वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरें देख रही थी. वह इन ख़बरों को देखने के बाद इस कद्र घबरा गई कि उसने सल्फास की गोलियां निगल लीं. गौरतलब है कि कुछ न्यूज़ चैनल महाप्रयोग के दौरान दुनिया ख़त्म होने के ख़तरे पर केंद्रित ख़बरों का लगातार प्रसारण कर दर्शकों को डराने की मुहिम में जुटे हुए थे. ख़ास बात यह रही कि बाद में पांसा बदलते हुए न्यूज़ चैनल चीख़ने लगे कि दुनिया ख़त्म नहीं होगी, बस देखते रहिए....न्यूज़ चैनल (यानि उनका न्यूज़ चैनल).
यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि न्यूज़ चैनल भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने और व्यस्क फ़िल्मों से ज़्यादा अश्लील होते जा रहे हैं...
न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.
दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.
समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.

Tuesday, September 9, 2008

आर्सेनिक के ज़हरीले असर से मिल सकेगी निजात


फ़िरदौस ख़ान
भारत के कई इलाके ऐसे हैं, जहां के भूमिगत पानी में आर्सेनिक की काफ़ी ज़्यादा मात्रा है. इसकी वजह से इन इलाकों में उगने वाली फ़सलों में भी आर्सेनिक पाया जाता है...आर्सेनिक का सेहत पर बहुत ही बुरा असर पड़ता है...हालांकि ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने पूर्वी भारत में चावल और पानी को जहरीले आर्सेनिक से होने वाले ज़हरीले असर से बचाने का तरीक़ा खोज लिया है.

एक अनुमान के मुताबिक़ पूर्वी भारत और बांग्लादेश में सात करोड़ से अधिक लोग चावल और पानी की वजह इस ज़हर का शिकार हो जाते हैं. इन लोगों में वे किसान भी शामिल हैं जो सिंचाई के लिए प्रदूषित भूजल का इस्तेमाल करते हैं. बंगाल डेल्टा के हर 100 लोगों में से एक व्यक्ति आर्सेनिक के ज़हरीले असर की वजह से मौत के क़रीब होगा, जबकि 100 में पांच लोगों को इस ज़हर के अन्य लक्षण दिखाई देते हैं. बेलफास्ट स्थित क्वींस विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के ऐसे हजारों लोगों के लिए आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए कम लागत वाली तकनीक विकसित की है जो भूजल में इस ज़हर के उच्च स्तर से दो चार हैं.

एक अंतरराष्ट्रीय टीम की अगुवाई कर रहे क्वींस विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने कोलकाता के निकट कशिंपोर में एक परीक्षण संयंत्र भी स्थापित किया है जो ग्रामीण समुदायों को रसायन मुक्त भूजल शोधन तकनीक मुहैया कराता है, ताकि उन्हें पानी और खेती के लिए ज़रूरी साफ़ पानी मिल सके. विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक और परियोजना के समन्वयक भास्कर सेनगुप्ता के मुताबिक़ दक्षिणी एशिया में बीमारी के अनेक मामलों के पीछे आर्सेनिक का ज़हर है. इसकी वजह से कैंसर के मामले भी बढ़ रहे हैं. आर्सेनिक के उच्च स्तर से प्रदूषित भूजल का ज़हरीलापन ख़त्म करने के लिए कम लागत वाली तकनीक कृषि के लिए एक चुनौती है. इस तकनीक को इलाके के लिए उपयुक्त करार देते हुए उन्होंने कहा कि क्वींस द्वारा विकसित किया गया यह तरीका एकमात्र तरीक़ा है जो पर्यावरण के अनुकूल है इस्तेमाल करने में आसान है और सस्ती दर पर ग्रामीण समुदाय के लिए उपलब्ध है.

अलबत्ता उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले में वक़्त में लोगों को आर्सेनिक के ज़हरीले असर से निजात मिल सकती है...सरकार को भी चाहिए कि वह लोगों को इस ज़हर के असर से बचाने कि दिशा में कारगर क़दम उठाए...

Thursday, September 4, 2008

कोसी ने क़हर तो अपनों ने ज़ुल्म ढहाया


फ़िरदौस ख़ान
बिहार में कोसी नदी ने जो क़हर बरपाया है, वह पहले ही कम नहीं था...और अब अपने ही लोग बाढ़ पीड़ितों पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं...हालांकि बिहार सरकार बाढ़ पीड़ितों को हरसंभव सहायता मुहैया कराने के दावे कर रही है, लेकिन कोसी के पानी में डूबे इस प्रदेश से आ रही ख़बरों कुछ और ही बयां कर रही हैं...
राहत शिविरों में लोगों को भोजन के नाम पर ख़राब खिचड़ी दी जा रही है...बीमार होने के डर से लोग उसे हाथ तक नहीं लगा रहे हैं...लोगों का कहना है कि अगर उन्हें सड़ा खाना खिलाकर ही मारना था तो पानी से ही क्यों निकाला, वहीं छोड़ दिया होता मरने के लिए...
इतना ही नहीं अभी भी कितने ही इलाकों में राहत नहीं पहुंच पाई है... बाढ़ पीड़ितों को वक़्त पर इलाज भी नहीं मिल पा रहा है, जिससे कितने ही लोग मौत के मुंह में समा गए हैं.....सहरसा के नागो शर्मा की भी कहानी भी बाढ़ पीड़ितों की तकलीफ़ों को बयां करने के लिए काफ़ी है... में उसने छत पर मां को लिटा लिया... उसकी सत्तर वर्षीया मां भगीनिया देवी मां भूख से बेहाल रही...घर में खाने को कुछ नहीं था...सब कोसी की भेंट चढ़ गया था...हर तरफ़ बस पानी ही पानी नज़र आ रहा था...राहत की उम्मीद में राहत की उम्मीद में उसकी आंखें पथरा गईं, लेकिन कहीं से उसे कोई मदद नहीं मिली...आखिरकार वह अपनी मां को कंधे पर लेकर अस्पताल तो पहुंच जाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है... डॉक्टरों ने उसकी सत्तर वर्षीया मां को मृत घोषित कर दिया...वह डॉक्टरों से लाख मिन्नतें करता रहा कि एक बार उसकी मां को ठीक से देख लो, लेकिन डॉक्टरों यह कहकर उसे निकल दिया कल देखेंगे...
फिर नागो शर्मा को लेकर कुछ लोग स्थानीय थाने पर पहुंचा, ताकि पूरे मामले की एफ़आईआर दर्ज कराई जाए.लेकिन थानेदार का रवैया भी डॉक्टरों से कहीं ज़्यादा तल्ख़ था. उसने शव को मॉर्चुरी में रखने की व्यवस्था कराने में आनाकानी की. जब उससे पूछा गया कि पुलिस शव की सुरक्षा के लिए कुछ क्यों नहीं कर सकती तो उसका जवाब था कि अस्पताल की मॉर्चुरी में तो शव को कुत्ते नोच डालेंगे, इससे बेहतर हुआ कि वह बाहर ही पड़ा रहा...
पुलिस को नहीं आना था और वह नहीं आई... किसी तरह लोगों के सहयोग से नागो की मां के अंतिम संस्कार की व्यवस्था की गई...यह हैं हमारे देश के डॉक्टर और पुलिस...
नागो शर्मा के साथ जो हुआ वह किसी के भी साथ हो सकता है... इसलिए ज़रूरत है अवाम को जागने की और सरकार को जगाने की...

Wednesday, September 3, 2008

आख़िर कब थमेगा भूख से मौतों का सिलसिला

फ़िरदौस ख़ान
मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान

मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान