Friday, October 10, 2008

क्यों सुनाई नहीं देतीं मासूमों की चीख़ें


फ़िरदौस ख़ान
कुपोषण के कारण मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में बच्चों के मौत की खबर के बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का कि देश के क़रीब आधे बच्चे कुपोषित हैं, सोचने पर मजबूर करता है क्या हमारा देश वाक़ई तरक़्क़ी कर रहा है... ?

हैरत की बात यह भी है कि जिस देश में धर्म-कर्म के नाम पर इतना कहर बरपा किया जाता है...उन तथाकथित राष्ट्रवादियों को भूख से तड़पते इन मासूमों की चीखें सुनाई नहीं देतीं...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी मज़हबों के लोग मज़हब के नाम पर लड़ने-झगड़ने की बजाय आपस में मिलजुल कर मानवता की सेवा करें...

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश की एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा ‘भोजन का अधिकार अभियान’ द्वारा वहां की हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका के मुताबिक़ राज्य में कुपोषण के कारण 159 बच्चों की मौत हो चुकी है. ये मौतें इस साल 8 मई से लेकर 10 सितंबर के बीच हुई हैं.

आयोग का कहना है कि इसकी वजह सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का ज़रूरतमंद बच्चों तक नहीं पहुंचना है. आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने कहा कि यह देश के समक्ष सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है. देश में बच्चों के कल्याण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसके बावजूद कोई भी योजना इतनी अच्छी नहीं है कि उसमें देश के सभी बच्चे शामिल हों. उनका कहना है कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को जिस तरीके से लागू किया जाना चाहिए था, वे उस तरीके से लागू नहीं हो रही हैं. ये योजनाएं ज़रूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, वरना मध्यप्रदेश में इतने बच्चों की मौत नहीं होती.

क़ाबिले-गौर है कि कुछ समय पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के क़रीब 47 फीसदी बच्चे कम वज़न के हैं. इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है. देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फ़ीसदी, झारखंड में 59.2 फ़ीसदी, बिहार में 58 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 52.2 फ़ीसदी, उड़ीसा में 44 फ़ीसदी, राजस्थान में भी 44 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.9 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फ़ीसदी, उत्तरांचल में 38 फ़ीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फ़ीसदी और पंजाब में 27 फ़ीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं.

यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफगानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुकाबले बहुत ज़्यादा है.

यूनिसेफ़ के एक अधिकारी के मुताबिक़ भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फ़ीसदी का कारण कुपोषण होता है. भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.

1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तक़रीबन सभी देशों के प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा.उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड़ लोगों को पोषक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है. यह संख्या क़रीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फ़ीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है.

खैर... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंसानियत से बढ़कर कोई मज़हब नहीं...और जनसेवा से बढ़कर कोई इबादत नहीं...

Wednesday, October 8, 2008

पाक कश्मीर की आज़ादी के खिलाफ़ नहीं

आख़िर पाकिस्तान ने कश्मीरियों के बारे में अपना रुख़ साफ़ कर ही दिया। ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चयुक्त वाजिद शम्सुल हसन ने कश्मीर पर कहा है कि पाकिस्तान कश्मीर में 'बाहर के चरमपंथियों के आतंकवाद' के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कश्मीरियों के भारत के विरुद्ध बल प्रयोग को उचित ठहराया है. गौरतलब है कि श्री हसन हाल में देश के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी के वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए उस इंटरव्यू के बारे में स्पष्टीकरण दे रहे थे, जिसमें उन्होंने भारत प्रशासित कश्मीर में इस्लामी चरमपंथियों को 'आतंकवादी' कहा था.


क़ाबिले-गौर यह भी है कि राष्ट्रपति ज़रदारी के विचारों के बारे में छपी रिपोर्ट के बाद प्रदर्शनकारियों ने भारत प्रशासित कश्मीर में जारी कर्फ़्यू की अवहेलना करते हुए भारतीय प्रशासन और ज़रदारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किए थे। कश्मीर में ऐसा पहली बार हुआ है जब पाकिस्तान के किसी नेता के पुतले जलाए गए हैं। आमतौर भारत प्रशासित कश्मीर में भारतीय प्रशासन का विरोध करते समय पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगते रहे हैं.


प्रमुख अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने ज़रदारी के बयान की कड़े शब्दों में निंदा की है। उनका कहना है कि " ज़रदारी ने अमरीका को ख़ुश करने के लिए यह बयान दिया है। ज़रदारी भारत से डरते हैं और भारत को ख़ुश करने के लिए पाकिस्तान की प्रतिष्ठा से भी समझौता कर सकते हैं।'' उनका यह भी कहना है कि ''कश्मीरी युवा अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं। सच तो यह है कि कश्मीर की जनता सरकारी आतंकवाद का आतंक का शिकार है। कश्मीरी के विद्रोहियों को आतंकवादी कह देने से कश्मीर की स्वायत्ता और स्वतंत्रता का आंदोलन कमज़ोर पड़ने वाला नहीं है. चरमपंथी संगठन अल-उमर-मुजाहिदीन के प्रमुख कमांडर मुश्ताक़ ज़रगार ने भी ज़रदारी के बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि "ज़रदारी ने भारत को कश्मीरी युवाओं को क़त्ल करने का लाइसेंस दे दिया है."


पाक उच्चायुक्त का कहना था कि राष्ट्रपति ज़रदारी 'कश्मीरी बाशिंदों के अपने संघर्ष को और स्वशासन के अधिकार' को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। मीडिया को भेजे गए एक ई-मेल में उन्होंने कहा कि 'पाकिस्तान विदेशी चरमपंथियों की ओर से सीमापार घुसपैठ और कश्मीरियों की आज़ादी की मुहिम को नेस्तनाबूद किए जाने' के ख़िलाफ़ है। ई-मेल में यह भी कहा गया है कि- 'इन विदेशी चरमपंथियों ने कश्मीरियों के स्वतंत्रता के संघर्ष की मदद करने की जगह उसे नुक़सान पहुंचाया है।'


गौरतलब है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनने के बाद संसद को अपने पहले संबोधन में आसिफ़ अली ज़रदारी ने कश्मीर का ज़िक्र करते हुए कहा था कि- ''मूल अधिकारों की बहाली को लेकर कश्मीरी लोगों के न्यायसंगत संघर्ष के प्रति हम वचनबद्ध हैं।''

Tuesday, October 7, 2008

मासूमों को निगल रहा है कुपोषण


फ़िरदौस ख़ान
बेशक भारत आर्थिक और परमाणु शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में वह काफ़ी पीछे है. मध्य प्रदेश में कुपोषण से हो रहीं मौतें इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं. गौरतलब है कि पिछले क़रीब एक महीने में मध्यप्रदेश के खंडवा, झाबुआ, सतना और शिवपुरी ज़िलों में क़रीब 100 बच्चों की मौत हो चुकी है और दो सौ से ज़्यादा अस्पताल में भर्ती हैं.


कुछ समय पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के क़रीब 47 फीसदी बच्चे कम वज़न के हैं. इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है. देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फ़ीसदी, झारखंड में 59.2 फ़ीसदी, बिहार में 58 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 52.2 फ़ीसदी, उड़ीसा में 44 फ़ीसदी, राजस्थान में भी 44 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.9 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फ़ीसदी, उत्तरांचल में 38 फ़ीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फ़ीसदी और पंजाब में 27 फ़ीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं.


यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफगानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुकाबले बहुत ज़्यादा है.


यूनिसेफ़ के एक अधिकारी के मुताबिक़ भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फ़ीसदी का कारण कुपोषण होता है. भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.


दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं. देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढ़ी बेरोज़गारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है. आज भी भारत में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक़्त की रोटी भी नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे.


एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है. इसलिए सबसे बड़ी चुनौती फ़िलहाल भूखों को भोजन कराना है. हमारे संविधान में कहा गया है कि 'राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा.' मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो ज़ाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं.


1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तक़रीबन सभी देशों के प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा.उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड़ लोगों को पोषक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है. यह संख्या क़रीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फ़ीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है.


हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फ़सल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोज़गार की कमी और ग़रीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज़्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योंकि वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए.


क़ाबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ़ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की ज़रूरत होती है तो दूसरी तरफ़ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आज़ादी के बाद से अब तक ग़रीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफ़ीताशाही के चलते वे महज़ कागज़ों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया ग़रीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है. एक तरफ़ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ़ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?
(इस आलेख को आज यानि 7 अक्टूबर 2008 के दैनिक जागरण में भी पढ़ा जा सकता है)

Monday, October 6, 2008

बाढ़ आती ही नहीं, लाई भी जाती है


फ़िरदौस ख़ान
देश के अन्य राज्यों के साथ ही बाढ़ ने इस साल पंजाब में भी कहर बरपाया, लेकिन पंजाब की बाढ़ प्राकृतिक आपदा न होकर मानवीय लापरवाही का नतीजा है. बाढ़ से जहां राज्य के सैकड़ों गांव जलमग्न हो गए, वहीं क़रीब 13 लोग भी बाढ़ की वजह से मौत की आगोश में समा गए. खेतों में खड़ी वे फसलें भी बाढ़ के पानी में बह गईं, जिन्हें किसानों के अपने खून-पसीने से सींचा था.

राज्य के अधिकारियों के मुताबिक़ फिरोज़पुर के 140 गांव, कपूरथला के 106 गांव, मोगा के 40 गांव, तरनतारन के 28 गांव और जालंधर के 14 गांव बाढ़ की चपेट में आए हैं. इन गांवों की क़रीब 66 हज़ार एकड़ भूमि बाढ़ से प्रभावित हुई है. फिरोज़पुर के 100 गांव तो पूरी तरह पानी में डूब गए, जिससे कई दिनों तक वहां की बिजली सप्लाई पूरी तरह बंद कर दी गई.

बाढ़ का कारण धुस्सा बांध का टूटना है. भाखड़ा डैम और सतलुज डैम से सतलुज में पानी छोड़ा गया, जिससे हालात और ज्यादा गंभीर हो गए. सिंचाई विभाग के मुताबिक़ भांखरपुर, धर्मकोट और धालीवाल नहर में भी जरूरत से ज्यादा पानी छोड़ा गया. अधिकारियों का कहना है कि अगर रोजाना एक से डेढ़ घंटा लगातार बारिश पड़ती है तो डैम और नहरों में पानी का स्तर बढ़ जाता है, जिससे भारी नुकसान होने की आशंका बढ़ जाती है. अफ़सोस की बात यह भी है कि सरकार के नुमाइंदे प्रशासनिक खामियों को नकारते हुए बाढ़ के लिए ग्रामीणों को ही क़सूरवार ठहराते हैं.

इसी कड़ी में, बाढ़ प्रभावित इलाकों का जायज़ा लेने के लिए मोगा के गांव संघेड़ा में पहुंचे सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने लोगों से बातचीत करते हुए धुस्सी बांध टूटने का ठीकरा ग्रामीणों के ही सिर ही फोड़ दिया. इससे ग्रामीण भड़क उठे और उन्होंने बांध प्रबंधों के नाम पर हुई घपलेबाजी की पोल खोलनी शुरू कर दी. अब भड़कने की बारी सिंचाई मंत्री की थी. मामले की नजाकत को भांपते हुए डिप्टी कमिश्नर वीके मीणा और एसडीएम लखमीर सिंह ने दोनों पक्षों को शांत कराया. ग्रामीणों का कहना है कि 1993 के बाद प्रशासन ने बांध पर मिट्टी डलवाने तक की कोशिश नहीं की. गांव के लोग हर साल ख़ुद ही मिट्टी डालते रहे हैं और सिंचाई विभाग फर्जी बिल बनाकर पैसा हड़प करता रहा है. उनका यह भी कहना है कि हर साल बांध पर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी भी डलवाई होती तो इतनी तबाही नहीं हुई होती. उनका कहना है कि अधिकारियों और राजनेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के लिए हजारों लोगों को बर्बाद कर दिया.

गौरतलब है कि सतलुज में आई बाढ़ से हुई तबाही ने प्रशासनिक प्रबंधों की कलई खोलकर रख दी है. मोगा के गांव बोगेवाल के समीप जिस स्थान पर धुस्सी बांध टूटा है, वहां 1997 में तकनीकी रूप से गलत ढंग से नोज तैयार की गई थी, जिससे बांध में दरारें पड़ गईं. धुस्सी बांध के किनारों पर लगाए गए बबूल के पेड़ों के कटान के चलते भी बांध सुरक्षा संबंधी सवालों के घेरे में था. हर साल मानसून शुरू होने से पहले धुस्सी बांध का जायजा लेने वाले अधिकारियों ने नोज की तकनीकी कमी और पेड़ों के कटान के कारण कमज़ोर होते बांध की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. नोज निर्माण में लापरवाही स्वीकार करते हुए सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने कहा कि मामले की जांच सिंचाई विभाग के मुख्य इंजीनियर को सौंपी गई है.

सिंचाई मंत्री के मुताबिक़ राज्य के 134 गांवों में बाढ़ आई है, जिससे 55 हज़ार प्रभावित हुए हैं. इन गांवों में क़रीब 11080 हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फ़सलें भी पूरी तरह तबाह हो गई हैं. उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की कि प्रभावित किसानों के नुक़सान की भरपाई की जाए, क्योंकि केंद्रीय पूल दिए जाने वाले अनाज में पंजाब के किसानों की हिस्सेदारी 60 से 70 फ़ीसदी रहती है. साथ ही उन्होंने किसानों के क़र्ज़ भी माफ़ किए जाने की मांग की. गौरतलब है कि बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त देश है. 1960 से 1980 के बीच दुनिया में बाढ से जो लोग मरे उनमें से 20 फ़ीसदी भारत से ही थे. विडंबना यह भी है कि पिछले क़रीब छह दशकों में बाढ़ से होने वाले नुक़सान में 50 से 90 गुना बढ़ोतरी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक़ 1953 में जहां कुल नुक़सान क़रीब 50 करोड़ रुपए था, वहीं 1984 में यह 2500 करोड़, 1985 में 4100 करोड़ और 1988 में 4600 करोड़ रुपए हो गया. 1990 के शुरू में कम नुक़सान हुआ. 1997 में 800 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था, लेकिन 1999 और 2000 में बाढ़ से ज़्यादा तबाही हुई. हर साल बाढ़ से होने वाले जान व माल के नुक़सान में बढ़ोतरी ही हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है.

देश में कुल 62 प्रमुख नदी प्रणालियां हैं, जिनमें से 18 ऐसी हैं जो अमूमन बाढ़ग्रस्त रहती हैं. उत्तर-पूर्व में असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु बाढ़ग्रस्त इलाके माने जाते हैं. लेकिन कभी-कभार देश के अन्य राज्य भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. 1996 में हरियाणा में बाढ़ ने कहर बरपाया था.

पिछले करीब छह दशकों में देश में 256 बड़े बांध बनाए गए हैं और 154 निर्माणाधीन हैं. साथ ही पिछले करीब दो दशकों से बाढ़ नियंत्रण में मदद के लिए रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं.

गौरतलब है कि विकसित देशों में आगजनी, तूफान, भूकंप और बाढ़ के लिए कस्बों का प्रशासन भी पहले से तैयार रहता है. उन्हें पहले से पता होता है कि किस पैमाने पर, किस आपदा की दशा में, उन्हें क्या-क्या करना है. वे बिना विपदा के छोटे पैमाने पर इसका अभ्यास करते रहते हैं. इसमें आम शहरियों के मुखियाओं को भी शामिल किया जाता है. गली-मोहल्ले के हर घर तक यह सूचना मीडिया या डाक के जरिये संक्षेप में पहुंचा दी जाती है कि किस दशा में उन्हें क्या करना है. संचार व्यवस्था के टूटने पर भी वे प्रशासन से क्या उम्मीद रख सकते हैं. पहले तो वे इसकी रोकथाम की कोशिश करते हैं. इसमें विशेषज्ञों की सलाह ली जाती है. इस प्रक्रिया को आपदा प्रबंधन कहते हैं. आग तूफान और भूकंप के दौरान आपदा प्रबंधन एक खर्चीली प्रक्रिया है, लेकिन बाढ़ का आपदा नियंत्रण उतना खर्चीला काम नहीं है. इसे बखूबी बाढ़ आने वाले इलाकों में लागू किया जा सकता है.

विकसित देशों में बाढ़ के आपदा प्रबंधन में सबसे पहले यह ध्यान रखा जाता है कि मिट्टी, कचरे वगैरह के जमा होने से इसकी गहराई कम न हो जाए. इसके लिए नदी के किनारों पर खासतौर से पेड़ लगाए जाते हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी को थामकर रखती हैं. नदी किनारे पर घर बसाने वालों के बगीचों में भी अनिवार्य रूप से पेड़ लगवाए जाते हैं. जहां बाढ़ का खतरा ज्यादा हो, वहां नदी को और अधिक गहरा कर दिया जाता है. गांवों तक में पानी का स्तर नापने के लिए स्केल बनी होती है.

भारत में भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा. इसके लिए जहां प्रशासन को चाक-चौबंद रहने की ज़रूरत है, वहीं जनमानस को भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. स्कूल, कॉलेजों के अलावा जगह-जगह शिविर लगाकर लोगों को यह प्रशिक्षण दिया जा सकता है. इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है. इस तरह प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है.