रजनीश जी...
आपकी पोस्ट (ब्लॉगवाणी : यह लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्लॉग है) पढ़ी...
इतना कहना चाहेंगे कि हम भी अपने बारे में लिखने बैठते तो इतना अच्छा-अच्छा नहीं लिख पाते, जितना अच्छा-अच्छा आपने लिखा है...
आपके लिखने के अंदाज़ के तो हम पहले से ही क़ायल हैं...
सच! आपने तो हमसे हमारा ही तअरुफ़ करा दिया...वो भी इतने दिलकश अंदाज़ में...क्या कहने...
तारीफ़ और शुक्रिया के लिए हमें लफ़्ज़ ही नहीं मिल पा रहे हैं...
वाक़ई... ज़र्रे को आफ़ताब बनाना तो कोई आपसे सीखे...
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया
यह लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का बलॊग है
-डॊ. ज़ाकिर अली ’रजनीश’
(जनसंदेश टाइम्स, 14 दिसंबर, 2011 के 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित)
एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्पेस. आज के प्रतिद्वन्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्चे ही पहुंच पाते हैं.
राजा-रानी का दौर ख़त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्मृतियां अब भी लोगों के जेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्चों की तारीफ़ करते हुए उन्हें अक्सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख्शियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्लॉग की दुनिया की चर्चित हस्ती है, लेकिन अपने को शब्दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्तुत करती है. उस चर्चित ब्लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.
फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com) के लिए जानी जाती हैं.
‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्य और विशेषकर उर्दू साहित्य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अकसर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहिंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.
एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्लावाद की सख़्त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े ख़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्याप्त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्लाम और मुस्लिम समाज ही है.
'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com) से मिलती है, जिस पर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्त वे अपने उर्दू ब्लॉग ‘जहांनुमां’, पंजाबी ब्लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्दी ब्लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.
अपनी बरदस्त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नजर में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गम्भीर ब्लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.
आपकी पोस्ट (ब्लॉगवाणी : यह लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का ब्लॉग है) पढ़ी...
इतना कहना चाहेंगे कि हम भी अपने बारे में लिखने बैठते तो इतना अच्छा-अच्छा नहीं लिख पाते, जितना अच्छा-अच्छा आपने लिखा है...
आपके लिखने के अंदाज़ के तो हम पहले से ही क़ायल हैं...
सच! आपने तो हमसे हमारा ही तअरुफ़ करा दिया...वो भी इतने दिलकश अंदाज़ में...क्या कहने...
तारीफ़ और शुक्रिया के लिए हमें लफ़्ज़ ही नहीं मिल पा रहे हैं...
वाक़ई... ज़र्रे को आफ़ताब बनाना तो कोई आपसे सीखे...
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया
यह लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी का बलॊग है
-डॊ. ज़ाकिर अली ’रजनीश’
(जनसंदेश टाइम्स, 14 दिसंबर, 2011 के 'ब्लॉगवाणी' कॉलम में प्रकाशित)
एक ज़माना हुआ करता था जब शाम को खाना खाने के बाद बच्चे अपने दादा-दादी को घेर कर बैठ जाया करते थे और कहानियां सुना करते थे. राजा-रानी, परी-जादूगरों की वे कहानियां इतनी मज़ेदार हुआ करती थीं कि कब उन्हें सुनते-सुनते घंटों बीत जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था. समय बदला, लोग बदले और साथ ही बदल गया परिवार का ढांचा. अब न तो परिवार में दादा-दादी के लिए जगह बची है और न ही बचा है कहानियों के लिए स्पेस. आज के प्रतिद्वन्द्विता के युग में ढली पढ़ाई में न तो बच्चों के पास कहानियों के लिए समय बचा है और न ही कहानियों के सुनाने वालों के पास अब बच्चे ही पहुंच पाते हैं.
राजा-रानी का दौर ख़त्म हुए एक युग बीत चुका है. यही कारण है कि घोड़े पर चढ़कर आते हुए राजकुमार अब कहीं नहीं नज़र आते. राजकुमारियों के क़िस्से भी अब पुराने पड़ चुके हैं. लेकिन बावजूद उसके वे कथानक, वे स्मृतियां अब भी लोगों के जेहन में ज़िन्दा हैं. यही कारण है कि मां-बाप अपने बच्चों की तारीफ़ करते हुए उन्हें अक्सर ‘राजा बेटा’ और ‘नन्हीं राजकुमारी’ जैसे विशेषणों का इस्तेमाल करते पाए जाते हैं. ब्लॉगजगत में जहां एक ओर ऐसे तमाम नन्हें राजकुमार और राजकुमारियां अपनी शैतानियों के कारण चर्चा में रहते हैं, वहीं एक शख्शियत ऐसी भी है, जो यूं तो ब्लॉग की दुनिया की चर्चित हस्ती है, लेकिन अपने को शब्दों के द्वीप की राजकुमारी के रूप में प्रस्तुत करती है. उस चर्चित ब्लॉगर का नाम है सुश्री फ़िरदौस ख़ान.
फ़िरदौस एक युवा लेखिका हैं. वे पत्रकार के साथ-साथ शायरा और कहानीकार के रूप में भी जानी जाती हैं और उर्दू, हिन्दी तथा पंजाबी साहित्य में समान रूप से रूचि रखती हैं. अनेक दैनिक एवं साप्ताहिक समाचार पत्रों, रेडियो तथा टेलीविज़न चैनलों के लिए काम कर चुकी फ़िरदौस वर्तमान में 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हैं. वे वर्ष 2007 से ब्लॉग जगत में सक्रिय हैं और अपने ब्लॉग ‘मेरी डायरी’ (http://firdaus-firdaus.blogspot.com) के लिए जानी जाती हैं.
‘मेरी डायरी’ फ़िरदौस का एक समसामयिक ब्लॉग है, जिसमें वे बेबाक शैली में अपने विचार रखती हैं. साहित्य और विशेषकर उर्दू साहित्य से गहरा जुड़ाव होने के कारण जहां उनके शब्दों में उर्दू की मिठास मिलती है, वहीं पत्रकारिता के गहन अनुभव के कारण उनकी भाषा में एक तीखी धार का भी एहसास होता है. यही कारण है कि वे जब किसी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी बात रखती हैं, तो वह काफ़ी मारक हो जाती है. जब वे अपनी क़लम की ज़द में धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर आती हैं, तो अकसर विवाद की ऊंची-ऊंची लपटें उठने लगती हैं. कभी-कभी इन विषयों पर लिखते समय अपने ख़िलाफ़ उठने वाले विवाद के कारण ऐसा भी होता है कि वे शालीनता की सीमा रेखा के आसपास पहिंच जाती हैं. लेकिन न तो वे इस बात का कोई मलाल रखती हैं और न ही वे इस वजह से होने वाली तीखी आलोचनाओं के कारण अपनी सोच से पीछे हटने के लिए तैयार नज़र आती हैं.
एक विचारवारन मुस्लिम महिला होने के कारण फ़िरदौस कठमुल्लावाद की सख़्त विरोधी हैं और मुस्लिम महिलाओं को आगे बढ़कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की हिमायती हैं. वे गर्व के साथ अपने को भारतीय नारी कहती हैं और न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं पर लादी गई ज़्यादतियों का विरोध करती हैं, वरन बड़े ख़ख़्र से बताती हैं कि हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से निजात दिलाई है. वे मुस्लिम समाज में व्याप्त दक़ियानूसी विचारधाराओं की सख़्त आलोचक हैं. यही कारण है कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर सबसे ज़्यादा अगर किसी विषय पर लिखा है, तो वह इस्लाम और मुस्लिम समाज ही है.
'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब की लेखिका फ़िरदौस हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी जानकार हैं और अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुकी हैं. उनके साहित्यिक रुझान की झलक उनके ब्लॉग ‘फ़िरदौस डायरी’ (http://firdausdiary.blogspot.com) से मिलती है, जिस पर वे अपनी नज़्मों के साथ-साथ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्व के विषयों पर लेखन करती पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्त वे अपने उर्दू ब्लॉग ‘जहांनुमां’, पंजाबी ब्लॉग ‘हीर’ एवं अंग्रेजी ब्लॉग ‘द पैराडाइज़’ के लिए भी जानी जाती हैं, जिनके लिंक उनके हिन्दी ब्लॉग ‘मेरी डायरी’ पर देखे जा सकते हैं.
अपनी बरदस्त टैग लाइन ‘मेरे अल्फ़ाज़, मेरे जज़्बात और मेरे ख़्यालात की तर्जुमानी करते हैं... क्योंकि मेरे लफ़्ज़ ही मेरी पहचान हैं’ के कारण पहली नजर में पाठकों को आकर्षित करने वाली फ़िरदौस एक गम्भीर ब्लॉगर के रूप में जानी जाती हैं और अपने विविधतापूर्ण तथा प्रभावी लेखन के कारण ब्लॉगरों की बेतहाशा भीड़ में भी दूर से पहचानी जाती हैं.
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