Wednesday, November 27, 2013

क्या सैफ़ की समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं...


फ़िरदौस ख़ान
पिछले हफ़्ते की बात है, हम अपनी एक रिश्तेदार के घर गए. सोचा बच्चों के लिए चॊकलेट ले चलें. उसकी गली में एक दुकान पर LAYS चिप्स के पैकेट देखकर हैरानी हुई.  हैरानी इस बात कि दुकानदार मुस्लिम हैं. सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहने, हमेशा सर पर टोपी पहनने वाले नमाज़ी बुज़ुर्ग. हमने उनसे पूछा कि क्या आप जानते हैं कि  LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है? वह हैरानी से हमें देखने लगे, जैसे हमने कोई अनोखी बात पूछ ली हो. दरअसल, उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. हमारे बताने पर वह कहने लगे कि वह अब कभी अपनी दुकान पर LAYS चिप्स नहीं रखेंगे, और ये पैकेट भी हटा देंगे. हमने उनसे कहा कि आप अपने साथी दुकानदारों को भी इस बारे में जानकारी दीजिएगा. और हां, जो बच्चे और बड़े LAYS चिप्स ख़रीदने आएं, उन्हें भी ये जानकारी ज़रूर दीजिएगा.

कुछ अरसा पहले जब Maggi और LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी पाए जाने पर हंगामा हुआ था और कुछ मुस्लिम देशों में Maggi और LAYS चिप्स जैसे उत्पादों पर रोक लगाई गई थी. तब भी हमने अपने फ़्लैट्स की इमारत में बनी दुकानें चलाने वालों को इस बारे में बताया था और उन्होंने  Maggi और LAYS चिप्स रखना बंद कर दिया था.

जिन पदार्थों पर  E100, E110, E120, E 140, E141, E153, E210, E213, E214, E216, E234, E252,E270, E280, E325, E326, E327, E334, E335, E336, E337, E422, E430, E431, E432, E433, E434, E435, E436, E440, E470, E471, E472, E473, E474, E475,E476, E477, E478, E481, E482, E483, E491, E492, E493, E494, E495, E542,E570, E572, E631, E635, E904 लिखा दिखे, तो समझ लीजिए कि इसमें सूअर की चर्बी है.

हमें यह देखकर हैरानी होती है कि छोटे नवाब यानी सैफ़ अली ख़ान LAYS चिप्स का विज्ञापन बड़ी शान से करते हैं. LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है.  इसके पैकेट पर इस बारे में संकेत भी दिया गया है, यानी  E631 लिखा गया है, जिसका मतलब है सूअर की चर्बी. इसके बावजूद सैफ़ अली ख़ान  LAYS चिप्स बेचते हैं.
हो सकता है कि उन्हें सूअर की चर्बी खाने में कोई बुराई नज़र नहीं आती हो, लेकिन जो लोग इसे हराम समझते हैं, उनका ईमान क्यों ख़राब किया जाए?
जो इंसान, जो चीज़ नहीं खाता, उसे धोखे से वह चीज़ खिलाना ग़लत है, बिल्कुल ग़लत.

हिंदुस्तान में करोड़ों लोग ऐसे होंगे, जिन्हें यह मालूम नहीं होगा कि LAYS चिप्स में सूअर की चर्बी होती है, और बच्चे...?  बच्चे तो मासूम होते हैं, उन्हें क्या पता कि उनका हीरो सैफ़ अली ख़ान जिस LAYS चिप्स खाने के लिए उन्हें ललचा रहे है, उसमें सूअर की चर्बी है.

क्या सैफ़ अली ख़ान जैसे लोगों की समाज के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? 

Thursday, November 21, 2013

मीडिया का स्याह चेहरा...

जिस मीडिया पर समाज को जागृत करने की ज़िम्मेदारी है, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता... उसका भी एक स्याह चेहरा है... वहां भी कई तरह का शोषण है... मीडिया कर्मियों को वक़्त पर तनख़्वाह देने के मामले भी अकसर सामने आते रहते हैं... महिलाओं के शोषण की ख़बरें भी आती हैं, लेकिन इन्हें दबा दिया जाता है...
दूसरी तरफ़ मीडिया में ऐसी ’महान’ लड़कियों की भी कमी नहीं है, जो सिर्फ़ ’टाइम पास’ और ’नाम’ के लिए ही दफ़्तर आती हैं, ताकि पास-पड़ौस और रिश्तेदारों को बता सकें कि फ़लां मीडिया हाऊस में काम करती हैं. ऐसी ’महान’ लड़कियों का दफ़्तर का काम दूसरी लड़कियों को करना पड़ता है. इन 'महान' लड़कियों को दफ़्तर से कई सुविधाएं मिलती हैं, छुट्टी करने पर तनख़्वाह नहीं कटती. इन्हें देर से आकर जल्दी जाने की छूट भी होती है. जब चाहें दस-बीस दिन के लिए अपने घर (दूसरे प्रदेश) जा सकती हैं. तनख़्वाह भी इन्हीं की ज़्यादा बढ़ती है. एक महिला ने हमें बताया कि काम का ज़्यादा बोझ होने से परेशान होकर जब उसने अपने सीनियर से शिकायत की, तो उसके सीनियर ने कहा- दफ़्तर में दस लोग काम करते हैं और दो लड़कियां काम न करने के लिए भी होती हैं.
इन ’महान’ लड़कियों की वजह से भी मीडिया का माहौल ख़राब हो रहा है. इनकी वजह से ही वाहियात लोग हर लड़की को इन्हीं ’महान’ लड़कियों की तरह ट्रीट करना चाहते हैं. ऐसे में अच्छे घरों की लड़कियों के लिए मुश्किलें पैदा हो रही हैं.

Wednesday, November 20, 2013

अछूत...


फ़िरदौस ख़ान
बात स्कूल के वक़्त की है. हमारी एक सहेली थी गीता. एक रोज़ वह हमारे घर आई. लेकिन बाहर दालान में ही खड़ी रही. हमने उसे अंदर कमरे में आने के लिए कहा, तो पूछने लगी- क्या सचमुच अंदर आ जाऊं ? हमें उसकी बात पर हैरानी हुई. हमने इसकी वजह पूछी, तो उसने बताया कि वह वाल्मीकि है, यानी अछूत है. उसके अंदर आने से कहीं हमारी दादी जान नाराज़ तो नहीं होंगी? हमने कहा- नहीं. वह अंदर आ गई. हमारे कहने पर कुर्सी पर बैठ भी गई, लेकिन बहुत सिमटी-सिमटी रही. हमें लग ही नहीं रहा था कि वह वही गीता है, जो स्कूल में हमारे साथ हर वक़्त चहकती रहती है. उसके जाने के बाद हमने अपनी दादी जान से पूछा कि अछूत कौन होते हैं?  उस वक़्त इतनी समझ नहीं थी. उन्होंने बताया कि जो लोग मैला ढोने के काम में लगे होते हैं, मोची का काम करते हैं उन्हें अछूत माना जाता है. उन्होंने ऐसे ही कुछ और काम भी गिनाए. बहुत अजीब लगा था उस वक़्त, क्योंकि जो लोग वह काम करते हैं, जिसे कुछ लोग बहुत-से पैसे लेकर भी नहीं करेंगे, वे इतने बुरे यानी अछूत कैसे हो सकते हैं? लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी दुनिया की बातें समझ में आने लगीं और पता चला कि पढ़े-लिखे लोग भी छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के मकड़जाल में फंसे हुए हैं.

दुख की बात है कि भारत जैसे विकासशील देश में आज़ादी के तक़रीबन साढ़े छह दशक बाद भी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा जारी है. इस काम से जुड़े लोग अब आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक कारण उन्हें इस दलदल से बाहर नहीं निकलने दे रहे हैं. दरअसल, देश में जाति प्रथा की वजह से भी मैला ढोने की प्रथा का अभी तक ख़ात्मा नहीं हो पाया है. यहां महिलाओं, पुरुषों और यहां तक कि बच्चों को भी सिर्फ़ इसी वजह से मैला ढोने का काम करना पड़ता है, क्योंकि उनका जन्म एक जाति विशेष में हुआ है. इसलिए इस तबक़े के लोग शुष्क शौचालयों से मैला साफ़ करके उसे किसी दूसरे स्थान पर फेंकने जैसा अमानवीय काम करने को मजबूर हैं. यह एक घृणित कार्य है. देश के विभिन्न हिस्सों में शुष्क शौचालयों की मौजूदगी मानव प्रतिष्ठा और सम्मान के हनन के साथ-साथ संविधान के तहत क़ानून और अनुच्छेद 14, 17, 21 और 23  का उल्लंघन है. साल 1993  में संसद ने सफ़ाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम- 1993 पारित किया, जिसमें यह कहा गया है कि हाथ से मैला साफ़ करने वालों को रोज़गार पर रखना और शुष्क शौचालयों का निर्माण करना एक क़ानूनी अपराध है, जिसके लिए एक साल तक की क़ैद की सज़ा और दो हज़ार रुपये के जुर्माने का प्रावधान है. इस क़ानून के तहत इस प्रथा को ख़त्म करने की बात कही गई. केंद्र सरकार ने इसके ख़ात्मे के लिए कई बार समय सीमाएं भी तय कीं. पहले समय सीमा 31 दिसंबर, 2007 थी, जिसे बाद में बढ़ाकर 31 मार्च, 2009 कर दिया गया. केंद्र सरकार द्वारा अप्रैल 2007 से लागू मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्वरोज़गार योजना ( एसआरएमएस) के तहत 735.60 करोड़ रुपये का प्रावधान करते हुए दावा किया गया था कि 31 मार्च, 2009  तक इस प्रथा को समाप्त कर सभी का पुनर्वास कर दिया जाएगा. ग़ौरतलब है कि उस वक़्त राज्यों ने भी खुले में शौच को पूरी तरह ख़त्म करने के लिए अपनी समय सीमा दर्शाई थी. बिहार ने इसके लिए साल 2069 का लक्ष्य रखा है. इसी तरह असम ने 2044, झारखंड ने 2035, राजस्थान ने 2029, छत्तीसगढ़  ने 2022, मध्य प्रदेश ने 2021, गुजरात ने 2015, महाराष्ट्र ने 2014 और उत्तर प्रदेश ने 2013 का लक्ष्य तय किया था. कुछ साल पहले पश्चिम बंगाल ने मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने के लिए धनराशि लेने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि राज्य में मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो चुका है. हालांकि पश्चिम बंगाल को 7.23 करोड़ रुपये दिए गए थे, लेकिन इसके बावजूद अभी तक राज्य में मैला ढोने की प्रथा जारी है. सच तो यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस क़ानून को लागू करने में काफ़ी ढिलाई बरत रही हैं. क़ानून पास हुए तक़रीबन 20 साल हो चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद देश में मैला ढोने की अमानवीय प्रथा बेरोकटोक जारी है.

देश की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी स्वीकार किया है कि स्थानीय निकाय भी नियमित रूप से शुष्क शौचालय चलाते हैं और इन शौचालयों की हाथ से सफ़ाई के लिए जाति विशेष के लोगों को रोज़गार पर लगाते हैं. क़ाबिले-ग़ौर बात यह भी है कि मैला ढोने की प्रथा को सिर्फ़ स्वच्छता के नज़रिये से देखा जाता है, जबकि इसे मानव सम्मान के रूप में भी देखा जाना चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का कहना है कि जब तक लोग जाति प्रथा की कुरीति से नाता नहीं तोड़ेंगे, तब तक मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति मिलना मुश्किल है, क्योंकि छुआछूत और जातिप्रथा की वजह से ही यह व्यवस्था क़ायम है. उन्होंने कहा कि ग़ुलामी की प्रथा में दास मुक्त हो जाता था, लेकिन जाति प्रथा की जकड़न से हम अब तक आज़ाद नहीं हो पाए हैं. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मुकुल वासनिक ने कहा था कि यह काफ़ी दुखद है कि आज़ादी के छह दशक बाद भी एक वर्ग हाथों से मैला ढोने का काम करता है. सरकार मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने के लिए क़ानून बनाएगी और इस काम में लगे लोगों की नए सिरे से गिनती की जाएगी. ग़ौरतलब है कि इस प्रथा को रोकने के लिए एक विधेयक तैयार है, जिसे संसद में पारित करवाया जाना बाक़ी है. साल 2008 के संसद के शीतकालीन सत्र में तत्कालीन सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री सुब्बूलक्ष्मी जगदीसन ने लोकसभा में बताया था कि मैला उठाने की प्रथा को जड़ मूल से ख़त्म करने के लिए एक योजना बनाई गई है. उस वक़्त उन्होंने बताया कि मैला उठाने वाले लोगों के पुनर्वास और स्वरोज़गार की नई योजना को जनवरी 2007 में शुरू किया गया था. उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, इस योजना के तहत देश के 1 लाख 23 हज़ार मैला उठाने वालों और उनके आश्रितों का पुनर्वास किया जाना प्रस्तावित था. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ आज भी देश में 12 लाख 91 हज़ार 600 शुष्क शौचालय हैं. 

आज भी देश के ज़्यादातर गांव शौचालय और जल निकासी की समस्या से जूझ रहे हैं. विकास की रोशनी आज भी गांव की तंग गलियों तक नहीं पहुंच पाई है. इतिहास गवाह है कि सदियों पहले देश के गांव आज के भारत के मुक़ाबले कहीं बेहतर हालत में थे. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले शौचालय के अवशेष इस बात के सबूत हैं कि उस वक़्त जो सुविधाएं लोगों के पास थीं, उन्हें हम आज भी अपने गांवों के घरों तक नहीं पहुंचा पाए हैं. यह कैसा विकास है कि हम आज भी अपने देश के लाखों लोगों को सम्मान से जीना का हक़ नहीं दे पाए हैं.

तस्वीर गूगल से साभार 
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Thursday, October 24, 2013

फ़ेसबुक प्रबंधन से अपील


फ़िरदौस ख़ान
यह देख कर बहुत दुख होता है कि इंसान ने शक्ल-सूरत तो इंसान वाली पाई है, लेकिन आज भी उसके अंदर ख़ूंख़ार जानवर बसा हुआ है... आज हमने फ़ेसबुक पर एक तस्वीर देखी, जो पाकिस्तान की मस्जिद में हुए बम विस्फ़ोट की है... फ़ेसबुक पर इस तस्वीर को मंदिर बताया जा रहा है... और बम विस्फ़ोट में मरने वाले मुसलमानों को हिंदू... साथ ही कहा जा रहा है कि मुसलमानों ने हिदुओं को काटा है...

हैरानी इस बात पर भी है कि पढ़े-लिखे समझदार हिंदू भाई इसे शेयर कर रहे हैं... क्या आपने तस्वीर को ध्यान से देखा कि यह मंदिर या मस्जिद...? दरअसल, ऐसे मामलों में कुछ लोग बिना-सोचे समझे अपने दिलों की भड़ास निकाल लेते हैं... बिना सच को जानें... क़ाबिले-ग़ौर है कि बांग्लादेश में हुए दंगों से दौरान कुछ मुसलमानों से भी ऐसा ही क्या था... बुद्धों की लाशों को मुसलमानों की लाशें बताया था... इसी तरह अन्य़ मुस्लिम देशों में मरने वाले मुसलमानों को बांग्लादेश में मारे गए मुसलमान कहकर नफ़रत फैलाने की कोशिश की थी...

सभी हिंदू भाइयों से हमारा अनुरोध है कि भाई इस तस्वीर में मरने वाले भी ’मुसलमान’ हैं... और ’मारने वाले’ भी... इस वक़्त तो दुनिया भर में मुसलमान ही मुसलमानों के ख़ून के प्यासे हो रहे हैं...

मुसलमान भाइयों से भी इल्तिजा है कि वो भी ऐसी झूठी अफ़वाहों को सच मानकर, नफ़रत को हवा न दें...

मुसलमान, मुसलमान को मारे... हिंदू को मारे या किसी और को... या फिर हिंदू मुसलमान को मारे... इस सबके बीच मौत तो सिर्फ़ इंसान और इंसानियत की ही होती है... क्या हम मिलजुल कर नफ़रत की इस खाई को पाट नहीं सकते हैं...? क्या हम खु़दा के बनाए इंसान और उसकी आने वाली नस्लों के लिए कोई बेहतरीन मिसाल पेश नहीं कर सकते...?
आप सबसे ग़ुज़ारिश है कि जवाब ज़रूर दें...

फ़ेसबुक प्रबंधन से अपील 
फ़ेसबुक को ऐसे पेजों पर पाबंदी लगानी चाहिए, जो नफ़रत फैलाने का काम करते हैं... चाहे ये पेज मुसलमानों के हों या फिर हिंदुओं के...

Saturday, August 24, 2013

दहेज प्रथा की शिकार हव्वा की बेटियां


फ़िरदौस ख़ान
हिंदुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम अभिभावक लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह दे रहे हैं. एक तरफ़ जहां बहुसंख्यक तबक़ा दहेज के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है, वहीं मुस्लिम समाज में दहेज का दानव महिलाओं को निग़ल रहा है. दहेज के लिए महिलाओं के साथ मारपीट करने, उन्हें घर से निकालने और जलाकर मारने तक के संगीन मामले सामने आ रहे हैं. बीती एक जुलाई को हरियाणा के कुरुक्षेत्र ज़िले के गांव गुआवा निवासी नसीमा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. करनाल ज़िले के गांव मुरादनगर निवासी नज़ीर की बेटी नसीमा का विवाह क़रीब छह साल पहले गांव गुआवा के सुल्तान के साथ हुआ था. 26 वर्षीय नसीमा की तीन बेटियां हुईं. उसके परिवार के लोगों का आरोप है कि नसीमा को दहेज के लिए परेशान किया जाता था. इतना ही नहीं, बेटियों को लेकर भी उसे दिन-रात ताने सुनने को मिलते थे. उनका यह भी कहना है कि उसके पति सुल्तान ने दहेज न मिलने की वजह से उसे फांसी दे दी. पुलिस ने सुल्तान के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत दहेज हत्या का मामला दर्ज किया है.

हरियाणा के करनाल ज़िले के गांव जैनपुर के मुस्लिम परिवार की सुनीता के साथ की गई दरिंदगी को देखकर रूह कांप उठती है. उसका निकाह 23 फ़रवरी, 2003 को हरियाणा के ही जींद ज़िले के गांव शंबो निवासी शेर सिंह के साथ हुआ था. उसने अपनी ज़िंदगी को लेकर कई इंद्रधनुषी सपने देखे थे, लेकिन उसके पति शेर सिंह की दहेज की मांग ने उसके सारे सपने बिखेर दिए. उसका पति बार-बार उससे अपने मायके से मोटरसाइकिल लाने की मांग करता. इस बात को लेकर उनके बीच लड़ाई-झगड़े होते. उसके पिता की इतनी हैसियत नहीं थी कि वह दहेज में अपनी बेटी को मोटरसाइकिल दे सकें. सुनीता की एक बेटी हुई, जिसका नाम सोनिया रखा गया. उसने सोचा कि औलाद होने के बाद शायद शेर सिंह सुधर जाए, लेकिन दहेज की मांग को लेकर उसने पत्नी को और ज़्यादा प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. 5 नवंबर, 2005 को शाम तक़रीबन सात बजे जब सुनीता खाना बना रही थी, तब शेर सिंह आया और उससे मोटरसाइकिल की बात करने लगा. सुनीता ने मायके से मोटरसाइकिल लाने से इंकार कर दिया. इस पर शेर सिंह ने जलती लालटेन उस पर फेंक दी, जिससे उसके कपड़ों में आग लग गई. वह बुरी तरह झुलस चुकी थी. उसे अस्पताल में दाख़िल कराया गया. शेर सिंह के ख़िलाफ़ पत्नी की हत्या की कोशिश के आरोप में धारा-307 के तहत मामला दर्ज किया गया. जींद के अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश जे एस जांग़डा ने 8 अगस्त, 2007 को शेर सिंह को पांच साल की सज़ा सुनाई. सुनीता को इंसाफ़ तो मिल गया, लेकिन उसके पूरे जिस्म पर आग से झुलस जाने के दाग़ हैं, जो उसके ज़ख़्म को ताज़ा बनाए रखते हैं. ऐसे मामले आए दिन सामने आ रहे हैं. इंडियन स्कूल ऑफ़ वुमेंस स्टडीज एंड डेवलपमेंट के सर्वे के मुताबिक़, शादी के सात साल के भीतर मुस्लिम महिलाओं की अप्राकृतिक मौतें सबसे ज़्यादा गुजरात में हुईं. उनमें से ज़्यादातर महिलाओं की मौत का कारण दहेज उत्पीड़न रहा.

क़ाबिले-ग़ौर है कि दहेज की वजह से लड़कियों को पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी अलग रखा जा रहा है. इसके लिए तर्क दिया जा रहा है कि उनके विवाह और दहेज में काफ़ी रक़म ख़र्च की गई है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का वास्ता दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को ताख़ पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के परिजनों की जेब कटनी शुरू हो जाती है. जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गई हैं यानी कितने तरह की मिठाई, सूखे मेवे और फल रखे गए हैं. इतना ही नहीं, दावतें भी मुर्ग़े की ही चल रही हैं यानी चिकन बिरयानी, चिकन क़ोरमा वग़ैरह. फ़िलहाल 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और ताम्बे-पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कारें और मोटरसाइकिलें भी मांगी जा रही हैं, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह इन वाहनों के तेल का ख़र्च भी उठा सके. जो अभिभावक अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं. मुरादाबाद की किश्वरी जीवन के 47 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके अभिभावक रिश्ते का इंतज़ार करते रहे. वे बेहद ग़रीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके अभिभावक दहेज देने की हैसियत रखते, तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए. घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी ख़ुशहाल ज़िंदगी है. किश्वरी दिन भर बीड़ियां बनाती हैं और घर का कामकाज करती हैं. अब बस यही उनकी ज़िंदगी है. उनकी अम्मी को हर वक़्त यही फ़िक्र सताती है कि उनके बाद बेटी का क्या होगा? यह अकेली किश्वरी का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हज़ारों लड़कियां हैं, जिनकी खु़शियां दहेज रूपी लालच निग़ल चुका है.

राजस्थान के बाड़मेर निवासी आमना के शौहर की मौत के बाद 15 नवंबर, 2009 को उसका दूसरा निकाह बीकानेर के शादीशुदा उस्मान के साथ हुआ था, जिसके पहली पत्नी से तीन बच्चे भी हैं. आमना का कहना है कि उसके अभिभावकों ने दहेज के तौर पर उस्मान को 10 तोला सोना, एक किलो चांदी के ज़ेवर, कपड़े और घरेलू सामान दिया था. निकाह के कुछ दिनों बाद ही उसके शौहर और उसकी दूसरी बीवी ज़ेबुन्निसा कम दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. यहां तक कि उसके साथ मारपीट भी की जाने लगी. वे उससे एक स्कॉर्पियो गाड़ी और दो लाख रुपये मांग रहे थे. आमना कहती हैं कि उनके अभिभावक इतनी महंगी गाड़ी और इतनी बड़ी रक़म देने के क़ाबिल नहीं हैं. आख़िर ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर आमना को पुलिस की शरण लेनी पड़ी. राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का क़रीब तीन साल पहले सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक़्त दहेज भी दिया गया था. इसके बावजूद शौहर और ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती. जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो 18 अक्टूबर, 2009 को ससुराल वालों ने मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया. अब वह अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में आमना और गुड्डी जैसी हज़ारों महिलाएं हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है. यूनिसेफ़ के सहयोग से जनवादी महिला समिति द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दहेज के बढ़ रहे मामलों की वजह से मध्य प्रदेश में 60 फ़ीसद, गुजरात में 50 फ़ीसद और आंध्र प्रदेश में 40 फ़ीसद लड़कियों ने माना कि दहेज के बिना उनकी शादी होना मुश्किल हो गया है. दिल्ली की छात्रा परवीन का कहना है कि दहेज बहुत ज़रूरी है, क्योंकि लड़की जितना ज़्यादा दहेज लेकर जाती है, ससुराल में उसे उतनी ही ज़्यादा इज्ज़त मिलती है. वह कहती हैं कि उसके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं है और अभिभावक उसे ज़्यादा दहेज नहीं दे पाएंगे, इसलिए वह खु़द ही नौकरी करके अपने दहेज के लिए रक़म इकट्ठा करना चाहती है. ऐसी लड़कियों की भी कमी नहीं है, जो दहेज लेना चाहती हैं. इन लड़कियों का मानना है कि इस तरह उन्हें उनकी पुश्तैनी जायदाद से कुछ हिस्सा मिल जाता है. उनका कहना है कि इस्लाम में बेटियों को उनके पिता की जायदाद में से कुछ हिस्सा देने की बात कही गई है, लेकिन कितने अभिभावक ऐसा करते हैं? अगर दहेज के बहाने लड़कियों को कुछ मिल जाता है तो इसमें ग़लत क्या है? मगर जो माता-पिता ग़रीब हैं, वे अपनी बेटियों के लिए दहेज कहां से लाएंगे, इसका जवाब इन लड़कियों के पास नहीं है.

दहेज को लेकर मुसलमान एकमत नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. उनका तर्क है कि हज़रत मुहम्मद साहब ने भी तो अपनी बेटी फ़ातिमा को दहेज दिया था. ख़ास बात यह है कि दहेज की हिमायत करने वाले मुसलमान भूल जाते हैं कि पैग़ंबर ने अपनी बेटी को विवाह में बेशक़ीमती चीज़ें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीज़ों की दहेज से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी मांग नहीं की गई थी. अब तो लड़के वाले मुंह खोलकर दहेज मांगते हैं और लड़की के अभिभावक अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े. अमरोहा के परवेज़ आलम बताते हैं कि उन्होंने अपनी पुश्तैनी जायदाद में मिले घर के आधे हिस्से को बेचकर बड़ी बेटी की शादी कर दी थी, लेकिन यह देखकर दिल रो प़डता है कि वह अब भी सुखी नहीं है. उसके ससुराल वाले दहेज की मांग करते हैं. अगर बाक़ी बचा घर बेचकर उसे दहेज दे दूं तो अपने अन्य बच्चों को लेकर कहां जाऊंगा. छोटी बेटी के भी हाथ पीले करने हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं. अगर अल्लाह बेटियां दे तो उनके नसीब भी अच्छे करे और उनके माता-पिता को दौलत भी दे, साथ ही दहेज के लालचियों को तौफ़ीक़ दे कि वे ऐसी नाजायज़ मांगें न रखें. हैरत की बात यह भी है कि बात-बात पर फ़तवे जारी करने वाले मज़हब के नुमाइंदों को समाज में फैल रही दहेज जैसी बुराइयां दिखाई नहीं देतीं. शायद उनका मक़सद सिर्फ़ बेतुके फ़तवे जारी कर सुर्ख़ियां बटोरना या फिर मुस्लिम महिलाओं के दायरों को और मज़बूत करना होता है. इस बात में कोई दो राय नहीं कि पिछले काफ़ी अरसे से आ रहे ज़्यादातर फ़तवे महज़ मनोरंजन का साधन साबित हो रहे हैं, वह चाहे मिस्र में जारी मुस्लिम महिलाओं द्वारा कुंवारे पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिलाने का फ़तवा हो या फिर महिलाओं के नौकरी करने के ख़िलाफ़ जारी फ़तवा. अफ़सोस इस बात का है कि मज़हब की नुमाइंदगी करने वाले लोग समाज से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते. हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने की बात कही थी. बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य ज़फ़रयाब जिलानी के मुताबिक़, मुस्लिम समाज में शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ़ मस्जिदों में ही कराया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर ख़र्च का ज़्यादा बोझ न पड़े, जिससे ग़रीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके. इस्लाह-ए-मुआशिरा (समाज सुधार) की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों को बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीक़ा क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है, जिसमें सबसे कम ख़र्च हो. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर ज़ोर दिया गया था.

हरियाणा ख़िदमत सभा के मुख्य संयोजक मोहम्मद रफ़ीक़ चौहान का कहना है कि दहेज लेना ग़ैर इस्लामी है. यह एक सामाजिक बुराई है, जो धीरे-धीरे समाज को खोखला कर रही है. अभिभावकों को चाहिए कि वे दहेज मांगने वाले परिवार में अपनी बेटी की शादी न करें और ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराएं, क्योंकि लालच की कोई सीमा नहीं होती. साथ ही वे ऐसे व्यक्ति के साथ भी अपनी बेटी की शादी न करें, जिसकी पत्नी की दहेज की वजह से मौत हुई हो या उसे तलाक़ दे दिया गया हो. तभी इस बुराई को बढ़ने से रोका जा सकता है. सरकार ने क़ानून बनाया है, पीड़ितों को उसका इस्तेमाल करना चाहिए.

बहरहाल, मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा रोकने के लिए कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. वे नमाज़ के बाद लोगों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि यह कुप्रथा किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा महिलाओं को भी जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं को होता है. अफ़सोस की बात यह भी है कि मुस्लिम समाज अनेक फ़िरक़ों में बंट गया है. अमूमन सभी तबक़े ख़ुद को असली मुसलमान साबित करने में जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान नहीं जाता है. जब तक सामाजिक बुराइयों पर खुलकर चर्चा नहीं होगी, तब तक उनके उन्मूलन के लिए भी माहौल तैयार नहीं किया जा सकता है. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि समाज में फैली दहेज प्रथा जैसी बुराइयों के विरुद्ध विभिन्न मंचों से ज़ोरदार आवाज़ उठाई जाए. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

Monday, July 29, 2013

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक ऐतिहासिक पहल


फ़िरदौस ख़ान 
रोटी, कपड़ा और मकान आम आदमी की बुनियादी ज़रूरतें हैं. हमारे देश में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं, जिन्हें दिन में एक बार भी भरपेट भोजन नहीं मिल पाता है. यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का कहना है कि देश के हर नागरिक को भरपेट अन्न मुहैया कराना यूपीए सरकार का सपना रहा है. राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कहते हैं कि उनकी पहली प्राथमिकता भारत की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से निपटना है, ताकि ग़रीबी और कुपोषण का कम से कम समय में उन्मूलन किया जा सके. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने खाद्य सुरक्षा को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि हमने शिक्षा का अधिकार दिया, सूचना का अधिकार दिया, मनरेगा और पहचान का अधिकार आधार दिया. अब भोजना का अधिकार दे रहे हैं.

क़ाबिले-गौर है कि राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश (एनएफएसओ) का मक़सद देश की तक़रीबन 67 फ़ीसद आबादी को तीन रुपये और दो रुपये की रि‍यायती दरों पर गेहूं और चावल मुहैया कराना है. इस अध्‍यादेश का ऐलान 5 जुलाई, 2013 को किया गया था. यह अध्‍यादेश लाभार्थि‍यों को खाद्यान्‍न प्राप्‍त करने का क़ानूनी अधि‍कार मुहैया कराता है. खाद्यान्‍न की आपूर्ति‍ नहीं होने पर वे आर्थि‍क मुआवज़े का दावा कर सकते हैं. ‍
खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश के बारे में  अकसर पूछे जाने वाले कुछ सवाल और उनके जवाब इस प्रकार हैं-

अध्यादेश के अनुसार, टीपीडीएस के तहत सिर्फ़ 67 फ़ीसद आबादी को इसको लाभ मिलेगा. इसका लाभ सभी लोगों को क्यों नहीं दिया जा सकता?
अध्‍यादेश में प्रस्तावित पात्रता हाल ही में हुए खाद्यान्नों के उत्पादन और इसकी सरकारी ख़रीद पर आधारित है. साल 2007-08 से 2011-12 तक औसतन हर साल तक़रीबन 60.24 मिलियन टन खाद्यान्न की सरकारी ख़रीद की गई है. इसकी तुलना में टीपीडीएस के तहत हर व्यक्ति को हर माह 5 किलो खाद्यान्न प्रदान करने के लिए 72.6 मिलियन टन खाद्यान्न की ज़रूरत होगी. इसके अलावा ओडब्ल्यूएस के लिए भी अतिरिक्त आवश्यकता है. खाद्यान्नों के वर्तमान स्‍तर पर उत्पादन और सरकारी ख़रीद को ध्यान में रखते हुए खाद्यान्नों की इस मांग को पूरा कर पाना मुमकिन नहीं होगा.
   
ग़रीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को 5 किलो अनाज देने से उनको वर्तमान में टीपीडीएस के अंतर्गत मिलने वाले अनाज में कटौती होगी. इससे उनको नुक़सान नहीं होगा?
वर्तमान में टीपीडीएस के अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे के 6.52 करोड़ परिवारों को अनाज दिया जाता है, जिसमें 2.50 करोड़ परिवार अंतोदय अन्न योजना (एएवाई) के परिवार भी शामिल हैं. इसके लिए भारत के महा रजिस्ट्रार के 1999-2000 के लिए आबादी के अनुमानों और योजना आयोग के साल 1993-94 के आधार  पर निर्धन लोगों के 36 प्रतिशत होने को आधार माना गया है. शेष परिवारों को ग़रीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के अंतर्गत अनाज दिया जाता है. एएवाई और बीपीएल परिवारों को प्रति माह 35 किलो अनाज दिया जाता है. एपीएल परिवारों को अनाज उपलब्धता के आधार पर दिया जाता है. केंद्रीय वितरण मूल्य (सीआईपी) गेंहू/चावल प्रति किलो एएवाई को रुपये 2/3, बीपीएल परिवारों को 4.15/5.65 रुपये और एपीएल परिवारो को 6.10/8.30 रुपये की दर से दिया जाता है.

गौरतलब है कि वर्तमान में कुल प्रस्तावित परिवारों में से एक-चौथाई को ही 35 किलो प्रति परिवार के आधार पर नियत खाद्यान्न दिया जा रहा है. वहीं एनएफएसबी में अखिल भारतीय स्तर पर कुल आबादी के 67 फ़ीसद हिस्से को 5 किलो खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया है. इसमें एएवाई परिवारों को जो निर्धन में निधर्नतम हैं, को 35 किलो प्रति परिवार प्रति माह खाद्यान्न सुनिश्चित किया गया है. इसके साथ ही टीपीडीएस में अध्यादेश के तहत सभी परिवारों को वर्तमान के एएवाई मूल्यों के समान गेंहू 3 रुपये और  चावल 2 रुपये की दर से दिया जाएगा. नतीजतन, वर्तमान में बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवार जिन्हें खाद्यान्न की मात्रा कम मिलेगी, उन्हें सब्सिडी दरों पर अनाज मिलने का फ़ायदा मिलेगा.

सभी को खाद्यान्न देने की योजना को केवल अनाजों तक ही सीमित क्यों रखा गया है और इसमें दालों और खाद्य तेलों आदि को क्यों शामिल नहीं किया गया है?
दालों और खाद्य तेलों की घरेलू मांगो को पूरा करने के लिए हम मुख्यत आयात पर निर्भर हैं. इसके साथ ही इस समय दालों और तिलहनों की ख़रीद के लिए आधारभूत ढांचा और संचालन प्रक्रिया भी मज़बूत नहीं है. घरेलू स्तर पर इसकी उपलबध्ता के सुनिश्चित न होने और ख़रीद प्रकिया के कमज़ोर होने के कारण इनकी क़ानूनी अधिकार के रूप में आपूर्ति कर पाना मुमकिन नहीं होगा. हांलाकि सरकार सस्ती दरों पर लक्षित लोगों को दालों और खाद्य तेल देने की योजना चला रही है, साथ ही साथ दालों और तिलहनों की ख़रीद को बढ़ाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं.

ऐसा लगता होता है कि विधेयक में केवल खाद्यान्नों को ज़रूरत पूरी करने पर ध्यान केंद्रित किया है और इसमें पोषकता पर कम ध्यान दिया है. इसलिए इसे खाद्य सुरक्षा प्रदान के लिए व्‍यापक कैसे कहा जा सकता है?
कुपोषणता एक गंभीर समस्या है जिसका पूरा देश सामना कर रहा है, लेकिन यह कहना ग़लत होगा कि विधेयक में इसे पूरी तरह से नकारा गया है. इसमें गर्भवती महिलाओं और बच्चों के बीच कुपोषण की समस्या पर ध्यान केंद्रित किया है, जो हमारी इस समस्या से सामने करने में केंद्रबिंदु होगा. महिलाओं और बच्चों को पोषण प्रदान करने पर विधेयक में ख़ास ध्यान दिया गया है. गर्भवती महिलाओं ओर दूध पिलाने वाली माताओं को निर्धारित पोषकता मानकों के तहत पौष्टिक भोजन का अधिकार देने के साथ-साथ कम से कम 6000 रुपये के मातृत्व लाभ भी मिलेंगे. 6 माह से 6 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को घर भोजन ले जाने या निर्धारित पोषकता मानकों के तहत गर्म पका हुआ भोजन पाने का अधिकार होगा. इसी आयु वर्ग के कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए उच्च पोषकता मानक निर्धारित किए गए हैं. निचली और उच्च प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को निर्धारित पोषकता मानकों के तहत विद्यालयों में पोषक आहार दिया जाएगा.

क्या सरकार के पास विधेयक के नियमों के अंतर्गत पर्याप्त खाद्यान्न है?
हर साल अन्य लाभकारी योजनाओं के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता जोड़कर कुल 612.3 लाख टन खाद्यान्न की ज़रूरत होगी. खाद्यान्नों की ख़रीद (गेंहू और चावल) जिसमें कुल मात्रा और उत्पादन का प्रतिशत शामिल है, उसमें हाल के हाल के वर्षों में प्रगति हुई है. खाद्यान्न की औसतन वार्षिक ख़रीद जो साल 2000-2001 से 2006-07 के दौरान कुल औसतन वार्षिक उत्पादन के 24.30 फ़ीसद के आधार पर 382.2 लाख टन थी, साल 2011-12 के दौरान औसतन वार्षिक उत्पादन 33.24 प्रतिशत होकर 602.4 लाख टन पर पंहुच गई. इसलिए वर्तमान में खाद्यान्नों के उत्पादन और इसकी ख़रीद के आधार पर ज़रूरत पूरी की जा सकेगी. यहां तक कि साल 2012-13 के दौरान खाद्यान्न के उत्पादन में हल्की कमी होने के अनुमान के बावजूद विधेयक की ज़रूरतों को पूरा किया जा सकेगा.

ऐसा कहा जा रहा है कि इस विधेयक से किसानों, ख़ास तौर पर छोटे और सीमांत किसानों की खेती करने में  कम रूचि कम होगी, क्योंकि उन्हें अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सस्ती दरों पर अनाज का आश्वासन दिया जाएगा. इस संबध में आपका क्या कहना है?
खाद्यान्नों का उत्पादन किसानों के लिए आजीविका का एक माध्यम हैं, जिसके लिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य की पहुंच हर साल बढ़ रही है और विधेयक के लागू होने के फलस्वरूप आवश्यकता बढ़ने के कारण ज़्यादा से ज़्यादा किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आएंगे. इसलिए किसानों को हतोत्साहित करने के बजाय विधेयक किसानों को अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करेगा. सस्ती दरों पर खाद्यान्न मिलने से छोटे किसानों की सीमित आमदनी पर बोझ कम होगा और वे बचाई हुई रक़म को अन्य आवश्यकताओं पर ख़र्च कर अपने जीवनस्तर में सुधार कर सकेंगे.

राज्य खाद्य सुरक्षा विधेयक के कारण उन पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को लेकर शिकायत कर रहे हैं? केंद्र सरकार इस बारे में राज्य सरकारों को अपने साथ कैसे जोड़ेगी, क्योंकि राज्यों को ही इस विधेयक को लागू करना है?
विधेयक का मुख्य वित्तीय प्रभाव खाद्य सब्सिडी पर पड़ेगा. प्रस्तावित क्षेत्र और पात्रता के अधिकार पर सालाना 612.3 लाख टन खाद्यान्न की ज़रूरत होने और साल 2013-14 आधार पर खाद्य सब्सिडी की लागत 1,24,747 करोड़ रुपये होने का अनुमान है. वर्तमान की टीपीडीएस और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए खाद्य सब्सिडी से तुलना करने पर सालाना 23,800 करोड़ रुपये की ज़्यादा ज़रूरत होगी. इस अतिरिक्त आवश्यकता को केंद्र सरकार पूर्ण रूप से वहन करेगी.
राज्यों ने ख़ुद पर पड़ने वाले बोझ ख़ास तौर पर शिकायतें दूर करने की प्रणाली, खाद्यान्नों की ढुलाई पर होने वाले व्यय और उचित मूल्य की दुकानों के डीलरों को दी जाने वाली अतिरिक्त राशि आदि मुद्दों पर अपनी शंकाए व्यक्त की हैं. ये शंकाए दिसंबर 2011 में लोकसभा में पेश किए गए मूल विधेयक के प्रावधानों पर आधारित हैं. हांलाकि स्थायी समिति की सिफ़ारिशों और राज्य सरकारों के विचारों को ध्यान में रखने के बाद विधेयक में अब केंद्र सरकार दवारा राज्यों को एक राज्य के भीतर खाद्यान्न की ढुलाई में होने वाले व्यय में सहायता देने, इसको संभालने और एफपीएस डीलरों को दिए जाने वाली अतिरिक्त राशि के संबध में नियमों के अनुसार देने के नियम निर्धारित किए गए हैं. इसके अलावा शिकायतें दूर करने के संबध में विधेयक में इस बारे में अलग से प्रणाली बनाने या वर्तमान में लागू प्रणाली को जारी करने के विकल्प राज्य सरकारों को दिए गए हैं.

एक केंद्रीय क़ानून में, राज्यों के ऊपर खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की ज़िम्मेदारी डालना कितना जायज़ है?
यह कहना ग़लत है कि यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ राज्य सरकारों पर डाली गई है. इस संबध में राज्यों पर ज़िम्मेदारी केवल केंद्र सरकार द्वारा दिए गए खाद्यान्न या भोजन का वितरण ना कर पाने की स्थिति में ही होगी.
विधेयक के खंड 22 के तहत केंद्रीय भाग से राज्यों को खाद्यान्न की कम आपूर्ति होने पर केंद्र सरकार विधेयक के प्रावधानों के पूरा करने के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक सहायता देगी. हांलाकि खंड 8 के तहत लाभकर्ताओं कों खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी, क्योंकि खाद्यान्न और भोजन की वितरण की ज़िम्मेदारी उनकी है.

इस विधेयक को राज्य सरकारों द्वारा कब लागू किया जाएगा?
विधेयक को कार्यान्वित करने से पहले कुछ शुरुआती काम किया जाना ज़रूरी है. मिसाल के लिए नियमावली के तहत टीपीडीएस के अंतर्गत प्रत्येक राज्य और संघ शासित प्रदेशों में घरों की वास्तविक पहचान की जानी है. इसलिए राज्य सरकारों को इनकी पहचान के लिए उचित मानक बनाने और उसके बाद पहचान का वास्तविक कार्य करने की आवश्यकता है. विधेयक के तहत लाभकर्ता घरों की पहचान पूरी होने के बाद ही खाद्यान्न का आवंटन और वितरण किया जा सकता है. इसलिए विधेयक में पहचान के कार्य के शुरू होने के बाद इसे 180 दिनों में पूरा किए जाने का प्रावधान किया गया है. यह अवधि हर राज्य में अलग-अलग हो सकती है और यदि कोई राज्य इसे पहले लागू करना चाहता है, तो उसे इसके लिए प्रोत्साहित किया जाएगा. विधेयक को जारी करने के लिए इसमें वर्तमान में राज्य में लागू योजना और दिशा-निर्देश आदि के जारी रहने के अस्थायी प्रावधान किए गए हैं.

कोई भी विधेयक तभी कामयाब हो सकता है जब इसमें शिकायतें दूर करने के लिए स्वतंत्र शिकायत निवारण दूर करने की व्यवस्था हो. विधेयक में इस संबध में क्या प्रावधान किए गए हैं?
विधेयक में शिकायतें दूर करने के लिए ज़िला और राज्य स्तर पर एक प्रभावी और स्वतंत्र शिकायत निवारण प्रणाली का प्रावधान किया गया है. इसमें हर जिले के लिए पात्रता लागू करने और शिकायतों की जांच करने और दूर करने के लिए ज़िला शिकायत निवारण अधिकारी शामिल है. इसके अतिरिक्त पात्रता के उल्लंघन होने संबधी शिकायत प्राप्त होने या स्वंय से जांच करने के लिए राज्य खाद्य आयोग की स्थापना करने का भी प्रावधान है. आयोग डीजीआरओ के आदेशों के विरुद्ध सुनवाई करेगा और उसे दंड लगाने की शक्ति भी दी जाएगी. कोई भी शिकायतकर्ता इनसे मिल सकता है.

घरों की पहचान किए जाने का कार्य राज्यों से कराने का प्रावधान है. हर राज्य अलग-अलग मानदंड अपनाएगा और इससे एक राज्य में सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर लाभ पाने वाले परिवार को दूसरे राज्य में इसका लाभ नहीं मिलेगा, इसे कैसे रोका जाएगा?
लोकसभा में दिसंबर 2011 में विधेयक को प्रस्तुत करते समय पहचान के लिए दिशा-निर्देश राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित करने का प्रावधान किया गया था. राज्य सरकारों ने इस संबध में विचार-विमर्श के दौरान पहचान के मानदंड निर्धारित करने में अधिक भूमिका होने संबधी विचार प्रस्तुत किया था. इस संबध में स्थायी समिति ने भी राज्य सरकारों से परामर्श के बाद मानदंड निर्धारित करने की सिफ़ारिश की थी. इन विचारों और सिफ़ारिशों पर ध्यानपूर्वक विचार किया गया. सामाजिक-आर्थिक कारणों के संबध में अलग-अलग राज्यों में अंतर होने के कारण इस संबध में केंद्र सरकार द्वारा मानदंड बनाए के उचित न होने और इसकी आलोचना होने की शंका थी. इसके साथ ही मानदंड के मुददे पर राज्य सरकारों के साथ आम सहमति बनाना भी कठिन था. पहचान का कार्य अब राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है, जो इसके लिए ख़ुद अपने मानदंड बनाएंगे.    
   
क्‍या राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश से ख़र्च बढ़कर सकल घरेलू उत्‍पाद के लगभग 3 फ़ीसद के बराबर हो जाएगा?
मीडिया में कुछ इस तरह की ख़बरें आई हैं कि राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश के लागू होने पर 3 लाख करोड़ से भी अधिक यानी सकल घरेलू उत्‍पाद के 3 फ़ीसद जितना ख़र्च आएगा. ये अनुमान ग़लत तुलना और अतिरंजित गणना पर आधारित हैं. अध्‍यादेश के प्रभाव के सही मूल्‍यांकन के लिए ख़र्च की तुलना सब्सिडी पर अनाज देने की सरकार की मौजूदा वचनबद्धता से की जानी चाहिए.
सरकार सब्सिडी मूल्‍य के आधार पर अनाज का आवंटन करती है. सरकार कर ख़र्च अनाज उठाने पर और सब्सिडी देने पर होता है. इस समय 2.43 करोड़ अन्‍त्‍योदय अन्‍न योजना (एएवाई) के लाभार्थियों सहित 6.5 करोड़ ग़रीबी रेखा से नीचे के (बीपीएल) परिवारों को और लगभग 11.5 करोड़ (ग़रीबी रेखा से ऊपर के (एपीएल) परिवारों को सब्सिडी मूल्‍य पर सरकार अनाज दे रही है. बीपीएल और एएवाई के परिवारों को हर महीने 35 किलोग्राम अनाज दिया जाता है, जबकि एपीएल परिवारों को उपलब्‍धता के आधार पर अनाज मिलता है. इस समय 22 राज्‍यों में 15 किलोग्राम प्रति महीने के हिसाब से और 13 विशेष श्रेणी वाले राज्‍यों में 35 किलोग्राम हर महीने के हिसाब से अनाज दिया जा रहा है. मौजूदा लाभार्थियों की संख्‍या के आधार पर लक्षित सार्वजनिक‍ वितरण प्रणाली के अंतर्गत अनाज की कुल ज़रूरत तक़रीबन 498.7 लाख टन है. अगर इसमें समन्वित बाल विकास योजना (आईसीडीएस), मिड डे‍ मील आदि जैसी कल्‍याण योजनाओं की 65 लाख टन अनाज की ज़रूरत को जोड़ा जाएं, तो कुल 563.7 लाख टन अनाज की ज़रूरत होगी और इस पर सब्सिडी तक़रीबन 1,00,953 करोड़ वार्षिक की होगी. राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश लागू करने के लिए क़रीब 612 लाख टन अनाज की ज़रूरत होगी, जिस पर सब्सिडी का मूल्‍य 1,24,747 करोड़ रुपये होगा, यानी सब्सिडी पर 23,794 करोड़ रुपये का अतिरिक्‍त ख़र्च होगा.

एक नमूना सर्वेक्षण के निष्‍कर्षो के आधार पर सब्सिडी के लाभार्थियों की कुल संख्‍या और दिए जाने वाले अनाज की मात्रा पर सब्सिडी के ख़र्च का आकलन करना और इसे राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश के अंतर्गत होने वाले ख़र्च की अतिरंजित गणना के लिए आधार बनाना उचित नहीं होगा. सब्सिडी पर ख़र्च का आकलन केंद्र सरकार द्वारा आवंटित अनाज की मात्रा और राज्‍यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा उठाए गए अनाज के आधार पर होगा, न कि परिवारों की संख्‍या और प्रत्‍येक परिवार के लिए अनाज वितरण की मात्रा के आधार पर, जैसा कि नमूना सर्वेक्षण के ज़रिये आकलन लगाया गया है. हद से हद नमूना सर्वेक्षण सार्वजनिक वितरण प्रणाली से होने वाली अनाज की चोरी और दूसरी जगह बेचे जाने वाले अनाज की और इशारा करता है. इस तरह की चोरी को रोकने के उपाय किए जा रहे हैं और इस व्‍यवस्‍था को सूचना संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) उपकरणों और अन्‍य साधनों के बेहतर इस्‍तेमाल से सुदृढ़ बनाया जाएगा.

आमतौर पर कहा जाता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बड़े सुधार की ज़रूरत है. राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश इस मुद्दे को कैसे हल करेगा?
सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त ज़िम्मेदारी है, जबकि केंद्र सरकार अनाज की ख़रीद और भंडारण तथा राज्यों को अनाजों के बड़ी मात्रा में आवंटन के लिए ज़िम्मेदार है. राज्यों में आवंटन सहित प्रणाली के संचालन, पात्र परिवारों की पहचान, राशन कार्ड जारी करना, उचित दर दुकानों आदि के संचालन और निगरानी की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है. इसके अनुसार राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश में व्यवस्था है कि केंद्र और राज्य सरकारें लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आवश्यक सुधारों के लिए क़दम उठाएंगी, जैसे कि अनाज को उचित दर दुकानों तक पहुंचाना, अनाज के कहीं और इस्तेमाल को रोकने के लिए पूरी तरह कम्प्यूटर रिकॉर्ड रखना, पारदर्शिता, उचित दर दुकानों के लिए लाइसेंस देने में पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों, सहकारी समितियों को प्राथमिकता देना, महिलाओं,उनके समूहों को प्रंबधन सौंपना आदि.

वितरण प्रणाली विभाग ने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू और मज़बूत बनाने के लिए कई उपाय शुरू किए हैं. इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पूरी तरह कंप्यूटर से संचालनः
राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को आवश्यक ढांचागत और वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए सरकार सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन के लिए पूरी तरह कम्प्यूटर के प्रयोग की योजना लागू कर रही है, जिसके ख़र्च में सरकार हिस्सा देगी. इस योजना के पहले भाग पर अनुमानतः884.07  करोड़ रुपये ख़र्च आएगा. इसमें राशन कार्डों/लाभार्थियों और डाटाबेसों का डिजिटीकरण, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन का कम्प्यूटरीकरण, पारदर्शिता पोर्टल की स्थापना और शिकायत निवारण व्यवस्था जैसे उपाय शामिल हैं.

लाभार्थियों का डाटाबेस बनने से राशन कार्डों के दोबारा बनने पर रोक लगाने में, जाली राशन कार्डों को समाप्त करने में और सब्सिडी राशि सही लोगों को दिलाने में मदद मिलेगी. आपूर्ति श्रृंखला के कम्प्यूटरीकरण से उचित दर दुकानों तक अनाज की आपूर्ति पर नज़र रखी जा सकती है और अनाज की चोरी तथा कहीं और भेजे जाने की समस्या से निपटा जा सकता है. पारदर्शिता पोर्टल से उचित दर दुकानों का कामकाज सुचारू रूप से चलेगा और विभिन्न स्तरों पर जवाबदेही सुनिश्चित होगी. लाभार्थी अपनी शिकायतें टॉल फ्री नम्बर के ज़रिये दर्ज करा सकते हैं और समाधान पा सकते हैं.

राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा किए जा रहे अन्य उपाय
     जाली राशन कार्डों को समाप्त करने के लिए राज्यों द्वारा बीपीएल/एएवाई सूचियों की समीक्षा का अभियानः 31-3-2013 तक 28 राज्यों में कुल 364.01 लाख जाली/ग़लत राशन कार्डों को रद्द किया गया.
उचित दर दुकानों तक अनाज की आपूर्तिः  उचित दर दुकानों तक अनाजों की आपूर्ति शुरू की गई, ताकि कोई चोरी न हो और अनाज कहीं और न भेजा जा सके.

उचित दर दुकानों के लाइसेंस स्वयं सहायता समूहों, ग्राम पंचायतों, सहकारी समितियों आदि को देनाः कुल संचालित लगभग 5.16 लाख उचित दर दुकानों में से करीब 1.21 उचित दर दुकानें 30 राज्यों में इन संगठनों द्वारा चलाई जा रही हैं.

उचित दर दुकानों के व्यापारियों के कमीशन की व्यवहार्यताः राज्यों से कहा गया है कि उचित दर दुकानों के व्यापारियों को दिए जा रहे कमीशन का पुनर्मूल्यांकन करें और उसे बढ़ाएं. 14 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों ने पुष्टि की है कि इन राज्यों में उचित दर दुकानें सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अलग खाद्य तेल दालें, दूध, पाउडर, साबुन आदि भी बेच रही हैं.

भंडारण सुविधाओं के अभाव के कारण खाद्यान्‍नों के सड़ने के तमाम मामले सामने आए हैं. अधिक भंडार गृहों के निर्माण के लिए राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश में क्‍या प्रावधान किए गए हैं?
     राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश में प्रावधान किया गया है कि केंद्र और राज्‍य सरकारें केंद्रीय और राज्‍य स्‍तर पर वैज्ञानिक भंडारण सुविधाओं के निर्माण और रख-रखाव के लिए क़दम उठाएंगी. एक तरफ़ केंद्र सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह केंद्रीय पूल में खाद्यान्‍नों के भंडारण के लिए सुरक्षित सुविधाएं तैयार करेगी, वहीं राज्‍य/केंद्र शासित प्रदेश के लिए यह ज़रूरी होगा कि वे वितरण आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिए विभिन्‍न स्‍थानों पर खाद्यान्‍नों के भंडारण संबंधी सुविधाएं प्रदान करेगी.

अ. उपलब्‍ध भंडारण क्षमता और उसको बढ़ाने की पहलें

  • 31 मई, 2013 तक भारतीय खाद्य निगम के पास ढंकी हुई तथा फ़र्श और छत वाली भंडारण क्षमता 397.02 लाख मीट्रिक टन है. खाद्यान्‍नों के केंद्रीय भंडारण संबंधी राज्‍य एजेंसियों के पास ढंकी हुई तथा फ़र्श और छत वाली भंडारण क्षमता तक़रीबन 431.35 लाख मीट्रिक टन है. इस तरह खाद्यान्‍नों के केंद्रीय भंडारण संबंधी क्षमता तक़रीबन 738 लाख मीट्रिक टन उपलब्‍ध थी, जो 30 जून, 2013 को 739 लाख मीट्रिक टन रही.
  • सरकार ढंकी हुई भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए निजी उद्यम गांरटी योजना को कामयाबी के साथ क्रियान्वित कर रही है. इस योजना के तहत गोदामों के निर्माण के लिए निजी निवेश को आकर्षित किया जा रहा है. इसके संबंध में इस योजना के तहत निर्मित किए जाने वाले गोदामों को दस साल की अवधि के लिए किराये पर लिए जाने की गांरटी दी जाएगी. इस तरह निवेशकों को निवेश पर बेहतर लाभ सुनिश्चित किया जाएगा.
  • 31 मई, 2013 तक तक़रीबन 203 लाख मीट्रिक टन क्षमता वाले गोदामों का निर्माण 19 राज्‍यों में किए जाने के प्रस्‍ताव को मंज़ूरी दे दी गई है, जिनमें से 145.06 मीट्रिक टन क्षमता वाले गोदामों के निर्माण का अनुमोदन कर दिया गया है. योजना के तहत 31 मई, 2013 तक 71.08 लाख मीट्रिक टन की क्षमता पूरी कर ली गई है.
  • दीर्घकालीन वैज्ञानिक भंडारण को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने 20 लाख मीट्रिक टन की भंडारण क्षमता तैयार करने की मंज़ूरी दे दी है, जो पीईजी योजना की कुल स्‍वीकृत क्षमता के दायरे में है.
  • सरकार ने भारतीय खाद्य निगम के माध्‍यम से अगले तीन से चार वर्षों के दौरान ख़ास तौर से पूर्वोत्‍तर में 5.40 लाख मीट्रिक टन की अतिरिक्‍त भंडारण क्षमता के निर्माण के लिए एक योजना को अंतिम रूप दिया है. पूर्वोत्‍तर क्षेत्र में इस तरह की क्षमता के निर्माण के बाद वहां क़रीब तीन से चार महीनों तक भंडारण आवश्‍यकताएं पूरी हो सकेंगी.

ब    अनाजों का सड़ना
      भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में अनाजों को जमा करने तथा रखने के दौरान नुक़सान को टालने के लिए गोदामों में अनाजों को वैज्ञानिक तरीके से स्‍टोर करके रखने और अनाजों की गुणवत्‍ता बनाए रखने की स्‍थापित व्‍यवस्‍था है. खाद्य और जन वितरण विभाग समय-समय पर सभी राज्‍य सरकारों/केंद्र शासित शासनों को उगाही, भंडारीकरण और वितरण के दौरान गुणवत्‍ता नियंत्रण व्‍यवस्‍था को उचित तरीक़े से लागू करने के लिए निर्देश जारी करता है. अनेक कारणों से कुछ मात्रा में अनाज नुक़सान हो सकते हैं. इन कारणों में भंडारों में कीटाणुओं का हमला, गोदामों में रिसाव, ख़राब स्‍टॉक की उगाही तथा भंडारण के लिए जगह की कमी, बाढ़ और संबद्ध अधिकारी की लापरवाही शामिल हैं.

गोदामों की पूरी श्रृंखला में डिलीवरी प्रणाली में लीकेज देखी जाती है. राष्‍ट्रीय खाद्य     सुरक्षा अध्‍यादेश कैसे भ्रष्‍टाचार मुक्‍त प्रणाली सुनिश्चित करेगा?
अनाजों की लीकेज और अनाजों को इधर-उधर करने जैसे काम पर काबू पाने के लिए निम्‍न उपाय कारगर साबित हो सकते हैं:-

  • राज्‍यों/केंद्र शासित प्रदेशों को घरों की पहचान करने के लिए पारदर्शी तौर-तरीक़े विकसित करने होंगे. वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली में नाम शामिल होने और नाम हटाये जाने की समस्‍या का हल अधिकार आधारित व्‍यवस्‍था में हक़दारों को अनाज देने के लिए पारदर्शी तरीक़े से लाभार्थियों की पहचान करने से होगा.
  • अनाजों की लीकेज और अनाजों को इधर-उधर करने के काम पर नियंत्रण पाने के लिए पूरी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन को प्रारंभ से अंत तक कम्‍प्‍यूटरीकृत करना होगा.
  • राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश में ‍लाभार्थी को उचित मात्रा में अनाज देने तथा लाभार्थियों की शिकायत की जांच और निवारण के लिए ‍राज्‍य और जिला स्‍तर पर शिकायत निवारण अधिकारियों का प्रावधान है.

 
एहतियाती क़दम उठाने आदि-
निरंतर निगरानी और जानकारी के कारण भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में अनाज नुक़सान मात्रा और प्रतिशत की दृष्टि से कम हुआ है और अब यह बहुत कम है. इसे नीचे दी गई तालिका से समझा जा सकता है-

साल
एफसीआई स्‍टॉक से अनाज उठान
(लाख टन)
नुक़सान की मात्रा
(लाख टन)
नुक़सान हुए अनाज का प्रतिशत
2007-08
324.50
0.34
0.10
2008-09
306.20
0.20
0.07
2009-10
371.06
0.07
0.02
2010-11
432.10
0.06
0.014
2011-12
473.59
0.03
0.006
2012-13
552.60
0.03
0.005

Saturday, July 27, 2013

मुसलमान ही मुसलमान का सबसे बड़ा दुश्मन है


यह एक कड़वीसच्चाईहैकि मुसलमान ही मुसलमान का सबसे बड़ा दुश्मन है... रमज़ान के मुबारक माह में भी इस क़ौम के लोग एक-दूसरे का ख़ून बहा रहे हैं... पाकिस्तान के अशांत क़बायली इलाक़े में हुए दो बम विस्फोट इसकी ताज़ा मिसालें हैं, जिनमें 45 लोग मारे गए और 100 से ज़्यादा ज़ख़्मी हो गए... पहला विस्फोट एक व्यस्त बाज़ार में हुआ और दूसरा स्कूल रोड पर... ये दोनों इलाक़े शिया मस्जिद के पास हैं...
अफ़सोस की बात यह भी है मुसलमान इस तरह के मामलों में ख़ामोशी अख्तियार कर लेते हैं... अगर यह हमला हिंदुस्तान या बर्मा के मुस्लिम बहुल इलाक़े में हो जाता, तो अब देश भर के मुसलमान हो-हल्ला मचा लेते... क्या पाकिस्तान या किसी और मुस्लिम देश में मरने वाले मुसलमान, मुसलमान नहीं हैं...
कहा जाता है कि रमज़ान के महीने में अल्लाह शैतान को क़ैद कर देता है, लेकिन इंसान के भेस में घूम रहे शैतान असल शैतान से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हैं... काश! इन्हें भी क़ैद किया जा सकता...

Tuesday, April 9, 2013

हमारा लेख फिर चोरी हुआ...



अभी-अभी हमने मेल देखा... हमारे एक शुभचिंतक ने हमें मेल के ज़रिये हमारा लेख 'पत्रकारिता बनाम स्टिंग ऑपरेशन' चोरी होने की ख़बर दी... यह आलेख जनवरी 2008 में बहुभाषी संवाद समिति 'हिन्दुस्थान समाचार' की स्वर्ण जयंती पर प्रकाशित स्मारिका में शाया हुआ था... इससे पहले भी हमारे लेख चोरी करके अख़बारों तक में प्रकाशित करा दिए गए... जब अख़बार के संपादक से बात की तो उन्होंने चोर लेखकों को प्रतिबंधित कर दिया...  
   
"फिरदौस जी, 
आपका आलेख "पत्रकारिता और स्टिंग ऑपरेशन" पढ़ा. आपके आलेख को पढते समय ऐसा महसूस हुआ कि मैंने इसे कहीं पढ़ा है. तब मैंने एक किताब 'वेब मीडिया और हिंदी का वैश्विक परिदृश', जोकि हिंद युग्म प्रकाशन से निकली है देखी. उस किताब में डॉ. राम लखन मीणा का एक लेख जो कि स्टिंग ऑपरेशन पर है, उसमें आपके लेख को पूरा का पूरा चोरी करके लिखा गया है.  आप चाहें तो इस लेख को हिंद युग्म प्रकाशन की इस किताब में देख सकती हैं. कृपया इस बारे में मेरे विषय में किसी से न कहें. मेरा फ़र्ज़ था इसलिए आपको बता दिया. "

हम अपने इस शुभचिंतक का दिल से शुक्रिया अदा करते हैं... 

हमारे ब्लॉग मेरी डायरी में सोमवार, 11 अगस्त 2008 को प्रकाशित हमारे लेख  'पत्रकारिता बनाम स्टिंग ऑपरेशन' को चोरी करके  इलेक्ट्रोनिक मीडिया और स्टिंग ऑपरेशन:डॉ.राम लखन मीणा
शीर्षक से प्रकाशित किया गया है...  

तस्वीर : गूगल से साभार 

Monday, January 21, 2013

अतीत की यादें, वर्तमान की चुनौतियां और भविष्य के सपने...

फ़िरदौस ख़ान
कांग्रेस के चिंतन शिविर के आख़िरी दिन पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बेहद जज़्बाती तक़रीर दी... उन्होंने अपने भाषण में अतीत की यादें, वर्तमान की चुनौतियां और भविष्य के सपने थे. उन्होंने कहा-
कभी-कभी सोचता हूं कि यह संगठन चलता कैसे है? पता नहीं क्या होता है कि चुनाव से पहले सब खड़े हो जाते हैं और जीत जाते हैं. दरअसल, यह गांधीजी का संगठन है. इसमें हिंदुस्तान का डीएनए है. कल रात देशभर से बधाइयां आ रही थीं. पिछली रात मेरी मां मेरे कमरे में आईं, उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा कि मैं जानती हूं कि सत्ता ज़हर होती है. इसके बाद वो रोने लगीं.

आज सुबह मैं चार बजे ही उठ गया और बालकनी में गया. सोचा कि मेरे कंधों पर बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई है. मैंने सोचा कि मैं वो नहीं कहूंगा जो लोग सुनना चाहेंगे. मैं वो कहूंगा जो मैं महसूस करता हूं. मैं बचपन में दादी के पास रहता था, पढ़ता था. मैं बैडमिंटन खेलना पसंद करता था, क्योंकि यह मुझे बैलेंस करता था.

दो सिपाही मुझे यह सिखाते थे. एक दिन उन्होंने ही मेरी दादी को गोली मार दी. मेरे पिता उस वक़्त बंगाल में थे. अस्पताल में दादी का शव था, वहां अंधेरा था, बाहर भारी भीड़ थी. मैंने देखा मेरे पिता रो रहे थे, जिन्हें मैं मज़बूत आदमी मानता था. बाद में मैंने देखा कि मेरे पिता नेशनल टेलीविज़न पर देश को संबोधित कर रहे हैं.

उस अंधेरे के बाद बदलाव आया. हम टिकट की बात करते हैं. चुनाव में टिकट के वक़्त ज़िला कमेटी, संगठन से नहीं पूछा जाता है. होता क्या है? दूसरे दलों से लोग आते हैं. चुनाव में खड़े होते हैं, हार जाते हैं, फिर चले जाते हैं.

जब राहुल गांधी भाषण दे रहे थे, तब वहां मौजूद उनकी मां सोनिया गांधी, शीला दीक्षित, राजीव गांधी के मित्र सैम पित्रौदा समेत कई बड़े नेता अपनी आंखें पोंछते नज़र आए. सैम पित्रौदा ने कहा-राहुल के भाषण में मां का दर्द, परिवार की यादें और कुछ डर भी था.
भाषण ख़त्म करने के बाद राहुल गांधी मां के पास पहुंचे और उन्हें गले लगा लिया और उनकी भीगी आंखें पोंछी.यह मां के लिए एक बेटे की मुहब्बत थी.