Sunday, December 27, 2015

ऐसे में अवाम कहां जाए...?


फ़िरदौस ख़ान
देश की राजधानी दिल्ली में विकास के प्रतीक लंबे-चौ़डे पुलों के नीचे ठंड से सिकु़ड़ते लोग आती जाती गाड़ियों से बेख़बर ख़ुद में ही सिमटे नज़र आते हैं. इन दिनों पूरा उत्तर भारत ठंड की चपेट में है. घने कोहरे और शीत लहर के थपे़डे ख़ून को जमा देने के लिए काफ़ी होते हैं. तभी तो हर साल सैक़डों लोग ठंड में कांपते हुए मौत की नींद सो जाते हैं. हालांकि सरकार की तरफ़ से बेघरों को ठंड से बचाने के लिए पुख्ता इंतज़ाम किए जाने के तमाम दावे हर साल किए जाते रहे हैं, लेकिन सर्दी के कारण हुई मौतें इन दावों की क़लई खोलकर रख देती हैं, और यह सिलसिला साल दर साल बदस्तूर जारी रहता है.

पिछले दिनों ठंड से हो रही मौतों के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सरकार को सख़्त हिदायत दी. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से यह सुनिश्चित करने को कहा है कि ठंड की वजह से देश में किसी ग़रीब की मौत न हो. बक़ौल अदालत, हमारा दिल दुख से भर जाता है, जब हम कड़ाके की इस ठंड में बेघर लोगों को बिना छत के सोता हुआ देखते हैं. जस्टिस दलवीर भंडारी व जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ ने दिल्ली सरकार की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल मोहन पराशरन से कहा कि आप अपने बच्चे को ठंड में जान गंवाने के लिए नहीं छोड़ सकते. ठीक उसी तरह बेघर लोगों को भी सहारा दिया जाना चाहिए. हमें बड़ा दुख होता है जब हम देखते हैं कि इतनी ठंड में बेघर लोग खुले आसमान के नीचे रहते हैं. अदालत ने यह टिप्पणी एम्स के बाहर फुटपाथ पर पड़े लोगों की अ़खबारों में छपी तस्वीरों और ख़बरों पर संज्ञान लेते हुए की. इन लोगों को इलाज के लिए अस्पताल में जगह नहीं दी गई और वहां से रैन बसेरे भी हटा दिए गए. इसकी वजह से मरीज़ों और उनके परिवारजनों को कड़ाके की ठंड में फुटपाथ पर खुले में रहना पड़ा . ग़ौरतलब है कि सुरक्षा के नाम पर यहां बने रैन बसेरों को गिरा दिया गया है. हालांकि पराशरन ने सरकार को दिलासा दिया कि यहां अस्थायी तौर पर रैन बसेरे बनाए जाएंगे. दिल्ली सरकार का दावा है कि उसने 64 स्थायी रैन बसेरे बनवाए हैं. याचिकाकर्ता पीपल्स यूनियन फोर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के वकील कॉलिन गोंजालविस का कहना है कि जहां रैन बसेरे बनाए गए हैं, वहां कोई रहता ही नहीं. दूरी ज़्यादा होने की वजह से सरकार के बनाए रैन बसेरों में एक भी व्यक्ति नहीं रह रहा है.
सरकार को ऐसे स्थानों पर रैन बसेरे बनाने चाहिए, जिससे कि बेघर लोग उनका फ़ायदा उठा सकें. सिर्फ़ ख़ानापूर्ति के लिए रैन बसेरे बनाने का कोई औचित्य नहीं है. मीडिया के दबाव के कारण सरकार जब तक रैन बसेरों का इंतज़ाम करती है, मौसम बदल जाता है.

देश के कई राज्यों में रैन बसेरे संचालित किए जाते हैं, ताकि बेघरों को सड़क पर रात न गुज़ारनी पड़े. ठिठुराने वाली सर्दी में लोगों को एक अदद छत नसीब हो सके, इस लिहाज़ से रैन बसेरे बेहद ज़रूरी हैं. लेकिन इनकी तादाद काम रहती है. अकेले उत्तर प्रदेश में जहां शीतलहर के कारण अब तक कई लोगों की मौत हो चुकी है, वहां अलाव जलाने और कंबल बांटने के लिए राज्य सरकार ने सात करोड़ रुपये की राशि जारी की है. इसके बावजूद लोगों के लिए सर्दी से राहत के इंतज़ाम नहीं हो पा रहे हैं. ऐसे में यह पैसा कहां जा रहा है, बताने की ज़रूरत नहीं. हालांकि ग़ैर सरकारी संगठनों और सामाजिक संगठनों के कारण बेघरों को सर्दी में थोड़ी बहुत राहत मिल जाती है, लेकिन यह काफ़ी नहीं है. यह बेहद अफ़सोस की बात है कि ऐसे मामलों में भी अदालत को ही सरकार को आदेश देना पड़ता है, और इससे बड़े दुख की बात यह है कि इसके बावजूद भी सरकार कुछ नहीं करती. ऐसे में जनता कहां जाए...?

मुस्लिम सियासी दलों की हक़ीक़त...


फ़िरदौस ख़ान
मुस्लिम सियासी दलों की हक़ीक़त... देश में चुनाव के क़रीब आते ही मुस्लिम सियासी दल और मुस्लिम संगठन हरकत में आ जाते हैं... इनके कर्ताधर्ता पहले तो देश के तक़रीबन सियासी दलों को पानी पी-पीकर कोसते हैं और बाद में कुछ संगठन इन्हीं सियासी दलों की गोद में जाकर बैठ जाते हैं... पर्दे के पीछे की हक़ीक़त यही रहती है कि इन दलों का मक़सद बड़े सियासी दलों से सैटिंग करके रक़म ऐंठना ही होता है... जो दल खुलेआम किसी सियासी दल को समर्थन नहीं देते, वे भी मुसलमानों के वोट बांटने का काम करते हुए सांप्रदायिक सियासी दलों को फ़ायदा पहुंचाते हैं... मुसलमानों को चाहिए कि वे ऐसे मुस्लिम सियासी दलों से परहेज़ करें, जो उनकी भलाई के नाम पर अपना उल्लू सीधा करते हैं... आज देश में हालात हैं, उन्हें देखते हुए यह बेहद ज़रूरी है कि मुसलमान ऐसे सियासी दल को वोट करें, जो देश की एकता और अखंडता में यक़ीन रखता है... ख़ास बात यह है कि अगर मुसलमान अपना और अपने बच्चों का सुरक्षित भविष्य चाहते हैं, तो उन्हें सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ एकजुट होना ही होगा...

गर्म कपड़े


हम सब बाज़ार से नये-नये कपड़े-कपड़े ख़रीदते रहते हैं... हर मौसम में मौसम के हिसाब से कपड़े आते हैं... सर्दियों के मौसम में स्वेटर, जैकेट, गरम कोट, कंबल, रज़ाइयां और भी न जाने क्या-क्या... बाज़ार जाते हैं, जो अच्छा लगा ख़रीद लिया... हालांकि घर में कपड़ों की कमी नहीं होती... लेकिन नया दिख गया, तो अब नया ही चाहिए... इस सर्दी में कुछ नया ही पहनना है... पिछली बार जो ख़रीदा था, अब वो पुराना लगने लगा... वार्डरोब में नये कपड़े आते रहते हैं और पुराने कपड़े स्टोर में पटख़ दिए जाते हैं...
ये घर-घर की कहानी है... जो कपड़े हम इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं और वो पहनने लायक़ हैं, तो क्यों न उन्हें ऐसे लोगों को दे दिया जाए, जिन्हें इनकी ज़रूरत है...

कुछ लोग इस्तेमाल न होने वाली चीज़ें दूसरों को इसलिए भी नहीं देते कि किसे दें, कौन देने जाए... किसके पास इतना वक़्त है... अगर हम अपना थोड़ा-सा वक़्त निकाल कर इन चीज़ों को उन हाथों तक पहुंचा दें, जिन्हें इनकी बेहद ज़रूरत है, तो कितना अच्छा हो...

चीज़ वहीं अच्छी लगती है, जहां उसकी ज़रूरत होती है...

Thursday, December 10, 2015

मज़हब


ज़्यादातर लोग किसी मज़हब को सिर्फ़ इसलिए मानते हैं, क्योंकि वे उस मज़हब को मानने वाले परिवार में पैदा हुए हैं... बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं, जो अपना मज़हब बदलते हैं... कई बार ऐसा भी होता है कि लोग अपना मज़हब नहीं बदलते, लेकिन उनकी अक़ीदत दूसरे मज़हब में होती है...
दरअसल, इबादत बहुत ज़ाती चीज़ है... कौन अपने ख़ुदा को किस तरह याद करता है... यह उसका ज़ाती मामला है...

अपने मज़हब को जबरन किसी पर थोपना अच्छी बात नहीं... अमूमन हर इंसान को अपना मज़हब ही सही लगता है... इसके लिए वह कुतर्क करने से भी बाज़ नहीं आता... अच्छा तो यही है कि हमें सभी मज़हबों की इज़्ज़त करनी चाहिए... जब हम दूसरों के मज़हब की इज़्ज़त करेंगे, तभी वो हमारे मज़हब की भी इज़्ज़त करेंगे...
-फ़िरदौस ख़ान