Wednesday, July 19, 2017

सिर्फ़ अपनी पीठ न थपथपाये सरकार

फ़िरदौस ख़ान
देश में आज भी छोटे-बड़े क़स्बों और गांव-देहात में पारंपरिक चूल्हे पर खाना पकाया जाता है. इनमें लकड़ियां और उपले जलाए जाते हैं. इसके अलावा अंगीठी का भी इस्तेमाल किया जाता है. अंगीठी में लकड़ी और पत्थर के कोयले जलाए जाते हैं. लकड़ी के बुरादे, काठी और तेंदुए के पत्तों से भी अंगीठी दहकाई जाती है. ऐसी अंगीठियां अमूमन उन इलाक़ों में देखने को मिलती हैं, जहां कपास उगाई जाती है और बीड़ी बनाने का काम होता है. आदिवासी इलाक़ों और गांव-देहात में पुरुष, महिलाएं और बच्चे तक जंगल से जलावन इकट्ठा करके लाते हैं.
दुनिया की तकरीबन आधी आबादी आज भी घरों के भीतर पारंपरिक चूल्हों पर खाना पकाती है. भारत में भी तक़रीबन 50 करोड़ लोग इन्हीं चूल्हों का इस्तेमाल करते हैं. चूल्हे के धुएं से खाना पकाने वाली महिलाएं आंखों में जलन, हृदय और फेफड़ों की बीमारियों की शिकार हो जाती हैं. बीमारी गंभीर होने पर उनकी मौत तक हो जाती है. ऐसा नहीं है कि महिलाएं ही चूल्हे के धुएं से प्रभावित हैं. घर के पुरुष और बच्चे भी घरेलू वायु प्रदूषण की चपेट में आ जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ घरेलू वायु प्रदूषण की वजह से भारत में हर साल तक़रीबन 15 लाख लोगों की मौत होती हैं.

भारत में महिलाओं को पारंपरिक चूल्हे के धुएं से होने वाली परेशानी से बचाने के लिए केंद्र सरकार ने रसोई गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया. लेकिन रसोई गैस कनेक्शन महंगा होने की वजह से ग़रीब लोग चाहकर भी इसे इस्तेमाल में नहीं ला पाए. इसके बाद ग़रीब परिवारों को मुफ़्त  रसोई गैस कनेक्शन देने की योजना आई. ग़ौरतलब है कि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना 1 मई 2016 को उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में शुरू की गई थी. इसका मकसद तीन साल के भीतर ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों की पांच करोड़ महिलाओं को मुफ़्त रसोई गैस के कनेक्‍शन मुहैया कराना है. इसके लिए सरकार 1,600 रुपये प्रति गैस कनेक्शन की दर से अनुदान दे रही है. सरकार ने इसके लिए 8,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया है. इस योजना के तहत परिवार की महिला मुखिया के नाम से गैस कनेक्शन दिया जाता है. पिछले शनिवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत पश्चिम बंगाल में अपने गृह ज़िले जांगीपुर में आयोजित कार्यक्रम में ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिला गौरी सरकार को मुफ़्त रसोई गैस कनेक्शन प्रदान किया. इसके साथ ही ग़रीब परिवार की महिलाओं को मुफ़्त रसोई गैस कनेक्शन देने की इस योजना के लाभार्थियों की तादाद ढाई करोड़ तक पहुंच गई.
इस योजना के प्रचार-प्रसार पर सरकार पानी की तरह पैसा बहा रही है. सरकार ज़्यादा से ज़्यादा कनेक्शन बांटकर अपनी पीठ थपथपाने को बेचैन दिख रही है. इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि जिन महिलाओं को मुफ़्त गैस कनेक्शन दिए गए हैं, क्या उन्होंने दोबारा सिलेंडर ख़रीदा भी है या नहीं ?

क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि जिन लोगों के पास रसोई गैस कनेक्शन है, उन्हें भी अकसर शासाअन-प्रशासन से अनेक शिकायतें रहती हैं. गैस उपभोक्ताओं को सिलेंडर बुक कराने के बाद कई-कई दिन तक सिलेंडर नहीं मिलता. गैस एजेंसी के बाहर उपभोक्ताओं की लंबी-लंबी क़तारें देखा जा सकती हैं. लोग अपने काम-धंधे छोड़कर झुलसती गरमी में घंटों क़तार में लगे रहते हैं. फिर भी बहुत लोगों को सिलेंडर नहीं मिलता. उनसे कह दिया जाता है कि सिलेंडर ख़त्म हो गए, पीछे से गैस नहीं आ रही है, गैस की क़िल्लत चल रही है, वग़ैरह-वग़ैरह. लेकिन कालाबाज़ारी में कभी गैस की क़िल्लत नहीं होती, ज़्यादा दाम चुकाओ, जितने चाहे सिलेंडर ख़रीदो. गैस एजेंसी के गोदामों से काला बाज़ार के माफ़िया तक पहुंच जाती है और उपभोक्ता गैस के लिए परेशान होते रहते हैं.

एक तरफ़ उपभोक्ता रसोई गैस को तरस रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ घरेलू रसोई गैस व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में ख़ूब इस्तेमाल हो रही है. नियम के मुताबिक़ होटल, रेस्त्रां या व्यवसायिक प्रतिष्ठान के घरेलू रसोई गैस का इस्तेमाल करने पर संबंधित प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ आवश्यक वस्तु अधिनियम के अलावा अन्य सुसंगत धाराओं के तहत कार्रवाई करने का प्रावधान है. इसके अलावा छोटे सिलेंडरों का बाज़ार भी बड़ा है. बड़े सिलेंडरों से छोटे सिलेंडरों में गैस भरकर मनचाहे दामों पर गैस बेची जाती है. जिनके पास बड़े सिलेंडर नहीं हैं, वे लोग पांच किलो वाले सिलेंडर में गैस भरवाकर ही अपना चूल्हा जला लेते हैं. रौशनी के लिए भी छोटे गैस सिलेंडर इस्तेमाल किए जाते हैं. गैस भरने का यह काम ख़तरनाक है. अकसर इसकी वजह से आगज़नी जैसे हादसे भी हो जाते हैं, लेकिन इससे न तो गैस कारोबारी सबक़ लेते हैं और न ही शासन-प्रशासन इस बारे में कोई सख़्त क़दम उठाता है. ये काम प्रशासन की नाक के नीचे सरेआम भी किया जाता है और चोरी-छुपे भी किया जाता है.

इतना ही नहीं तेल कंपनियों के तमाम दावों के बावजूद सिलेंडर में गैस में कम होने के मामले भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. हालत यह है कि गैस सिलेंडरों में एक से दो किलो तक गैस कम निकल रही है. अमूमन भरे हुए रसोई गैस सिलेंडर का वज़न 30 किलो होता है इसमें 15.8 किलो वज़न सिलेंडर का और 14.2 किलो वज़न गैस का होता है. यह जानकारी सिलेंडर पर लिखी होती है. सिलेंडर में गैस निकालकर वज़न पूरा करने के लिए पानी डाले जाने के मामले भी सामने आते रहते हैं. सिलेंडर में पानी डालने से वह ज़ंग पकड़ लेता है, जिससे कभी भी होई भी हादसा हो सकता है. शिकायत करने पर गैस एजेंसी संचालक अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं. अकसर जवाब मिलता है कि एजेंसी से सही सिलेंडर भेजा गया है. अगर ऐसा भी है, तो घर तक सही सिलेंडर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी गैस एजेंसी की है. दरअसल, देश में शासन-प्रशासन की लापरवाही और उपभोक्ता में जागरुकता की कमी की वजह से तेल कंपनियां और गैस एजेंसी संचालक अपनी मनमानी करते हैं. और इसका ख़ामियाज़ा उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ता है.

सरकार योजनाएं शुरू तो कर देती है, लेकिन उसके सही कार्यान्वयन पर ध्यान नहीं देती. इसीलिए न जाने कितनी योजनाएं सरकारी क़ाग़ज़ों तक ही सिमट कर रह जाती हैं. अगर सरकार ईमानदारी से चाहती है कि महिलाएं रसोई गैस का इस्तेमाल करें, तो उसे इस योजना के हर पहलू पर ग़ौर करना होगा. सिर्फ़ सिलेंडर बांटने से ही महिलाओं की रसोई बदलने वाली नहीं है. इस बात का भी ख़्याल रखना होगा कि महिलाएं गैस सिलेंडर का ख़ुद इस्तेमाल करें न कि कोई और. इसके लिए यह भी बेहद ज़रूरी है कि गैस के दाम इतने ज़्यादा न बढ़ा दिए जाएं कि वे लोगों की पहुंच से दूर हो जाएं.

Saturday, July 1, 2017

बयानबाज़ी नहीं, कार्रवाई होनी चाहिए

फ़िरदौस ख़ान
गंगा-जमुनी तहज़ीब हमारे देश की रूह है. संतों-फ़क़ीरों ने इसे परवान चढ़ाया है. प्रेम और भाईचारा इस देश की मिट्टी के ज़र्रे-ज़र्रे में है.  कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे देश की संस्कृति के कई इंद्रधनुषी रंग देखने को मिलते हैं. प्राकृतिक तौर पर विविधता है, कहीं बर्फ़ से ढके पहाड़ हैं, कहीं घने जंगल हैं, कहीं कल-कल करती नदियां हैं, कहीं दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है, तो कहीं नीले समन्दर का चमकीला किनारा है. विभिन्न इलाक़ों के लोगों की अपनी अलग संस्कॄति है, अलग भाषा है, अलग रहन-सहन है और उनके खान-पान भी एक-दूसरे से काफ़ी अलग हैं. इतनी विभिन्नता के बाद भी सबमें एकता है, भाईचारा है, समरसता है. लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं. देश के किसी भी इलाक़े में कोई मुसीबत आती है, तो पूरा देश इकट्ठा हो जाता है. कोने-कोने से मुसीबतज़दा इलाक़े के लिए मदद आने लगती है. मामला चाहे, बाढ़ का हो, भूकंप का हो या फिर कोई अन्य हादसा हो. सबके दुख-सुख सांझा होते हैं.

कितने अफ़सोस की बात है कि पिछले तीन सालों में कई ऐसे वाक़ियात हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक समरस्ता में ज़हर घोलने की कोशिश की है, सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने की कोशिश की है. अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और गहरा करने की कोशिश की है, मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की है, जात-पांत के नाम पर एक-दूसरे को लड़ाने की कोशिश की है. इसके कई कारण हैं, मसलन अमीरों को तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं, उन्हें टैक्स में छूट दी जा रही है, उनके टैक्स माफ़ किए जा रहे हैं, उनके क़र्ज़ माफ़ किए जा रहे हैं. ग़रीबों पर नित-नये टैक्स का बोझ डाला जा रहा है. आए-दिन खाद्यान्न और रोज़मर्रा में काम आने वाली चीज़ों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. ग़रीबों की थाली से दाल तक छीन ली गई. हालत यह है कि अब उनकी जमा पूंजी पर भी आंखें गड़ा ली गई हैं. पाई-पाई जोड़ कर जमा किए गए पीएफ़ और ईपीफ़ पर टैक्स लगा कर उसे भी हड़प लेने की साज़िश की गई. नौकरीपेशा लोगों के लिए पीएफ़ और ईपीएफ़ एक बड़ा आर्थिक सहारा होता है. मरीज़ों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. दवाओं यहां तक कि जीवन रक्षक दवाओं के दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ा दिए गए हैं, ऐसे में ग़रीब मरीज़ अपना इलाज कैसे करा पाएंगे. इसकी सरकार को कोई फ़िक्र नहीं है.  नोटबंदी कर लोगों का जीना मुहाल कर दिया. नोट बदलवाने के लिए लोग कड़ाके की ठंड में रात-रात भर बैंकों के आगे सड़कों पर खड़े रहे. क़तारों में लगे-लगे कई लोगों की जान तक चली गई. किसानों की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा. गले तक क़र्ज़ में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं. अपने अधिकारों के लिए आंदोलन करने वाले किसानों पर गोलियां दाग़ी जा रही हैं, उनकी हत्या की जा रही है. केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू कह रहे हैं कि  क़र्ज़ माफ़ी अब फैशन बन चुका है.

समाज में हाशिये पर रहने वाले तबक़ों की आवाज़ को भी कुचलने की कोशिश की जा रही है. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. जल, जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष करने वाले आदिवासियों को नक्सली कहकर प्रताड़ित करने का सिलसिला जारी है. हद तो यह है कि सेना के जवान तक आदिवासी महिलाओं पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं, उनका शारीरिक शोषण कर रहे हैं. दलितों पर अत्याचार बढ़ गए हैं. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बोलने पर दलितों को देशद्रोही कहकर उन्हें सरेआम पीटा जाता है. गाय के नाम पर मुसलमान निशाने पर हैं. अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने पर उन्हें दहशतगर्द क़रार दे दिया जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया बयान दिया है कि गौभक्ति के नाम पर इंसानों का क़त्ल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. हालांकि कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी पर पलटवार करते हुए कहा है कि बहुत देर हो गई. कहने से कुछ नहीं होगा, जब तक कार्रवाई नहीं की जाती. प्रधानमंत्री का यह बयान उस वक़्त आया था जब तथाकथित गौरक्षकों ने गुजरात के ऊना में दलितों को बुरी तरह पीटा था. लेकिन गौरक्षकों  पर इस बयान का कोई असर नहीं हुआ, क्योंकि वह जानते हैं कि और बयानों की तरह यह बयान भी सिर्फ़ ’जुमला’ ही होगा. प्रधानमंत्री के बयान के चंद घंटों के बाद ही झारखंड के रामगढ़ में बेरहमी से एक व्यक्ति का क़त्ल कर दिया गया और उसकी जीप को आग लगा दी गई. आए दिन ऐसे ख़ौफ़नाक वाक़िये सामने आ रहे हैं.

दादरी के अख़्लाक कांड में जिस तरह एक बेक़सूर व्यक्ति पर बीफ़ खाने का इल्ज़ाम लगाकर उसका क़त्ल किया गया, उसने मुसलमानों के दिल में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी. कभी उन्हें घर में घुस कर मार दिया जाता है, कभी सड़क पर क़त्ल कर दिया जाता है,  तो कभी रेल में सफ़र कर रहे युवक पर हमला करके उसकी जान ले ली जाती है. मुसलमानों को लगने लगा कि वे अपने देश में ही महफ़ूज़ नहीं हैं. देश के कई हिस्सों में बीफ़-बीफ़ कहकर कुछ असामाजिक तत्वों ने समुदाय विशेष के लोगों के साथ अपनी रंजिश निकाली. जिस तरह मुस्लिम देशों में ईश निन्दा के नाम पर ग़ैर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है, वैसा ही अब हमारे देश में भी होने लगा है.  दरअसल, भारत का भी तालिबानीकरण होने लगा है. दलितों पर अत्याचार के मामले आए-दिन देखने-सुनने को मिलते रहते हैं. आज़ादी के इतने दशकों बाद भी दलितों के प्रति लोगों की सोच में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. गांव-देहात में हालात बहुत ख़राब हैं. दलित न तो मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं और न ही शादी-ब्याह के मौक़े पर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ सकता है. उनके साथ छुआछूत का तो एक लंबा इतिहास है. पिछले दिनों आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में हुए उग्र जाट आंदोलन ने सामाजिक समरसता को चोट पहुंचाई है. आरक्षण के नाम पर लोग जातियों में बट गए हैं. जो लोग पहले 36 बिरादरी को साथ लेकर चलने की बात करते थे, अब वही अपनी-अपनी जाति का राग आलाप रहे हैं.

अंग्रेज़ों की नीति थी- फूट डालो और राज करो. अंग्रेज़ तो विदेशी थे. उन्होंने इस देश के लोगों में फूट डाली और और एक लंबे अरसे तक शासन किया. उन्हें इस देश से प्यार नहीं था. लेकिन इस वक़्त जो लोग सत्ता में हैं, वे तो इसी देश के वासी हैं. फिर क्यों वे सामाजिक सद्भाव को ख़राब करने वाले लोगों का साथ दे रहे हैं. उन्हें यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि जब कोई सियासी दल सत्ता में आता है, तो वह सिर्फ़ अपनी विचारधारा के मुट्ठी भर लोगों पर ही शासन नहीं करता, बल्कि वह एक देश पर शासन करता है. इसलिए यह उसका नैतिक दायित्व है कि वह उन लोगों को भी समान समझे, जो उसकी विपरीत विधारधारा के हैं. सरकार पार्टी विशेष की नहीं, बल्कि देश की समूची जनता का प्रतिनिधित्व करती है. सरकार को चाहिए कि वह जनता को फ़िज़ूल के मुद्दों में उलझाए रखने की बजाय कुछ सार्थक काम करे. सरकार का सबसे पहला काम देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने और देश में चैन-अमन का माहौल क़ायम रखना है. इसके बाद जनता को बुनियादें सुवाधाएं मुहैया कराना है. बाक़ी बातें बाद की हैं. सुनहरे भविष्य के ख़्वाब देखना बुरा नहीं है, लेकिन जनता की बुनियादी ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करके उसे सब्ज़ बाग़ दिखाने को किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता. बेहतर तो यह होगा कि चुनाव के दौरान जनता से किए गए वादों को पूरा करने का काम शुरू किया जाए.