Saturday, December 20, 2008

ज़िन्दा शख्स के क़त्ल के इल्ज़ाम में काटी उम्रकैद की सज़ा


फ़िरदौस ख़ान
पंजाब के लुधियाना ज़िले के जगराओ में कत्ल के झूठे केस में पांच बेकसूरों ने उम्रकैद की सजा काटी और सजा के दौरान एक की मौत भी हो गई लेकिन 12 साल जेल में गुजारने के बाद जिस व्यक्ति के कत्ल के इल्जाम में सजा काटी वह जिंदा निकला. इस किस्से को सच कर दिखाया है जगसीर सिंह के परिजनों ने. उन्होंने अपने बेटे जगसीर को मृत साबित कर गांव के ही पांच लोगों को उम्रकैद की सजा करवा दी थी.

गौरतलब है कि पुलिस ने 1996 में जगसीर सिंह के कत्ल का मामला दर्ज किया था. 12 साल बाद पुलिस ने जगसीर को एक नाके पर काबू किया और सच सामने आया. जगसीर को पकड़ने की सूचना एसएसपी गुरप्रीत सिंह भुल्लर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दी. उन्होंने बताया कि जगसीर सिंह पुत्र सुखदेव सिंह निवासी गांव टल्लेवाल थाना भरौड (बरनाला) 1996 में गांव में हुए झगड़े के बाद लापता हो गया था.

उसके परिजनों ने गांव के ही नछतर सिंह, सीरा सिंह, सुरजीत, निक्का और अमरजीत सिंह पर जगसीर का अपहरण करने का आरोप लगाया था और परिजनों की शिकायत पर आरोपियों के खिलाफ धारा 364 के तहत मामला दर्ज हुआ था.

सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि जगसीर की गुमशुदगी के कुछ दिन बाद ही उसका शव बरामद करवा दिया गया था. पुलिस ने गांव के पास ही एक अज्ञात शव बरामद किया था. जगसीर के परिजनों ने उसे अपना बेटा बताया था.

उन्होंने उसका पोस्टमार्टम करवा अंतिम संस्कार भी करवा दिया. इसके बाद पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ धारा 302 के तहत भी मामला दर्ज किया. पांचों लोगों की झूठी गवाहियों पर उम्रकैद की सजा हो गई. सीरा सिंह की जेल में मौत हो चुकी है बाकि चार लोग सजा काट कर बाहर आ चुके हैं.

कुछ समय बाद जगसीर वापस घर आया तो उसके पिता सुखदेव सिंह, भाई बलविंदर सिंह, मामा गुरुदेव सिंह व जीत सिंह ने उससे कहा कि उसके कत्ल के आरोप में पांच लोगों पर मामला दर्ज है. वह कहीं और जाकर पहचान बदल कर रहे. जगसीर इसके बाद बलदेव सिंह पुत्र प्रेम सिंह निवासी रलेवाल बलाचौर के तौर पर रहने लगा.

बलाचौर में रहते हुए जगसीर ने नकली नाम से प्रमाण पत्र भी बनवा लिए. इसके बाद परिवार वाले उसे रहने के लिए पैसे देते रहे. बुधवार को भी जगसीर किराये की कार में पैसे लेने आ रहा था. गांव सीलोआनी के पास डीएसपी नरिंदर पाल सिंह रूबी व एसएचओ गुरदयाल सिंह की अगुवाई में टीम ने उसे काबू किया. पुलिस ने उससे एक लाख 24 हजार रुपए बरामद किए. पुलिस ने उससे वोटर कार्ड और एक बैंक पास बुक भी बरामद की, दोनों ही डोक्यूमेंट किसी अन्य के नाम से बनाए गए थे. पुलिस ने जगसीर को गिरफ्तार कर उसके खिलाफ धारा 420, 195, 211, 465, 467, 468, 471, 120 के तहत मामला दर्ज किया है.

इसे आप क्या कहेंगे...?


Wednesday, November 5, 2008

बराक हुसैन ओबामा ने रचा इतिहास


अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में करिश्माई डेमोक्रेट बराक हुसैन ओबामा ने जीत हासिल कर एक नया इतिहास रचा है. उन्होंने निर्वाचक मंडल के 338 मत हासिल कर लिए हैं, जबकि उनके रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी जान मैक्केन को कुल 155 मत हासिल हुए हैं. इस तरह बराक ओबामा अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बन गए हैं. ग़ौरतलब है कि बराक आबोमा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुने गए हैं.

उनकी जीत इस मायने में महत्वपूर्ण है कि 45 साल पहले मानवाधिकार आंदोलन के प्रणेता मार्टिन लूथर किंग ने समानता का जो सपना देखा था वह आज सच हो गया. आमतौर पर भारत समर्थक माने जाने वाले 47 वर्षीय ओबामा अपने नाम और जाति के कारण जानते थे कि व्हाइट हाउस तक पहुंचने का उनका सफ़र कितना मुश्किल होगा. उन्होंने एक बार कहा भी था कि यह एक युगांतकारी परिवर्तन होगा. केन्याई पिता और श्वेत अमेरिकी माता की संतान ओबामा ने यह कर दिखाया. अमेरिकी जनता को उनमें वह सब नज़र आया जिसकी उसे इस कठिन वक्त में दरकार है.

हारवर्ड में पढे़ ओबामा ने 21 माह के कठिन प्रचार अभियान के बाद दुनिया का सबसे ताकतवर ओहदा हासिल किया. पार्टी का उम्मीदवार बनने के लिए उन्होंने पहले अपनी ही पार्टी की हिलेरी क्लिंटन और फिर वियतनाम युद्ध के सेना नायक जान मैक्केन को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका में एक बडे़ बदलाव के संकेत के साथ व्हाइट हाउस की गद्दी संभाल ली. ओबामा की जीत ने अमेरिकी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है. देश सदियों जातीय वैमनस्यता का कोपभाजन बना रहा. आज से 200 साल पहले जिस सामाजिक बुराई का अंत हुआ उसकी सुखद अनुभूति का भी यह जीत प्रतीक है.

शिकागो के एक सामुदायिक कार्यकर्ता ओबामा के लिए व्हाइट हाउस की पहली पायदान इलिओनिस की सीनेट रही. सन 1996 में इस जीत से लोकप्रिय हुए ओबामा सन 2004 में संघीय सीनेट तक जा पहुंचे. अपने सहज व्यक्तित्व से ओबामा जल्द मीडिया की सुर्खियां बनने लगे. उन्होंने इसे बहुआयामी स्वरूप दिया और लेखन में जल्द बुलंदी हासिल की. उनकी दो पुस्तकें द आडेसिटी ऑफ होप तथा ड्रीम फ्राम माई फ़ादर बेहद सराही गई. आठ साल से सत्ता के शीर्ष पद से दूर डेमोक्रेट पार्टी में ओबामा ने एक नई जान फूंक दी. उनका नामांकन वाकई पार्टी के लिए जादुई साबित हुआ.

हवाई में चार अगस्त 1961 को जन्में ओबामा के अरबी मायने ही सौभाग्यशाली है. उन्हें लेकिन इस बात का अफ़सोस रहेगा कि उनके कैरियर में अहम भूमिका निभाने वाली उनकी नानी अपने सपने को साकार होने से कुछ दिन पहले ही चल बसीं. जाति एवं धर्म के विवाद के साथ चुनावी अभियान में अपने को लगातार मज़बूत करते रहे ओबामा ने कई जगह अपनी टिप्पणियों एवं संकेतों में भारत के साथ ठोस सहभागिता की भावना का इजहार किया. यहां तक कि भारत के साथ असैनिक परमाणु समझौते के प्रति समर्थन का, हालांकि पहले वह इसका विरोध करते रहे.

लेकिन कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर भारत में चिंता देखी गई. मसलन उनके आउटसोर्सिग के विरोध वाले रवैये पर. अगर ऐसा हुआ तो यह बेशक भारत के हक़ के ख़िलाफ़ जाएगा. उन्होंने प्रचार अभियान में कहा था कि जान मैक्केन के विपरीत मैं उन कंपनियों को कर में ढील नहीं दूंगा, जो बाहर के लोगों को नौकरियां देते है और वह लाभ उन कंपनियों को देना शुरू करूंगा जो यहां अमेरिका में रोगार सृजित करेंगे. चुनाव के लिए धन एकत्रित करने में रिकार्ड तोड़ चुके ओबामा 200 साल पहले ख़त्म हुए दासता के दर्द को नहीं भूले हैं. उन्होंने बेहिचक कहा कि अभी भी देश जातीय भेदभाव से पाक साफ़ नहीं हुआ है.

अपने प्रतिद्वंद्वी के मुक़ाबले अनुभवहीन कहे जाने वाले ओबामा ने सन 2003 में इराक पर हमले के समय से ही बुश प्रशासन की कड़ी आलोचना करनी शुरू कर दी थी. वह एक मोर्चे पर पूर्ववर्ती प्रशासन से बिल्कुल अलग है जब वह कहते है कि वह बिना शर्त ईरान से बातचीत करेंगे। प्रेरणादायक लफ़्ज़ों तथा बदलाव के नारे से जनता को आकर्षित करने में कामयाब रहे ओबामा बहस में भी मैक्केन पर भारी पड़े. बहस के पहले दौर से ही लगने लगा था कि व्हाइट हाउस उनका इंतज़ार कर रहा है. सवालों के कुशलता से जवाब देने से लेकर भावी प्रस्तावों में उनकी समझबूझ दिखाई दी. चाहे इराक़ का मुद्दा हो या फिर वित्तीय संकट अथवा स्वास्थ्य.

आतंकवाद से लड़ाई के मामले पर उनकी सोच है कि वह इसके लिए नई सहभागिता कायम करेंगे और एक साफ मिशन के साथ ही सैनिकों को लड़ाई के मैदान पर भेजेंगे. उन्होंने प्रचार अभियान में कहा था कि मैं इक्कीसवीं सदी के ख़तरों, आतंकवाद, परमाणु प्रसार, ग़रीबी, नरसंहार, जलवायु परिवर्तन तथा बीमारियों के ख़तरों से निपटने के लिए नई सहभागिता क़ायम करूंगा. शेयर बाजार में गिरावट से देश को उबारने के उनके दृष्टिकोण को पूर्व ज्वाइंट चीफ़ ऑफ स्टाफ्स के अध्यक्ष कोलिन पावेल ने भी ख़ूब सराहा. ओबामा की पत्नी वकील है और उनकी दो बेटियां हैं. दस वर्षीय मालिया और सात वर्षीय साशा.

Friday, October 10, 2008

क्यों सुनाई नहीं देतीं मासूमों की चीख़ें


फ़िरदौस ख़ान
कुपोषण के कारण मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में बच्चों के मौत की खबर के बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का कि देश के क़रीब आधे बच्चे कुपोषित हैं, सोचने पर मजबूर करता है क्या हमारा देश वाक़ई तरक़्क़ी कर रहा है... ?

हैरत की बात यह भी है कि जिस देश में धर्म-कर्म के नाम पर इतना कहर बरपा किया जाता है...उन तथाकथित राष्ट्रवादियों को भूख से तड़पते इन मासूमों की चीखें सुनाई नहीं देतीं...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी मज़हबों के लोग मज़हब के नाम पर लड़ने-झगड़ने की बजाय आपस में मिलजुल कर मानवता की सेवा करें...

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश की एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा ‘भोजन का अधिकार अभियान’ द्वारा वहां की हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका के मुताबिक़ राज्य में कुपोषण के कारण 159 बच्चों की मौत हो चुकी है. ये मौतें इस साल 8 मई से लेकर 10 सितंबर के बीच हुई हैं.

आयोग का कहना है कि इसकी वजह सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का ज़रूरतमंद बच्चों तक नहीं पहुंचना है. आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एस राजेंद्र बाबू ने कहा कि यह देश के समक्ष सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है. देश में बच्चों के कल्याण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसके बावजूद कोई भी योजना इतनी अच्छी नहीं है कि उसमें देश के सभी बच्चे शामिल हों. उनका कहना है कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को जिस तरीके से लागू किया जाना चाहिए था, वे उस तरीके से लागू नहीं हो रही हैं. ये योजनाएं ज़रूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, वरना मध्यप्रदेश में इतने बच्चों की मौत नहीं होती.

क़ाबिले-गौर है कि कुछ समय पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के क़रीब 47 फीसदी बच्चे कम वज़न के हैं. इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है. देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फ़ीसदी, झारखंड में 59.2 फ़ीसदी, बिहार में 58 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 52.2 फ़ीसदी, उड़ीसा में 44 फ़ीसदी, राजस्थान में भी 44 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.9 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फ़ीसदी, उत्तरांचल में 38 फ़ीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फ़ीसदी और पंजाब में 27 फ़ीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं.

यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफगानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुकाबले बहुत ज़्यादा है.

यूनिसेफ़ के एक अधिकारी के मुताबिक़ भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फ़ीसदी का कारण कुपोषण होता है. भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.

1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तक़रीबन सभी देशों के प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा.उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड़ लोगों को पोषक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है. यह संख्या क़रीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फ़ीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है.

खैर... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंसानियत से बढ़कर कोई मज़हब नहीं...और जनसेवा से बढ़कर कोई इबादत नहीं...

Wednesday, October 8, 2008

पाक कश्मीर की आज़ादी के खिलाफ़ नहीं

आख़िर पाकिस्तान ने कश्मीरियों के बारे में अपना रुख़ साफ़ कर ही दिया। ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चयुक्त वाजिद शम्सुल हसन ने कश्मीर पर कहा है कि पाकिस्तान कश्मीर में 'बाहर के चरमपंथियों के आतंकवाद' के ख़िलाफ़ है। उन्होंने कश्मीरियों के भारत के विरुद्ध बल प्रयोग को उचित ठहराया है. गौरतलब है कि श्री हसन हाल में देश के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी के वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए उस इंटरव्यू के बारे में स्पष्टीकरण दे रहे थे, जिसमें उन्होंने भारत प्रशासित कश्मीर में इस्लामी चरमपंथियों को 'आतंकवादी' कहा था.


क़ाबिले-गौर यह भी है कि राष्ट्रपति ज़रदारी के विचारों के बारे में छपी रिपोर्ट के बाद प्रदर्शनकारियों ने भारत प्रशासित कश्मीर में जारी कर्फ़्यू की अवहेलना करते हुए भारतीय प्रशासन और ज़रदारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किए थे। कश्मीर में ऐसा पहली बार हुआ है जब पाकिस्तान के किसी नेता के पुतले जलाए गए हैं। आमतौर भारत प्रशासित कश्मीर में भारतीय प्रशासन का विरोध करते समय पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगते रहे हैं.


प्रमुख अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने ज़रदारी के बयान की कड़े शब्दों में निंदा की है। उनका कहना है कि " ज़रदारी ने अमरीका को ख़ुश करने के लिए यह बयान दिया है। ज़रदारी भारत से डरते हैं और भारत को ख़ुश करने के लिए पाकिस्तान की प्रतिष्ठा से भी समझौता कर सकते हैं।'' उनका यह भी कहना है कि ''कश्मीरी युवा अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं। सच तो यह है कि कश्मीर की जनता सरकारी आतंकवाद का आतंक का शिकार है। कश्मीरी के विद्रोहियों को आतंकवादी कह देने से कश्मीर की स्वायत्ता और स्वतंत्रता का आंदोलन कमज़ोर पड़ने वाला नहीं है. चरमपंथी संगठन अल-उमर-मुजाहिदीन के प्रमुख कमांडर मुश्ताक़ ज़रगार ने भी ज़रदारी के बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि "ज़रदारी ने भारत को कश्मीरी युवाओं को क़त्ल करने का लाइसेंस दे दिया है."


पाक उच्चायुक्त का कहना था कि राष्ट्रपति ज़रदारी 'कश्मीरी बाशिंदों के अपने संघर्ष को और स्वशासन के अधिकार' को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। मीडिया को भेजे गए एक ई-मेल में उन्होंने कहा कि 'पाकिस्तान विदेशी चरमपंथियों की ओर से सीमापार घुसपैठ और कश्मीरियों की आज़ादी की मुहिम को नेस्तनाबूद किए जाने' के ख़िलाफ़ है। ई-मेल में यह भी कहा गया है कि- 'इन विदेशी चरमपंथियों ने कश्मीरियों के स्वतंत्रता के संघर्ष की मदद करने की जगह उसे नुक़सान पहुंचाया है।'


गौरतलब है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनने के बाद संसद को अपने पहले संबोधन में आसिफ़ अली ज़रदारी ने कश्मीर का ज़िक्र करते हुए कहा था कि- ''मूल अधिकारों की बहाली को लेकर कश्मीरी लोगों के न्यायसंगत संघर्ष के प्रति हम वचनबद्ध हैं।''

Tuesday, October 7, 2008

मासूमों को निगल रहा है कुपोषण


फ़िरदौस ख़ान
बेशक भारत आर्थिक और परमाणु शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में वह काफ़ी पीछे है. मध्य प्रदेश में कुपोषण से हो रहीं मौतें इस बात को साबित करने के लिए काफ़ी हैं. गौरतलब है कि पिछले क़रीब एक महीने में मध्यप्रदेश के खंडवा, झाबुआ, सतना और शिवपुरी ज़िलों में क़रीब 100 बच्चों की मौत हो चुकी है और दो सौ से ज़्यादा अस्पताल में भर्ती हैं.


कुछ समय पहले संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3), 2005-06 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में तीन साल से कम उम्र के क़रीब 47 फीसदी बच्चे कम वज़न के हैं. इसके कारण उनका शारीरिक विकास भी रुक गया है. देश की राजधानी दिल्ली में 33.1 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं, जबकि मध्य प्रदेश में 60.3 फ़ीसदी, झारखंड में 59.2 फ़ीसदी, बिहार में 58 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 52.2 फ़ीसदी, उड़ीसा में 44 फ़ीसदी, राजस्थान में भी 44 फ़ीसदी, हरियाणा में 41.9 फ़ीसदी, महाराष्ट्र में 39.7 फ़ीसदी, उत्तरांचल में 38 फ़ीसदी, जम्मू कश्मीर में 29.4 फ़ीसदी और पंजाब में 27 फ़ीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं.


यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. विकास की मौजूदा दर अगर ऐसी ही रही तो 2015 तक कुपोषण दर आधी कर देने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य 'एमडीजी' 2025 तक भी पूरा नहीं हो सकेगा. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफगानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुकाबले बहुत ज़्यादा है.


यूनिसेफ़ के एक अधिकारी के मुताबिक़ भारत में हर साल बच्चों की 21 लाख मौतों में से 50 फ़ीसदी का कारण कुपोषण होता है. भारत में खाद्य का नहीं, बल्कि जानकारी की कमी और सरकारी लापरवाही ही कुपोषण का कारण बन रही है. उनका यह भी कहना है कि अगर नवजात शिशु को आहार देने के सही तरीके के साथ सेहत के प्रति कुछ सावधानियां बरती जाएं तो भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के छह लाख से ज्यादा बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है.


दरअसल, कुपोषण के कई कारण होते हैं, जिनमें महिला निरक्षरता से लेकर बाल विवाह, प्रसव के समय जननी का उम्र, पारिवारिक खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, टीकाकरण, स्वच्छ पेयजल आदि मुख्य रूप से शामिल हैं. हालांकि इन समस्याओं से निपटने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं, लेकिन इसके बावजूद संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आए हैं. देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या भी इन सरकारी योजनाओं को धूल चटाने की अहम वजह बनती रही है, क्योंकि जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है उसके मुकाबले में उस रफ्तार से सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा उदारीकरण के कारण बढ़ी बेरोज़गारी ने भी भुखमरी की समस्या पैदा की है. आज भी भारत में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक़्त की रोटी भी नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में वे अपने बच्चों को पौष्टिक भोजन भला कहां से मुहैया करा पाएंगे.


एक कुपोषित शरीर को संपूर्ण और संतुलित भोजन की ज़रूरत होती है. इसलिए सबसे बड़ी चुनौती फ़िलहाल भूखों को भोजन कराना है. हमारे संविधान में कहा गया है कि 'राज्य पोषण स्तर में वृध्दि और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझेगा.' मगर आजादी के छह दशक बाद भी 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की गिफ्त में हों तो ज़ाहिर है कि राज्य अपने प्राथमिक संवैधानिक कर्तव्यों में नकारा साबित हुए हैं.


1996 में रोम में हुए पहले विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (डब्ल्यूएफएस) के दौरान तक़रीबन सभी देशों के प्रमुखों ने यह वादा दोहराया था कि पर्याप्त स्वच्छ और पोषक आहार पाना सभी का अधिकार होगा.उनका मानना था कि यह अविश्वसनीय है कि दुनिया के 84 करोड़ लोगों को पोषक ज़रूरतें पूरी करने के लिए अनाज उपलब्ध नहीं है. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वज़न का है. यह संख्या क़रीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फ़ीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है.


हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फ़सल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोज़गार की कमी और ग़रीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज़्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योंकि वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए.


क़ाबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ़ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की ज़रूरत होती है तो दूसरी तरफ़ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आज़ादी के बाद से अब तक ग़रीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफ़ीताशाही के चलते वे महज़ कागज़ों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया ग़रीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है. एक तरफ़ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ़ भूख और कुपोषण से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?
(इस आलेख को आज यानि 7 अक्टूबर 2008 के दैनिक जागरण में भी पढ़ा जा सकता है)

Monday, October 6, 2008

बाढ़ आती ही नहीं, लाई भी जाती है


फ़िरदौस ख़ान
देश के अन्य राज्यों के साथ ही बाढ़ ने इस साल पंजाब में भी कहर बरपाया, लेकिन पंजाब की बाढ़ प्राकृतिक आपदा न होकर मानवीय लापरवाही का नतीजा है. बाढ़ से जहां राज्य के सैकड़ों गांव जलमग्न हो गए, वहीं क़रीब 13 लोग भी बाढ़ की वजह से मौत की आगोश में समा गए. खेतों में खड़ी वे फसलें भी बाढ़ के पानी में बह गईं, जिन्हें किसानों के अपने खून-पसीने से सींचा था.

राज्य के अधिकारियों के मुताबिक़ फिरोज़पुर के 140 गांव, कपूरथला के 106 गांव, मोगा के 40 गांव, तरनतारन के 28 गांव और जालंधर के 14 गांव बाढ़ की चपेट में आए हैं. इन गांवों की क़रीब 66 हज़ार एकड़ भूमि बाढ़ से प्रभावित हुई है. फिरोज़पुर के 100 गांव तो पूरी तरह पानी में डूब गए, जिससे कई दिनों तक वहां की बिजली सप्लाई पूरी तरह बंद कर दी गई.

बाढ़ का कारण धुस्सा बांध का टूटना है. भाखड़ा डैम और सतलुज डैम से सतलुज में पानी छोड़ा गया, जिससे हालात और ज्यादा गंभीर हो गए. सिंचाई विभाग के मुताबिक़ भांखरपुर, धर्मकोट और धालीवाल नहर में भी जरूरत से ज्यादा पानी छोड़ा गया. अधिकारियों का कहना है कि अगर रोजाना एक से डेढ़ घंटा लगातार बारिश पड़ती है तो डैम और नहरों में पानी का स्तर बढ़ जाता है, जिससे भारी नुकसान होने की आशंका बढ़ जाती है. अफ़सोस की बात यह भी है कि सरकार के नुमाइंदे प्रशासनिक खामियों को नकारते हुए बाढ़ के लिए ग्रामीणों को ही क़सूरवार ठहराते हैं.

इसी कड़ी में, बाढ़ प्रभावित इलाकों का जायज़ा लेने के लिए मोगा के गांव संघेड़ा में पहुंचे सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने लोगों से बातचीत करते हुए धुस्सी बांध टूटने का ठीकरा ग्रामीणों के ही सिर ही फोड़ दिया. इससे ग्रामीण भड़क उठे और उन्होंने बांध प्रबंधों के नाम पर हुई घपलेबाजी की पोल खोलनी शुरू कर दी. अब भड़कने की बारी सिंचाई मंत्री की थी. मामले की नजाकत को भांपते हुए डिप्टी कमिश्नर वीके मीणा और एसडीएम लखमीर सिंह ने दोनों पक्षों को शांत कराया. ग्रामीणों का कहना है कि 1993 के बाद प्रशासन ने बांध पर मिट्टी डलवाने तक की कोशिश नहीं की. गांव के लोग हर साल ख़ुद ही मिट्टी डालते रहे हैं और सिंचाई विभाग फर्जी बिल बनाकर पैसा हड़प करता रहा है. उनका यह भी कहना है कि हर साल बांध पर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी भी डलवाई होती तो इतनी तबाही नहीं हुई होती. उनका कहना है कि अधिकारियों और राजनेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के लिए हजारों लोगों को बर्बाद कर दिया.

गौरतलब है कि सतलुज में आई बाढ़ से हुई तबाही ने प्रशासनिक प्रबंधों की कलई खोलकर रख दी है. मोगा के गांव बोगेवाल के समीप जिस स्थान पर धुस्सी बांध टूटा है, वहां 1997 में तकनीकी रूप से गलत ढंग से नोज तैयार की गई थी, जिससे बांध में दरारें पड़ गईं. धुस्सी बांध के किनारों पर लगाए गए बबूल के पेड़ों के कटान के चलते भी बांध सुरक्षा संबंधी सवालों के घेरे में था. हर साल मानसून शुरू होने से पहले धुस्सी बांध का जायजा लेने वाले अधिकारियों ने नोज की तकनीकी कमी और पेड़ों के कटान के कारण कमज़ोर होते बांध की तरफ़ ध्यान नहीं दिया. नोज निर्माण में लापरवाही स्वीकार करते हुए सिंचाई मंत्री सरदार जनमेजा सिंह सेखों ने कहा कि मामले की जांच सिंचाई विभाग के मुख्य इंजीनियर को सौंपी गई है.

सिंचाई मंत्री के मुताबिक़ राज्य के 134 गांवों में बाढ़ आई है, जिससे 55 हज़ार प्रभावित हुए हैं. इन गांवों में क़रीब 11080 हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फ़सलें भी पूरी तरह तबाह हो गई हैं. उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की कि प्रभावित किसानों के नुक़सान की भरपाई की जाए, क्योंकि केंद्रीय पूल दिए जाने वाले अनाज में पंजाब के किसानों की हिस्सेदारी 60 से 70 फ़ीसदी रहती है. साथ ही उन्होंने किसानों के क़र्ज़ भी माफ़ किए जाने की मांग की. गौरतलब है कि बांग्लादेश के बाद भारत ही दुनिया का दूसरा सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त देश है. 1960 से 1980 के बीच दुनिया में बाढ से जो लोग मरे उनमें से 20 फ़ीसदी भारत से ही थे. विडंबना यह भी है कि पिछले क़रीब छह दशकों में बाढ़ से होने वाले नुक़सान में 50 से 90 गुना बढ़ोतरी हुई है. एक अनुमान के मुताबिक़ 1953 में जहां कुल नुक़सान क़रीब 50 करोड़ रुपए था, वहीं 1984 में यह 2500 करोड़, 1985 में 4100 करोड़ और 1988 में 4600 करोड़ रुपए हो गया. 1990 के शुरू में कम नुक़सान हुआ. 1997 में 800 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था, लेकिन 1999 और 2000 में बाढ़ से ज़्यादा तबाही हुई. हर साल बाढ़ से होने वाले जान व माल के नुक़सान में बढ़ोतरी ही हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है.

देश में कुल 62 प्रमुख नदी प्रणालियां हैं, जिनमें से 18 ऐसी हैं जो अमूमन बाढ़ग्रस्त रहती हैं. उत्तर-पूर्व में असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु बाढ़ग्रस्त इलाके माने जाते हैं. लेकिन कभी-कभार देश के अन्य राज्य भी बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं. 1996 में हरियाणा में बाढ़ ने कहर बरपाया था.

पिछले करीब छह दशकों में देश में 256 बड़े बांध बनाए गए हैं और 154 निर्माणाधीन हैं. साथ ही पिछले करीब दो दशकों से बाढ़ नियंत्रण में मदद के लिए रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन संतोषजनक नतीजे सामने नहीं आ पा रहे हैं.

गौरतलब है कि विकसित देशों में आगजनी, तूफान, भूकंप और बाढ़ के लिए कस्बों का प्रशासन भी पहले से तैयार रहता है. उन्हें पहले से पता होता है कि किस पैमाने पर, किस आपदा की दशा में, उन्हें क्या-क्या करना है. वे बिना विपदा के छोटे पैमाने पर इसका अभ्यास करते रहते हैं. इसमें आम शहरियों के मुखियाओं को भी शामिल किया जाता है. गली-मोहल्ले के हर घर तक यह सूचना मीडिया या डाक के जरिये संक्षेप में पहुंचा दी जाती है कि किस दशा में उन्हें क्या करना है. संचार व्यवस्था के टूटने पर भी वे प्रशासन से क्या उम्मीद रख सकते हैं. पहले तो वे इसकी रोकथाम की कोशिश करते हैं. इसमें विशेषज्ञों की सलाह ली जाती है. इस प्रक्रिया को आपदा प्रबंधन कहते हैं. आग तूफान और भूकंप के दौरान आपदा प्रबंधन एक खर्चीली प्रक्रिया है, लेकिन बाढ़ का आपदा नियंत्रण उतना खर्चीला काम नहीं है. इसे बखूबी बाढ़ आने वाले इलाकों में लागू किया जा सकता है.

विकसित देशों में बाढ़ के आपदा प्रबंधन में सबसे पहले यह ध्यान रखा जाता है कि मिट्टी, कचरे वगैरह के जमा होने से इसकी गहराई कम न हो जाए. इसके लिए नदी के किनारों पर खासतौर से पेड़ लगाए जाते हैं, जिनकी जड़ें मिट्टी को थामकर रखती हैं. नदी किनारे पर घर बसाने वालों के बगीचों में भी अनिवार्य रूप से पेड़ लगवाए जाते हैं. जहां बाढ़ का खतरा ज्यादा हो, वहां नदी को और अधिक गहरा कर दिया जाता है. गांवों तक में पानी का स्तर नापने के लिए स्केल बनी होती है.

भारत में भी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले से ही तैयार रहना होगा. इसके लिए जहां प्रशासन को चाक-चौबंद रहने की ज़रूरत है, वहीं जनमानस को भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. स्कूल, कॉलेजों के अलावा जगह-जगह शिविर लगाकर लोगों को यह प्रशिक्षण दिया जा सकता है. इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं की भी मदद ली जा सकती है. इस तरह प्राकृतिक आपदा से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकता है.

Thursday, September 25, 2008

सरस्वती को धरती पर लाने की क़वायद


फ़िरदौस ख़ान
हरियाणा में आदि अदृश्य नदी सरस्वती को फिर से धरती पर लाने की क़वायद शुरू कर दी गई है. इसके लिए राज्य के सिंचाई विभाग ने सरस्वती की धारा को दादूपुर नलवी नहर का पानी छोड़ने की योजना बनाई है. देश के अन्य राज्य में भी इस पर काम चल रहा है. अगर यह महती योजना सिरे चढ़ जाती है तो इससे हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के तकरीबन 20 करोड़ लोगों की काया पलट जाएगी. इस नदी से जहां राज्यों के लोगों को पीने का पानी उपलब्ध हो सकेगा, वहीं सिंचाई जल को तरस रहे खेत भी लहलहा उठेंगे.काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है. बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है. साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी. नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है. नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं.

गौरतलब है कि हरियाणा के सिंचाई विभाग ने मुर्तजापुर के पास सरस्वती नदी की बुर्जी आरडी 36284 से 94000 तक पक्का करके इसमें दादूपुर नलवी नहर का पानी प्रवाहित करने की योजना बनाई है. राज्य के सिंचाई मंत्री कैप्टन अजय यादव का कहना है कि सरस्वती नदी में नहर का पानी आ जाने के बाद इससे रजबाहे निकाले जाएंगे, ताकि लोगों को पानी मिल सके. सैटेलाइट से मिले सरस्वती के चित्र के आधार पर काम शुरू किया जाएगा.

काबिले-गौर है कि सरस्वती नदी पर चल रहे शोध में सैटेलाइट से मिले चित्रों से पता चला है कि अब भी सरस्वती नदी सुरंग के रूप में मौजूद है. बताया जाता है कि हिमाचल श्रृंगों से बहने वाली यह नदी करीब 1600 किलोमीटर हरी-की दून से होती हुई जगाधरी, कालिबंगा और लोथल मार्ग से सोमनाथ के समीप समुद्र में मिलती है. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन के मुताबिक सैटेलाइट चित्रों से प्राचीन सरस्वती नदी के जलप्रवाह की जानकारी मिलती है. साथ ही यह भी पता चलता है कि यह सिंधु नदी से भी ज्यादा बड़ी और तीव्रगामी थी. नदी का प्रवाह शिवालिक पर्वतमालाओं से जगाधरी के समीप आदिबद्री से शुरू होता है, जिसका मूल स्त्रोत हिमालय में है. नदी तटों के साथ इसकी ईसा पूर्व 3300 से लेकर ईसा पूर्व 1500 तक 1200 से भी ज्यादा पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं.

योजना की कामयाबी के लिए कुछ विदेशी भू-विज्ञानी और नासा भी योगदान दे रहे हैं. इस अनुसंधान में सरस्वती शोध संस्थान, रिमोट सैंसिंग एजेंसी, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, सेंट्रल वाटर कमीशन, स्टेट वाटर रिसोर्सेज, सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीटयूट, हरियाणा सिंचाई विभाग, अखिल भारतीय इतिहास संगठन योजना और इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (अहमदाबाद ) आदि काम कर रहे हैं.

केंद्र सरकार ने 2000 में सरस्वती नदी को प्रवाहित करने के लिए तीन परियोजनाओं को चालू करने का काम अपने हाथ में लिया था, जो राज्य सरकारों की मदद से पूरा किया जाना है. चेन्नई स्थित सरस्वती सिंधु शोध संस्थान के अधिकारियों के मुताबिक इस दिशा में पहली परियोजना हरियाणा के यमुनानगर जिले में सरस्वती के उद्गम माने जाने वाले आदिबद्री से पिहोवा तक उस प्राचीन धारा के मार्ग की खोज है. दूसरी परियोजना का संबंध भाखड़ा की मुख्य नहर के जल को पिहोवा तक पहुंचाना है. इसके लिए कैलाश शिखर पर स्थित मान सरोवर से आने वाली सतलुज जलधारा का इस्तेमाल किया जाएगा. सर्वे ऑफ इंडिया के मानचित्रों में आदिबद्री से पिहोवा तक के नदी मार्ग को सरस्वती मार्ग दर्शाया गया है. तीसरी परियोजना सरस्वती नदी के प्राचीन जलमार्ग को खोलने और भू-जल स्त्रोतों का पता लगाना है. इसके लिए मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान संस्थान और राजस्थान के जोधपुर के रिमोट सैंसिंग एप्लीकेशन केंद्र के विज्ञानी काम में जुटे हैं. इसके अलावा सरस्वती घाटी में पश्चिम गढ़वाल में स्थित हर-की दून ग्लेशियर से सोमनाथ तक प्रवाहित होने वाली प्राचीन जलधारा मार्ग की खोज पर भी जोर दिया जा रहा है.

तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी ) राजस्थान के थार रेगिस्तान में सरस्वती नदी की खोज का काम कर रहा है. निगम के अधिकारियों का कहना है कि सरस्वती की खोज के लिए पहले भी कई संस्थाओं ने काम किया है और कई स्थानों पर खुदाई भी की गई है, लेकिन 250 मीटर से ज्यादा गहरी खुदाई नहीं की गई थी. निगम जलमार्ग की खोज के लिए कम से कम एक हजार मीटर तक खुदाई करने पर जोर दे रहा है. दुनिया के अन्य हिस्सों में रेगिस्तान में एक हजार मीटर से भी ज्यादा नीचे स्वच्छ जल के स्त्रोत मिले हैं.

सरस्वती नदी को फिर से प्रवाहित किए जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद इसके शोध में जुटी संस्थाएं सरकार से काफी खफा हैं. सरस्वती शोध संस्थान के अध्यक्ष दर्शनलाल जैन का कहना है कि आदिबद्री और कलायत में सरस्वती नदी का पानी मौजूद होने के बावजूद इसमें नहर का पानी प्रवाहित करना दुख की बात है. सरकार को चाहिए सरस्वतीकि कलायत में फूट रही सरस्वती की धाराओं को जमीन के ऊपर लाया जाए. महज नदी के एक हिस्से को पक्का करने की बजाय आदिबद्री से लेकर सिरसा तक नदी को पक्का कर पानी प्रवाहित किया जाए. साथ ही कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की तर्ज पर सरस्वती विकास प्राधिकरण का गठन किया जाए. उनका यह भी कहना है कि अगर सरकार चाहे तो तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम अपने खर्च पर हरियाणा में सरस्वती नदी खुदाई करने को तैयार है.

Wednesday, September 24, 2008

याद रहेगी बेगम हज़रत महल की क़ुर्बानी

पेशकश : चांदनी
जंगे-आज़ादी के सभी अहम केंद्रों में अवध सबसे ज्यादा वक़्त तक आज़ाद रहा. इस बीच बेगम हज़रत महल ने लखनऊ में नए सिरे से शासन संभाला और बगावत की कयादत की. तकरीबन पूरा अवध उनके साथ रहा और तमाम दूसरे ताल्लुकदारों ने भी उनका साथ दिया. बेगम अपनी कयादत की छाप छोड़ने में कामयाब रहीं.

फैज़ाबाद के एक बेहद ग़रीब परिवार में पैदा हुई इस लडक़ी (बेगम) को नवाब वाजिद अली शाह के हरम में बेगमात की खातिरदारी के लिए रखा गया था, लेकिन उनकी खूबसूरती और अक्लमंदी पर फ़िदा होकर नवाब ने उसे अपने हरम में शामिल कर लिया. बेटा होने पर नवाब ने उसे 'महल' का दर्जा दिया. ब्रिटिश संवाददाता डब्ल्यू. एच. रसेल के मुताबिक़ बेगम अपने शौहर वाजिद अली शाह से कहीं ज़्यादा क़ाबिल थीं. वाजिद अली ने भी इसे मानने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की.

बेगम की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आज़ादी के दौरान नज़रबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी. योजना का भेद खुल गया, वरना वाजिद अली शाह शायद आज़ाद करा लिए जाते. इतिहासकार ताराचंद लिखते हैं कि बेगम खुद हाथी पर चढक़र लडाई के मैदान में फ़ौज का हौसला बढ़ाती थीं.


जंगे-आज़ादी की कमान संभालने से पहले बेगम हज़रत महल ने अपने बारह साला बेटे शहजादे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया था. इसकी मान्यता उन्होंने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र से भी ली, ताकि उन्हें कानून उनका हक मिल सके. ऐसा इसलिए भी किया गया कि इससे पहले गाजिउद्दीन हैदर (1814-1827) ने मुगलों से नाता तोड़कर खुद को इंग्लैंड के राजा के अधीन घोषित कर दिया था. वे 1819 में अवध के प्रभु संपन्न राजा बने थे. इसलिए जंगे-आज़ादी के वक़्त नवाब की कानूनन हालत मुल्क के दूसरे सूबेदारों से अलग थी.

बेगम के सामने कई दिक्कतें थीं. वे खुद भी नवाब का ओहदा संभाल सकती थीं. उन्हें यह भी समझाया गया कि अगर वे बगावत करेंगी तो मटियाबुर्ज में वाजिद अली शाह की जान पर बन सकती है. उनकी राह में उनकी बाकी सौतों रोड़ा बनी हुई थीं. इन्हीं हालात के बीच उन्होंने फ़ैसला लिया. इसमें उनका सबसे ज़्यादा साथ वाजिद अली शाह के हरम के दरोगा मम्मू खान और नवाबों के पुश्तैनी वफ़ादार रहे राजा जयलाल सिंह ने दिया. राजा जयलाल सिंह ने अवध के ताल्लुकदारों को बेगम के इरादों से वाकिफ कराते हुए भरोसा दिलाया और उन्हें बेगम के समर्थन में लामबंद कर लिया. मम्मू खान ने बाकी बेगमों की तऱफ से हो रहे विरोध को भी संभाला. तब बिरजिस कद्र को जुलाई में अवध का नवाब बनाया गया और शासन की कमान बेगम ने ख़ुद संभाली.

शुरुआती अव्यवस्था से निपट कर बेगम ने अवध के शासन को व्यवस्थित करने का काम संभाला. उनके सामने कई चुनौतियां थीं. शहर की बिगडती क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए बेगम ने अली राजा बेग को शहर कोतवाल नियुक्त किया. शहर में अमन-चैन कायम होने लगा. राजधानी होने के नाते लखनऊ की सुरक्षा का काम काफी मुश्किल था, क्योंकि जंगे-आज़ादी के नेताओं में आपस में और बेगम व मौलवी अहमदुल्ला में मतभेद पैदा हो गए थे. कैसरबाग की कई बेगमें भी हज़रत महल के ख़िलाफ़ थीं और रेजिडेंसी में रह रहे अंग्रेज़ सेनापतियों को गुप्त सूचनाएं भेज रही थीं, क्योंकि उन्हें अपनी सुरक्षा और जागीरों की फ़िक्र अवध की बजाय ज़्यादा थी.

हालांकि ज़्यादातर अंग्रेज़ लखनऊ को छोड़ चुके थे, फिर भी अवध के कई ज़िलों में ताल्लुकदारों से उनका संघर्ष जारी था. इन सेनानियों को मदद पहुंचानी थी. यह जाहिर था कि अंग्रेज अवध पर अपना वर्चस्व फिर कायम करने के लिए जोरदार हमला करेंगे, इसलिए सुरक्षा की मुकम्मल रणनीति भी बनानी थी. बेगम की सरकार की माली हालत खस्ता थी, जिसे बेहतर करना था. साथ ही अवध की लड़ाई में साथ देने के लिए कानुपर और दिल्ली वगैरह से बंगाल आर्मी के काफ़ी तादाद में जो सिपाही लखनऊ पहुंच चुके थे, उनकी तनख्वाह और रसद का इंतज़ाम भी बेगम को करना था. मशहूर लेखक रोशन तकी के मुताबिक़ ताल्लुकदारों की मदद से बेगम इस काम में काफ़ी हद तक कामयाब रहीं.

इन चुनौतियों से निपटने के लिए 26 से 28 नवंबर 1857 के बीच बेगम ने फ़ौरी तौर पर कई काम किए. 26 नवंबर को ही राजा देवीबख्श सिंह की फ़ौज ने लखनऊ में चिनहट की लड़ाई के बाद बची रह गई फौज के हमले को नाकाम कर बनी गांव की तरफ खदेड दिया. 27 नवंबर को सूचना मिली कि कॉलिन कैंपबेल कानुपर से लखनऊ के लिए चल पड़ा है. इसी बीच जनरल आउटरम भी आलमबाग में डेरा डाल चुका था. उनको पीछे धकेलने के लिए कई ताल्लुकदारों की सेना राजा देवीबख्श सिंह की अगुवाई में तैनात की गई. साथ ही अवध के समृध्द इलाके के ताल्लुकदारों को उनके इलाके में रवाना किया गया कि वे रसद और सेना का इंतज़ाम करें.

इन शुरुआती कदमों के बाद बेगम ने एक रक्षा परिषद बनाई. इसने तय किया कि कैसरबाग को मुख्य दुर्ग माना जाए. इसके अलावा सात और ऐसी जगहों की निशानदेही की गई, जहां से अंग्रेजी सेना लखनऊ में दाखिल को सकती थी. यहां पर सेना की तैनाती के साथ-साथ खाई भी खुदवाई गई. इसी रणनीति का यह नतीजा रहा कि लंबे वक्त तक रेजिडेंसी घिरी रही. नतीजतन, दूसरी अहम लड़ाई मार्च 1858 में ही हो पाई, जिसमें अवध की सेना को पीछे हटना पड़ा.

हालात बिगड़ते देख ताल्लुकदारों ने बेगम को उनके बेटे बिरजिस कद्र के साथ सुरक्षित नेपाल भेज दिया और लडाई जारी रखी. बेगम के प्रमुख सेनापति राजा जयपाल सिंह और राना बेनीमाधव दरगाह पर लगे मोर्चे पर पहुंचे और कसम खाई कि वे आखिरी दम तक लडेंग़े. जंगे-आज़ादी के तमाम नेता महीनों गुरिल्ला लड़ाई लड़ते रहे. आखिरकार इनमें से ज़्यादातर फांसी पर चढ़ा दिए गए. खुद लार्ड कैनिंग ने कुबूल किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद हम 1859 तक अवध को एक हद तक शांत और व्यवस्थित कर सके. उधर, 1879 में नेपाल में बेगम का इंतकाल हो गया.

Tuesday, September 23, 2008

लड़कियों की ख़रीद-फ़रोख्त की मंडी बना हरियाणा



फ़िरदौस ख़ान
पिछले क़रीब दो दशकों से हरियाणा में मानव तस्करी का सिलसिला बदस्तूर जारी है. ख़ास बात यह है कि यह सब 'विवाह' की आड़ में किया जा रहा है. जिन राज्यों की लड़कियों को हरियाणा में लाकर बेचा जा रहा है, उनमें असम, मेघालय, पं. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र्र और तमिलनाडू मुख्य रूप से शामिल हैं. पशुओं की तरह खरीदी और बेची जाने वाली इन लड़कियों का सामाजिक और पारिवारिक जीवन तबाह होकर रह गया है. हालत यह है कि इस तरह 'ख़रीद' कर लाई गई लड़की को अपने तथाकथित पति के अलावा उसके अन्य भाइयों के साथ भी शारीरिक संबंध बनाने पड़ते हैं. ऐसा न करने पर उसको मौत की नींद सुला दिया जाता है.

गौरतलब है कि फरवरी 2006 में हरियाणा के जींद जिले के गांव धौला निवासी अजमेर सिंह ने रांची से खरीद कर लाई गई 14 वर्षीय अपनी आदिवासी 'पत्नी' त्रिपला का सिर्फ इसलिए बेरहमी से कत्ल कर दिया कि उसने उसके भाइयों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इंकार कर दिया था. अजमेर सिंह का कहना था कि उसे उसके सभी भाइयों के साथ 'पत्नी' की तरह रहना होगा. इस मामले को मीडिया ने 'द्रौपदी सिंड्रोम नाम दिया था. त्रिपला बेहद गरीब परिवार की लड़की थी. भुखमरी से परेशान उसकी मां ने उसे अजमेर सिंह के हाथों बेच दिया था. यह कोई इकलौता मामला नहीं है. असम की ही औनू को उसके गरीब माता-पिता ने 20 हजार रुपए में रामफल नाम के एक वृध्द विधुर को बेचा था. हालांकि उसकी विवाह रामफल के साथ हुआ. इसके बावजूद उसे उसके छोटे भाई 45 वर्षीय कृपाल सिंह के साथ भी शारीरिक संबंध बनाने पड़ते हैं.

रामफल और कृपाल सिंह के मुताबिक़ वे छोटे से सब्जी उगाने वाले किसान हैं. उनकी आमदनी इतनी नहीं कि वे अलग-अलग पत्नियां रख सकें. इसलिए उन्होंने एक ही महिला के साथ 'पांडवों' की तरह रहने का फैसला किया. इसके लिए उन्होंने एक दलाल से संपर्क किया, जिसने उन्हें असम में औनू के परिवार से मिलवाया. ऐसा ही वाकिया हरियाणा के राजू का है. वह कहता है कि वह मजूदर है और उसकी आमदनी भी बेहद कम है. ऐसी हालत में कौन उसे अपनी बेटी देना चाहेगा. इसलिए उसने मीनू को ख़रीदा.
इसी तरह, 22 वर्षीय प्रणीता को क़रीब छह साल पहले असम के कामरूप जिले के गांव हाजो से लाकर मेवात में बेचा गया था. इस मामले में उसके माता-पिता करकंतू और राधेदास ने कामरूप के पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर अपनी बेटी को ढूंढने की गुज़ारिश की थी. उनका आरोप था कि दीपा दास नाम की एक महिला उनकी बेटी का विवाह कराने का वादा करने उसको अपने साथ ले गई थी, लेकिन एक साल से उसकी कोई खबर नहीं मिली. अपने बेटी को लेकर चिंतित अभिभावकों ने पुलिस से बेटी को वापस दिलाने की गुहार लगाई थी. इस मामले में खास बात यह रही कि प्रणीता ने वापस असम जाने से इंकार कर दिया. उसका कहना था कि अब उसका एक बच्चा है और वह अपने पति पप्पू सिंह अहीर के साथ ही रहना चाहती है. पप्पू सिंह अहीर असम के ही गांव केयाजेनी की लड़की कनिका दास को ख़रीदने के मामले का आरोपी है, जबकि प्रणीता उसे इस मामले में बेकसूर बताती है.

कनिका दास की बहन बबीता ने अपनी बहन को तलाश करने के लिए स्थानीय स्वयंसेवी संस्था दिव्य ज्योति जनकल्याण समिति की मदद ली और बाद में उसे पता चला कि उसकी बहन की मौत हो चुकी है. कनिका दास गर्भवती थी और इसी दौरान गर्भावस्था से संबंधित किसी समस्या के चलते उसकी मौत हो गई. बताया जाता है कि असम की दीपा दास नामक महिला का विवाह मेवात के गांव शबजपुर में हुआ था. वह असम से गरीब परिवारों से संपर्क कर उनके माता-पिता को इस बात के लिए राजी करती थी कि वे अपनी बेटियों की शादी हरियाणा में कर दें.

ग़रीब परिवारों के लिए दो जून की रोटी जुटाना बेहद मुश्किल होता है. ऐसी हालत में बेटी के विवाह में दहेज देना उनके बूते से बाहर की बात है. बेटी या तो उम्रभर घर में कुंवारी बैठी रहे जा फिर दूसरे राज्य में ऐसी जगह उसका विवाह कर दिया जाए, जहां दहेज की कोई मांग न हो तो जाहिर है, माता-पिता बेटी का विवाह करने को ही तरजीह देंगे. बस इसी मजबूरी का फायदा उठाकर दीपा दास असम से लड़कियां लाती और हरियाणा में बेच देती. उसने कनिका दास को रेवाड़ी में एक व्यक्ति के हाथों मोटी रकम में बेचा. वह प्रणीता और कनिका दास जैसी न जाने कितनी ही मासूम लड़कियों की ज़िन्दगी तबाह कर चुकी है.

असम की 15 वर्षीय लाली को राज सिंह चौधरी ने एक दलाल के माध्यम से ख़रीदा था. लाली अपने जीवन से खुश नहीं है उसका कहना है कि वह वापस असम जाकर फिर से अपनी जिन्दगी की शुरुआत करना चाहती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. राज सिंह चौधरी का कहना है कि वह यहां से असम जाकर भी सुखी नहीं रह सकती, क्योंकि उसे फिर किसी और के हाथ बेच दिया जाएगा.

पशिचम बंगाल की कविता को हिसार जिले के शेर सिंह ने ख़रीदा था. वह छोटे से घर में रहती है और पौ फटने से लेकर देर रात तक घर के कामकाज के अलावा पशुओं को चारा देने, दूध निकालने और उनकी देखभाल करने का काम करती है. घर से सभी लोग उस पर कड़ी नज़र रखते हैं, क्योंकि वह ख़रीदकर लाई गई है इसलिए किसी को उस पर भरोसा नहीं है. इसी तरह इसी साल मार्च में हिसार में बिहार से लाई गई बीना पर उसका पति तरसेम कड़ी नज़र रखता है. हालत यह है कि काम पर जाने से पहले वह उसे आंगन में बिठाकर कमरे को ताला लगा देता है. उसका कहना है कि क्या भरोसा कब यह टीवी और दूसरा सामान समेटकर अपने किसी यार के साथ फरार हो जाए.

मालती की कहानी तो बेहद दर्द भरी है. महिपाल क़रीब 15 साल पहले उसे बिहार से महज़ दो हज़ार रुपए में ख़रीदकर लाया था. दोनों पति-पत्नी सर्दियों के मौसम में रजाई में धागे डालने का काम करते थे और गर्मियों के मौसम में मेहनत-मज़दूरी करके किसी तरह ज़िन्दगी बसर कर रहे थे. मालती के मुताबिक़ उनके दो बच्चे भी हुए, लेकिन विवाह के करीब पांच साल बाद ही महिपाल बिहार से 13 साल की एक और लड़की को ख़रीदकर ले आया. इसके बाद उसकी परेशानियां और बढ़ गईं. महिपाल उसके साथ और ज़्यादा मारपीट करने लगा बेचने की कोशिश की, लेकिन अपने बच्चों के लिए उसने बिकना गवारा न किया. आज वह हर अत्याचार सहकर भी महिपाल और उसकी दूसरी पत्नी के साथ रहने को मजबूर है. वह कहती है कि शायद दूसरा आदमी भी कुछ ही दिन उसे अपने साथ रखकर किसी और के हाथों बेच देता. बार-बार बिकने से तो अच्छा है कि वह मारपीट सहकर यहीं पड़ी रहे. वह किसी पर बोझ थोड़े ही है. दिनभर मेहनत-मज़दूरी करके अपने और अपने बच्चों के लिए दो वक़्त की रोटी तो कमा ही लेती है.

ये लड़कियां सिर्फ एक बार ही नहीं बिकतीं. समय-समय पर इन्हें एक हाथ से दूसरे हाथ बेचा जाता रहता है, जिससे ये पूरी तरह टूट जाती हैं. मगर इन लड़कियों में कुछ ऐसी खुशनसीब लड़कियां भी हैं, जिनकी पहले की ज़िन्दगी तो बहुत कठिनाइयों भरी थी, लेकिन आज वो सम्मान पूर्वक जीवन बसर कर रही हैं और अपनी ज़िन्दगी से खुश भी हैं. पं. बंगाल की 15 वर्षीय सीमा को उससे दोगुनी उम्र के हरियाणा के किसान महावीर सिंह के हाथों बेच दिया गया. सीमा के मुताबिक वह बेहद ग़रीब परिवार की लड़की है. उसके घर एक दिन छोड़कर चावल पकते थे, जबकि यहां अनाज, दूध और सब्जियां सब कुछ है. वह यहां आकर बेहद खुश है. उसके ससुराल के लोग भी उसे स्नेह और सम्मान देते हैं. इसी तरह सुनीता ओर किरण अपने नए जीवन से संतुष्ट हैं, लेकिन ऐसे मामले बहुत ही कम हैं.

एनजीओ शक्ति वाहिनी की वर्ष 2006 की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 593 जिलों में से 378 जिलों में 'मानव तस्करी' से प्रभावित हैं. पुलिस अधिकारी मानते हैं कि अन्य राज्यों से विवाह के खरीद कर लाई गई हजारों लड़कियां राज्य में हैं. साथ ही वे यह भी कहते हैं कि शिकायत मिलने पर जरूरी कार्रवाई की जाती है.समाज शास्त्री मानते हैं कि स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात बढ़ने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है. बेटे की चाह में भारतीय परिवारों में कन्या भ्रूण हत्या का चलन बड़ी तेजी से बढ़ा है.

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हरियाणा में वर्ष 1991 में एक हज़ार पुरुषों के पीछे 865 महिलाएं थी, जबकि वर्ष 2001 में यह तादाद घटकर 861 रह गई. हालात की गंभीरता को देखते हुए हरियाणा सरकार ने वर्ष 2006 को कन्या बालिका वर्ष घोषित किया था. इसके साथ ही लड़कियों के लिए 'लाडली' योजना शुरू की थी. इसके तहत दूसरी लड़की के जन्म पर उसके परिवार को पांच साल तक हर साल पांच हज़ार रुपए सरकार की ओर से दिए जाते हैं. अगर परिवार में केवल एक ही लड़की हो तो ऐसी हालत में उसके माता-पिता को 55 वर्ष की उम्र के बाद हर महीने तीन सौ रुपए वृध्दावस्था पेंशन के रूप में दिए जाते हैं. राज्य की स्वास्थ्य मंत्री करतार देवी दावा करती हैं कि सरकार की कोशिशों से हरियाणा में स्त्री-पुरुष लिंग अनुपात में घटा है.

दूसरे राज्यों से ख़रीदकर लाई गई लड़कियां यौन प्रताड़ना का शिकार हैं. उनके तथाकथित पति के अलावा उनके भाइयों, अन्य रिश्तेदारों और मित्रों द्वारा उनका बलात्कार किया जाता है. प्रशासन को चाहिए कि वे इस तरह के दंपत्तियों के विवाह को पंजीकृत कराए, ताकि लड़की का जीवन कुछ तो सुरक्षित हो सके और उसे समाज में वह सम्मान भी मिले जिसकी वह हक़दार है.

लड़कियों की तस्करी सभ्य समाज के माथे पर कलंक है. यह एक अमानवीय प्रथा भी है. जहां सरकार को इसके खात्मे के लिए कारगर कदम उठाने होंगे, वहीं समाज को भी लड़कियों के प्रति अपनी मानसिकता को बदलना होगा.

Saturday, September 20, 2008

कब थमेगा गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला


देश में गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है...हालांकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने गिरजाघरों पर हमले और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा की न्यायिक जांच कराने के आदेश दिए हैं. इस दरम्यां कल भी बंगलौर और मंगलौर में दो गिरजाघरों पर हमले हुए हैं.
उनका कहना है कि जांच की ज़िम्मेदारी हाईकोर्ट के किसी अवकाश प्राप्त जज को सौंपी जाएगी. प्रदेश सरकार ने पहले इस मामले की जांच राज्य पुलिस की निगरानी इकाई से कराने का फ़ैसला किया था, लेकिन विपक्षी दल न्यायिक जांच कराने की मांग कर रहे थे.
मुख्यमंत्री ने कहा है कि न्यायिक जांच तो होगी, लेकिन इसके साथ-साथ निगरानी इकाई की जांच भी जारी रहेगी. पिछले दिनों प्रदेश के समुद्र तटीय मंगलौर, उडुपी, चिकमंगलूर और कोलार ज़िले में कई गिरजाघरों पर हमले हुए थे.
उड़ीसा में 23 अगस्त के बाद से लगातार ईसाइयों और गिरजाघरों पर हमले हो रहे हैं और वहां इस दौरान क़रीब 18 लोगों की मौत हुई है और सैकड़ों लोग बेघर हुए हैं. इसी तरह कर्नाटक में पिछले एक हफ़्ते से गिरजाघरों पर हमलों का सिलसिला जारी है.
देश में गिरजाघरों पर हो रहे लगातार हमलों से विदेशों में भारत की छवि धूमिल हुई है.

Tuesday, September 16, 2008

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल गुलशन बानो


फ़िरदौस ख़ान
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है. दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं. दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं.
ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है. करीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारखाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं. वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था. बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था. इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फैसला कर लिया. इस वाकिये को करीब छह साल बीत चुके हैं. रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है. उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं. उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी. बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है. उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है. जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया. उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक सिखाता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे. इनमें से करीब तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की. युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फसाद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं. हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं. इनकी तादाद मरने वाले लोगों से करीब 25 गुना ज्यादा होती है. हर साल करीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं.
इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुकसान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है. कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है. भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है. आजादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है.
दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं. बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए. हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही 'वही ढाक के तीन पात' रहा. आखिर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली.
सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मकसद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैं.
गौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है. हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा. इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं. इससे जहां रोजमर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फसाद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी. अहिंसक जीवन जीने के लिए यह जरूरी है कि 'सादा जीवन, उच्च विचार' की प्रवृत्ति को अपनाया जाए. अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं.

Thursday, September 11, 2008

भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने न्यूज़ चैनल


फ़िरदौस ख़ान
किसी को इतने खौफ़नाक तरीक़े से डराया जाए कि वह जान ही दे दे...,अगर यह सीखना हो तो न्यूज़ चैनल से सीखिए...कल हुए वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरों को लेकर न्यूज़ चैनलों ने दुनिया के ख़त्म होने की अफ़वाह को इतनी हवा दी कि मध्यप्रदेश के राजगढ़ ज़िले में एक किशोरी ने कथित तौर पर दुनिया ख़त्म होने की दहशत में परसों रात ज़हर खा लिया. उसकी कल इंदौर के एक अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई.
पुलिस सूत्रों के मुताबिक़ लड़की की पहचान छाया 16 के रूप में हुई है. मृतक के परिजनों ने बताया कि छाया पिछले दो दिन से टीवी पर जिनीवा में बुधवार को हो रहे वैज्ञानिक महाप्रयोग से जुड़ी ख़बरें देख रही थी. वह इन ख़बरों को देखने के बाद इस कद्र घबरा गई कि उसने सल्फास की गोलियां निगल लीं. गौरतलब है कि कुछ न्यूज़ चैनल महाप्रयोग के दौरान दुनिया ख़त्म होने के ख़तरे पर केंद्रित ख़बरों का लगातार प्रसारण कर दर्शकों को डराने की मुहिम में जुटे हुए थे. ख़ास बात यह रही कि बाद में पांसा बदलते हुए न्यूज़ चैनल चीख़ने लगे कि दुनिया ख़त्म नहीं होगी, बस देखते रहिए....न्यूज़ चैनल (यानि उनका न्यूज़ चैनल).
यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि न्यूज़ चैनल भूतिया फ़िल्मों से ज़्यादा डरावने और व्यस्क फ़िल्मों से ज़्यादा अश्लील होते जा रहे हैं...
न्यूज़ चैनलों पर सैक्स स्कैंडल, मशहूर लोगों के चुम्बन दृश्यों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों को भी मिर्च-मसाला लगाकर दिखाया जा रहा है. भूत-प्रेत और ओझाओं ने भी न्यूज़ चैनलों में अपनी जगह बना ली है. सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने न्यूज़ चैनलों को फटकार लगाते हुए कहा था कि उन्हें ख़बरें दिखाने के लिए लाइसेंस दिए गए हैं न कि भूत-प्रेत दिखाने के लिए. न्यूज़ चैनलों को मनोरंजन चैनल बनाया जन सरकार बर्दाश्त नहीं करेगी. उन्होंने न्यूज़ चैनलों पर टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा था की अब लालू प्रसाद यादव का तम्बाकू खाना भी ब्रेकिंग न्यूज़ हो जाता है. रिचर्ड गेरे द्वारा शिल्पा शेट्टी को चूमे जाने की घटना को सैकड़ों बार चैनलों पर दिखाए जाने पर भी उन्होंने नाराज़गी जताई थी. ख़बरिया चैनलों के संवाददाताओं पर पीड़ितों को आत्महत्या के लिए उकसाने और भीड़ को भड़काकर लोगों को पिटवाने के आरोप भी लगते रहे हैं.
दरअसल, सारा मामला टीआरपी बढ़ाने और फिर इसके ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन हासिल कर बेतहाशा दौलत बटोरने का है. एक अनुमान के मुताबिक़ एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले भारत में क़रीब 10 करोड़ घरों में टेलीविज़न हैं. इनमें से क़रीब छह करोड़ केबल कनेक्शन धारक हैं. टीआरपी बताने का काम टैम इंडिया मीडिया रिसर्च नामक संस्था करती है. इसके लिए संस्था ने देशभर में चुनिंदा शहरों में सात हज़ार घरों में जनता मीटर लगाए हुए हैं. इन घरों में जिन चैनलों को देखा जाता है, उसके हिसाब से चैनलों के आगे या पीछे रहने की घोषणा की जाती है. जो चैनल जितना ज़्यादा देखा जाता है वह टीआरपी में उतना ही आगे रहता है और विज्ञापनदाता भी उसी आधार पर चैनलों को विज्ञापन देते हैं. ज़्यादा टीआरपी वाले चैनल की विज्ञापन डरें भी ज़्यादा होती हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ टेलीविज़न उद्योग का कारोबार 14,800 करोड़ रुपए का है. 10,500 करोड़ रुपए का विज्ञापन का बाज़ार है और इसमें से क़रीब पौने सात सौ करोड़ रुपए पर न्यूज़ चैनलों का कब्ज़ा है. यहां हैरत की बात यह भी है कि अरब कि आबादी वाले भारत में सात हज़ार घरों के लोगों की पसंद देशभर कि जनता की पसंद का प्रतिनिधित्व भला कैसे कर सकती है? लेकिन विज्ञापनदाता इसी टीआरपी को आधार बनाकर विज्ञापन देते हैं, इसलिए यही मान्य हो चुकी है.
समाचार-पत्र अपने विकास का लंबा सफ़र तय कर चुके हैं. उन्होंने प्रेस कि आज़ादी के लिए कई जंगे लड़ी हैं. उन्होंने ख़ुद अपने लिए दिशा-निर्देश तय किए हैं. मगर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अभी अपने शैशव काल में है, शायद इसी के चलते उसने आचार संहिता कि धारणा पर विशेष ध्यान नहीं दिया. अब जब सरकार उस पर लगाम कसने कि तैयारी कर रही है तो उसकी नींद टूटी है. सरकार के अंकुश से बचने के लिए ज़रूरी है कि अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण न किया जाए. हर अधिकार कर्तव्य, मर्यादा और जवाबदेही से बंधा होता है. इसलिए बेहतर होगा कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने लिए ख़ुद ही आचार संहिता बनाए और फिर सख्ती से उसका पालन भी करे.

Tuesday, September 9, 2008

आर्सेनिक के ज़हरीले असर से मिल सकेगी निजात


फ़िरदौस ख़ान
भारत के कई इलाके ऐसे हैं, जहां के भूमिगत पानी में आर्सेनिक की काफ़ी ज़्यादा मात्रा है. इसकी वजह से इन इलाकों में उगने वाली फ़सलों में भी आर्सेनिक पाया जाता है...आर्सेनिक का सेहत पर बहुत ही बुरा असर पड़ता है...हालांकि ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने पूर्वी भारत में चावल और पानी को जहरीले आर्सेनिक से होने वाले ज़हरीले असर से बचाने का तरीक़ा खोज लिया है.

एक अनुमान के मुताबिक़ पूर्वी भारत और बांग्लादेश में सात करोड़ से अधिक लोग चावल और पानी की वजह इस ज़हर का शिकार हो जाते हैं. इन लोगों में वे किसान भी शामिल हैं जो सिंचाई के लिए प्रदूषित भूजल का इस्तेमाल करते हैं. बंगाल डेल्टा के हर 100 लोगों में से एक व्यक्ति आर्सेनिक के ज़हरीले असर की वजह से मौत के क़रीब होगा, जबकि 100 में पांच लोगों को इस ज़हर के अन्य लक्षण दिखाई देते हैं. बेलफास्ट स्थित क्वींस विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने दक्षिण एशिया के ऐसे हजारों लोगों के लिए आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए कम लागत वाली तकनीक विकसित की है जो भूजल में इस ज़हर के उच्च स्तर से दो चार हैं.

एक अंतरराष्ट्रीय टीम की अगुवाई कर रहे क्वींस विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने कोलकाता के निकट कशिंपोर में एक परीक्षण संयंत्र भी स्थापित किया है जो ग्रामीण समुदायों को रसायन मुक्त भूजल शोधन तकनीक मुहैया कराता है, ताकि उन्हें पानी और खेती के लिए ज़रूरी साफ़ पानी मिल सके. विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक और परियोजना के समन्वयक भास्कर सेनगुप्ता के मुताबिक़ दक्षिणी एशिया में बीमारी के अनेक मामलों के पीछे आर्सेनिक का ज़हर है. इसकी वजह से कैंसर के मामले भी बढ़ रहे हैं. आर्सेनिक के उच्च स्तर से प्रदूषित भूजल का ज़हरीलापन ख़त्म करने के लिए कम लागत वाली तकनीक कृषि के लिए एक चुनौती है. इस तकनीक को इलाके के लिए उपयुक्त करार देते हुए उन्होंने कहा कि क्वींस द्वारा विकसित किया गया यह तरीका एकमात्र तरीक़ा है जो पर्यावरण के अनुकूल है इस्तेमाल करने में आसान है और सस्ती दर पर ग्रामीण समुदाय के लिए उपलब्ध है.

अलबत्ता उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले में वक़्त में लोगों को आर्सेनिक के ज़हरीले असर से निजात मिल सकती है...सरकार को भी चाहिए कि वह लोगों को इस ज़हर के असर से बचाने कि दिशा में कारगर क़दम उठाए...

Thursday, September 4, 2008

कोसी ने क़हर तो अपनों ने ज़ुल्म ढहाया


फ़िरदौस ख़ान
बिहार में कोसी नदी ने जो क़हर बरपाया है, वह पहले ही कम नहीं था...और अब अपने ही लोग बाढ़ पीड़ितों पर ज़ुल्म ढहा रहे हैं...हालांकि बिहार सरकार बाढ़ पीड़ितों को हरसंभव सहायता मुहैया कराने के दावे कर रही है, लेकिन कोसी के पानी में डूबे इस प्रदेश से आ रही ख़बरों कुछ और ही बयां कर रही हैं...
राहत शिविरों में लोगों को भोजन के नाम पर ख़राब खिचड़ी दी जा रही है...बीमार होने के डर से लोग उसे हाथ तक नहीं लगा रहे हैं...लोगों का कहना है कि अगर उन्हें सड़ा खाना खिलाकर ही मारना था तो पानी से ही क्यों निकाला, वहीं छोड़ दिया होता मरने के लिए...
इतना ही नहीं अभी भी कितने ही इलाकों में राहत नहीं पहुंच पाई है... बाढ़ पीड़ितों को वक़्त पर इलाज भी नहीं मिल पा रहा है, जिससे कितने ही लोग मौत के मुंह में समा गए हैं.....सहरसा के नागो शर्मा की भी कहानी भी बाढ़ पीड़ितों की तकलीफ़ों को बयां करने के लिए काफ़ी है... में उसने छत पर मां को लिटा लिया... उसकी सत्तर वर्षीया मां भगीनिया देवी मां भूख से बेहाल रही...घर में खाने को कुछ नहीं था...सब कोसी की भेंट चढ़ गया था...हर तरफ़ बस पानी ही पानी नज़र आ रहा था...राहत की उम्मीद में राहत की उम्मीद में उसकी आंखें पथरा गईं, लेकिन कहीं से उसे कोई मदद नहीं मिली...आखिरकार वह अपनी मां को कंधे पर लेकर अस्पताल तो पहुंच जाता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है... डॉक्टरों ने उसकी सत्तर वर्षीया मां को मृत घोषित कर दिया...वह डॉक्टरों से लाख मिन्नतें करता रहा कि एक बार उसकी मां को ठीक से देख लो, लेकिन डॉक्टरों यह कहकर उसे निकल दिया कल देखेंगे...
फिर नागो शर्मा को लेकर कुछ लोग स्थानीय थाने पर पहुंचा, ताकि पूरे मामले की एफ़आईआर दर्ज कराई जाए.लेकिन थानेदार का रवैया भी डॉक्टरों से कहीं ज़्यादा तल्ख़ था. उसने शव को मॉर्चुरी में रखने की व्यवस्था कराने में आनाकानी की. जब उससे पूछा गया कि पुलिस शव की सुरक्षा के लिए कुछ क्यों नहीं कर सकती तो उसका जवाब था कि अस्पताल की मॉर्चुरी में तो शव को कुत्ते नोच डालेंगे, इससे बेहतर हुआ कि वह बाहर ही पड़ा रहा...
पुलिस को नहीं आना था और वह नहीं आई... किसी तरह लोगों के सहयोग से नागो की मां के अंतिम संस्कार की व्यवस्था की गई...यह हैं हमारे देश के डॉक्टर और पुलिस...
नागो शर्मा के साथ जो हुआ वह किसी के भी साथ हो सकता है... इसलिए ज़रूरत है अवाम को जागने की और सरकार को जगाने की...

Wednesday, September 3, 2008

आख़िर कब थमेगा भूख से मौतों का सिलसिला

फ़िरदौस ख़ान
मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान

मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान

Friday, August 22, 2008

अंधेरे में रौशनी की किरण टप्पू का गर्ल्स स्कूल


फ़िरदौस ख़ान
बिहार के किशनगंज ज़िले के टप्पू नामक अति पिछड़े ग़ांव में स्थित मिल्ली गर्ल्स स्कूल साम्प्रदायिक सद्भावना की एक ज़िंदा मिसाल है. दिल्ली की ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन द्वारा स्थापित इस स्कूल के निर्माण में मुसलमान ही नहीं, हिन्दुओं की भी अहम भूमिका रही. दिलचस्प बात यह है कि स्कूल के लिए फाउंडेशन को एक इंच भी ज़मीन ख़रीदनी नहीं पड़ी. ग़ांव के बाशिंदे अब्दुल हफ़ीज़, मेरातुल हक़, गुलतनलाल पंडित, मास्टर सुखदेव और मुखिया किशनलाल दास ने फाउंडेशन को यह भूमि दान में दी. क़रीब 35 लाख रुपए से साढ़े तीन एकड़ में बने इस स्कूल में खेल का मैदान भी है. स्कूल की इमारत के समीप ही दो मंज़िला होस्टल और स्टाफ क्वार्टर भी बनाए गए हैं.

आठ दिसंबर 2002 को इस स्कूल की विधिवत् शुरुआत की गई. उस समय स्कूल में केवल 35 छात्राएं थीं, लेकिन अब इनकी तादाद बढक़र 355 हो गई है. स्कूल में हिन्दू लडक़ियां भी पढ़ रही हैं. दूर-दराज के इलाकों से यहां आकर शिक्षा ग्रहण करने वाली 160 छात्राएं हॉस्टल में रहती हैं जिनमें नौ हिन्दू लडक़ियां शामिल हैं. सीबीएससी से मान्यता प्राप्त सातवीं कक्षा तक के इस स्कूल का उद्देश्य गरीब लड़कियों को शिक्षित करना है. इसलिए हर छात्रा से ट्यूशन फ़ीस के मात्र एक सौ रुपए लिए जाते हैं और हॉस्टल में रहने वाली छात्राओं से सात सौ रुपए लिए जाते हैं. जिनके अभिभावक यह फीस देने में समर्थ नहीं होते उन लडक़ियों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है. इस समय स्कूल में 109 ऐसी छात्राएं हैं, जिनसे फ़ीस नहीं ली जाती. स्कूल में लडक़ियों के स्वास्थ्य का भी विशेष ध्यान रखा जाता है. नाश्ते और भोजन में पौष्टिक तत्वों से भरपूर व्यंजन दिए जाते हैं. हफ्ते में एक दिन मांसाहारी भोजन परोसा जाता है जिसमें अंडा, मछली, चिकन और मटन शामिल है. चूंकि हॉस्टल में हिन्दू लडक़ियां भी रहती हैं, इसलिए 'बड़े' क़ा मीट यहां वर्जित है. स्कूल में शिक्षा के साथ सांस्कृतिक गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया जाता है.

दिल्ली की संस्था ने स्कूल बनाने के लिए आखिर इतनी दूर बिहार के किशनगंज ज़िले के टप्पू गांव को ही क्यों चुना? इसकी भी एक रोचक दास्तां है. फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद इसरारुल हक़ क़ासिमी बताते हैं कि 1996 में मुसलमानों में शिक्षा की हालत को लेकर एक सर्वे आया था जिसके मुताबिक़ बिहार के मुसलमानों में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम था. सर्वे में कहा गया था कि किशनगंज ज़िले में मुसलमानों की आबादी करीब 65 फ़ीसदी है. एक बड़ा वोट बैंक होने के कारण अमूमन सभी सियासी दल यहां से मुसलमानों को ही अपना उम्मीदवार बनाकर चुनाव मैदान में उतारते हैं. नतीजतन, यहां से मुसलमान ही सांसद चुने जाते रहे हैं. इसके बावजूद यहां के मुसलमानों की हालत बेहद दयनीय है. रिपोर्ट के मुताबिक़ यहां केवल 37 फ़ीसदी मुसलमान ही शिक्षित थे. इनमें भी अधिकांश प्राइमरी स्तर तक ही शिक्षा हासिल करने वाले थे, जबकि दसवीं तक आते-आते यह आंकडा इकाई अंक तक नीचे आ गया. इनमें सबसे बुरी हालत महिलाओं की थी. यहां सिंर्फ 0.2 फ़ीसदी यानि एक फ़ीसदी से भी कम महिलाएं साक्षर थीं. यहां महिलाओं में उच्च शिक्षा की कल्पना करना तो अमावस की रात में सूरज तलाशने जैसा था. बस, इसी सर्वे की रिपोर्ट को पढक़र मौलाना साहब के ज़हन में किशनगंज के किसी गांव में ही स्कूल खोलने का विचार आया. मगर धन के अभाव में वे ऐसा नहीं कर पाए. वर्ष 2000 में उन्होंने ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन का गठन कर शिक्षा के क्षेत्र में काम शुरू किया. फाउंडेशन को लोगों का भरपूर सहयोग मिला. फाउंडेशन ने जगह-जगह स्कूल खोले. इस समय बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में फाउंडेशन 63 स्कूल चला रही है. उनकी योजना स्कूल को बारहवीं कक्षा तक करने की है. इसके अलावा शिक्षा की .ष्टि से पिछड़े इलाकों में इसी तरह के तीन और स्कूल खोलने के प्रयास जारी हैं.

फाउंडेशन की यह कोशिश अशिक्षा के अंधेरे में रौशनी की किरण बनकर फूटी है. इसी तरह ज्ञान के दीप जलते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब इस इलांके से निरक्षरता का अभिशाप हमेशा के लिए मिट जाएगा और हर तरफ़ शिक्षा का उजाला होगा.
(विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित)

किसानों के लिए वरदान बायो डीज़ल


फ़िरदौस ख़ान
डीज़ल नहीं अब खाड़ी से
तेल मिलेगा बाड़ी से
और
स्वच्छ वातावरण का संकल्प
रतनजोत है एक विकल्प
इन नारों के साथ केंद्र सरकार रतनजोत उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है. मौजूदा दौर में उत्पन्न ऊर्जा संकट और तेल की लगातार बढ़ती कीमतों के मद्देनज़र रतनजोत की खेती बेहद फ़ायदेमंद है. हालांकि बायो डीज़ल के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के मकसद से अरबों रुपए ख़र्च कर रही है, लेकिन इसी बीच रतनजोत उगाने के नाम पर ज़मीनों पर कब्जे करने और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोप भी सुर्खियों में हैं.

दसवीं पंचवर्षीय योजना के तहत केंद्र सरकार ने रतनजोत की खेती को बढ़ावा देने के लिए साढ़े 17 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान रखा था. इस परियोजना का संचालन योजना आयोग कर रहा है. इसके लिए योजना आयोग ने देश के 18 राज्यों में 200 ऐसे जिलों की पहचान की है, जिनमें रतनजोत की खेती की जाएगी. इन राज्यों में हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ग़ोवा, गुजरात, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तमिलनाडु शामिल हैं. चयनित हर ज़िले में रतनजोत की खेती के लिए एक करोड़ रुपए दिए जाने का प्रावधान है.

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन, कृषि एवं सहकारिता तथा पेट्रोलियम मंत्रालय को भी इस मुहिम में शामिल किया गया है. योजना आयोग के मुताबिक़ वर्ष 2012 तक देश को क़रीब 19 करोड़ मीट्रिक टन तेल की ज़रूरत पड़ेगी. अगर देश में रतनजोत का अभियान कामयाब हो जाता है तो कुल तेल की मांग का क़रीब 50 फ़ीसदी हिस्सा बायो डीज़ल से पूरा हो सकेगा. इस समय देश पेट्रोलियम पदार्थों की खपत का 70 फ़ीसदी हिस्सा विदेशों से आयात कर रहा है. इस पर हर साल क़रीब 80 हज़ार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा ख़र्च हो जाती है. विशेषज्ञों के मुताबिक़ अगर मौजूदा दौर में डीज़ल में पांच फ़ीसदी बायो डीज़ल मिला दिया जाए तो भारत को हर साल चार हज़ार करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की बचत होगी. इतना ही नहीं इतने बड़े पैमाने पर रतनजोत की खेती से देश के क़रीब 19 लाख ग्रामीणों को रोज़गार भी मिल जाएगा. इसके बाद उससे प्राप्त तेल परिशोधन और विपणन के काम से भी अन्य लाखों लोगों को रोज़गार उपलब्ध हो सकेगा.

रतनजोत के बीजों से उपलब्ध बायो डीज़ल वाहनों के लिए एक बेहतर ईंधन साबित हो रहा है. इसे देखते हुए सार्वजनिक तेल कंपनी इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन और भारतीय रेलवे ने संयुक्त रूप से रेल की पटरियों के आसपास की बेकार पड़ी ज़मीन पर रतनजोत की खेती करने का अभियान शुरू कर दिया है. रतनजोत से मिले बायो डीज़ल का दुनिया की नामी कार निर्माता कंपनी अपनी मर्सिडीज बैंज कारों में सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर चुकी है. बायो डीज़ल के उत्साहवर्धक नतीजे सामने आने पर इंडियन ऑयल ने न केवल इसकी बड़े पैमाने पर रेलवे के साथ योजना शुरू कर दी है, बल्कि वह तेल एवं गैस संरक्षण पखवाड़े क़े दौरान किसानों को उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए इसकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रही है. भारतीय रेलवे ने भी लखनऊ यार्ड में अपने इंजनों में बायो डीज़ल उपयुक्त पाया है. इसके अलावा हरियाणा रोडवेज़ की बसों में भी बायो डीज़ल मिश्रित ईंधन का इस्तेमाल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की कार भी बायो डीज़ल से ही चलती है.रतनजोत की खेती के मामले में छत्तीसगढ़ राज्य काफ़ी आगे है. छत्तीसगढ़ बायो-फ्यूल विकास प्राधिकरण के मुताबिक़ रतनजोत की खेती को यहां नक़दी फ़सल की श्रेणी में रखा गया है और इसके लिए समर्थन मूल्य की भी घोषणा की गई है. साथ ही कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विक्रय करने संबंधी प्रक्रिया शुरू की गई है. इस समय राज्य की क़रीब 86 हजार हेक्टेयर भूमि पर रतनजोत की खेती की जा रही है. वित्तवर्ष 2005-06 में राज्य में पांच करोड़ पौधे लगाए गए थे. वित्तवर्ष 2006-07 में 16 करोड़ 16 लाख पौधे लगाने का लक्ष्य है, जबकि आगामी वित्तवर्ष के लिए यह लक्ष्य 20 करोड़ तय किया गया है. पिछले वित्तवर्ष के दौरान राज्य में छह करोड़ से ज्यादा रतनजोत के पौधे किसानों को वितरित किए गए. चालू वित्त वर्ष में 16 करोड़ पौधे तैयार किए जा रहे हैं. निजी निवेशक भी रतनजोत की खेती के प्रति विशेष रूचि दिखा रहे हैं. क़रीब 118 निजी निवेशकों से रतनजोत का पौधारोपण और बायो डीज़ल संयंत्र स्थापना संबंधी प्रस्ताव राज्य सरकार को मिल चुके हैं. राज्य के ग्राम पंचायतों में सौ लीटर प्रति बैच क्षमता के मिनी बायो डीज़ल संयंत्रों की स्थापना की जाएगी.

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का मानना है कि रतनजोत से राज्य में एक नई क्रांति की शुरुआत हुई है. सस्ते बायो डीज़ल इसके दूसरी ओर विपक्षी दलों के नेता सत्ता से जुड़े लोगों पर बायो डीज़ल के नाम पर भूमि पर कब्ज़ा करने और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोप लगा रहे हैं. दुर्ग के किसान हरकू राम का आरोप है कि उसकी डेढ़ एकड़ ज़मीन दबा ली गई है. अपनी ज़मीन से कब्ज़ा हटवाने के लिए उसे उसे सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं. पूर्व मंत्री नंदकुमार पटेल व अन्य नेताओं का मानना है कि सरकार इसे लेकर जितनी उत्साहित है, उसके हिसाब से नतीजे सामने नहीं आ रहे हैं. कई जगह सिर्फ़ कागज़ों में ही रतनजोत का पौधारोपण हुआ है. इन नेताओं का यह भी मानना है कि रतनजोत की ग्लोबल पैटर्न पर फ़सल चक्र में बदलाव करना देश की ज़रूरत के विपरीत है.

इससे देश में खाद्य सुरक्षा का संकट पैदा हो जाएगा. अमेरिकी साम्राज्य के इशारे पर विश्व बैंक विकासशील देशों पर पश्चिमी देशों की ज़रूरत की वस्तुओं का उत्पादन करने का दबाव डाल रहा है. अगर किसान खाद्य की खेती छोडक़र रतनजोत उगाने लगे तो राज्य और देश को खाद्य के मामले में विदेशों पर निर्भर होना पडेग़ा. हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि किसानों को अनुपयोगी भूमि या अन्य फसलों के साथ ही इसे उगाना चाहिए. इसकी खेती के लिए पहले कृषि उपयोग में आ रही भूमि को न चुना जाए, क्योंकि ऐसी हालत में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाएगा. इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि रतनजोत से तेल निकालने के लिए कई किसान मिलकर संयुक्त रूप से प्लांट लगाएं. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें केवल बीजों की ही कीमत मिल पाएगी. इससे मिलने वाले ग्लिसरीन व अन्य पदार्थों का लाभ उन्हें नहीं मिल पाएगा और ऐसी स्थिति में प्लांट लगाने वाले ही चांदी कूटेंगे.

गौरतलब है कि कोलकाता स्थित ब्रिटिश इंस्टीटयूट ने वर्ष 1930 में ऊर्जा फसलों की फ़ेहरिस्त में रतनजोत को प्रथम स्थान पर रखा था. मगर तब से लेकर आज तक देश के विभिन्न वैज्ञानिक एवं शिक्षण अनुसंधान संस्थानों में लैटिन अमेरिकी मूल (मैक्सिको) के इस पौधे को लेकर कई अनुसंधान हुए और इसके फ़ायदों का विवरण इकट्ठा किया गया. मगर इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए कोई विशेष क़दम नहीं उठाया गया, जिसके कारण यह महत्वपूर्ण व उपयोगी पौधा उपेक्षित रहा. शुरुआत के वर्षों में रतनजोत 800 से 3500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक बीज का उत्पादन करता है. पांचवें साल से यह 1200 से पांच हजार किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक बीज देता है. इसके एक पौधे से 40 से 45 साल तक बीज लिए जा सकते हैं. यूं तो रतनजोत की कई किस्में हैं, लेकिन इसकी सबसे उपयोगी किस्म है रतनजोत करकास. इसके सूखे बीजों में 30 से 35 फीसदी तक तेल होता है. यह तेल बायो डीजल के तौर पर इस्तेमाल होता ही है, साथ ही यह कई प्रकार की औषधियों में भी काम आता है. मोमबत्ती, साबुन और सौंदर्य प्रसाधन सामग्रियों को बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है. इससे कीमती ग्लिसरीन प्राप्त होती है. तेल निकालने के बाद बची खली और सूखी पत्तियों से खाद बनाई जाती है. इसके छिलकों से उच्च स्तर का एक्टिवेटेड चारकोल बनता है, जिसकी रसायन उद्योग में काफी मांग है. हिसार स्थित चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों का मानना है कि रतनजोत की खेती से जहां भूमि क्षरण जैसी समस्याओं से निजात मिलेगी, वहीं इसके तेल के इस्तेमाल से धरती के बढ़ते तापमान को कम किया जा सकेगा, क्योंकि भूमि को उपजाऊ बनाने के अलावा यह वातावरण से कार्बन डाई ऑक्साइड गैस घटाने में भी एक अहम भूमिका निभाता है.
(विभिन्न समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित)

Wednesday, August 20, 2008

दहलीज़ से सियासत तक ख्वातीन


फ़िरदौस ख़ान
सदियों की गुलामी और दमन का शिकार रही भारतीय नारी अब नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है. इसकी एक बानगी अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बसे अति पिछड़े मेवात ज़िले के गांव नीमखेडा में देखी जा सकती है. यहां की पूरी पंचायत पर महिलाओं का क़ब्ज़ा है. ख़ास बात यह भी है कि सरपंच से लेकर पंच तक सभी मुस्लिम समाज से ताल्लुक़ रखती हैं. जिस समाज के ठेकेदार महिलाओं को बुर्के में कैद रखने के हिमायती हों, ऐसे समाज की महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर गांव की तरक्की के लिए काम करें तो वाक़ई यह काबिले-तारीफ़ है. गुज़श्ता 30 अक्टूबर को नीमखेडा को आदर्श गांव घोषित किया गया है.

गांव की सरपंच आसुबी का परिवार सियासत में दखल रखता है. क़रीब 20 साल पहले उनके शौहर इज़राइल गांव के सरपंच थे. इस वक्त उनके देवर आज़ाद मोहम्मद हरियाणा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर हैं. वे बताती हैं कि यहां से सरपंच का पद महिला के लिए आरक्षित था. इसलिए उन्होंने चुनाव लडने का फैसला किया. उनकी देखा-देखी अन्य महिलाओं में भी पंचायत चुनाव में दिलचस्पी पैदा हो गई और गांव की कई महिलाओं ने पंच के चुनाव के लिए परचे दाखिल कर दिए.
पंच मैमूना का कहना है कि जब महिलाएं घर चला सकती हैं तो पंचायत का कामकाज भी बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, लेकिन उन्हें इस बात का मलाल जरूर है कि पूरी पंचायत निरक्षर है. इसलिए पढाई-लिखाई से संबंधित सभी कार्यों के लिए ग्राम सचिव पर निर्भर रहना पड़ता है. गांव की अन्य पंच हाजरा, सैमूना, शकूरन, महमूदी, मजीदन, आसीनी, नूरजहां और रस्सो का कहना है कि उनके गांव में बुनियादी सुविधाओं की कमी है. सडक़ें टूटी हुई हैं. बिजली भी दिनभर गुल ही रहती है. पीने का पानी नहीं है. महिलाओं को क़रीब एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है. नई पंचायत ने पेयजल लाइन बिछवाई है, लेकिन पानी के समय बिजली न होने की वजह से लोगों को इसका फ़ायदा नहीं हो पा रहा है.सप्लाई का पानी भी कडवा होने की वजह से पीने लायक़ नहीं है. स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी यहां बेहद खस्ता है. अस्पताल तो दूर की बात यहां एक डिस्पेंसरी तक नहीं है. गांव में लोग पशु पालते हैं, लेकिन यहां पशु अस्पताल भी नहीं है. यहां प्राइमरी और मिडल स्तर के दो सरकारी स्कूल हैं. मिडल स्कूल का दर्जा बढ़ाकर दसवीं तक का कराया गया है, लेकिन अभी नौवीं और दसवीं की कक्षाएं शुरू नहीं हुई हैं. इन स्कूलों में भी सुविधाओं की कमी है. अध्यापक हाज़िरी लगाने के बावजूद गैर हाज़िर रहते हैं. बच्चों को दोपहर का भोजन नहीं दिया जाता. क़रीब तीन हज़ार की आबादी वाले इस गांव से कस्बे तक पहुंचने के लिए यातायात की कोई सुविधा नहीं है. कितनी ही गर्भवती महिलाएं प्रसूति के दौरान समय पर उपचार न मिलने के कारण दम तोड़ देती हैं. गांव में केवल एक दाई है, लेकिन वह भी प्रशिक्षित नहीं है. पंचों का कहना है कि उनकी कोशिश के चलते इसी साल 22 जून से गांव में एक सिलाई सेंटर खोला गया है. इस वक़्त सिलाई सेंटर में 25 लड़कियां सिलाई सीख रही हैं.

गांववासी फ़ातिमा व अन्य महिलाओं का कहना है कि गांव में समस्याओं की भरमार है. पहले पुरुषों की पंचायत थी, लेकिन उन्होंने गांव के विकास के लिए कुछ नहीं किया. इसलिए इस बार उन्होंने महिला उम्मीदवारों को समर्थन देने का फ़ैसला किया. अब देखना यह है कि यह पंचायत गांव का कितना विकास कर पाती है, क्योंकि अभी तक कोई उत्साहजनक नतीजा सामने नहीं आया है. खैर, इतना तो जरूर हुआ है कि आज महिलाएं चौपाल पर बैठक सभाएं करने लगी हैं. वे बड़ी बेबाकी के साथ गांव और समाज की समस्याओं पर अपने विचार रखती हैं. पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उन्हें एक बेहतर मौका मिल गया है, वरना पुरुष प्रधान समाज में कितने पुरुष ऐसे हैं जो अपनी जगह अपने परिवार की किसी महिला को सरपंच या पंच देखना चाहेंगे. काबिले-गौर है कि उत्तत्तराखंड के दिखेत गांव में भी पंचायत पर महिलाओं का ही क़ब्जा है.

गौरतलब है कि संविधान के 73वें संशोधन के तहत त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था है. केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पंचायती राज संस्थाओं में 10 लाख से ज़्यादा महिलाओं को निर्वाचित किया गया है, जो चुने गए सभी निर्वाचित सदस्यों का लगभग 37 फ़ीसद है. बिहार में महिलाओं की यह भागीदारी 54 फ़ीसद है. वहां महिलाओं के लिए 50 फ़ीसद आरक्षण लागू है. मध्यप्रदेश में भी गत मार्च में पंचायत मंत्री रुस्तम सिंह ने जब मध्यप्रदेश पंचायत राज व ग्राम स्वराज संशोधन विधेयक-2007 प्रस्तुत कर पंचायत और नगर निकाय चुनाव में महिलाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा की. पंचायती राज प्रणाली के तीनों स्तरों की कुल दो लाख 39 हज़ार 895 पंचायतों के 28 लाख 30 हज़ार 46 सदस्यों में 10 लाख 39 हज़ार 872 महिलाएं (36.7 फ़ीसद) हैं. इनमें कुल दो लाख 33 हजार 251 पंचायतों के 26 लाख 57 हज़ार 112 सदस्यों में नौ लाख 75 हज़ार 723 (36.7 फ़ीसद) महिलाएं हैं. इसी तरह कुल छह हज़ार 105 पंचायत समितियों के एक लाख 57 हज़ार 175 सदस्यों में से 58 हजार 328 (37.1 फ़ीसद) महिलाएं हैं. कुल 539 ज़िला परिषदों के 15 हज़ार 759 सदस्यों में पांच हज़ार 821 (36.9 फ़ीसद) महिलाएं हैं. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि भारत में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू होने की वजह से ही वे आगे बढ़ पाईं हैं.

हालांकि देश की सियासत में आज भी महिलाओं तादाद उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए. यह कहना भी क़तई गलत नहीं होगा कि अपने पड़ौसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन के मुकाबले संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अभी भी बहुत पीछे है. दुनियाभर में घोर कट्टरपंथी माने जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में महिलाएं प्रधानमंत्री पद पर आसीन रही हैं. यूनिसेफ द्वारा कई चुनिंदा देशों में 2001-2004 के आधार पर बनाकर जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 8.3 फ़ीसद, ब्राजील में 8.6 फ़ीसद, इंडोनेशिया में 11.3 फ़ीसद, बांग्लादेश में 14.8 फ़ीसद, यूएसए में 15.2 फ़ीसद, चीन में 20.3 फ़ीसद, नाइजीरिया में सबसे कम 6.4 फ़ीसद और पाकिस्तान में सबसे ज़्यादा 21.3 फ़ीसद रहा. इस मामले में पाकिस्तान ने विकसित यूएसए को भी काफी पीछे छोड़ दिया है. वर्ष 1996 में भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.3 फ़ीसद और 1999 में 9.6 फ़ीसद था. हालांकि चुनाव के दौरान कई सियासी दल विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण देने के नारे देते हैं, लेकिन यह महिला वोट हासिल करने का महज़ चुनावी हथकंडा ही साबित होता है. बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया क़ायम है. फिलहाल यही कहा जा सकता है कि नीमखेड़ा और दिखेत की महिला पंचायतें महिला सशक्तिकरण की ऐसी मिसालें हैं, जिनसे दूसरी महिलाएं प्रेरणा हासिल कर सकती हैं.

Wednesday, August 13, 2008

अपना वजूद तलाशतीं हव्वा की बेटियां


फ़िरदौस ख़ान
दुनिया की क़रीब आधी आबादी महिलाओं की है. इस लिहाज़ से महिलाओं को तमाम क्षेत्रों में बराबरी का हक़ मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है. कमोबेश दुनियाभर में महिलाओं को आज भी दोयम दर्जे पर रखा जाता है. अमूमन सभी समुदायों में महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानने की प्रवृत्ति है. भारत में ख़ासकर मुस्लिम समाज में तो महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े भी इस बात को साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुक़ाबले मुस्लिम महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से ख़ासी पिछड़ी हुई हैं, लेकिन काबिले-तारीफ़ बात यह है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में ख्याति अर्जित कर रही हैं.

सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ देशभर में मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर 53.7 फ़ीसदी है. इनमें से अधिकांश महिलाएं केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित हैं. सात से 16 आयु वर्ग की स्कूल जाने वाली लडक़ियों की दर केवल 3.11 फ़ीसदी है. शहरी इलाकों में 4.3 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 2.26 फ़ीसदी लडक़ियां ही स्कूल जाती हैं. वर्ष 2001 में शहरी इलाकों में 70.9 फ़ीसदी लडक़ियां प्राथमिक स्तर की शिक्षा हासिल कर पाईं, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह दर 47.8 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में यह दर क्रमश: 13.9 और 4.0 फ़ीसदी थी. वर्ष 2001 में आठवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने वाली शहरी इलाकों की लडक़ियों की दर 51.1 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 29.4 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में शहरी इलाकों में 5.2 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 0.9 फ़ीसदी लडक़ियां ही मिडल स्तर तक शिक्षा हासिल कर पाईं. वर्ष 2001 में मैट्रिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने वाली लडक़ियों की दर शहरी इलाकों में 32.2 फ़ीसदी और ग्रामीण इलाकों में 11.2 फ़ीसदी है. वर्ष 1948 में यह दर क्रमश: 3.2 और 0.4 फ़ीसदी है.

शिक्षा की ही तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़ 15 से 64 साल तक की हिन्दू महिलाओं (46.1 फ़ीसदी) के मुकाबले केवल 25.2 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाएं ही रोज़गार के क्षेत्र में हैं. अधिकांश मुस्लिम महिलाओं को पैसों के लिए अपने परिजनों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर एक भी पैसा ख़र्च नहीं कर पातीं.

यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए 'धार्मिक कारण' काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं. इनमें बहुपत्नी विवाह और तलाक़ के मामले मुख्य रूप से शामिल हैं. इतना ही नहीं शरीयत की आड़ में उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी किया जाता है और जब भी कोई पीड़ित महिला अदालत के दरवाज़े पर दस्तक देती है तो उससे कठमुल्लाओं को तकलीफ़ होने लगती है. गौरतलब है कि पिछले साल 21 जनवरी को मुंबई की एक अदालत द्वारा तलाक़ के बारे में दिए गए फ़ैसले से भी कठमुल्लाओं की भवें तन गई थीं. उन्होंने अदालत के फ़ैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में हस्तक्षेप क़रार देते हुए इसे मानने तक से इंकार कर दिया था.

पुरातनपंथी तुच्छ मानसिकता को त्याग कर मुंबई उच्च न्यायालय के फ़ैसले का खुले दिलो-दिमाग़ से स्वागत करना चाहिए था. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बीएच मारलापाले ने दिलशाद बेगम द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के बाद महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया कि कोई भी व्यक्ति महज़ तीन बार तलाक़ कहकर अपनी पत्नी से संबंध नहीं तोड़ सकता है. दिलशाद बेगम को जून 1989 में उसके पति अहमद ख़ान पठान ने तीन बार तलाक़ कहकर घर से निकाल दिया था. इस मामले में पश्चिमी महाराष्ट्र के बारामती के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धाराओं के तहत हर्जाने के रूप में दिलशाद बेगम को चार सौ रुपये प्रति माह दिए जाने का आदेश दिया था. महज़ एक माह गुज़ारा भत्ता देने के बाद मई 1994 में दिलशाद के पति ने एक स्थानीय मस्जिद में जाकर उसे तलाक़ दे दिया था. साथ ही अहमद ख़ान पठान ने दिलशाद बेगम को दिया जाना वाला भत्ता भी बंद कर दिया और सेशन कोर्ट में न्यायिक मजिस्ट्रेट के फ़ैसले को चुनौती भी दे डाली.

उसका तर्क था कि शरीयत (इस्लामी क़ानून) के मुताबिक़ तलाक़शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान नहीं है. इस पर सेशन कोर्ट ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश को ख़ारिज कर दिया. इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ दिलशाद बेगम ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई, जहां उसे इंसाफ़ मिल गया. मगर यहां फिर कट्टरपंथियों ने उच्च न्यायालय के आदेश को मानने से इंकार करते जहां भारतीय संविधान का मखौल उड़ाया वहीं, एक पीड़ित महिला के साथ भी ज़्यादती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सनद रहे 1981 में भी इसी तरह के एक मामले में न्यायमूर्ति मणिसेना और न्यायमूर्ति एसवी राम की खंडपीठ ने अनवरी बेगम को राहत देते हुए तलाक़ को अवैध क़रार दिया था. इस मामले में जियाउद्दीन ने एक बार तलाक़ कहकर ही अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया था. अपना फ़ैसला सुनाते हुए अदालत ने शरीयत का हवाला भी दिया था.

गौर करने लायक़ बात यह भी है कि दिलशाद बेगम के मामले में अदालत की टिप्पणी शरीयत के मद्देनज़र भी जायज़ है. अदालत ने कहा है कि केवल तीन बार तलाक़ बोलकर ही कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता. मौखिक या लिखित तलाक़ कहने से पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि अपनी समस्या के निपटारे के लिए तलाक़ कहने वाले व्यक्ति ने सुलह के प्रयास किए हैं. शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ को एक बड़ा गुनाह माना गया है और इसे ख़ुदा की सबसे ज्यादा नापसंद चीज़ों में शामिल किया गया है. अगर हालात ऐसे पैदा हो जाएं कि तलाक़ के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचता तो इसके लिए भी नियम तय किए गए हैं. इनके तहत पति और पत्नी के पक्ष का एक-एक व्यक्ति बातचीत के ज़रिये दोनों में सुलह कराने का प्रयास करेगा.अगर उन्हें इसमें कामयाबी न मिले तो वे क़ाज़ी के पास जाएंगे और क़ाज़ी उन्हें विचार-विमर्श के लिए तीन महीने का समय देगा. इस दौरान दोनों को एक ही घर में रहना होगा, ताकि समझौते की संभावना बनी रहे. अगर इस पर भी उनमें सुलह नहीं होती है तो क़ाज़ी उन्हें तलाक़ का हुकम देगा. क़ुरान शरीफ़ में कहीं भी एक साथ तीन बार तलाक़ कहने की बात नहीं कही गई है. मगर इसके बावजूद मुस्लिम समाज में पुरुष महिलाओं को तलाक़ देकर कभी भी घर से निकाल देते हैं और सबसे शर्मनाक बात यह है कि मंजहब के ठेकेदार भी इसमें पुरुषों को भरपूर सहयोग देते हैं. हैरत की बात यह भी है कि क़ुरान को अल्लाह का आदेश बताने वाले कठमुल्ला महिलाओं पर अत्याचार के मामले में ईश्वरीय आदेश तक की अवहेलना करने से बाज़ नहीं आते. यह कहना ग़लत न होगा कि कठमुल्लाओं को न तो ईश्वर के आदेश की परवाह है और न ही भारतीय संविधान की, उन्हें तो महज़ अपनी 'दुकानदारी' चलानी है.

यह कोई पहला मामला नहीं है जब शरीयत के नाम पर किसी पीड़ित महिला पर ज़्यादती की गई हो. 1986 में शाहबानो ने अपने पति से गुज़ारा भत्ता पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था. याचिका की सुनवाई के बाद अदालत ने जो फ़ैसला सुनाया था उससे शाहबानो को तो कुछ राहत मिली थी, लेकिन यह मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ के दायरे से बाहर चला गया था. दरअसल जिस धारा के तहत यह फ़ैसला सुनाया गया था, वह मुसलमानों पर (मुस्लिम पर्सनल लॉ के कारण) लागू ही नहीं होती थीं. नतीजतन, सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर काफ़ी हंगामा हुआ था और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को लोकसभा में विधेयक लाकर इस फ़ैसले को आंशिक रूप से बदलना तक पड़ा था. इस विधेयक का मक़सद सिर्फ़ कठमुल्लाओं को ख़ुश रखना था.अगर केंद्र की कांग्रेस सरकार चाहती तो सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान करते हुए इसे बरक़रार रख सकती थी, मगर उसने ऐसा नहीं किया.

गौरतलब है कि उड़ीसा के भद्रक की नजमा बीबी को उसके पति शेर मोहम्मद ने नशे की हालत में 15 जुलाई 2003 को तीन बार तलाक़ दे दिया था. इसी आधार पर कठमुल्लाओं ने उन्हें अलग रहने पर मजबूर कर दिया. इस पर दम्पति ने पारिवारिक अदालत की शरण ली और फ़ैसला उनके हक़ में रहा. इसके बाद भी कठमुल्लाओं के विरोध के चलते उन्होंने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसे ख़ारिज कर दिया गया. इस पर उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. अदालत ने सुनवाई के बाद 21 अप्रैल 2006 को तलाक़ को अनुचित क़रार देते हुए उन्हें साथ रहने की अनुमति दी. साथ ही उडीसा सरकार को दम्पति को सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश भी दिया. मगर कठमुल्लाओं ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को मानने तक से इंकार कर दिया. देवबंदी उलेमा ने तो यहां तक कह दिया कि सर्वोच्च न्यायालय को इस्लामी शरीयत में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं है.

इतना ही नहीं महिलाओं के ख़िलाफ़ फ़तवे जारी करना भी कठमुल्लाओं का एक शगल बन चुका है. 15 मार्च 2006 को ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड (जदीद) के अध्यक्ष मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ां ने जदीद की बरेली में हुई बैठक में बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन का सिर क़लम करने वाले व्यक्ति को पांच लाख रुपये का इनाम देने का ऐलान किया था. साथ ही उनके भारत में प्रवेश पर रोक लगाने और उनका वीज़ा समाप्त करने की मांग भी केंद्र सरकार से कर डाली. इस मौलाना ने पिछले साल अमेरिका के राष्ट्रपति डब्ल्यू जॉर्ज बुश का सिर कलम करने वाले व्यक्ति को 25 सौ करोड़ रुपये देने की घोषणा की थी. अदालती फैसलों पर टिप्पणी करते हुए तौक़ीर मियां ने यह भी चेतावनी दे डाली कि शरीयत (इस्लामी क़ानून) में किसी किस्म की भी दख़ल अंदाज़ी बर्दाश्त नहीं की जाएगी. साथ ही पीड़ित मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए सहयोग देने पर मीडिया की सराहना करना तो दूर, बल्कि उन्होंने मीडिया पर ही कई आरोप जड़ डाले. इससे पहले कोलकाता के इमाम सैयद नुरूल रहमान बरकाती ने तस्लीमा नसरीन की मौत का फ़तवा जारी किया था.गत नौ अगस्त को हैदराबाद में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन (एमआईएम) के तीन विधायकों मौअज्ज़म ख़ान, मुक्तादा अफ़सर ख़ान और पाशा क़ादरी के नेतृत्व में भीड़ ने तसलीमा नसरीन पर हमला कर दिया और अगली बार हैदराबाद आने पर उनका सिर क़लम करने की घोषणा भी की.

बलात्कार के मामलों में भी पीड़ित महिलाओं पर अत्याचार करते हुए बलात्कारियों के पक्ष में फ़तवे जारी किए गए. जून 2005 में मुज़फ्फ़रपुर की इमराना को उसके ससुर अली मोहम्मद ने अपनी हवस का पक्ष में फ़तवा दिया था. फ़तवे कहा गया था कि वह अब अपने ससुर को पति मानेगी. इस रिश्ते से उसे अपने पति नूर इलाही को पुत्र मानना होगा. इमराना मामले में अदालत का फ़ैसला आने तक दो अन्य मुस्लिम महिलाओं ने इंसाफ़ के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग का दरवाज़ा खटखटाया. मुज़फ़्फ़रनगर की ही 28 वर्षीय रानी के साथ भी उसके ससुर ने बलात्कार किया था. हरियाणा की भी एक महिला को उसके ससुर ने हवस का शिकार बनाया. इस हादसे के बाद पीड़ित महिला अपने मायके आ गई तो बलात्कारी ससुर उसके पति की हैसियत से उसे लेने तक पहुंच गया.

गौरतलब है कि शरीयत के मुताबिक़ किसी महिला का अपने पति के रक्त संबंधियों के साथ शारीरिक संबंध क़ायम हो जाने पर उसकी शादी की मान्यता ख़त्म हो जाती है, लेकिन निश्चित रूप से ऐसा संबंध बलात्कार नहीं होता.25 जुलाई 2006 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के गांव कंटाबागन की रेहाना के साथ वहीं के मंसूर मलिक ने बलात्कार किया. इस मामले में भी कठमुल्लाओं ने पीड़िता को प्रताड़ित करते हुए फ़ैसला सुनाया कि अब वह अपने पति की पत्नी नहीं रही और उसे बलात्कारी से निकाह करना होगा. शर्मनाक बात यह भी है कि रेहाना और उसके पति मुलुक शेख़ से कहा गया कि अगर वे 50 हजार रुपये मौलवी के पास जमा करा दें तो 'शरीयत' उन पर रहम करेगी, यानी सब खेल पैसों का है.

इसी तरह वर्ष 2006 में बिहार के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के गांव चांदवाडी में बलात्कार की शिकार एक गूंगी महिला को बच्चे को जन्म देने की वजह से नापाक क़रार दे दिया था. इतना ही नहीं कठमुल्लाओं ने दबाव बनाकर महिला को उसके पति के घर से निकलवा दिया. जब वह अपने पिता शमशेर अली के घर चली गई तो कठमुल्लाओं ने उसके पिता पर भी बेटी को घर से निकालने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया, मगर जब वह नहीं माने तो कठमुल्लाओं ने उन्हें प्रताड़ित करते हुए गांव के कुछ लोगों के साथ मिलकर उनका बहिष्कार करा दिया. हैरत की बात तो यह है कि बलात्कारी के ख़िलाफ़ कठमुल्लाओं ने कोई कार्रवाई नहीं की. पुरुषों को सज़ा देने की बात पर कठमुल्ला शरीयत को भूल जाते हैं कि इस्लाम में बलात्कारी को सरेआम तब तक कोड़े मारने की बात कही गई है, जब तक की उसकी मौत नहीं हो जाती.

यह कहना क़तई ग़लत न होगा कि मुस्लिम समाज में महिलाओं को केवल भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है. इसीलिए शरीयत का डंडा भी हमेशा महिलाओं के ख़िलाफ़ ही चलता है. फ़तवा चाहे तस्लीमा नसरीन के ख़िलाफ़ जारी हो या किसी अन्य पीड़ित महिला के ख़िलाफ़, सभी में अमानवीयता कूट-कूटकर भरी है. कठमुल्ला आए दिन फ़तवे जारी महिलाओं की ज़िन्दगी में ज़हर घोलते रहते हैं, लेकिन 14 करोड़ क़ी मुस्लिम आबादी वाले देश में न तो किसी मुस्लिम संगठन ने इनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत की है और न ही छदम धार्मिक निरपेक्षता के चलते महिला आयोग या अन्य संगठन ने पीड़ित महिलाओं को सहारा दिया. कठमुल्लाओं का इतना खौफ़ है कि मार्च 2004 में मानवाधिकार आयोग ने भी नजमा बीबी के मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था. मुसलमानों के मसीहा होने का दम भरने वाले और क़ौम की तरक्की के लिए सरकार से अनेक सुविधाओं की मांग करने वाले तथाकथित मुस्लिम नेता भी इस तरह के मामलों में दुबककर बैठ जाते हैं. जो नेता अपने क़ौम की महिलाओं पर अत्याचार होते देख ख़ामोश रहकर कठमुल्लाओं के हौसले बुलंद करते हैं, वे समुदाय का क्या भला करेंगे, यह वाक़ई समझ से परे है.

वर्ष 2006 में राजधानी में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में जमीयत उलमा-ए-हिंद के महासचिव व राज्यसभा सांसद महमूद मदनी ने मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ जारी फ़तवों का समर्थन करते हुए कहा था कि मैं मुसलमान हूं और फ़तवों को मानने के लिए बाध्य हूं. यानी जो मुसलमान है, उसे फ़तवों को मानना ही पडेग़ा. अब जब क़ौम के रहनुमाओं की यह मानसिकता है तो अधिकांश अनपढ़ तबके से क्या उम्मीद की जा सकती है? हक़ीक़त यह भी है कि इसी तालिबानी मानसिकता ने मुसलमानों को आगे नहीं बढ़ने दिया.

हक़ीक़त यह है कि मज़हब के ठेकेदार 'शरीयत' की परिभाषा अपने स्वार्थ की पूर्ति के नजरिये से करते हैं. भारत में इस्लाम का जो रूप प्रचलित है, इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद उसे नापसंद करते थे. क़ुरान में महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा दिया गया है. यहां तक कहा जाता है कि मां के क़दमों के नीचे जन्नत है. हज़रत मुहम्मद के वक़्त में भी महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए गए थे. वे मस्जिदों में जाकर नमाज़ पढती थीं और पुरुषों की तरह ही घर से बाहर जाकर काम करती थीं. अनगिनत युध्दों में महिलाओं ने अपने युध्द कौशल का लोहा भी मनवाया. प्रसिध्द औहद की जंग में जब हज़रत मुहम्मद ज़ख्मी हो गए तो उनकी बेटी फ़ातिमा ने उनका इलाज किया.

उस दौर में भी रफायदा और मैमूना नाम की प्रसिध्द महिला चिकित्सक थीं. रफायदा का तो मैदान-ए-नबवी में अस्पताल भी था, जहां गंभीर मरीज़ों को दाख़िल किया जाता था. मुस्लिम महिलाएं शल्य चिकित्सा भी करती थीं. उम्मे ज़ियाद शाज़िया, बिन्ते माऊज़, मआज़त-उल-अपगारिया, अतिया असरिया और सलीम अंसारिया आदि उस ज़माने की प्रसिध्द शल्य चिकित्सक थीं. मैदान-ए-जंग में महिला चिकित्सक भी पुरुषों जैसी ही वर्दी पहनती थीं. हज़रत मुहम्मद की पत्नी ख़दीजा कपड़े क़ा कारोबार करती थीं. महिला संत राबिया की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी. पुरुष संतों की तरह वे भी धार्मिक सभाओं में उपदेश देती थीं. सियासत में भी महिलाओं ने सराहनीय काम किए. रंजिया सुल्ताना हिन्दुस्तान की पहली महिला शासक बनीं. नूरजहां भी अपने वक्त क़ी ख्याति प्राप्त राजनीतिक रहीं, जो शासन का अधिकांश कामकाज देखती थीं.1857 की जंगे-आज़ादी में कानपुर की हरदिल अज़ीज़ नृत्यांगना अज़ीज़न बाई सारे ऐशो-आराम त्यागकर देश को गुलामी की ज़ंजीरों से छुड़ाने के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं. उन्होंने महिलाओं के समूह बनाए जो मर्दाना वेश में रहती थीं. वे सभी घोड़ों पर सवार होकर और हाथ में तलवार लेकर नौजवानों को जंगे-आंजादी में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती थीं. अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को मज़बूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए.

मौजूदा दौर में भी विभिन्न क्षेत्रों में महिलाएं अपनी योग्यता का परिचय दे रही हैं. तुर्की जैसे आधुनिक देश में ही नहीं, बल्कि कट्टरपंथी समझे जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश सरीखे देशों में भी महिलाओं को प्रधानमंत्री तक बनने का मौक़ा मिला है. वाक़ई यह एक ख़ुशनुमा अहसास है कि 'मज़हब के ठेकेदारों' की तमाम बंदिशों के बावजूद मुस्लिम महिलाएं आज राजनीति के साथ खेल, व्यापार, उद्योग, कला, साहित्य, रक्षा और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं. जम्मू कश्मीर के कुलाली-हिलकाक इलाक़े की मुनिरा बेगम ने आतंकवादियों का मुंकाबला करने के लिए बंदूक़ उठा ली. उन्हीं के नक्शे-क़दम पर चलते हुए सूरनकोट के गांव की अन्य महिलाओं ने भी हथियार उठाकर आतंकवादियों से अपने परिजनों की रक्षा करने का संकल्प लिया. पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम की शबनम आरा ने तमाम अवरोधों को पार कर गांव के क़ाज़ी का पद संभाला.

इसमें दो राय नहीं कि आज मुसलमानों में ऐसे चेहरे भी सामने आ रहे हैं जो इस्लाम के उस वास्तविक रूप को सबके सामने रखना चाहते हैं, जिसकी बुनियाद ही कुप्रथाओं के ख़ात्मे के लिए पड़ी थी. धर्म गुरुओं को भी चाहिए कि वे क़ौम को अज्ञानता और रूढ़ियों के अंधेरे से निकालने में महती भूमिका अदा करें. इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि विभिन्न क्षेत्रों में सराहनीय काम करने वाली महिलाओं को प्रोत्साहित करते हुए आदर्श के रूप में पेश किया जाए, जिससे अन्य लडक़ियां भी प्रेरणा हासिल कर सकें.