Thursday, October 21, 2010

ग़ुलाम प्रथा : दुनिया की हाट में बिकते इंसान

फ़िरदौस ख़ान
दुनियाभर में आज भी अमानवीय ग़ुलाम प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की ख़रीद-फ़रोख्त की जाती है। इन ग़ुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा ग़ुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। ग़ुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में क़रीब पौने तीन करोड़ ग़ुलाम हैं। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल की परिभाषा के मुताबिक़ वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना मेहनताने के काम करना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त नज़र रखना ग़ुलामी माना जाता है। 1857 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ग़ुलामी की चरम अवस्था 'किसी पर मालिकाना हक़ जताने' को मानता है। फ़िलहाल दासता की श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मज़दूरी, यौन दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल है।

अमेरिका में क़रीब 60 देशों से लाए गए करोड़ों लोग ग़ुलाम के तौर पर ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं। ब्राज़ील में भी लाखों ग़ुलाम हैं। हालांकि वहां के श्रम विभाग के मुताबिक़ इन ग़ुलामों की तादाद क़रीब 50 हज़ार है और हर साल लगभग सात हज़ार ग़ुलाम यहां लाए जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद लाखों में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2003 में चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका में भी बड़ी तादाद में ग़ुलाम हैं, जिनसे बाग़ानों और उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में ग़ुलामी प्रथा को बढ़ावा मिला।

पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार की मान्यता मिली हुई है। यहां अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मज़दूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में ग़ुलामों को ले जाने के लिए जहाज़ों का इस्तेमाल किया जाता था। इन जहाज़ों में ग़ुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएं और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई ग़ुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर अपनी जान दे देते थे। चीन और बर्मा में भी गुलामों की हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारख़ानों और खेतों में काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और फ़िलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता है।

दक्षिण एशिया ख़ासकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में ग़रीबी से तंग लोग ग़ुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर ग़ुलाम प्रथा जारी है। हालांकि सरकार ने 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था,मगर इसके बावजूद सिलसिला आज भी जारी है। यह कहना गलत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते इसमें इज़ाफ़ा ही हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ मज़दूरी जारी है। भारत के श्रम व रोज़गार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च तक देशभर में दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें मुक्त कराया गया। नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ मज़दूर को पुनर्वासित नहीं किया गया। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 65 हज़ार 573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कनार्टक में 63 हज़ार 437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज़्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हज़ार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई।

भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, बीजए रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए क़र्ज़ लेते रहे हैं। इस क़ज़ के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं। क़र्ज़ से कई गुना रक़म चुकाने के बाद भी जब उनका क़र्ज़ नहीं उतर पाता। यहां तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं।

बिहार के गांव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मज़बूर जवाहर मांझी को 40 किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ 30 साल तक बंधुआ मज़दूरी करनी पड़ी। क़रीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नज़र में आया। मामले के मुताबिक़ 33 साल पहले जवाहर मांझी ने एक विवाह समारोह के लिए ज़मींदार से 40 किलो चावल लिए। उस वक्त तय हुआ कि उसे ज़मींदार के खेत पर काम करना होगा और एक दिन की मज़दूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक तक मज़दूरी करने के बावजूद ज़मींदार के 40 किलो का क़र्ज़ नहीं उतर पाया। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल के मुताबिक़ भारत में देहात में बंधुआ मज़दूरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएं और बच्चे बंधुआ मज़दूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी यही हालत है।

देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मज़दूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती। अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के ज़रिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिक सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।

दास प्रथा की शुरुआत की कई सदी पहले हुई थी। बताया जाता है कि चीन में 18-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व ग़ुलामी प्रथा का ज़िक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 650 ईस्वी से 1905 के दौरान पौने दो क़रोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी साम्राज्य में बेचा गया। 15वीं शताब्दी में अफ्रीका के लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। 1867 में क़रीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में ग़ुलाम के तौर पर बेच दिया गया।

ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद होने लगीं। इस पर 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन क़ानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख्त पर पाबंदी लगा दी। 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने ग़ुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 1833 तक यह क़ानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। कहने को तो भारत में बंधुआ मज़दूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबक़े की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम क़ानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मज़दूरों को शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार जैसे संगठनों को ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम को और तेज़ करना होगा। साथ ही ग़ुलामों को मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। इसमें बात में कोई राय नहीं है कि विभिन्न देशों में अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की ज़िन्दगी बसर कर सकें।

Wednesday, October 20, 2010

हरियाणा के किसान ने बनाई बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन

फ़िरदौस ख़ान
हरित क्रांति के लिए अग्रणी हरियाणा को कृषि के क्षेत्र में सिरमौर बनाने में यहां के किसानों की अहम भूमिका है. यहां के किसानों ने न केवल खेतीबाड़ी में नित नए प्रयोग किए हैं, बल्कि तकनीकी क्षेत्र में भी अपनी योग्यता का परचम लहराया है. ऐसे ही एक किसान हैं यमुनानगर ज़िले के गांव दामला के धर्मवीर, जिन्होंने बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन बनाकर इस क्षेत्र में एक नई क्रांति को जन्म दिया है. इस मशीन से जूसर, ग्राइंडर, कुकर और मिक्सर का काम एक साथ लिया जा सकता है.

जड़ी-बूटियों की खेती करने वाले धर्मवीर बताते हैं कि उनका कारोबार जड़ी-बूटियों का है. वह अपने खेतों में उगी औषधियों को तैयार करके बाज़ार में बेचते हैं. औषधियों को पीसना, उनका जूस और अर्क़ निकालना बहुत मेहनत का काम है और इसमें समय भी ज़्यादा लगता है. साथ ही लेबर का ख़र्च बढ़ने से लागत भी ज़्यादा हो जाती है. इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न ऐसी कोई मशीन बनाई जाए, जिससे उनका काम आसान हो जाए. उन्होंने वर्ष 2006 में बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन बनाई. उन्होंने क़रीब एक साल तक इस मशीन से जड़ी-बूटियों, गुलाब, ऐलोवेरा (धूतकुमारी), आंवला, जामुन, केला और टमाटर की प्रोसेसिंग करके विभिन्न उत्पाद तैयार किए. गुलाब का अर्क़, केले के छिलके का अर्क़, जामुन का जूस और जामुन की गुठली का पाउडर भी इससे तैयार किया. मशीन में जड़ी-बूटियों और फल-सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग करके पांच-छह उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं. इन मशीन से एलोवेरा और आंवले की जैली, जूस, शैंपू, चूर्ण, तेल और मिठाई बना सकती है.

उनका कहना है कि छह फ़ीट ऊंची इस मशीन की क़ीमत एक लाख 35 हज़ार रुपये रखी गई है. इस मशीन का कुकर, मिक्सर और ग्राइंडर एक घंटे में क़रीब 150 किलोग्राम जड़ी-बूटियों और फल-सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग करने में सक्षम है. मशीन में तीन टैंक लगे हैं, एक बड़ा और दो छोटे टैंक. बड़े टैक्स से जुड़े एक छोटे टैंक में अरंडी का तेल भरा होता है. जड़ी-बूटियां और फल-सब्जियां पकाते समय जलते नहीं हैं, क्योंकि अरंडी तेल से भरा टैंक अतिरिक्त ताप को सोख लेता है. मशीन को चलाने के लिए दो एचपी की मोटर लगी है. इस मशीन को चलाने के लिए पांच-छह लोगों की ज़रूरत होती है. यह मशीन छोटी फूड प्रोसेसिंग इकाइयों के लिए बड़ी उपयोगी हो सकती है. यह मशीन हल्की होने के कारण इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है.

उन्होंने बताया कि वर्ष 2006 में ही उनकी इस मशीन को फूड प्रोडक्ड ऑर्डर (एफपीओ) 1955 के तहत लाइसेंस मिल गया था. इसके अलावा अहमदाबाद के नेशनल इन्नोवेशन फ़ाउंडेशन (एनआईएफ) ने भी इस मशीन को उपयोगी माना है. उन्होंने सबसे पहले करनाल के नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीटयूट (एनडीआरआई) में आयोजित किसान मेले में इस मशीन को प्रदर्शित किया था, जहां इसे बहुत सराहा गया. इसके बाद वह हरियाणा के अलावा अन्य राज्यों में भी इस मशीन का प्रदर्शन करने लगे. वह बताते हैं कि वर्ष 2008 से इस मशीन की कॉमर्शियल बिक्री कर रहे हैं और अब तक 25 मशीनें बेच चुके हैं. उनका कहना है कि यह मशीन हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल सरकार के बाग़वानी विभागों ने ख़रीदी है, ताकि फूड प्रोसेसिंग से जुड़े उद्यमियों के सामने इसे प्रदर्शित किया जा सके. वह बताते है कि राज्य में फूड प्रोसेसिंग इकाई संचालित करने वाले एक उद्यमी ने यह मशीन लगाई है.

उन्होंने 20 जून को नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित एसोचैम हर्बल इंटरनेशनल एक्सपो मेले में भी इस मशीन को प्रदर्शित किया था. इसमें आयुष विभाग, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार, विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय, राष्ट्रीय औषधि पादक विभाग के दिल्ली, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, सिक्किम, पंजाब और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों के किसानों व कंपनियों ने अपने-अपने उत्पादों को प्रदर्शित किया. उन्होंने हरियाणा के बाग़वानी विभाग की तरफ़ से मेले का प्रतिनिधित्व किया. इसमें उनके द्वारा निर्मित प्राकृतिक उत्पादनों को प्रदर्शित किया गया. उसके द्वारा निर्मित प्राकृतिक उत्पादनों को देखकर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री दिनेश त्रिवेदी इतने प्रभावित हुए कि कार्यक्रम का सबसे ज़्यादा समय हरियाणा के इस स्टॉल पर व्यतीत किया. किसान द्वारा तैयार किए गए हर्बल उत्पादों में गहन रुचि दिखाई. उन्होंने कहा कि यह हमारे देश का ही नहीं, बल्कि विश्व का भविष्य है. धर्मवीर ने बताया कि मेले में आने वाले देश-विदेश से प्रतिनिधि, कंपनियों व अधिकारियों ने उसके द्वारा निर्मित प्रोसेसिंग मशीन में ख़ासी दिलचस्पी ली. उन्होंने इस मशीन को किसानों के लिए 'वरदान' बताते हुए कहा कि इससे किसानों की आर्थिक दशा सुधारने में मदद मिलेगी. इस उपलब्धि के लिए धर्मवीर को पिछले साल 18 नवंबर को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया था. इसके अलावा कई संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानित किया है.

Thursday, October 7, 2010

जब मुस्लिम वालिद को मिली थी हिन्दू बेटी


फ़िरदौस ख़ान
मज़हब के नाम पर जहां लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे रहते हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सिर्फ़ इंसानियत को ही तरजीह देते हैं. ऐसे लोग ही समाज का आदर्श होते हैं। ऐसा ही एक वाक़िया है, जो किसी फ़िल्मी कहानी जैसा लगता है, मगर है बिल्कुल हक़ीक़त. इसमें एक ग़रीब मुस्लिम व्यक्ति को रास्ते में एक अनाथ हिन्दू बच्ची मिलती है और वह उसे अपनी बेटी की तरह पालता है, उसके युवा होने पर पुलिस को इसकी ख़बर लग जाती है और वे लड़की को ले जाती है. फिर बूढ़ा मुस्लिम पिता अपनी हिन्दू बेटी को पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाता है. सबसे अहम बात यह है कि उसे अदालत से अपनी बेटी मिल जाती है और फिर दोनों ख़ुशी-ख़ुशी साथ रहने लगते हैं.

ग़ौरतलब है कि गुजरात के भड़ूच के समीपवर्ती गांव तनकरिया में रहने वाले क़रीब 60 वर्षीय जादूगर सरफ़राज़ क़ादरी वर्ष 1995 में मध्यप्रदेश के इटारसी शहर में जादू का खेल दिखाने गए थे. वहां से लौटते वक़्त उन्हें रेलवे स्टेशन पर रोती हुई एक बच्ची मिली. जब उन्होंने बच्ची से उसका नाम और पता पूछा तो वह कुछ भी बताने में असमर्थ रही. उन्हें उस बच्ची पर तरह आ गया और वे उसे अपने साथ घर ले आए. बच्ची के मिलने से कुछ साल पहले ही उनकी पत्नी, बच्चों एक बेटी और एक बेटे की मौत हो चुकी थी. उन्हें इस बच्ची में के रूप में अपनी ही बेटी नज़र आई. चुनांचे उन्होंने इस बच्ची को पालने का फ़ैसला ले लिया. बच्ची से मिलने के कुछ साल बाद ही उनके पास जादू का खेल सीखने के लिए एक लड़का और उसकी बहन आए. वे उनके ही घर रहने लगे. मगर दोनों ने अपने परिवार वालों को इसकी जानकारी नहीं दी. बच्चों के पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी. इस पर पुलिस क़ादरी के घर पहुंच गई. जांच के दौरान पुलिस को मुन्नी पर भी शक हुआ. पूछताछ में मामला सामने आने के बाद पुलिस मुन्नी को अपने साथ ले गई. इसके बाद क़ादरी ने 25 अगस्त 2008 को अदालत में एक याचिका दायर कर वर्षा पटेल उर्फ़ मुन्नी को वापस दिलाने की मांग की, लेकिन अदालत द्वारा क़ादरी का आवेदन ठुकराए जाने के बाद मुन्नी को महिला संरक्षण गृह में रखा गया.

क़ादरी ने अदालत में कहा था कि उन्होंने मुन्नी को बेटी की तरह पाला है, इसलिए उन्हें ही उसका संरक्षण मिलना चाहिए. अदालत का कहना था कि नाबालिग़ लड़की मिलने पर पुलिस को इसकी सूचना या उसके हवाले किया जाना चाहिए, जो क़ादिर ने नहीं किया. वह लड़की को भले ही अपनी बेटी मानता हो, लेकिन उसके पास इसका कोई सबूत नहीं है.

तमाम परेशानियों के बावजूद क़ादरी ने हार नहीं मानी और आख़िर उनकी मेहनत रंग लाई. 14 दिसंबर 2008 में भड़ूच की एक फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के न्यायाधीश एचके घायल ने मुख्य न्यायायिक मजिस्ट्रेट के फ़ैसले को पलटते हुए क़ादरी को मुन्नी के पालन-पोषण का ज़िम्मा सौंपने का आदेश दिया. अदालत ने पाया कि क़ादरी का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है और मुन्नी अपनी मर्ज़ी से ही क़ादरी के साथ ही रह रही है. अदालत में दिए बयान में मुन्नी ने कहा था कि वह अपने पिता क़ादरी के साथ ही रहना चाहती है. उसका यह भी कहना था कि उसके अपने पिता का नाम जगदीश भाई के रूप में याद है, लेकिन मां का नाम उसे याद नहीं है. उसने यह भी कहा कि वह 18 साल की हो चुकी है.

यह वाक़िया उन लोगों के लिए नज़ीर है, जो नफ़रत को बढ़ावा देते हैं. कभी मज़हब के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर तो कभी प्रांत विशेष के नाम पर बेक़सूर लोगों का ख़ून बहाकर अपनी जय-जयकार कराते हैं. कुछ भी हो, आख़िर में जीत तो इंसानियत की ही होती है.

Tuesday, October 5, 2010

क्या मुसलमान महज़ ‘वोट बैंक’ हैं


बाबरी मस्जिद मामले में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के बयान ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आख़िर मुसलमानों को महज़ ‘वोट बैंक’ ही क्यों समझा जाता है? मुसलमान भी इस मुल्क के बाशिंदे हैं… अगर मुलायम सिंह मुसलमानों के इतने बड़े ‘हितैषी’ हैं तो यह बताएं कि…उनके शासनकाल में उत्तर प्रदेश में कितने फ़ीसदी मुसलमानों को सरकारी नौकरियां दी गईं…? मुलायम सिंह आज मुसलमानों के लिए मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं…मुलायम सिंह को उस वक़्त मुसलमानों का ख़्याल क्यों नहीं आया, जब वो बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए ज़िम्मेदार रहे कल्याण सिंह से हाथ मिला रहे थे…?

गौरतलब है कि मुलायम सिंह ने बाबरी मस्जिद मामले में अयोध्या मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि अयोध्या विवाद पर आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले से मुस्लिम ठगा सा महसूस कर रहे हैं…हालांकि कई मुस्लिम नेताओं ने मुलायम सिंह यादव के इस बयान की कड़ी निंदा करते हुए कहा है कि इस वक़्त इस तरह के सियासी बयान देकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए…

कभी मुलायम सिंह के बेहद क़रीबी रहे अमर सिंह ने मुलायम सिंह पर टिप्पणी करते हुए अपने ब्लॉग पर लिखा है कि…अचरज तो तब होता है, जब अयोध्या में तोड़फोड़ मचाने वाले सरगना साक्षी महाराज को राज्यसभा में, विहिप के विष्णु हरि डालमिया के फरज़न्द संजय डालमिया को राज्यसभा में, कल्याण सिंह के साहबज़ादे राजवीर सिंह को अपने मंत्रिमंडल में और स्वयं कल्याण सिंह को सपा अधिवेशन में शिरकत कराने वाले ‘मौलाना मुलायम’ मुस्लिम वोटों के लिए तौहीने-अदालत करते नज़र आते हैं. अमर सिंह का भी कहना है कि अयोध्या फ़ैसले के बाद दूरदर्शन देखते हुए एक बात अच्छी देखी. लालकृष्ण आडवाणी, मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी, जफरयाब जिलानीजी और सुन्नी वक्फ बोर्ड के हाशिम अंसारी के बयान में चैन, अमन और शांति का माहौल बनाए रखने की बात दिखी. अमर सिंह ने कहा कि पहली बार बाबरी के मसले पर मुकदमा लड़ने वाले दोनों पक्षों ने कोई भड़काऊ बयान न देकर सियासतदाओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

अगर सपा जैसे तथाकथित सेकुलर सियासी दल मुसलमानों के इतने बड़े ‘हितैषी’ हैं तो आज़ादी के क़रीब छह दशक बाद मुसलमानों की हालत इतनी बदतर क्यों हो गई कि उनकी स्थिति का पता लगाने के लिए सरकार को सच्चर जैसी समितियों का गठन करना पड़ा…? क़ाबिले-गौर है कि भारत में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए नियुक्त की गई सच्चर समिति ने 17 नवंबर 2007 को जारी अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा की स्थिति अन्य समुदायों की तुलना में काफ़ी ख़राब है…समिति ने मुसलमानों ही स्थिति में सुधार के लिए शिक्षा और आर्थिक क्षेत्रों में विशेष कार्यक्रम चलाए जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अक्टूबर 2005 में न्यायधीश राजिंदर सच्चर के नेतृत्व में यह समिति बनाई थी.

सात सदस्यीय सच्चर समिति ने देश के कई राज्यों में सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थानों से मिली जानकारी के आधार पर बनाई अपनी रिपोर्ट में देश में मुसलमानों की काफ़ी चिंताजनक तस्वीर पेश की थी… रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि देश में मुस्लिम समुदाय आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा के क्षेत्र में अन्य समुदायों के मुक़ाबले बेहद पिछड़ा हुआ है. इस समुदाय के पास शिक्षा के अवसरों की कमी है, सरकारी और निजी उद्दोगों में भी उसकी आबादी के मुक़ाबले उसका प्रतिनिधित्व काफ़ी कम है.

अब सवाल यह है कि मुसलमानों की इस हालत के लिए कौन ज़िम्मेदार है…? क्योंकि आज़ादी के बाद से अब तक अमूमन देश की सत्ता तथाकथित सेकुलर दलों के हाथों में ही रही है…
-फ़िरदौस ख़ान 

Monday, October 4, 2010

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना...


आज राष्ट्रीय अखंडता दिवस  है...

फ़िरदौस ख़ान
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है, हिन्दोस्तां हमारा...
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है। दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं। दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफ़ें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं. लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं.

ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है. क़रीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारख़ाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं. वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ़ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था. बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया. रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था. इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फ़ैसला कर लिया. इस वाकिये को क़रीब छह साल बीत चुके हैं. रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है. उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं. उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी. बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है. उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है. जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा, तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया. उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक़ रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक़ सिखाता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे. इनमें से तक़रीबन तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की. युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फ़साद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज़्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं. हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं. इनकी तादाद मरने वाले लोगों से क़रीब 25 गुना ज़्यादा होती है. हर साल क़रीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नज़दीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं.

इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुक़सान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है. कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है. भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है. आज़ादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है.

दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं. बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए. हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही ‘वही ढाक के तीन पात’ रहा. आख़िर दंगा पीड़ितों की आंखें इंसाफ़ की राह देखते-देखते पथरा गईं, लेकिन किसी ने उनकी सुध नहीं ली.

सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मक़सद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैंक.

ग़ौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है. हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा. इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं. इससे जहां रोज़मर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फ़साद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी. अहिंसक जीवन जीने के लिए यह ज़रूरी है कि ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की प्रवृत्ति को अपनाया जाए. अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं. देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए यह भी ज़रूरी है कि सांप्रदायिक मुद्दों को आपसी बातचीत से हल किया जाए.

Sunday, October 3, 2010

ब्लॉग इन प्रिंट मीडिया...एक शानदार तोहफ़ा

ब्लॉग की दुनिया में श्री बी एस पाबला  का अहम मुक़ाम है...विन्रम और हर वक़्त दूसरों की मदद के लिए तैयार रहने वाले पाबला जी ने ब्लॉग इन प्रिंट मीडिया की सूरत में ब्लॉगरों को जो तोहफ़ा दिया है, उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है... ब्लॉग इन प्रिंट मीडिया के  ज़रिये ब्लॉगरों को यह मालूम हो जाता है कि देश के किन किन अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके ब्लॉग छाए हुए हैं... सबसे ख़ास बात यह भी है कि ब्लॉग इन प्रिंट मीडिया अख़बारों और पत्रिकाओं की कतरें भी शामिल रहती हैं...
ब्लॉग इन प्रिंट मीडिया का ख़्याल कैसे आया? यह पूछने पर पाबला जी बताते हैं कि हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन एक स्थान पर पाये जाने वाली पोस्ट के बाद, एक दिन मुझे अपने ही ब्लॉग का जिक्र समाचार पत्र में किये जाने की खबर लगी। बताने वाला यह नहीं बता पाया कि समाचार-पत्र कौन सा था, लेकिन पोस्ट ज़रूर बता दी। उत्सुकता हुयी कि आखिर वह कहां छपी है और क्या लिखा गया है। हमने पता लगाना शुरू किया। 'विक्टोरिया नम्बर 203' जैसा बड़ी टेढ़ी खीर वाला लगा यह काम। चाबी (पोस्ट) थी, लेकिन ताला (समाचार पत्र) नहीं! फिर खबर लगी कि 'उसे' एक ऐसे न्यूज़ पेपर पर देखा गया है जिसका एक संस्करण हमारे क्षेत्र से भी निकलता है। हमने अंदाजा लगाया और तीर निशाने पर बैठा। हमने सोचा, पता नहीं ऐसे कितने ही ब्लॉगर होंगें, जिन्हें मालूम भी नहीं होता होगा कि उनकी किसी पोस्ट की, किसी समाचार पत्र या पत्रिका या ऐसे ही किसी प्रिंट मीडिया में तारीफ की गयी है, चर्चा की गयी है, उद्धृत किया गया है। पता चल भी जाये तो उसकी झलक पाने के लिए कितने ही पापड़ बेलने पड़ते होंगे। इस सोच का परिणाम यह निकला कि एक ब्लॉग बना डाला गया 'प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा'। अपने ब्लॉग पोस्ट की कतरन तलाशी में जितनी जानकारी मिली, सभी इस ब्लॉग में डालनी शुरू कर दी। अब समस्या यह आयी कि किस कतरन को पहले रखा जाये किसे पीछे। समाधान यह निकाला गया कि जिस तारीख की कतरन है, उसी तारीख पर संबंधित पोस्ट लिखी जाए, फिर भले ही वह दो-तीन साल पहले की हो। बड़ा समय खाऊ काम लगा। वैसे ही व्यस्तता रहती है। मैंने सोचा जब बना ही लिया है यह सूचनात्मक ब्लॉग, तो क्यों न इसमें उनको शामिल किया जाए जिनके ब्लॉग की चर्चा की गयी है या जिन्होंने उन ब्लॉग लेखकों को सूचना दी है उसके जिक्र की।

पाबला जी कहते हैं कि आप अभी तक ब्लॉगवाणी , चिट्ठाजगत, रफ़्तार, गुरुजी आदि ब्लॉग संकलकों के द्वारा विभिन्न ब्लॉगों तक जाते होंगे किन्तु इस प्रिंट मीडिया वाले ब्लॉग के वेबसाईट में ढल जाने पर, आप उन ब्लॉगों तक अपनी पहुँच आसान बना सकेंगे जिन्हें प्रिंट मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न, वेब-पत्रिकाओं ने स्थान दे उनकी उपयोगिता सिद्ध की है। परिणामस्वरूप, हालिया परिदृष्य में, बेहतर हिन्दी ब्लॉगों की तलाश में संतुष्ट हुया जा सकेगा।

तो फिर देर किस बात की? आईए इस नए नवेले अनोखे ब्लॉग-एग्रीगेटर www.BlogsInMedia.com का स्वागत करें जो केवल संचार माध्यमों में उल्लेखित हिन्दी ब्लॉगों का संकलन करेगा। यह निश्चित तौर पर अविवादित भी होगा क्योंकि ब्लॉग लेखक व एग्रीगेटर के मध्य आकलनकर्ता के रूप में मीडिया के अन्य कारक भी शामिल होंगे।

हिंदी ब्लॉगरों के जन्मदिन  के जन्मदिन वाले ब्लॉग का ज़िक्र करते हुए पाबला जी कहते हैं कि 18 मार्च को अनिता कुमार जी के जनमदिन के पहले, 12 मार्च को लवली कुमारी का जनमदिन था। प्रशांत की एक पोस्ट के जरिये देर से पता चला। दिन भर किसी के भी द्वारा कोई शुभकामना संदेश न पाने की उनकी उदासी ने, मुझे कहीं छू लिया। ऐसे मौकों पर मुझमें बड़ा उत्साह रहता है। क्योंकि आजकल के सामाजिक परिवर्तन के दौर में, कम से कम, साल के एक दिन तो किसी को शुभकामनाये देने का मौका/ बहाना मिल पाता है। इसी उत्साह और लवली के शब्द पढ़ उन्हें, देर से ही सही लेकिन, बधाई देने का मन हो आया। आनन-फानन में उनके फोन नम्बर की माँग की, उनके परिचित ब्लॉगरों से, जो स्वाभाविक रूप से हिचकिचा गये। तुरंत हमने भी बातों का रूख बदल कर, अपनी लापरवाही का दिखावा किया और पोस्ट पर ही टिप्पणी के रूप में शुभकामनाये देने की सोची। टिप्पणी के समय इंटरनेट देव रूठ गये और बात आयी गयी हो गयी।


मन में यह ख्याल आया कि कई बार, हममें से कितने ही व्यक्ति चाहकर भी, समय पर या देर से, शुभकामनायें नहीं दे पाते होंगे क्योंकि उन्हें पता ही नहीं रहता। कोई ऐसा स्थान मेरी जानकारी में नहीं है, जहाँ एक साथ सभी हिंदी ब्लॉगरों का डाटा सार्वजनिक अवस्था में मिल जाये। हालांकि इंटरनेट पर बहुतेरी सोशल नेट्वर्किंग वेबसाईट्स हैं जिनमें आप अपना/ अपनों का, जनमदिन आदि का रिकॉर्ड रख सकते हैं। वहाँ समस्या यह है कि आपको अपने किसी अलग से यूज़र नेम और पासवर्ड से घुसना पड़ेगा। इसके अलावा व्यर्थ के डाटा भी आपको देने पड़ते हैं, ईमेल आईडी के व्यवसायिक दुरूपयोग की भी संभावना रहती है।

इसलिए मैंने स्वयं के लिए, गूगल की सहायता से, एक कैलेंडर बनाया है। जैसे-जैसे जानकारी मिलती जायेगी, उसमें डालता जाऊंगा। कम से कम इधर-उधर भटकने की ज़रूरत तो नहीं होगी। वह कैलेंडर सार्वजनिक है, इसलिए आप भी देख पायेंगे, अपनों हिंदी ब्लॉगरों की विभिन्न वर्षगांठों को।

यह कैलेंडर मूल रूप में मेरे ब्लॉग पर सबसे नीचे मौज़ूद है. लेकिन इसे सीधे http://janamdin.blogspot.com/ पर देखा जा सकता है। इसका निर्माण इस पोस्ट के लिखते-लिखते ही किया गया है, इसलिए किसी तरह की साज सज्जा नहीं हो पाई है, बाद में आप की प्रतिक्रिया के अनुसार इसे संवारा जाएगा। वह कहते हैं कि आप स्वयं की या किसी और हिंदी ब्लॉगर की जानकारी देना चाहें तो मेरे ईमेल पर भेज दें। ईमेल पता मेरे प्रोफाईल पर उपलब्ध है।

ब्लॉग जगत के लिए की जाने वाली इस निस्वार्थ सेवा के लिए पाबला जी को हार्दिक शुभकामनाएं...