Friday, February 11, 2022

और अल्लाह ने खाना भेज दिया...

 

साल 2005 का वाक़िया है. नवम्बर का महीना था. हम अपनी अम्मी के साथ उत्तर प्रदेश के एक गांव में गए हुए थे. गांव के एक बुज़ुर्ग के साथ हम घूमने निकले. उनके साथ कांग्रेस के एक नेता और उनके चाचा नवाब साहब भी थे. दोपहर हो गई. सबको बहुत भूख लगी थी. बुज़ुर्ग ने कहा कि बहुत भूख लग रही है. घर वापस लौटने में बहुत देर हो जाएगी और यहां दूर-दूर ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा, जहां जाकर कुछ खा-पी सकें. उनकी यह बात सुनकर हमारी अम्मी ने कहा- “मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.” इस पर वे बुज़ुर्ग तंज़िया मुस्कराने लगे. अभी चन्द घड़ियां ही गुज़री थीं कि साईकिल पर सफ़ेद लिबास में एक शख़्स आया. उसने सबको सलाम किया और उन बुज़ुर्ग के हाथ में एक थैली थमाकर चला गया. उन्होंने थैली खोली, तो उसमें गरमा-गरम समौसे थे. नवाब साहब ने बुज़ुर्ग से उस शख़्स के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि वे उसे नहीं जानते.
इस पर हमारी अम्मी ने बुज़ुर्ग से कहा- “क्या मैंने आपसे नहीं कहा था कि मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.”
-फ़िरदौस ख़ान
हमारी अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी
(शेख़ज़ादी का वाक़िया)
#शेख़ज़ादी_का_वाक़िया

Thursday, February 10, 2022

अब्र का साया

 


कई बरस पहले का वाक़िया है. एक रोज़ हमारी छोटी बहन ने अम्मी को फ़ोन किया कि आपसे मिलने का दिल कर रहा है. अम्मी ने उससे मिलने का वादा कर लिया. चुनांचे ज़ुहर की नमाज़ के बाद अम्मी और हम उससे मिलने के लिए घर से निकले. वह शायद जेठ का महीना था. शिद्दत की गर्मी थी. सूरज आग बरसा रहा था. अम्मी कहने लगीं कि काश ! बादल होते. हमने आसमान की तरफ़ रुख़ करके कहा कि आसमान में दूर-दूर तक बादल का कोई नामो निशान तक नहीं है. हमारी बात ख़त्म भी न होने पाई थी कि हमने ज़मीन पर साया देखा. वह साया इतना वसीह था कि अम्मी और हम उसके नीचे थे. यानी हम घर से दस क़दम भी आगे नहीं बढ़े थे कि हम दोनों अब्र के सायेबान में थे. हम यूं ही बातें करते-करते बहन के घर गए. वहां कुछ वक़्त रुके और फिर वापस घर आ गए. जब हम घर आ गए, तो अम्मी ने हमसे पूछा- ये बताओ कि क्या तुम धूप में गई थीं या अब्र के साये में. हमने ग़ौर किया कि वाक़ई हम अब्र के साये में ही गए थे और अब्र के साये में ही घर वापस आए थे. जैसे-जैसे हम आगे क़दम बढ़ा रहे थे, वैसे-वैसे ही अब्र का साया भी आगे बढ़ता जा रहा था.
ये अल्लाह का एक बहुत बड़ा मौजिज़ा था. ऐसे थीं हमारी अम्मी. अल्लाह उन्हें जन्नतुल फ़िरदौस में आला मक़ाम अता करे, आमीन   
(शेख़ज़ादी का वाक़िया) 
#शेख़ज़ादी_का_वाक़िया
 

Wednesday, February 9, 2022

काश ! ऐसी औरतों के लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती!

काश ! ऐसी औरतों के लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती!       
हमारी गली में रोज़ न जाने कितनी ही औरतें ऐसी आती हैं, जो रो-रोकर रोटी और आटा मांगती हैं. पूछने पर एक औरत ने बताया कि उसके शौहर ने तीन तलाक़ देकर उसे घर से निकाल दिया और नई बीवी ले आया. उसकी पांच बेटियां हैं. वे किराये के 7x8 फ़ीट के कमरे में रह रही है. काम न मिलने पर भीख मांगनी पड़ती है. 
मुआशरे में ऐसी से औरतों की तादाद लाखों-करोड़ों में होगी. काश ! इनके हक़ के लिए भी कोई आवाज़ बुलन्द करता. इनके लिए भी क़ौम की 'ग़ैरत' जागती! 
#तीन_तलाक़

Monday, February 7, 2022

सूफ़ियाना बसंत पंचमी

 

फ़िरदौस ख़ान
बसंत पंचमी को जश्ने बहारा भी कहा जाता है, क्योंकि बसंत पंचमी बहार के मौसम का पैग़ाम लाती है. सूफ़ियों के लिए बंसत पंचमी का दिन बहुत ख़ास होता है. ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाई जाती है. बसंत का पीला साफ़ा बांधे मुरीद बसंत के गीत गाते हैं. बसंत पंचमी के दिन मज़ारों पर पीली चादरें चढ़ाई जाती हैं. पीले फूलों की भी चादरें चढ़ाई जाती हैं, पीले फूल चढ़ाए जाते हैं. क़व्वाल पीले साफ़े बांधकर हज़रत अमीर ख़ुसरो के गीत गाते हैं.
आज बसंत मना ले सुहागन
आज बसंत मना ले  
अंजन–मंजन कर पिया मोरी
लंबे नेहर लगाए
तू क्या सोवे नींद की माटी
सो जागे तेरे भाग सुहागन
आज बसंत मना ले
ऊंची नार के ऊंचे चितवन
ऐसो दियो है बनाय
शाहे अमीर तोहे देखन को
नैनों से नैना मिलाय
आज बसंत मना ले, सुहागन
आज बसंत मना ले  

कहा जाता है कि ख़ानकाहों में बसंत पंचमी मनाने की यह रिवायत हज़रत अमीर ख़ुसरो ने शुरू की थी. हुआ यूं कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रहमतुल्लाह) को अपने भांजे हज़रत सैयद नूह के विसाल से बहुत सदमा पहुंचा और वह उदास रहने लगे. हज़रत अमीर ख़ुसरो से अपने मुर्शिद की यह हालत देखी न गई. वे उन्हें ख़ुश करने के जतन करने लगे, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. एक दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो अपने साथियों के साथ कहीं जा रहे थे. नीले आसमान पर सूरज दमक रहा था. उसकी सुनहरी किरनें ज़मीन पर पड़ रही थीं. उन्होंने रास्ते में सरसों के खेत देखे. सरसों के पीले फूल बहती हवा से लहलहा रहे थे. उनकी ख़ूबसूरती हज़रत अमीर ख़ुसरो की निगाहों में बस गई और वे वहीं खड़े होकर फूलों को निहारने लगे. तभी उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पास कुछ हिन्दू श्रद्धालु हर्षोल्लास से नाच गा रहे हैं. यह देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगा. उन्होंने इस बारे में पूछा तो श्रद्धालुओं ने बताया कि आज बसंत पंचमी है और वे लोग देवी सरस्वती पर पीले फूल चढ़ाने जा रहे हैं, ताकि देवी ख़ुश हो जाए.
इस पर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने सोचा कि वे भी अपने पीर मुर्शिद, अपने औलिया को पीले फूल देकर ख़ुश करेंगे. फिर क्या था. उन्होंने पीले फूलों के गुलदस्ते बनाए और कुछ पीले फूल अपने साफ़े में भी लगा लिए. फिर वे अपने पीर भाइयों और क़व्वालों को साथ लेकर नाचते-गाते हुए अपने मुर्शिद के पास पहुंच गए. अपने मुरीदों को इस तरह नाचते-गाते देखकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. और इस तरह बसंत पंचमी के दिन हज़रत अमीर ख़ुसरो को उनकी मनचाही मुराद मिल गई. तब से हज़रत अमीर ख़ुसरो हर साल बसंत पंचमी मनाने लगे. 
अमीर ख़ुसरो को सरसों के पीले फूल इतने भाये कि उन्होंने इन पर एक गीत लिखा-   
सगन बिन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियां गेंदवा ले आईं कर सों
सगन बिन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खिलाए
ले गेंदवा हाथन में आए
निज़ामुद्दीन के दरवज़्ज़े पर
आवन कह गए आशिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सगन बिन फूल रही सरसों

ग़ौरतलब है कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रहमतुल्लाह) चिश्ती सिलसिले के औलिया हैं. उनकी ख़ानकाह में बंसत पंचमी की शुरुआत होने के बाद दूसरी दरगाहों और ख़ानकाहों में भी बंसत पंचमी बड़ी धूमधाम से मनाई जाने लगी. इस दिन मुशायरों का भी आयोजन किया जाता है, जिनमें शायर बंसत पंचमी पर अपना कलाम पढ़ते हैं.
हिन्दुस्तान के अलावा पड़ौसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी बंसत पंचमी को जश्ने बहारा के तौर पर ख़ूब धूमधाम से मनाया जाता है. 
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)