Wednesday, September 3, 2008

आख़िर कब थमेगा भूख से मौतों का सिलसिला

फ़िरदौस ख़ान
मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान

मधेपुरा में भूख से दो लोगों के मरने की ख़बर सियासतदानों के तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलने के लिए काफ़ी है...जिस देश में भूख से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा हो...वह देश किस विकास की बात करता है, यह समझ से परे है...

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर रोज आठ करोड़ 20 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं.भूख से मौत की समस्या आज समूचे विश्व में फैली हुई है. भोजन मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. इस मुद्दे को सबसे पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट ने अपने एक व्याख्यान में उठाया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र ने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लिया और 1948 में भोजन के अधिकार के रूप में इसे स्वीकार किया. वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र परिषद ने इस अधिकार को लागू किया जिसे आज 156 राष्ट्रों की मंजूरी हासिल है और कई देश इसे कानून का दर्जा भी दे रहे हैं. इस कानून के लागू होने से भूख से होने वाली मौतों को रोका जा सकेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक भूख और गरीबी के कारण रोजाना 25 हजार लोगों की मौत हो जाती है. 85 करोड़ 40 लाख लोगों के पास पर्याप्त भोजन नहीं है, जो कि यूएस, कनाडा और यूरोपियन संघ की जनसंख्या से ज्यादा है. भुखमरी के शिकार लोगों में 60 फीसदी महिलाएं हैं. दुनियाभर में भुखमरी के शिकार लोगों में हर साल 40 लाख लोगों का इजाफा हो रहा है. हर पांच सेकेंड में एक बच्चा भूख से दम तोड़ता है. 18 साल से कम उम्र के करीब 35.8 से 45 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं. विकासशील देशों में हर साल पांच साल से कम उम्र के औसतन 10 करोड़ 90 लाख बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं. इनमें से ज्यादातर मौतें कुपोषण और भुखमरी से जनित बीमारियों से होती हैं. कुपोषण संबंधी समस्याओं से निपटने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक विकास व्यय 20 से 30 अरब डॉलर प्रतिवर्ष है. विकासशील देशों में चार में से एक बच्चा कम वजन का है. यह संख्या करीब एक करोड़ 46 लाख है. नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद अल बरदेई ने इस समस्या की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करते हुआ कहा था कि अगर विश्व में सेना पर खर्च होने वाले बजट का एक फीसदी भी इस मद में खर्च किया जाए तो भुखमरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफपीआरआई) के विश्व भुखमरी सूचकांक-2007 में भारत को 118 देशों में 94 वां स्थान मिला था, जबकि पाकिस्तान 88 वें नंबर पर था. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. जहां वर्ष 1989-1992 में 177 किलोग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध था, वहीं अब यह घटकर 155 किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की प्रतिदिन की औसत दर जो 1972-1973 में 2266 किलो कैलोरी थी, वह अब घटकर 2149 किलो कैलोरी रह गई है. करीब तीन चौथाई लोग 2400 किलो कैलोरी से भी कम उपगयोग कर पा रहे हैं. देश में जहां आबादी 1.9 फीसद की दर से बढ़ी है, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 1.7 फीसद की दर से घटा है. गौरतलब है कि करीब दस साल पहले 1996 में रोम में हुए प्रथम विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में वर्ष 2015 तक दुनिया में भूख से होने वाली मौतों की संख्या को आधा करने का संकल्प लिया गया था, लेकिन वर्ष 2007 तक करीब आठ करोड़ लोग भुखमरी का शिकार हो चुके हैं.

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो फसल काटे जाने के बाद खेत में बचे अनाज और बाजार में पड़ी गली-सड़ी सब्जियां बटोरकर किसी तरह उससे अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते हैं. महानगरों में भी भूख से बेहाल लोगों को कूड़ेदानों में से रोटी या ब्रेड के टुकड़ों को उठाते हुए देखा जा सकता है. रोजगार की कमी और गरीबी की मार के चलते कितने ही परिवार चावल के कुछ दानों को पानी में उबालकर पीने को मजबूर हैं. इस हालत में भी सबसे ज्यादा त्याग महिलाओं को ही करना पड़ता है, क्योकिं वे चाहती हैं कि पहले परिवार के पुरुषों और बच्चों को उनका हिस्सा मिल जाए. काबिले-गौर यह भी है कि हमारे देश में एक तरफ अमीरों के वे बच्चे हैं जिन्हें दूध में भी बोर्नविटा की जरूरत होती है तो दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जिन्हें पेटभर चावल का पानी भी नसीब नहीं हो पाता और वे भूख से तड़पते हुए दम तोड़ देते हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि हमारे देश में आजादी के बाद से अब तक गरीबों की भलाई के लिए योजनाएं तो अनेक बनाई गईं, लेकिन लालफीताशाही के चलते वे महज कागजों तक ही सीमित होकर रह गईं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो इसे स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था कि सरकार की ओर से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचे-पहुंचते पांच पैसे ही रह जाता है.

एक तरफ गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ता है तो दूसरी तरफ भूख से लोग मर रहे होते हैं. ऐसी हालत के लिए क्या व्यवस्था सीधे तौर पर दोषी नहीं है?

तस्वीर : अनुराग मुस्कान

3 Comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

जब तक बंटा रहेगा इन्सान, भूख कायम रहेगी।

Unknown said...

आख़िर कब थमेगा भूख से मौतों का सिलसिला...वाक़ई एक संजीदा मुद्दा है...आज़ादी के क़रीब छह दशक बाद भी हमारे मुल्क की अवाम को बुनियादी सहूलियात नहीं मिल पाई हैं...हुकूमत को इस तरफ़ गौर करना चाहिए...

महेन्द्र मिश्र said...

insaniyat nahi rahegi to log bhookhe marenge hai . siyasat ko vote bank se matalab hai.

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