साल 2005 का वाक़िया है. नवम्बर का महीना था. हम अपनी अम्मी के साथ उत्तर प्रदेश के एक गांव में गए हुए थे. गांव के एक बुज़ुर्ग के साथ हम घूमने निकले. उनके साथ कांग्रेस के एक नेता और उनके चाचा नवाब साहब भी थे. दोपहर हो गई. सबको बहुत भूख लगी थी. बुज़ुर्ग ने कहा कि बहुत भूख लग रही है. घर वापस लौटने में बहुत देर हो जाएगी और यहां दूर-दूर ऐसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा, जहां जाकर कुछ खा-पी सकें. उनकी यह बात सुनकर हमारी अम्मी ने कहा- “मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.” इस पर वे बुज़ुर्ग तंज़िया मुस्कराने लगे. अभी चन्द घड़ियां ही गुज़री थीं कि साईकिल पर सफ़ेद लिबास में एक शख़्स आया. उसने सबको सलाम किया और उन बुज़ुर्ग के हाथ में एक थैली थमाकर चला गया. उन्होंने थैली खोली, तो उसमें गरमा-गरम समौसे थे. नवाब साहब ने बुज़ुर्ग से उस शख़्स के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि वे उसे नहीं जानते.
इस पर हमारी अम्मी ने बुज़ुर्ग से कहा- “क्या मैंने आपसे नहीं कहा था कि मैं जहां भी जाती हूं, अल्लाह वहां खाना ज़रूर भेज देता है.”
-फ़िरदौस ख़ान
हमारी अम्मी ख़ुशनूदी ख़ान उर्फ़ चांदनी
(शेख़ज़ादी का वाक़िया)
#शेख़ज़ादी_का_वाक़िया
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1 week ago
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